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Magazine - Year 1988 - Version 2

Media: TEXT
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इस वर्ष की सृजन-साधना

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विगत आधी शताब्दी से युग निर्माण योजना और गायत्री परिवार के अंतर्गत नव सृजन आन्दोलन किसी न किसी रूप से चल रहा है। उसके लाखों समर्थक और सहयोगी भी हैं। परन्तु उसमें ऐसों का अनुपात कम हैं। जो नियमित रूप से इस पुण्य प्रयास के लिए समयदान और अंशदान देकर अपनी सक्रियता और निष्ठा का सघन प्रमाण देते हों। अब नये सिरे से नया निर्धारण यह किया गया है, कि नियमित रूप से अपनी सक्रियता का परिचय देने वालों का नये सिरे से पंजीकरण किया जाय, और उन्हें “व्रतधारी प्रज्ञापुत्र” के नाम से जाना जाय।

- हर व्रतधारी प्रज्ञापुत्र न्यूनतम बीस पैसा और एक घंटा समय प्रतिदिन-नियमित रूप से सृजन कार्यों के लिए लगाया करें। स्वयं तो क्रियाशील रहें ही, अपने जैसे चार और साथी खोजकर पाँच कर्मनिष्ठों का एक प्रज्ञामण्डल गठित करें। यह पाँचों अपने चार-चार साथी बनायें। इस प्रकार पाँच से पच्चीस का समुदाय बन जाये पर उसे पूर्ण- विकसित “प्रज्ञामण्डल” की संज्ञा दी जायेगी। यों पंजीकरण तो पाँच कर्मठों को मण्डल बनने पर ही हो जाता है।

- जहाँ बड़ी शाखायें- प्रज्ञापीठें हैं, वहाँ भी पाँच-पाँच कर्मठों की मण्डलियाँ नये सिरे से गठित कर ली जायें। वे पास-पास रहने वाले हों, जो सहजता से मिलजुल सकें- परामर्श करते रह सकें। वे अपने क्षेत्र में नव जागरण के लिए सक्रिय प्रयास करें, निर्धारित कार्यक्रम चलायें। सक्रिय-कर्मठों की संख्या और क्षेत्र का विस्तार देखते हुए अनेक प्रज्ञा मंडल एक ही क्षेत्र में गठित किए जा सकते हैं। बड़े आयोजनों और आन्दोलनों में वे सभी मिल-जुलकर, एक संगठित श्रृंखला के रूप में कार्य करेंगे।

- पुरुषों के प्रज्ञा मण्डलों की तरह महिलाओं के अलग से “महिला मण्डल” गठित किए जाने हैं। जब तक पाँच प्रतिभावान महिलायें न मिलें, तब तक उन्हें प्रज्ञा मण्डल में ही संयुक्त रखा जा सकता है। संभावना बनते ही महिला मण्डलों को स्वतंत्र रूप से बढ़ने देना चाहिए। इक्कीसवीं सदी में, भावना क्षेत्र में वरिष्ठ होने के कारण नारी को पर्याप्त उत्तरदायित्व उठाने होंगे। उसके लिए उन्हें विकसित किया जाना है। अनुभव की कमी से उनके संगठन गड़बड़ाने न पायें, यह देखभाल प्रज्ञामण्डल के अनुभवी परिजनों को रखनी चाहिए।

- प्रत्येक व्रतधारी प्रज्ञापुत्र के दैनिक जीवन में तीन प्रक्रियायें नियमित रूप से चलनी चाहिए - (1) उपासना, (2) साधना, (3) आराधना। यह तीनों दैनिक जीवन में, आहार परिश्रम-विश्राम, अन्न, जल, और वायु की तरह गुँथे रहने चाहिए। युग साहित्य के नियमित स्वाध्याय को इस प्रयास के लिए मुख्य आधार माना जाय।

-प्रज्ञा मण्डल और नारी मण्डल के सभी सदस्य अंशदान समय दान का, व्यक्तिगत उपासना, स्वाध्याय का क्रम चलाने के साथ-साथ सप्ताह में एक बार सामूहिक उपासना, सामूहिक स्वाध्याय परामर्श का क्रम चलायेंगे। इस साप्ताहिक सत्संग कहा जाय। सप्ताह में सुविधानुसार एक दिन का समय इसके लिए पूर्व- निर्धारित रहे। यह सत्संग किसी एक स्थान पर अथवा सदस्यों के घरों पर बदल-बदल कर चलाए जाते रह सकते हैं। इन सत्संगों के लिए पाँच क्रम निर्धारित हैं (1) सामूहिक उपासना- दीपयज्ञ, (2) सहगान- युग संगीत, (3) सामूहिक स्वाध्याय समीक्षा, (4) युग साहित्य विस्तार प्रक्रिया, (5) सामूहिक सूर्यार्घ्य दान।

सामूहिक उपासना दीप यज्ञ के माध्यम से की जाय। देव मंच के पास थाली में दीपक और अगरबत्तियाँ सजाकर रखें। सब का सिंचन, सर्वदेव नमस्कार, स्वस्तिवाचन के क्रम पूर्ण कर के दीपक और अगरबत्तियाँ प्रज्वलित करें। भावना करें कि युग शक्ति महाप्रज्ञा हमारे अंदर संघ शक्ति का जागरण कर रही है। युग साधना के सामूहिक प्रयोग करने की क्षमता हम सब में बढ़ रही है।

- मिशन के निर्धारित गीतों, संकीर्तनों का सामूहिक गायन किया जाय। उनमें भगवान के नाम स्मरण के साथ प्रेरणाओं का भी संचार होता है। इन्हें प्रारम्भ, मध्य और अंत में तीन भागों में भी बाँटा जा सकता है अथवा आधा घंटे तक लगातार भी किया जा सकता है यदि अच्छे कंठ के गायक न हो, तो ही कैसेटों की सहायता लेनी चाहिए। प्रत्यक्ष सहगान से भावनाएँ अधिक उभरती हैं।

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