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Magazine - Year 1988 - Version 2

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मनुष्य में हिलोरें लेता चुम्बकीय महासागर

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स्रष्टा ने मानवी काया में बीज रूप में वे सभी तत्व पदार्थ, वैभव, पराक्रम एवं क्षमताएँ भर दी हैं जो विश्व ब्रह्माण्ड के जड़ पदार्थों तथा चेतन प्राणियों में कही भी देखे, पाये जा सकते हैं। वह स्वयं में एक चलता फिरता चुम्बक हैं। उसकी विलक्षण काय संरचना को एक अच्छा खासा बिजली धर कह सकते हैं। जिससे उसकी अपनी मशीन चलती और जिन्दगी गुजर बसर होती हैं। इसके अतिरिक्त वह दूसरों को प्रकाशित करने से लेकर भले-बुरे अनुदान दे सकने में भी भली प्रकार सफल होता रहता हैं। चुम्बक होने के नाते वह जहाँ प्रभावित करता हैं। वहाँ स्वयं भी अन्यान्यों से आकर्षित किया और दबाया-घसीटा जाता रहता हैं।

मानवी चुम्बकत्व का स्त्रोत ढूंढ़ने वालों ने अभी इतना ही जाना हैं कि वह पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से यह अनुदान उसी प्रकार प्राप्त करता हैं जैसे कि धरती सूर्य से ब्रह्मांडव्यापी चुम्बकत्व से भी उसका आदान-प्रदान चलता रहता हैं। इस ऊर्जा की मात्रा में न्यूनाधिकता होने तथा सदुपयोग दुरुपयोग करने से वह आये दिन लाभ-हानि उठाता रहता हैं। अच्छा हो इस संबंध में अधिक जाना जाए और सफलतापूर्वक हानि से बचने तथा लाभ उठाने में तत्पर रहा जाए।

मनुष्य का मैगनेट घटता बढ़ता रहता हैं। इसकी अल्पता से आ¡खो का विशेष आकर्षण समाप्त हो जाता हैं। शरीर रूखा, नीरस, कुरूप, निस्तेज, शिथिल सा दिखाई पड़ने लगता हैं साथ ही मनुष्य को विस्मृति, भ्रान्ति, थकान जैसी अनुभूति होती हैं। जबकि चुम्बकत्व के आधिक्य से वह आकर्षक, मोहक एवं सुन्दर लगने लगता हैं। उसकी प्रतिभा, स्मृति, स्फूर्ति जैसी विशेषताएं¡ उभरी हुई प्रतीत होती हैं। सत्संग और कुसंग के परिणाम भी व्यक्ति की निजी प्राण ऊर्जा की न्यूनाधिकता के सहारे ही संभव होते हैं। बढ़े हुए चुम्बकत्व वाला अपने से हल्के वालों को प्रभावित करने में सफल रहता हैं। साथ ही यह बात भी है कि उससे बड़े स्तर की प्रतिभा उसे अपनी पक डमें कस लेती हैं। इतने पर भी कुछ मनस्वी ऐसे होते हैं जो आत्मबल पर दृढ़ रहते हैं। आदान-प्रदान तो करते हैं, किन्तु अनिवार्य रूप से किसी से भी प्रभावित नहीं होते।

अंतरिक्ष में संव्याप्त भले-बुरे अनुदानों को मनुष्य अपने चुम्बकत्व द्वारा ही स्वीकार-अस्वीकार करता हैं। इस शक्ति का ऊर्ध्वगामी प्रवाह मस्तिष्क में केन्द्रित हैं। मस्तिष्क को मानवी चुम्बक का उत्तरी ध्रुव कहा जाता हैं। उस मर्मस्थल के प्रभाव से व्यक्तित्व निखरता और प्रतिभाशाली बनता है। चेहरे के इर्द−गिर्द छाये ओजस “तेजोवलय” को इस ऊर्ध्वगामी विद्युत का ही प्रतीक मानना चाहिए। जननेंद्रिय मूल में काया का दक्षिणी ध्रुव स्थित हैं। ऊर्जा का अधोगामी प्रवाह यहीं केन्द्रित होता हैं। यौनाकर्षण के पीछे यही प्रवाह काम करता हैं। भिन्न प्रकृति के होते हुए भी दोनों प्रवाहों में परस्पर संबंध हैं। कामातिरेक और कामविकार पर अंकुश की प्रक्रिया को क्रमशः अधोगामी और ऊर्ध्वगामी प्रवाह की परिपूर्ति ही मानना चाहिए। प्राण ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन ही प्रखरता का द्योतक हैं।

