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Magazine - Year 1994 - Version 2

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किंचित भी झूठा नहीं है, हमारा योग विज्ञान

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First 9 11 Last
अभी-अभी उन्होंने चाय समाप्त ही की थी, कि गेरुए वस्त्र में एक साधु कहाँ से आ पहुँचे। साधु की मुखमुद्रा देखने से ही लगता था कि इन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया है। यही नहीं-योग की उच्चस्तरीय भूमिकाएँ पार कर सिद्धावस्था प्राप्त है उन्हें। मस्तक पर अपूर्व तेज। भिखारियों की तरह विद्रूप मलिनता और आत्महीनता का भाव नहीं वरन् हाव-भाव चाल ढाल सबमें विलक्षण स्वाभिमान और बादशाह की सी मस्ती। कमंडलु के अतिरिक्त और कोई वस्तु साथ में नहीं, मुख प्रसन्नता से उद्दीप्त न कोई हीनता का भाव, न थकावट और परेशानी का ।

“कई दिनों से भूख और प्यास तंग कर रही है, साहब !” साधु ने विनम्र शब्दों में कहा-यदि एक दो रोटी टोस्ट, चाय या थोड़े से पैसे मिल जाते तो आपकी बड़ी कृपा होती।

मेजर कार्ल डिक ने चिलचिलाती गर्मियों में जैसी धूप होती है आँखों से ऐसा ही ताप बिखेरते हुए, साधु की ओर देखा और उपेक्षा से बोले जाओ-जाओ और किसी के घर में माँग लो, मेरे पास खिलाने का ठेका नहीं।

साधु ने इस उपेक्षा का बुरा नहीं माना। योगी का लक्षण ही है कि वह सुख-दुःख मान-अपमान में सदैव एक समान रहता है। उन्होंने हँस कर कहा-”साहब ! नाराज न हों क्या हिन्दू, क्या ईसाई, सृष्टि तो सभी परमात्मा की है। आप भेद क्यों करते हैं, आप से थोड़े से भोजन की याचना की है संभव हो तो पूरा कर दें।”

साहब की सहनशीलता कागज की नाव की तरह पानी में डालते ही गल गई। बड़े क्रोध से बोले- मक्कार हिन्दुस्तानी ! जाता है यहाँ से या अभी नौकर को बुलाकर धक्के मारकर बाहर निकलवा दूँ।

साधु की मुख मुद्रा में अभी भी न तो किसी प्रकार का क्रोध का भाव था न प्रतिशोध का। उसने धीमे से मुसकराते हुए कहा-महाशय ! जहाँ तक मेरे शरीर को अपमानित करने का प्रश्न है, वह कोई महत्व नहीं रखता पर चूँकि आपका सीधा प्रहार भारतीय योग, तत्वदर्शन पर है आपने सारे हिन्दुस्तानियों को मक्कार कह डाला-यह असह्य है।

साधु अभी कुछ और कहता इसके पहले ही क्रोध से भरे मेजर डिक ने चिल्लाकर नौकर को बुलाया और कहा-”इस मूरख को धक्के मार कर निकाल दो। नौकर भागा-भागा आया और मेजर की आज्ञा पालन करने के लिए जैसे ही बढ़ा उसके पाँव काठ की तरह निश्चेष्ट हो गए। आँखें निकल आयीं। वह एकटक भयभीत सा देख रहा था। साहब ने बहुतेरा डाँटा पर नौकर ऐसी अनसुनी कर गया जैसे हम किसी पत्थर के आगे कुछ बकते हैं और उस पर रत्ती भर प्रभाव नहीं पड़ता ।

साधु ने हँसकर कहा-”साहब ! नौकर पर नाराज क्यों होते हैं, वह तो मेरी इच्छाओं का वशवर्ती है। कहें तो आपको बाहर निकलवा दूँ। आप समझते हैं, हमारी योग साधनाएँ तपश्चर्याएँ मूर्खता है। आज आप अनुभव करें कि योग में साधारण मनुष्यों को ही नहीं पर्वतों और नदियों को भी इच्छावर्ती बना लेने की शक्ति है। हमारा अहंकार न बढ़े इसलिए सामान्य मनुष्य की तरह हम भीख माँग कर खाना खाते और जीते हैं।”

लेकिन मेजर साहब पर तो भौतिकता का भूत सवार था, अँग्रेजियत की शान चढ़ी थी। एक हिन्दू साधु से यकायक कैसे हार मान लेते। उन्होंने अपने पालतू कुत्तों को आवाज देकर पुकारा और साधु की ओर संकेत करके उन्हें बढ़ावा दिया कि वे साधु पर झपट पड़े और उसे काट खाएँ पर जैसे उन्हें लकवा मार गया हो, दोनों खूँखार कुत्तों ने एक बार मेजर की ओर देखा-दूसरी बार साधु की ओर खड़े हो गए, जैसे कोई द्वारपाल किसी सम्राट के अभिवादन के लिए खड़े हों। उनके शरीर तो क्या चेतना तक जवाब दे गई। काटना तो दूर वे भौंक तक नहीं सके।

