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Magazine - Year 1988 - Version 2

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मानसिक अस्तव्यस्तता भी थकान का एक कारण

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क्रिया शक्ति में मात्र शरीर का ही नहीं मन का भी योगदान रहता है। दो पहिये की गाड़ी की तरह हमारी सारी गतिविधियाँ शारीरिक और मानसिक स्वस्थता पर निर्भर हैं। पागलों का शरीर स्वास्थ होता हैं। पर वे मन मस्तिष्क की दृष्टि से अस्त व्यस्त होते हैं इसलिए उनका क्रिया−कलाप न तो क्रमबद्ध होता है और न उसके साथ किसी सफलता की संभावना तारतम्य जुड़ता है। क्रियाशील होने के लिए मात्र शारीरिक स्वस्थता ही पर्याप्त नहीं वरन् उसके साथ वह स्फूर्ति भी रहनी चाहिए। जो मन संस्थान में उत्पन्न होती है।

यह ठीक हैं कि शुद्ध अन्न-जल और वायु से शरीर परिपुष्ट होता और उसमें काम करने की क्षमता रहती है। इतने पर भी यह नहीं भूलना चाहिए कि अंग अवयव रेल के डिब्बे मात्र है। उन्हें घसीट ले जाने की शक्ति इंजन में रहती हैं। वह और कुछ नहीं मात्र मन मस्तिष्क ही है।

प्रतिष्ठा का प्रश्न बना कर मनोयोग पूर्वक किये काम सर्वांग सुन्दर होते हैं। मूर्तिकार, चित्रकार, कुम्हार, स्वर्णकार आदि कारीगरों में से कुछ की कृतियाँ बहुमूल्य एवं नयनाभिराम होती है। इसके विपरित कुछ ऐसे भी होते है, जो परिश्रम तो बहुत करते है किन्तु मनोयोग से काम करने में कुबड़े ही रह जाते है। आकृति बनती है पर उसमें न आकर्षण होता है और न गरिमा सिद्ध करने वाला वर्चस्व। यह ऐसा परिस्थितिवश नहीं होता, साधनों का अभाव या घटियापन होना भी किसी कदर बाधक बनता है परन्तु सब से बड़ी कमी है-मनोयोग का समुचित रीति से समावेश न होना। घोंसला जैसा सर्वांग सुन्दर होता है वैसा दूसरों का नहीं। कारण एक ही है क्या घोंसले के तिनकों का चुनाव करते समय उनकी उपयोगिता को परखती है और साथ ही निर्धारण कार्य करते समय तिनकों को गूँथने का काम इस कुशलता से करती हैं। मानो उसे किसी अफसर पद की प्रतिस्पर्धा में सम्मिलित होने के लिए अपना काम पूरे मन इसे करना पड़ रहा है। चित्त के उदास होने पर काम करने की क्षमता तत्काल घटती है। बेगार भुगतने वाली कहावत चरितार्थ होती है। बेगार उसे कहते हैं जिसमें कम मूल्य अधिक मेहनत का अरुचिकर कार्य कराया जाता है। ऐसे कार्यों का न तो स्तर बन पाता है और न वे परिणाम में ही पर्याप्त होते है। भय, चिन्ता, निराशा, शोक, क्रोध जैसे अवसर आयोजनों पर हाथ पाँव फूलने लगते हैं और स्थिति ऐसी बन जाती है कि जिसमें कुछ करते धरते नहीं बनता। कारण स्पष्ट है कि मानसिक अस्वस्थता के रहते कामों की क्रमबद्धता और उत्कृष्टता का बन पड़ना संभव नहीं। इसके लिए मनुष्य को प्रसन्न चित्त तो होना ही चाहिए साथ ही काम में रस भी आना चाहिए। जिन कार्यों को रुचिपूर्वक प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर किया गया है। वे सदा ऐसे होते है। जिनकी निन्दा न की जा सके।