सेन फ्राँसिस्को के प्रसिद्ध चिकित्साशास्त्री डॉ. अलबर्ट अब्राहम के अनुसार मानवी काया को चुम्बकीय ऊर्जा तरंगों का भँवर कहा जाना चाहिए। उसमें भी पृथ्वी की भाँति उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव होते हैं। जो विद्युत एवं चुम्बकत्व के नियमों के अनुसार काम करते है। शरीर द्वारा ऊर्जा तरंगों के निष्कासन में उन्होंने बताया हैं कि मनुष्य के शरीर से 90 अरब साइकल्स प्रति सेकेंड की दर से विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा का विकिरण होता रहता हैं। जबकि आकर्षण क्षमता इस से कई गुना अधिक हैं। मस्तिष्क, हाथ पैर की अंगुलियाँ, नेत्र, जननेन्द्रिय आदि से इस ऊर्जा तरंगों का सबसे अधिक निष्कासन होता हैं। डॉ. अब्राहम ने शरीर के विभिन्न अंगों से निकलने वाले इस ऊर्जा प्रवाह को मापने की एक विधि का विकास किया। जिसे चिकित्सा विज्ञान में “रेडिस्थेसिया” के नाम से जाना जाता है।

आधुनिक बायोमेडिकल सांइंस की मान्यता के अनुसार मनुष्य का स्वास्थ्य शारीरिक कोशिकाओं के विभिन्न समूहों के मध्य चुम्बकीय क्षेत्र के सामंजस्य-संतुलन पर निर्भर करता है। शारीरिक संरचना में भाग लेने वाले विभिन्न तत्वों के अतिसूक्ष्म परमाणविक कण-इलेक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रान आदि विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा से परिपूर्ण होते हैं। लाल रक्त कणों में भी लोहे की प्रचुर मात्रा होती हैं। सारे शरीर में रक्त के निरन्तर प्रवाहित होते रहने से एक निश्चित विद्युत प्रवाह बनता है। इस प्रवाह चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है। यही लौह तत्व विश्वव्यापी ऊर्जा का अवशोषण करके कोशिकाओं को विभिन्न कार्यों के सम्पादन के लिए ऊर्जा की पूर्ति करता है। स्वस्थ कोशिकाओं की शक्ति भण्डारण क्षमता अधिक होती है।इसमें कमी होने पर शरीर रोगग्रस्त होने लगता हैं। जीवनी शक्ति क्षीण हो जाती हैं। इस प्रकार शरीर में निर्धारित परिणाम में चुम्बकीय क्षमता का होना पूर्णतः विज्ञान सम्मत हैं।

लेनिन ग्राड यूनिवर्सिटी, रूस के अनुसंधानकर्ता मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने डिटेक्टर के माध्यम से मनुष्य शरीर में स्थित जैव चुम्बकीय क्षेत्रों का पता लगाया है। उनका कहना हैं कि किन्हीं-किन्हीं व्यक्तियों में ये क्षेत्र विशेष रूप से सक्रिय हो उठते हैं जिससे उनके लिए कभी-कभी अनेकों मुश्किलें पैदा हो जाती हैं। जोनी माइकेल एवं राबर्ट जे0 एम. रिचर्ड ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “मीस्टिरियसफिनानिना” में इस तरह की अनेक घटनाओं का वर्णन किया हैं, जिनमें विभिन्न व्यक्तियों को चुम्बकत्व की बहुलता के कारण विचित्रताओं का शिकार होना पड़ा।

कनाडा में कैरोलिना लेयर नामक एक ऐसी महिला थी जिसमें शरीर चुम्बकत्व की अधिकता थी। ओण्टोरियो मेडिकल एसोसियेशन के जांचकर्ता वैज्ञानिकों ने परखने पर पाया था कि जब वह आवेशित अवस्था में होती तो उसके शरीर से छुरी, कांटे, कीलें जैसी लौह धातुएं चिपक जाती। इसी तरह अमेरिका के मेरीलैण्ड की एक छात्रा लुई हैबर्गर की अंगुलियों के अग्रभाग में चुम्बकीय गुण था। आधी इंच मोटी, एक फट लम्बी लोहे की छड़ वह अंगुलियों के पोरों से छूकर अधर में उठा लेती थी। धातुओं से विनिर्मित वस्तुएं उसके हाथ से चिपक कर रह जाती हैं। समीप आने वाले लोग उसमें एक विचित्र सा आकर्षण महसूस करते थे। मेरीलैण्ड कालेज ऑफ फार्मेसी के अनुसंधानकर्ताओं ने उसकी इस क्षमता को जांचा परखा और हर तरह से सत्य पाया था। कम्पास निउल उसके समीप रखने पर रुक जाती थी।

