• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • ज्ञान सबसे बड़ा देवता
    • उपासना के तीन उपक्रम
    • प्रगति का अनिवार्य आधार
    • मनुष्य में हिलोरें लेता चुम्बकीय महासागर
    • प्रशंसा के योग्य (Kahani)
    • अपरिग्रह व्रत का परिपालन
    • नसरुद्दीन बादशाह (Kahani)
    • स्वर्ग कहाँ? अपने ही इर्द−गिर्द
    • स्वस्थ जीवन का रहस्य (Kahani)
    • वेदान्त जोड़ेगा आध्यात्म और विज्ञान को
    • असाधारण मायावी (Kahani)
    • व्यक्तिवाद और अनौचित्य का संकट
    • सतयुगी व्यवस्था का मेरुदण्ड- ऋषि सत्ता
    • लार्ड बेडेन (Kahani)
    • ध्यान धारणा का स्वरूप और उद्देश्य
    • जैव चेतना की सर्वोच्च शक्ति का सुनियोजन
    • मानसिक अस्तव्यस्तता भी थकान का एक कारण
    • पंडितों की समझ (Kahani)
    • नैतिकी एवं परिस्थितिकी परस्पर अन्योन्याश्रित
    • Quotation
    • घृणा एवं प्रेम को अतिवादी न होने दें
    • Quotation
    • जहाँ हो जाती हैं सारी भाषाएँ मौन!
    • सेन खलें तो ही ठीक है!
    • प्रशंसा के भूखे लोग (Kahani)
    • सेवा साधना के व्रतधारी-जरथुस्त्र
    • शक्ति केन्द्रों का जागरण ऊर्जा का उर्ध्वगमन
    • मित्र भी बन गये (Kahani)
    • ठालीपन की नीरसता भारभूत
    • क्रिया कौशल में हमसे आगे हैं जीव जन्तु
    • किसे महत्व देंगे? दलीलों को या भावनाओं को
    • सुख बाँटना और ज्ञान बटोरना (Kahani)
    • हमीं आमंत्रित करते हैं इन विपत्तियों को
    • प्रतिकूलताएँ हमें विचलित न करने पायें
    • दया भी-प्रताड़ना भी
    • विजय का श्रेय (Kahani)
    • चिरस्थायी सम्पदा-चरित्र-निष्ठा
    • व्याधियाँ तन में नहीं कहीं और उपजती हैं
    • अभिनव संकल्पों के साथ मनाया गया गुरु-पर्व
    • अपनों से अपनी बात - सतयुग की वापसी इस प्रकार संभव होगी।
    • इस वर्ष की सृजन-साधना
    • अन्तः पुकार
    • अन्तः पुकार (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1988 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


स्वर्ग कहाँ? अपने ही इर्द−गिर्द

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 7 9 Last
यह मान्यता सही नहीं हैं कि स्वर्ग कोई लोक विशेष हैं। वहाँ देवता रहते है और समस्त सुख-सुविधाओं के भण्डार भरे रहते है। इसी प्रकार यह प्रतिपादन भी सही नहीं हैं कि मृत्यु के बाद भगवान के समीप जा पहुंचता हैं और उनके जैसी सुविधाओं के बीच रहने लगता हैं। वैसे ही अधिकार प्राप्त कर लेता हैं, उसी प्रकार का स्वरूप बन जाता है। उन्हीं के साथ अविच्छिन्न बन जाता हैं। यह कल्पना उस प्रतिपादन से चली हैं, जिसमें ब्रह्मलोक को पृथ्वी जैसा कोई क्षेत्र विशेष माना गया है। भगवान को मनुष्य जैसी स्थिति में रहता हुआ कल्पित किया गया अनुमान लगाया गया हैं कि मोक्ष प्राप्त व्यक्ति उसी ब्रह्मलोक में निवास करने लगते हैं, जन्म-मरण के बंधन से छूट जाते हैं। उसी आनन्द लोक में मौज मजा करते रहते हैं।

वस्तुतः परब्रह्म निराकार है वह सर्वव्यापी हैं। सत्प्रवृत्तियों के समुच्चय, नियामक सूत्र संचालक, कर्मफल के न्यायाधीश जैसी स्थिति में उसकी कल्पना की जा सकती है। वह नियम रूप हैं। व्यवस्था का निर्धारणकर्ता और उसको सुसंचालित रखने वाला व्यवस्थापक। आकार वाले देहधारी भगवान की कल्पना तो ध्यान धारणा एवं पूजा उपासना के माध्यम से भक्ति भावना को अंकुरित एवं परिपक्व करने के लिये की गई है। वस्तुतः स्रष्टा शरीरधारी नहीं हो सकता। यदि वह एक जगह रहने लगे तो अन्यत्र उसकी उपस्थिति कैसे बन पड़ेगी? यही बात उसकी प्रसन्नता अप्रसन्नता के संबंध में हैं। यदि पूजा प्रार्थना वालों से यह प्रसन्न होता है तो नास्तिक समुदाय के लोगों के साथ उसका द्वेष भी होना चाहिये। द्वेष से तात्पर्य भक्तजनों को उपलब्ध होने वाली सुविधाओं से वंचित करना। जो प्रशंसा अभ्यर्थना से प्रसन्न होता होगा वह निन्दा, उपेक्षा को सहन नहीं करेगा और बदले की भावना से प्रेरित होकर उनका अहित अनिष्ट करेगा। किन्तु देखा जाता है कि इस संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो नास्तिक स्तर के तार्किक हैं। उसका अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करते। कहते है कि प्रकृति की स्वयंभू व्यवस्था ऐसी है जो सृष्टि क्रम को अपने ढंग से स्वसंचालित रखे रहती हैं। यदि ईश्वर ने

