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Magazine - Year 1988 - Version 2

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किसे महत्व देंगे? दलीलों को या भावनाओं को

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विचारशीलता और तर्कों का अपना महत्व है। पर उन्हीं को सब कुछ मान बैठना पर्याप्त न होगा। मस्तिष्क में जो कल्पनाएँ उठती हैं उनकी अपनी किसी न किसी सरसता की पूर्ति एवं कामना की उपलब्धि का तथ्य काम करता रहा है। चूँकि मस्तिष्क शरीर का एक अंग है। मन ग्यारहवीं इन्द्रिय है इसलिए उस क्षेत्र की सारी घुड़दौड़ इसी क्षेत्र में चक्कर काटती रहती है। कल्पनाएँ सरसता के खूँटे से बँधी रहती है और वे सरसताएँ इन्द्रिय भोग लिप्साओं और मानसिक भोग लालसाओं से आगे नहीं बढ़ पातीं।

इन लिप्सा-लालसाओं का आवेग आकाँक्षा बन जाता है और इच्छा, अभिलाषा, आकाँक्षा जिस प्रकार का साधन चाहती है बुद्धि उसी के अनुरूप ताना बाना बुनने लगती है। उसी प्रकार के बानक बनाने और सुझाव सुझाने लगती है। इसीलिए देखते हैं कि जिसका मस्तिष्क जितना पैना होता है वह उसी प्रकार के छल छद्म और पाखण्ड रचता है। अपना मतलब साधने और दूसरों को मूर्ख बनाने में ही बुद्धिमानों की बुद्धि काम करती दीखती है। किसी क्षेत्र के जरूरत से ज्यादा समझदार उस प्रदेश में अधिक से अधिक कुचक्र रचते और अपराध करते पाये जायेंगे। जेलखानों में तो ऐसे ही प्रतिभाशाली लोगों का बाहुल्य भरा रहता है।

जिन मुकदमों की वास्तविकता की जानकारी हो, उनके मुजरिमों के बयान और वकीलों द्वारा प्रस्तुत किये गये तर्कों को देख सुनकर आश्चर्यचकित रहा जा सकता है कि दिमाग की दौड़, किस प्रकार सही को गलत और गलत को सही सिद्ध करने में कमाल दिखा सकती है। यही प्रपंच सामान्य जीवन में भी चलता रहता है कि फुसलाने, बहकाने, ठगने वाले के छद्मों को देख सुनकर दंग रहा जा सकता है। दिमाग किसी भी दिशा में कुछ भी काम कर सकता है। उसकी औसत गतिविधियाँ उचित को अनुचित, अनुचित को उचित सिद्ध करने में दलीलों के ढेर लगाती रहती हैं। इतने बड़े ढेर जिन्हें देख सुनकर सामान्य बुद्धि को हतप्रभ रह जाना पड़े।

प्रायः 60-70 वर्ष पूर्व शास्त्रार्थों का जमाना था। प्रतिगामी और प्रगतिशील सम्प्रदायों में अपनी-अपनी बात तर्कों और प्रमाणों से सिद्ध करने की प्रथा थी। उनमें सुनने वाले भी चोंचें लड़वाकर तमाशा देखने के लिए पहुँचते थे। जिस पक्ष के वक्ता अधिक दबंग होते थे उसी पक्ष की धाक जम जाती थी। न्याय और विवेक किसके पक्ष में गया यह कोई नहीं देखता था। आज भी विभिन्न प्रयोजनों में अलग ढंग में यही होता रहता है। चुनावी वक्तृताओं के सुनते समय यही लगता है कि इनमें से हर पक्ष सत्य हरिश्चन्द्र का अवतार है और जन कल्याण के अतिरिक्त इन प्रत्याशियों में से किसी की कोई कामना नहीं है। पर जीत जाने के उपरांत उनकी गतिविधियों को देखा जाता है तब पता चलता है कि इन दिनों जो कहा गया था वह छलावा मात्र था।

तर्क के सहारे हर पक्ष अपने को सही सिद्ध कर सकता है। वह अपने समर्थन में इतने प्रमाण और तथ्य प्रस्तुत कर सकता है कि उस मान्यता में कोई खोट निकालना कठिन पड़े। किन्तु जब प्रतिपक्षी की बात सुनी जाती है तब भी ठीक वैसा ही प्रतीत होता है जैसा कि पूर्व पक्ष अपनी बात को सही सिद्ध करने के लिए जोर लगा रहा था। ऐसी दशा में किसी निष्कर्ष पर कैसे पहुँचा जाय, किसी प्रतिपादन को कैसे अपनाया जाय।