जोपलिन, मिसौरी के फ्रेंक मैक किन्स्ट्री नामक व्यक्ति के बारे में कहा जाता हैं कि जब वह चुम्बकीय ऊर्जा से आवेशित होता तो चलते वक्त उसके पैर धरती से चिपक जाते। वह एक कदम भी आगे बढ़ने में असमर्थ हो जाता। ऐसी आकस्मिक स्थिति में राहगीर ही उसकी मदद करते, उसके पैरों को छुड़ाते तभी वह फिर से आगे बढ़ जाता।

मनुष्य में अपना चुम्बकत्व तो है ही पर उसे न्यूनाधिक करने में उसके अपने प्रयत्न ही चमत्कार दिखाते हैं। सुप्रसिद्ध मनःशास्त्री विक्टर ई॰ क्रोमर का कथन है कि मनःशक्ति को केन्द्रीभूत करके यदि इस शक्ति को किसी दिशा विशेष में प्रयुक्त किया जा सके तो बहिरंग में सम्मोहन प्रक्रिया द्वारा दूसरों को तथा अंतरंग में स्वयं की सूक्ष्म शक्तियों को प्रभावित करने-जगाने में सफलता मिल सकती हैं।

आस्ट्रिया के वियेना शहर में निवास करने वाले डॉ. फ्राँसिस्कम् एण्टोनियर्स मेस्मर को सम्मोहन विद्या का जनक माना जाता हैं। अपने समय के वे प्रख्यात चिकित्साशास्त्री थे। एक बार चिकित्सा करते समय रोगी के शरीर से अत्यधिक रक्त बहने लगा। मेस्मर के पास उस रक्त प्रवाह को बंद करने की कोई औषधि नहीं थी। इस पर उनने उक्त स्थान पर अपना हाथ फिराना आरंभ किया। कुछ ही क्षणों में चमत्कारिक ढँग से रक्त का रिसना बंद हो गया। इससे प्रभावित होकर उन्होंने कई अन्य प्रयोग-परीक्षण किये और सफल रहने पर यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि - मनुष्य के शरीर में एक प्रकार की बायोइलेक्ट्रोमैग्नेटिक विद्युत धारा सतत् प्रवाहित होती रहती हैं। यह प्रवाह अंगुलियों के अग्रभाग से अधिक होता है जो स्ग्ण स्थान पर हाथ फिराने से रोगी के शरीर में प्रवेश कर जाता हैं और रोग को दूर करने में सहायक सिद्ध होता हैं।मेस्मर ने इस शक्ति प्रवाह को “जैव चुम्बक” नाम दिया। वान हैल्माण्ट ने इसी ऊर्जा शक्ति का शारीरिक एवं मानसिक रोगियों पर सफल प्रयोग करने में अच्छी ख्याति प्राप्त की थी। लोग उन्हें चमत्कारी सिद्ध पुरुष कहने लगे थे।

वस्तुतः मैस्मेरिज्म के प्रयोगों में प्रयोक्ता द्वारा अपने चुम्बकीय विद्युत के सहारे दूसरों को सम्मोहित करने की प्रक्रिया सम्पादित होती हैं। इसी माध्यम से एक व्यक्ति का प्राण दूसरे में प्रवाहित होने लगता हैं तथा शारीरिक रुग्णता एवं मानसिक अक्षमता को दूर करने में सहायक होता हैं। ऐसे अनेकों उदाहरण विद्यमान हैं जिसमें प्रयोक्ताओं ने अपनी प्राण शक्ति से दूसरों को स्वास्थ्य लाभ प्रदान किया।

जर्मनी के तानाशाह हिटलर का उसकी रुग्णावस्था में उपचार इस्टोनिया निवासी “क्रिस्टन” नामक एक चिकित्सक करता था। उसकी अंगुलियों में दर्द दूर करने की चमत्कारिक क्षमता थी जिनके स्पर्श से वह रोगियों को चंगाकर देता था। अभ्यास के द्वारा ही उसने ऐसी जादुई क्षमता प्राप्त की थी। हिटलर के अंतरंग मित्र हिटलर तक ने उससे कई बार अपनी चिकित्सा करवाई और रुग्णता के पंजे से मुक्ति पाई थी। क्रिस्टन ने अपनी क्षमता का हिटलर पर सदुपयोग करके उसके माध्यम से हिटलर के मृत्युपाश में जकड़े हुए लगभग एक लाख व्यक्तियों को छुटकारा दिलाया था।

