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Magazine - Year 1988 - Version 2

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जहाँ हो जाती हैं सारी भाषाएँ मौन!

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विज्ञान व अध्यात्म दोनों ही सत्यान्वेषण की द्विविध प्रक्रियाएँ हैं। अन्वेषण प्रक्रिया की भिन्नता के बावजूद भी इनमें अद्भुत साम्य है। वैज्ञानिक अपना कार्य क्षेत्र पदार्थ विज्ञान को बनाता है और लगातार अन्वेषण प्रक्रिया में संलग्न रहते हुए सत्य तक पहुँचने का प्रयास करता है जब कि अध्यात्म मार्ग का पथिक अपना क्षेत्र चेतना को चुनता है तथा निरन्तर अपनी शोध प्रक्रिया में संलग्न रहकर परम तत्व की प्राप्ति हेतु स्वयं को तत्पर करता है।

यह साम्य मात्र इतना ही हो, ऐसा नहीं है। अन्वेषण की पद्धति में भी एकरूपता है। किसी भी वैज्ञानिक ज्ञान को निरूपित करने वाले सिद्धान्त सूत्र की प्राप्ति सामान्यतया तीन चरणों में की जाती है। प्रथम चरण है- परिकल्पना-हाइपोथीसिस। द्वितीय चरण में इसमें निहित सत्य को उजागर करने के लिए प्रयोग में एकाग्रतापूर्वक अपनी सारी मनः सामर्थ्य को नियोजित करना पड़ता है। यह स्थिति ध्यान से कम नहीं है। तृतीय स्थिति अन्तिम निष्कर्ष के अनुभव की है। इस अनुभव को ही बाद में संकेत सूत्र-सिद्धान्तों द्वारा उल्लेखित किया जाता रहता है। शोध प्रक्रिया के यह तीन चरण महत्वपूर्ण हैं, पर काम इतने से ही चल जाता हो, ऐसी बात नहीं है। इसके पूर्व प्रयोगशाला, संदर्भ ग्रन्थों सम्बन्धित उपकरणों की बाह्य तैयारियाँ करने के साथ उपयुक्त मानसिकता भी बनानी पड़ती है। तब कहीं यह क्रम शुरू हो पाता है।

वेदान्त में उपदिष्ट राजयोग इसी तरह पूर्णतया वैज्ञानिक-प्रक्रिया है। इसमें बताए गए आठ चरणों में प्रथम पांच अर्थात् यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार ऐसे हैं, जिन्हें पूर्व की तैयारी माना जा सकता है। यह तैयारी कुछ इसी स्तर की है जिसे प्रयोगशाला, संदर्भ ग्रन्थों-सम्बन्धित उपकरणों के जुटाने जैसा कहा जा सके। कारण कि चेतना क्षेत्र में किए जाने वाले इस प्रयोग में शरीर और मन ही प्रयोगशाला तथा सम्बन्धित उपकरण हैं। इन दोनों की साफ-सफाई उपयुक्तता-यम नियम, आसन, प्राणायाम से बन पड़ती है। प्रत्याहार का तात्पर्य है कि मन को अन्य बाह्य विषयों से हटाकर प्रयोग में जुट पड़ने के लिए तैयार करना।

यहाँ से सारी तैयारियाँ पूर्ण हो जाती हैं। इसके बाद “धारण” का क्रम आता है। यहाँ धारणा प्रकारान्तर से वैज्ञानिकों की “हायपोथिसिज” ही है। जिसमें मन को एक विषय पर ला देना होता है। सूत्रकार पातंजलि इस स्थिति को स्पष्ट करते हुए इसे देश “बन्धश्चित्तस्य धारणा” (319) बताते हैं। इसके बाद वह स्थिति आती है जिसमें अन्तराल में प्रविष्ट हो प्रयोग में जुट पड़ना होता है। इसे ही राजयोग में “ध्यान” की संज्ञा प्रदान की गयी है।