संसार बनाया तो फिर ईश्वर को बनाने वाला भी कोई होना चाहिए यदि ईश्वर स्वयंभू हो सकता है तो प्रकृति को भी वैसा ही मानने में क्या हर्ज है?

जब ईश्वर का शरीर होना और उसका किसी लोक या क्षेत्र विशेष में निवास करना संदिग्ध है तो फिर मरने के उपरान्त उसे आसपास प्राणियों का जमघट कैसे लगता होगा और वे मोक्ष के अधिकारी बनकर वहाँ निरर्थक रहते हुए अपना समय कैसे गुजारते होगे? सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य स्थिति में पहुँच कर अपनी सत्ता बनाये रहते हैं या उसी में धुल कर समाप्त कर देते हैं। यदि समाप्त हो जाते है तो उसे अपने अस्तित्व का विसर्जन कहना चाहिए। इस स्थिति के लिए न कोई सहमत हो सकता है। और न वैसी कल्पना ही कर सकने में मनः चेतना को सहमत कर सकता है।

यही बात देवलोक के संबंध में भी हैं। यदि शारीरिक सुख सुविधाओं के बाहुल्य वाले स्थान को स्वर्ग कहा जाय तो ऐसा लाभ तो धनिक वर्ग के लिए पैसे के बल पर कभी भी कही भी प्राप्त किया जा सकता है। उसके लिए स्वर्ग लोक तक की लम्बी यात्रा करने की क्या आवश्यकता हैं। फिर प्रत्येक जीवधारी को कुछ काम करने की व्यवस्था होनी चाहिए। निष्क्रिय आलसी पड़े रहने पर तो चेतना तक दुर्बल और समाप्त हो जाती है। एक रस स्थिति में रहते हुए जीवधारी उबने लगता है। स्वर्ग में यदि मात्र सुविधाओं का भोगना ही एक मात्र लाभ है तो उसका लाभ शरीर उठा सकता है। इन्द्रियों रहित सूक्ष्म शरीर ही यदि स्वर्ग जाता हैं तो सुविधा साधनों का लाभ उठाना अशरीरी सूक्ष्म शरीरधारी स्वर्गस्थ व्यक्ति को किस प्रकार मिलता होगा। इस प्रकार स्वर्ग लोक की कल्पना असंगत बैठती हैं। नरक लोक के बारे में भी सही बात हैं। प्राणान्त के उपरान्त जब शरीर की अन्त्येष्टि इसी लोक में हो जाती हैं। फिर सूक्ष्म शरीर की अन्त्येष्टि इसी लोक में हो जाती है। फिर सूक्ष्म शरीर वाली आत्मा को किस प्रकार यमदूत वैसी प्रताड़ना देते होंगे जैसी कि शरीर धारियों को ही दी जा सकती हैं। नरक लोक के बारे में भी कुछ पता नहीं चला कि वह ब्रह्मांड के गृहलोकों में कहीं है या नहीं?

फिर मरणोत्तर जीवन के संबंध में अनेक मत सम्प्रदायों की अलग-अलग प्रकार की मान्यताएं है। किसी का किसी के साथ मेल नहीं खाता। वैज्ञानिक शोधें भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचती। ऐसी दशा में स्वर्ग, नरक, मोक्ष, आदि पारलौकिक परिस्थितियों के संबंध में किस आधार पर किसी सुनिश्चित निष्कर्ष पर पहुंचा जाय।

अच्छा यही है कि प्रत्यक्ष जीवन में ही व्यावहारिक मनोविज्ञान के धरातल पर इन सभी मान्यताओं का समावेश कर लिया जाये। स्वर्ग को परिष्कृत दृष्टिकोण मानना ठीक होगा। संयमी सदाचारी जीवन जहाँ भी दृष्टिपात करता हैं, वहाँ विद्यमान सद्गुणों सत्प्रवृत्तियों को गंभीरतापूर्वक देखता हैं। आय व्यय का संतुलन बिठाकर संतोषपूर्वक जीता हैं। संयमशीलता अपना कर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को अक्षुण्ण रखे रहता हैं। अपनी विनम्रता, मधुरता, सदाशयता की प्रतिक्रिया भी सम्मान और सहयोग के रूप में उपलब्ध होती हैं। इन परिस्थितियों को उत्पन्न उपलब्ध कर लेना अपने लिए स्वर्ग का सृजन करना हैं। इसके विपरित दुर्गुणों, दुर्व्यसनों, दुराचरणों, में फस कर उनकी दुखद प्रतिक्रिया को सहन करते रहना नरक हैं। इसे भी अपने दूषित दृष्टिकोण और अगणित अनाचार अपनाकर मनुष्य स्वयं ही अपने लिए विनिर्मित करता हैं। इसी संसार में कितने ही व्यक्ति भावना क्षेत्र में देवोपम जीवन जीते हैं और स्वर्गीय सुख शान्ति का अनुभव करते हैं। साथ ही ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो शारीरिक मानसिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में विविध विधि दुरूह दुख सहन करते रहते है। निन्दित तिरस्कृत एवं भर्त्सना प्रताड़ना के भाजन बनते हैं। प्रतिरोध और पश्चाताप उन्हें आये दिन जलाते रहते हैं। इस स्थिति में पड़े हुए लोगों को नरक भोगने वाले कहा जा सकता हैं।