छोटे बच्चे दिन भर कुदकते–फुदकते रहते हैं। इनके शरीर पर मीटर बाँध दिया जाय तो प्रतीत होगा कि वे दिन भर में एक श्रमजीवी जितना काम कर लेते हैं। बड़ी उम्र के लड़कों के संबंध में भी यही बात है। वे जब खेल के मैदान में प्रवेश करते है तो बाजी जीतने की तत्परता में इतनी दौड़ धूप करते है। जितनी सामान्य समय में नहीं बन पड़ती। खेल में जीतकर आने वाले टीम के हर सदस्य के मन में उत्साह होता है और उसे थकान जैसा कोई अनुभव नहीं होता। यह इच्छा शक्ति, मनः शक्ति और प्रसन्नता का समन्वय है जिसमें सामर्थ्य से अधिक काम कर लेने पर भी मनुष्य थकता नहीं। अन्वेषकों का मत है कि घरेलू काम काज में चलती फिरती रहने वाली एक महिला 90 वर्ष तक जीवित रहे तो इतनी दूरी पार कर लेती हैं जितनी कि पृथ्वी की छः बार परिक्रमा करनी पड़े तो वह अपने पुरुषार्थ के महिमा जिसे घरेलू कामकाज करने में किसी विशेष श्रम या भार का अनुभव भी नहीं होता। दिन भर अपने काम काज में लगी रहती है।

और यह अनुभव नहीं करती कि उसे इतना बड़ा काम करना पड़ रहा है।

शरीर अकेले ही सब कुछ नहीं कर लेता। उसे अपने प्रत्येक क्रिया−कलाप में मनोयोग लगाने की आवश्यकता पड़ती है। जो इस प्रयास को जितनी अच्छी तरह सम्पन्न कर लेता है। उसके लिए बिना थकान के अधिक देर तक अधिक मात्रा में तथा ऊंचे स्तर का काम कर सकना सरल पड़ता है।

मन की प्रकृति बंदर जैसी चंचल है। एक डाली से दूसरी पर फुदकते रहने की चंचलता जैसी बन्दरों में, पक्षियों में पाई जाती है वही प्रकृति मन की भी है। उसे सहज ही एकाग्रता, तन्मयता, तत्परता उसका स्वभाव नहीं है। इसके लिए उसे साधना सिखाना-पढ़ाना पड़ता है। इस आधार पर अनगढ़ स्वभाव के वन्य पशु सर्कसों में आश्चर्यजनक खेल दिखाने और मालिकों के लिए अच्छी कमाई करने लगते है। यह कुशल प्रशिक्षण का प्रतिफल है। विद्यार्थियों से लेकर विशेषज्ञों, कलाकारों, तक सभी महत्वपूर्ण व्यक्तियों को इसी प्रशिक्षण के नीचे होकर गुजरना पड़ता है। मन को सुसंयत एवं सुनियोजित बनाने का भी यह तरीका है।

मानसिक प्रशिक्षण स्वयं भी किया जा सकता है। इसके लिए दूसरे किसी अन्य अध्यापक की आवश्यकता नहीं पड़ती। हाथ के नीचे आये काम को ईमानदारी और जिम्मेदारी से करने को अपनी प्रतिष्ठा का, आन्तरिक गरिमा का आधार मानकर चलना चाहिए। कर्म को अपने आप में पूर्ण मानकर चलना चाहिए। उसका प्रतिफल इच्छित मात्रा में न मिलें तो भी संतोष करने के लिए इतना पर्याप्त समझा जाना चाहिए कि हमने अपनी और से सामर्थ्य भर प्रयत्न किया। इस प्रयत्नशीलता की समग्रता पर संतोष ही नहीं गर्व भी किया जा सकता है। इस प्रकार की मनोभूमि में किया गया काम, अधिक मात्रा में तथा सुन्दर समग्र तो होता ही है। अपने आप को प्रसन्नता भी प्रदान करता है और दूसरों की दृष्टि में अपनी प्रामाणिकता प्रयत्नशीलता, प्रवीणता की छाप छोड़ता है।

थकान ऐसी स्थिति में आती ही नहीं या कम से कम आती है। कर्मयोगी की मनःस्थिति में न थकान आती है और निराशा को वहन करने की आवश्यकता पड़ती है। काम को कर्तव्य या खेल समझ कर उसमें प्रसन्नता का, पौरुष का रसास्वादन करते हुए कोई भी व्यक्ति सामान्य शारीरिक या मानसिक स्थिति में अथवा परिस्थितियों की प्रतिकूलता रहते हुए भी इस प्रकार काम करता रह सकता है। जिसे कर चूकने के बाद थकान के स्थान पर प्रसन्नता की अनुभूति हो।

क्म लोकोपयोगी चुने जाये। उनमें नीतिकला का समावेश हो। यदि अनीतिपूर्ण अथवा जनहित के विपरित काम अपनाया गया है तो भी आत्मा कचोटती रहेगी पैर थकानभरी आत्मग्लानि का अनुभव करती रहेगी।

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