
माता शबरी की सच्ची भक्ति
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शबरी घने जंगल में कुटी बनाकर भगवान का भजन करती। गुजारे के लिए उसने लकड़ी काटना और पास के गाँव में बेचना अपना रोजगार बना लिया था। परिश्रम की रोटी खाती और भक्ति भाव में अपना समय गुजारती।
समीप ही मातंग ऋषि का आश्रम था। उसमें अनेकों छात्र रहते और पढ़ते। छात्रों को समीपवर्ती सरोवर में प्रातः स्नान के लिए जाना पड़ता, तो मार्ग में पड़े रहे वाले कांटों, कंकड़ों से उनके पैर छिलते। झाड़ियाँ भी घनी हो गई थी, उनने रास्ता घेर लिया था। छात्रों को उसी मार्ग से आना जाना होता। पैरों में शरीर में काँटे चुभ जाते। आये दिन उन्हें इस संकट का सामना करना पड़ता।
शबरी का ध्यान उस ओर गया। उसने सोचा-”क्या मैं इस मार्ग को सुधारने में कुछ सहायता नहीं कर सकती?” वह साधनहीन थी, पर अपने श्रमदान से ऋषि आश्रम से लेकर सरोवर तक का रास्ता तो बुहार ही सकती थी। उसकी उदारता ने जोर मारा।
दूसरे दिन से उसने उस मार्ग को बुहारना आरंभ कर दिया। साथ ही झाड़ियों को काट-छाँट कर रास्ते से अलग करना भी।
विद्यार्थी प्रातः स्नान के लिए अब भी जाते। पर उनमें से किसी को भी काँटे चुभने, कंकड़ों से ठोकरें खाने और झाड़ियों से बदल छिलने की कठिनाई का सामना न करना पड़ा। छात्र आश्चर्य में थे कि जो रास्ता सदा कष्ट दिया करता था, वह अब इतना सरल,सुखद कैसे हो गया? ध्यान से देखा तो प्रतीत हुआ कि कोई उस मार्ग को रोज बुहार जाता है। साथ ही व्यवस्थित भी कर जाता है। वह व्यक्ति कौन है? उससे भेंट तो कभी होती नहीं।
छात्रों ने गुरुदेव से पूछा-”देव, हमारा रास्ता रोज बुहार जाने वाला व्यक्ति कौन है? हम उसके दर्शन तथा कृतज्ञता प्रकट करने के इच्छुक है।”
मतंग मुनि मुस्काये। उनने सहज समाधान किया-”तात्!जो व्यक्ति बिना प्रत्युपकार के आशा से, निस्वार्थ भाव से कार्य करता है, वह यह कार्य सबके सामने नहीं करता है। दिखाने के लिए तो ढोंगी ही ऐसा करते है। तुम उत्सुक ही हो तो बता देता हूँ। वह भगवान को प्रिय जन्म जन्मांतरों से उनसे जुड़ी एक भील महिला है। नाम “शबरी”। तुम देर रात उसे यह सेवा कार्य करते देख सकते हो।”
छात्रों ने उस रात यही किया। वे भील कल में जन्मी अछूत मानी जाने वाली उस साधारण महिला की सेवा साधना देखकर धन्य हो गये। अगले दिन प्रातः अनुग्रह सहित उसे मातंग मुनि के पास लाये व उन्हीं के सक्षम प्रार्थना की कि माता अब आश्रम में ही रहा करें। वहीं का कुछ कामकर निर्वाह वहीं से प्राप्त कर लिया करें। लकड़ी काटने बेचने में तो सभी नष्ट होता है।
शबरी ने यह स्वीकार नहीं किया। बोली-”मैं आपकी सेवा यथावत् करती रहूँगी पर शक्ति रहते पुरुषार्थ से ही निर्वाह की व्यवस्था करूंगी।”समीप ही उसकी झोपड़ी थी। वह वहीं चली गयी व सतत् सेवा कार्य में जुटी रही।
भगवान राम वनवास के दिन बिताते हुए ऋषि मुनियों के आश्रमों में भी उन दिनों जाते व आशीर्वाद लेते थे। शबरी की सेवा साधना का समाचार सुनकर उन से रहा नहीं गया। वे गदगद हो उठे। राम ने मातंग मुनि आश्रम जाने और दर्शन करने का निश्चय किया। तलाश करते हुए वे उसकी कुटी तक पहुँच ही गये। माता शबरी भी कभी भगवान के दर्शन का सुयोग मिले, इसकी कामना किया करत थी।
सुयोग का दिन आया। राम स्वयं शबरी के आश्रम में पहुँचे। इस सुयोग पर वह गदगद हो गई। आतिथ्य की बात सूझ, तो घर में कुछ न था। सूखे बेर किसी कोने में पड़े थे। इनमें से मीठे चख-चख कर छाँट कर राम के सम्मुख रखने लगी। उन्होंने भी सच्ची भक्ति द्वारा दिये गये इस महाप्रसाद को आनंद विभोर होते हुए ग्रहण किया। जातिगत ऊंच-नीच का अभाव प्रभु के मन में आता ही कैसे?
प्रभु राम के शबरी आश्रम में पहुँचने और उसके आतिथ्य को भाव विभोर स्वीकारने की चर्चा दूर-दूर तक फैली। ऐसा मान शबरी को कैसे मिला? एक विज्ञजन ने बताया कि वह आश्रम उपार्जन से गुजारा करने व सेवा धर्म में संलग्न रहने के कारण ही उसे भक्तों में श्रेष्ठ माना गया। भगवान स्वयं अपन भक्त के यहाँ आते है, यह मान्यता सभी ने सत्य पायी।