पशुओं के, पक्षियों के और मछली जैसे जलचरों के संबंध में अर्थशास्त्री यही दलील देते हैं कि इनको बढ़ते रहने दिया जाय तो मनुष्य के लिए संकट खड़ा हो जाएगा और यह समस्त प्राणी अपनी बढ़ती संख्या के आधार पर भूखों मरने लगेंगे। इस प्रतिपादन को साँख्यिकी के बल पर सिद्ध करने के पक्ष में वे बूढ़े और बहुसंख्यक प्राणियों के बंध को एकमात्र उपाय बताते हैं और उन्हें जीवित रहने देने की अपेक्षा मृत शरीर का उपयोग करने में लाभ बताते हैं। अर्थशास्त्र के आधार पर अलाभकर पशुओं को कसाई खाने भेज देना ही बुद्धिमत्ता है। इस उपाय से भूमि तथा खाद्य को बचाकर मनुष्य के काम लाया जा सकता है। इस दलील को तर्क और साँख्यिकी के आधार पर काटा नहीं जा सकता।

जब यह दलील सही है तो बूढ़े माँ-बाप को भी उसी रास्ते मौत के घाट उतारते चलने में क्या हानि है? वरन् उनका स्थान और अन्न वस्त्र की बचत होने से बुद्धिमत्ता के आधार पर लाभ ही लाभ है।

इस प्रतिपादन के पक्ष में एक ही तथ्य आड़े आता है जिसे कहते हैं “भावना।” जिन माता-पिता ने इतना कष्ट सहकर बड़ा किया और अपनी क्षमता एवं सम्पदा को पूरी तरह निछावर कर दिया उनके प्रति कृतज्ञता का भाव रखते हुए ऋण चुकाने की आवश्यकता का अनुभव करते हुए वृद्धावस्था में उनका पोषण ही नहीं सेवा सहायता का भी मन करता है। वह मन की भावना ही है-जो पुण्य-परमार्थ, दान-सेवा आदि उच्च स्तरीय क्रिया-कलापों में संलग्न होने की प्रेरणा देती है। इसका दमन कर डालने पर मनुष्य का आन्तरिक स्तर पशुओं से भी गया बीता पिशाच स्तर का बन जाता है। यदि तर्क को प्रधानता देते हुए जिसमें लाभ हो वही करना हो तो और भी कितने ही तरीके हैं जिनका भौतिकवादी दार्शनिकों ने प्रतिपादन किया है। उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, पूँजीवाद, अधिनायकवाद आदि के पक्ष में बहुत कुछ लिखा, छपा और कहा गया मिल सकता है। दूसरे देशों की जनता को मार डालने, लूट लेने, अपंग बना देने और जो कुछ हाथ लगे उसे अपने देशवासियों की सुख-सम्पदा बढ़ाने के लिए लगा देना-सामन्तवाद है। युद्ध इसी की देन है। इसके पक्ष में पहले भी बहुत कुछ कहा जाता था और अब अणु युद्ध की-आकाश युद्ध की तैयारी में संलग्न देश ऐसी लच्छेदार भाषा में अपने प्रयासों का समर्थन करते हैं मानों विश्वशाँति की ठेकेदारी इन्हीं के चिन्तन और कृत्यों पर निर्भर है। दास-दासियों को वन्य पशुओं की तरह पकड़ने और बेचने वाले अपने पक्ष में अनेकों दार्शनिक दुहाइयाँ देते रहे हैं। वे उसे असभ्यों को सभ्य बनाने का प्रशिक्षण बताते और मानवी सेवा का एक उपयोगी प्रचलन चलाने की बात कहते रहे। दलीलें उनके पास भी कम नहीं थीं।

विरोध में भावना ही सामने आई। उसके समर्थन में मानवी गरिमा की, न्याय, विवेक की, परमार्थ और सेवा परोपकार की ही बहुलता थी जिनका हृदय समर्थन करता है। अन्तःकरण ही त्याग, बलिदान की, आदर्शों की, उत्कृष्टताओं की भाव भरी प्रेरणा भरता है। दलीलों के हिसाब से व्यक्तिगत रूप से इनमें घाटा ही उठाना पड़ता है।

दलील कहती है “जिसकी लाठी उसकी भैंस” का जंगली कानून जीव जन्तुओं में चलता है। बड़ी मछली छोटी को खा जाती है वैसा ही दौर मनुष्यों में क्यों चले? पुलिस कचहरी आदि की क्यों जरूरत पड़े? भावना कहती है कि मनुष्य के साथ जुड़ी हुई एक अन्तरात्मा भी है जो औचित्य, न्याय, विवेक, पुण्य परमार्थ आदि का समर्थन करती है पर भौतिक प्रचलनों के आधार पर उनका समर्थन दलीलों से नहीं हो सकता। प्रकृति प्रचलनों के उदाहरण प्रस्तुत नहीं किये जाते हैं। मनुष्य के लिए मानवी मर्यादा और गरिमा का एक स्वतंत्र विधान है, जो भावनाओं पर टिका हुआ है। उसी आधार पर दया-धर्म की, त्याग बलिदान की, संयम-सेवा की परम्परा निभती है। यदि मनुष्य पशु नहीं है तो उसे उत्कृष्टताओं की उन भावनाओं का अनुगमन करना पड़ेगा जा तथ्यतः उसकी महानता के साथ जुड़ सकती हैं।

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