इस स्थिति में चेतना की विभिन्न परतों को पार करते हुए परम तत्व तक पहुँचने का प्रयास करना होता है। इस चरण में होने वाले चित्र-विचित्र विलक्षण अनुभव किसी भी भौतिकीविद् या रसायनविद् के अनुभवों से किसी प्रकार कम नहीं।

इसके अनन्तर वह स्थिति आती है जब निष्कर्ष की अनुभूति होती है। सत्य की यह अनुभूति ही ज्ञान है। अनुभव प्राप्त की इस उच्चतम अवस्था को ही भारतीय चिन्तक “समाधि” की संज्ञा प्रदान करते हैं। ऐसे दिव्य अनुभव को प्राप्त करने वाला ऋषि-अपने इस ज्ञान को संकेत सूत्र सिद्धान्तों द्वारा व्यक्त करता है।

ये संकेत भौतिकविदों के गणितीय संकेतों की ही तरह हैं। क्योंकि यहाँ भाषा मौन हो जाती है। इन अनुभूतियों को पूर्णतया व्यक्त करने में असमर्थ होकर ही ऋषियों ने “अवाँगमानसगोचरम्” तथा “अप्राप्य मनसासह” कहा है। भाषा की-अल्प क्षमता तथा न्यूनत को आत के वैज्ञानिक भी स्वीकारते हैं। सुविख्यात क्वाँटम भौतिकविद् प्रो. वारनर हाइजेन बर्ग अपने ग्रन्थ “फिजिक्स एण्ड फिलाँसाफी” में स्पष्ट करते हैं-कि “क्वाँटम थ्योरी को पूरी तरह से समझाने में सबसे बड़ी समस्या भाषा की है। यदि यह कहा जाए कि यहाँ सारी भाषाएँ मौन हो जाती हैं तो कोई अत्युक्ति नहीं। इसमें प्राप्त निष्कर्षों को गणितीय संकेतों से ही स्पष्ट किया जा सकता है।”

भारतीय चिन्तन का प्रभाव ग्रीक दर्शन पर पड़ने तथा इसका व्यापक प्रसार होने के कारण आध्यात्म की वैज्ञानिकता के कुछ प्रयत्न पश्चिमी चिन्तकों ने भी किए हैं। इसके बारे में दार्शनिक बटेर्रन्ड रसेल ने अपनी पुस्तक “हिस्ट्री ऑफ वेर्स्टन फिलासफी” में बताया है कि पश्चिमी जगत में विज्ञान और दर्शन के समन्वय सामंजस्य का इतिहास पाइथागोरस से आरंभ होता है। सेण्ट आगस्टिन, थामस एक्वीनस, देवर्ति, देकार्ते, स्पिनोजा, लेष्निज ने भी न्याय और तर्क के आधार पर समझाने की कोशिश की है।

इनका यह प्रयास सराहनीय तो अवश्य है, पर इसे पूर्ण नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह प्रयत्न मात्र तर्क एवं विचारणा की शक्ति पर ही आधारित है। प्रायोगिक स्तर का सफल प्रयत्न जैसा वेदान्त में मिलता है, वैसा अन्यत्र नहीं। “ताओ ऑफ फिजिक्स” के लेखक डॉ. फिटजोक काप्रा ने अपनी इस पुस्तक में इसको स्वीकार करते हुए कहा है- बौद्धों के माध्यमिक तथा जैन सम्प्रदाय चीन के ताओ धर्म की अपेक्षा सर्वाधिक वैज्ञानिकता हिन्दू वेदान्त में है।