भवबंधनों से छुटकारा प्राप्त करके मोक्ष का आनन्द लेना भी इसी जन्म में पूर्णतया संभव हैं। मनोविकार ही भवबंधन हैं। गीताकार के अनुसार यह म नहीं बंधन और मुक्ति का निमित्त कारण हैं मनुष्य आप ही अपना शत्रु और मित्र हैं। अपना व्यक्तित्व और कर्तृत्व ही फलित होकर अमृत या विष का रूप धारण करता है। यदि वह गर्हित स्तर का है तो समझना चाहिए कि उसकी प्रतिक्रिया नरक या भवबंधन के रूप में त्रास देगी। परिस्थितियों में संकटों का समावेश होता जायेगा। अपनी पिछड़ी, अनगढ़ एवं अविवेक पूर्ण मनःस्थिति ही ऐसी परिस्थितियों का सृजन करती हैं, जिसमें शोक, संताप सब और से उमड़ते−घुमड़ते चले आते हैं।

अपने असंयम, असंतोष, अनाचरण से यदि छुटकारा प्राप्त कर लिया जाय तो समझना चाहिए कि अवाँछनीयता से छुटकारा मिल गया। देवत्व की उत्कृष्ट आदर्शवादिता व्यक्तित्व में समाविष्ट हो गई। इसी को स्वर्ग या मुक्ति समझा जा सकता है। इनकी प्राप्ति पूर्णतया अपने बस की बात हैं।

First 7 9 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • ज्ञान सबसे बड़ा देवता
  • उपासना के तीन उपक्रम
  • प्रगति का अनिवार्य आधार
  • मनुष्य में हिलोरें लेता चुम्बकीय महासागर
  • प्रशंसा के योग्य (Kahani)
  • अपरिग्रह व्रत का परिपालन
  • नसरुद्दीन बादशाह (Kahani)
  • स्वर्ग कहाँ? अपने ही इर्द−गिर्द
  • स्वस्थ जीवन का रहस्य (Kahani)
  • वेदान्त जोड़ेगा आध्यात्म और विज्ञान को
  • असाधारण मायावी (Kahani)
  • व्यक्तिवाद और अनौचित्य का संकट
  • सतयुगी व्यवस्था का मेरुदण्ड- ऋषि सत्ता
  • लार्ड बेडेन (Kahani)
  • ध्यान धारणा का स्वरूप और उद्देश्य
  • जैव चेतना की सर्वोच्च शक्ति का सुनियोजन
  • मानसिक अस्तव्यस्तता भी थकान का एक कारण
  • पंडितों की समझ (Kahani)
  • नैतिकी एवं परिस्थितिकी परस्पर अन्योन्याश्रित
  • Quotation
  • घृणा एवं प्रेम को अतिवादी न होने दें
  • Quotation
  • जहाँ हो जाती हैं सारी भाषाएँ मौन!
  • सेन खलें तो ही ठीक है!
  • प्रशंसा के भूखे लोग (Kahani)
  • सेवा साधना के व्रतधारी-जरथुस्त्र
  • शक्ति केन्द्रों का जागरण ऊर्जा का उर्ध्वगमन
  • मित्र भी बन गये (Kahani)
  • ठालीपन की नीरसता भारभूत
  • क्रिया कौशल में हमसे आगे हैं जीव जन्तु
  • किसे महत्व देंगे? दलीलों को या भावनाओं को
  • सुख बाँटना और ज्ञान बटोरना (Kahani)
  • हमीं आमंत्रित करते हैं इन विपत्तियों को
  • प्रतिकूलताएँ हमें विचलित न करने पायें
  • दया भी-प्रताड़ना भी
  • विजय का श्रेय (Kahani)
  • चिरस्थायी सम्पदा-चरित्र-निष्ठा
  • व्याधियाँ तन में नहीं कहीं और उपजती हैं
  • अभिनव संकल्पों के साथ मनाया गया गुरु-पर्व
  • अपनों से अपनी बात - सतयुग की वापसी इस प्रकार संभव होगी।
  • इस वर्ष की सृजन-साधना
  • अन्तः पुकार
  • अन्तः पुकार (Kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj