Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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ईश्वर उपासना से जुड़ी श्रेष्ठ भावनाएँ
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उपासना प्रतिदिन करनी चाहिये। जिसने सूरज, चाँद बनाये, फूल-फल और पौधे उगाये, कई वर्ण, कई जाति के प्राणी बनाये, उसके समीप बैठेंगे नहीं तो विश्व की यथार्थता का पता कैसे चलेगा? शुद्ध हृदय से कीर्तन-भजन, प्रवचन में भाग लेना प्रभु की स्तुति है उससे अपने देह, मन और बुद्धि के वह सूक्ष्म संस्थान जागृत होते है। जो मनुष्य को सफल, सद्गुणी और दूरदर्शी बनाते है, उपासना का जीवन के विकास से अद्वितीय सम्बन्ध है।
किन्तु प्रार्थना ही प्रभु का स्तवन नहीं है। हम कर्म से भी भगवान् की उपासना करते है। भगवान् कोई मनुष्य नहीं है, वह तो सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान क्रियाशील सत्ता है, इसलिये उपासना का अभाव रहने पर भी उसके निमित्त कर्म करने वाला मनुष्य बहुत शीघ्र आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है। लकड़ी काटना, सड़क के पत्थर फोड़ना, मकान की सफाई, सजावट और खलिहान में अन्न निकालना, आदि भी भगवान् की ही स्तुति हैं, यदि हम यह सारे कार्य कर्म इस आशय से करें कि इससे विश्वात्मा का कल्याण होगा। कर्तव्य भावना से किये गये कर्म, परोपकारों से भगवान जितना प्रसन्न होता है, उतना कीर्तन और भजन से नहीं। स्वार्थ के लिये नहीं आत्म-सन्तोष के लिये किये गये कर्म से बढ़कर फलदायक ईश्वर की भक्ति और उपासना पद्धति और कोई दूसरी नहीं हो सकती।
पूजा करते समय हम कहते हैं-”हे प्रभु तू मुझे ऊपर उठा, मेरा कल्याण कर, मेरी शक्तियों को ऊर्ध्वगामी बना दे और कर्म करते समय हमारी भावना यह कहती है हे प्रभु तूने मुझे इतनी शक्ति दी, इतना ज्ञान दिया, वैभव और वर्चस्व दिया वह कम विकसित प्राणियों की सेवा में काम आयें। मैं जो करता हूँ उसका लाभ सारे संसार को मिले।”
इन भावनाओं में कहीं अधिक शक्ति और आत्म-कल्याण की सुनिश्चितता है।