इसकी प्रयोग विधि को विज्ञान की प्रयोग विधि के समानान्तर बताते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार भौतिकशास्त्री उत्तम तकनीक एवं बाह्य सुविधाओं को प्राप्त कर अपना कार्य प्रारम्भ करता है, ठीक उसी प्रकार अध्यात्मवेत्ता एकान्त में ध्यान में अपना कार्य करता है। इन दोनों प्रयोगों में एक साम्य और है कि दोनों को ही पदार्थ व चेतना का आश्रय लेना पड़ता है। कोई वैज्ञानिक कितने ही आधुनिक एवं महंगे उपकरणों से सुसज्जित प्रयोगशाला अनेकानेक संदर्भ ग्रन्थ तथा अन्यान्य सुविधाएँ क्यों न जुटाले, पर मनोयोग एवं बुद्धि के बिना ये सारे सरंजाम बेकार ही रहेंगे।

मनुष्य तथा संसार दोनों के यथार्थ स्वरूप के ज्ञान का अनुभव करने वाले आध्यात्म-वेत्ता इस समस्या का सही और समुचित हल प्रस्तुत करते हैं। नीति, आचार, व्यवहार, वह तौर तरीके बताते हैं जिनसे कि विज्ञान की उपलब्धियों का सही उपयोग किया जा सके। डायनामाइट का उपयोग ऊबड़-खाबड़ पहाड़ों को तोड़ जनहित के लिए सड़कें बनाने के काम में भी हो सकता है, तथा चमकते-दमकते चहल-पहल से परिपूर्ण-भव्य-भवनों का विनाश कर श्मशान बनाने में भी। इसी प्रकार परमाणु ऊर्जा से विद्युत आदि उत्पन्न कर ऊर्जा की विकट समस्या का समाधान भी किया जा सकता है तथा-परमाणु बम के रूप में प्रयुक्तकर हिरोशिमा-नागासाकी जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति भी की जा सकती है।

इसमें क्या औचित्यपूर्ण है क्या अनौचित्यपूर्ण। इसका विवेकयुक्त निर्णय आध्यात्म-वेत्ताओं द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों के परिपालन से ही सम्भव है। इतना ही नहीं इससे आत्मिक विकास का पथ भी प्रशस्त होता है।

इन दोनों के सर्वविधि साम्य को देखकर प्रो. सी. ई. एम. जोड़ ने विज्ञान को वधू तथा आध्यात्म को वर की संज्ञा दी है। उन्होंने अपने ग्रन्थ फिलासफिकल एस्पेक्ट ऑफ माँडर्न साइन्स में बताया है कि “वधू की सार्थकता वर के संरक्षण में ही है। इसी में इसकी गरिमा व महिमा सुरक्षित है। इनके मधुर परिणय का समय हो चुका है। दोनों ने एक-दूसरे को भली भाँति समझ भी लिया है। इनके इस मंगल, परिणय से ही मानवता समग्र विकास की ओर बढ़ेगी।”

प्रो.ए.एन. हृइट हेट ने “साइंस एण्ड दि माडर्न वर्ल्ड” तथा डॉ. इरोल, ई0हैरिस ने “नेचर माइन्ड एण्ड माँडर्न साइन्स” में इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्धों पर व्यापक विचार कर यह स्पष्ट किया है कि विज्ञान का भटकाव अध्यात्म के यथार्थ तत्वदर्शन की जानकारी के अभाव के कारण था। वेदान्त के प्रचार से यह भटकाव दूर हो गया है। विज्ञान भी प्रौढ़ता की स्थिति में पहुँच चुका है। पदार्थ के नित्य परिवर्तनशील तथा ऊर्जा रूप होने से सारा झगड़ा समाप्त हो चुका है अब इन दोनों के एक होने से समस्त मानव जाति एक अद्भुत उत्कर्ष को प्राप्त करेगी।

विज्ञानवेत्ताओं के इन कथनों में पूर्ण सार्थकता है। दोनों की सत्यान्वेषण प्रक्रियाएँ मानवता के हित साधन के लिए हैं। इनका सामंजस्य मानव और मानवता के लिए हितकारी ही सिद्ध होगा।

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