महामनीषी हिपोक्रेटस को प्राणतत्व के प्रति असाधारण श्रद्धा थी। वे लिखते थे कि - “शरीर आत्मा की शक्ति से संचालित एवं नियंत्रित होता हैं तो उसकी प्रचण्ड प्राण-शक्ति से रोगों का निवारण भी संभव हैं”। स्काटलैंड के मैक्सवेल नामक विद्वान का भी विश्वव्यापी प्राणतत्व में अटूट विश्वास था। प्राण चिकित्सा प्रशिक्षण के लिए उन्होंने एक केन्द्र तक खोल रखा था।

इस्कुलेपियस नामक एक योरोपीय व्यक्ति अस्वस्थ व्यक्तियों के रुग्ण अवयवों पर सांस छोड़कर और हाथों से थपथपाकर चिकित्सा करने में पारंगत था। इंग्लैण्ड के पादरी ठइड को इस क्षेत्र में असाधारण ख्याति मिली थी। अनेक विद्वानों ने अपने साहित्य में उनकी इस विलक्षण क्षमता का वर्णन किया हैं। लन्दन का लेर्न्हट नामक माली अंगुलियों से छूकर रोगमुक्त करने के लिए प्रसिद्ध था।

प्रख्यात परामनोविज्ञानी डॉ. थेल्मामाँस एवं उनके सहयोगियों ने ऐसे कई व्यक्तियों को जांचा परखा हैं जो सम्मोहन द्वारा प्राण चिकित्सा करते हैं। उनमें से एक हैं- किडनी स्पेशलिस्ट डॉ. मार्शल वार्शेय, जिन्हें पाश्चात्य जगत में आध्यात्मिक चिकित्सक के रूप में प्रसिद्धि मिली हुई हैं। अंगुलियों तथा हाथ के स्पर्श से वे अब तक सैकड़ों रोगियों को नवजीवन प्रदान कर चुके हैं। सिरदर्द जैसी सामान्य बीमारियां¡ उनके स्पर्श मात्र से दूर होती देखी गई हैं। डॉ. थेल्मामाँस ने परीक्षण करने पर पाया कि इस तरह उपचार करते समय मार्शल की अंगुलियों से प्राण ऊर्जा प्रकाशपुँज के रूप में निकलकर मरीज के शरीर में प्रविष्ट हो जाती हैं। जिससे उसकी अंगुलियों का परिमंडल भी प्रदीप्त हो उठता हैं। रोगी को हीलर के हाथ से अपने शरीर में गर्मी प्रवेश करती हुई झुनझुनाहट सी महसूस होती हैं, साथ ही एक शक्तिधारा के अपने शरीर में प्रवेश होने की सुखद अनुभूति होती हैं। यह अनुभूति काफी समय तक बनी रहती हैं।

काया में सन्निहित प्राण चुम्बकत्व की खोज विभिन्न वैज्ञानिकों ने अपने-अपने ढँग से की हैं और उसे बायोमैग्नेटिज्म, बायोप्लाज्म, एक्टोप्लाज्म, बायोफ्लक्स आदि भिन्न-भिन्न नामों से सम्बोधित किया हैं। मनुष्य में इसका विशेष बाहुल्य होता हैं। जबकि वनस्पतियों एवं अन्य जीवधारियों में यह साधारण रूप से विद्यमान होता हैं। डॉ. किर्लियन, एवं डॉ. थेल्मामाँस जैसे वैज्ञानिकों ने किर्लियन तथा आर्गान फज्ञेटोग्राफी द्वारा इसके रंगीन चित्र भी खींचे हैं। थियोसोफिस्ट इसे “ईथरिक डबल” कहते हैं, जो शरीर के चारों और आवरण के समान विद्यमान हैं। अतीन्द्रिय क्षमता वाली विशेषताएँ इसी चुम्बकत्व पर निर्भर बताई गयी हैं।

प्राण चुम्बकत्व को विकसित एवं परिष्कृत करने के ध्यान-धारणा तथा प्राणायाम कितने ही प्रयोग अपनी स्थिति एवं आवश्यकता के अनुरूप अपनाये जा सकते हैं। किन्तु उससे भी अधिक अनिवार्य यह है कि इन्द्रिय निग्रह, मनोनिग्रह की नीति-निष्ठा, जीवनचर्या अपना कर ईश्वर प्रदत्त प्राण विद्युत के अपव्यय से बचे रहने की सतर्कता बरती जाय।

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