मेजर के सारे शरीर से पसीना छूट गया। बुद्धि जवाब दे गई। साधु ने कमंडलु से थोड़ जल लिया और कहा-साहब ! मुझे आपसे कोई द्वेष नहीं, पर अब चूंकि हमारे धर्म को अपमानित करने की बात थी, इसलिए आपको कुछ दंड दिया जाय तो यह कोई दोष न होगा। मैं तुम्हें शाप देता हूँ आज से ठीक एक महीने बाद तुम मेरी तरह भूख से तड़पोगे, इस सारे शहर में माँगने पर तुम्हें रोटी न मिलेगी। तुम इस शहर में रह भी न सकोगे। यह कहकर उसने जल एक ओर छिड़क दिया और वहाँ से चुपचाप चल दिया। मेजर साहब का अभिमान अभी भी दूर नहीं हुआ था, तो भी उनके मुख पर भय के भाव निश्चित रूप से दिखाई दे रहे थे।

साधु वहाँ से चलकर लगभग एक फलांग दूर उसी लाइन के एक अन्य बंगले में प्रविष्ट हुए। यह बंगला कर्नल जार्ज का था। उनकी पुत्री इला बरामदे में बैठी अँग्रेजी का समाचार पत्र पढ़ रही थी। साधु उधर ही मुड़ गए।

“बेटी ! मुझे भूख सता रही है कुछ खाने को मिलेगा क्या?” साधु ने उसी विनयपूर्ण भाव और भाषा में पूछा-जिसका प्रयोग उन्होंने मेजर डिक के साथ किया था। इला को उन पर दया आयी। भले ही उसने यह न समझा हो कि यह साधु कोई सिद्ध महापुरुष है, पर उसे मानवता की सिद्धि का मूल्याँकन करना आता था। उसने कहा-बाबा जी ! बैठिये अभी आती हूँ। यह कहकर अंदर गई। थोड़ा दूध टोस्ट और फल लाकर साधु को दिए। साधु ने उन्हें खाया और पानी पिया। उनकी भूख शाँत हुई।

तृप्ति भरी मुसकान के साथ उन्होंने अपनी पोटली से एक फल निकाला फिर कर्नल की पुत्री की ओर देखकर कहा-पुत्री ! तू नहीं जानती हम योगी वह बात आगे से देख और जान लेते हैं, जो किन्हीं व्यक्तियों के साथ बाद में घटित होने को होती हैं। तुम्हारे घर में ठीक तीन सप्ताह बाद कोई बीमार पड़ेगा। डाक्टर और हकीम भी उसका इलाज नहीं कर सकेंगे। हमारे आयुर्वेद पर तुमको विश्वास तो न होगा, पर मैं तुम्हें एक दुर्लभ औषधि देता हूँ, यह फल हिमालय में मिलता है। जब सारा उत्तराखण्ड बर्फ से ढक जाता है तब यह बड़ी कठिनाई से मिलता है। यह फल ही तुम्हें चमत्कार दिखाएगा। जब तुम्हारे घर में कोई बीमार हो, डाक्टर हार जाये तब तुम एक अंगीठी में कोयले फूँकना जब कोयले दहकने लगें, तब उसमें यह फल रख देना। थोड़ा धुंआ छूटेगा और पटाखे की आवाज की तरह वह फूट जाएगा। उसके तुरंत बाद तुम देखोगी कि बीमारी की हालत में आश्चर्यजनक सुधार होगा और वह थोड़ी देर में ही अच्छा हो जाएगा।

लड़की को थोड़ा विस्मय हुआ, थोड़ा कौतूहल। फल उसने यों ले लिया कि उसने अपनी कई भारतीय सहेलियों से सुना था, भारतीय योगी-साधु सचमुच चमत्कारी होते हैं। वैसे उसका इस पर कोई विश्वास न था। फल लेकर उसने अपनी पुस्तकों के बीच कहीं छुपाकर रख दिया।

तीन सप्ताह बीते कोई अनहोनी बात नहीं हुई। पर उसके अगले ही दिन कर्नल जार्ज आफिस में काम करते हुए एकाएक गंभीर रूप से बीमार हो गए। काम छोड़कर उन्हें बीच में ही कार से घर पहुँचाया गया इला बहुत हैरान थी, कुछ अपने पिता की बीमारी पर कुछ उस साधु की बात का स्मरण करके कई सुयोग्य मिलटरी डाक्टरों ने उपचार किया पर कोई लाभ न हुआ। बम्बई से भी एक डाक्टर बुलाए गए, वह भी बीमारी ठीक न कर सके। कर्नल जार्ज की स्थिति मरणासन्न हो चली।

उसी दिन अपराह्न वही साधु एकाएक फिर कर्नल साहब के बंगले पर दिखाई दिए। उस समय इला अपनी सहेली मेजर डिक की पुत्री के साथ अपनी रसोई में थी। साधु को देखते ही इला बाहर आयी। उसे देखते ही बोले- “मुझे पता था तुम मुझ पर विश्वास नहीं करोगी तो भी तुम्हारे किए हुए उपकार का फल चुकाना मेरा कर्तव्य था, इसलिए दुबारा फिर आना पड़ा।

आगे की बात प्रारंभ करते हुए उन्होंने कहा-तुम्हारे पिता जी अस्वस्थ हैं, अब अंतिम समय है, तुम उस फल का प्रयोग करो तभी कर्नल साहब अच्छे हो सकेंगे।”

इला अपने पढ़ाई के कमरे में गई वह फल निकाला अंगीठी जलाई। जब कोयला अंगार हो गए तो वह फल उस पर रख दिया। थोड़ा धुंआ छूटा और फिर पटाखे की आवाज हुई।

इधर से बम्बई से आये डाक्टर कर्नल साहब की नब्ज़ टटोल रहे थे। जो शरीर कुछ क्षण पहले शव की तरह ठंडा हो रहा था, एकाएक उसमें गर्मी और चेतना दिखाई दी। डाक्टरों ने निश्चय किया, वह मृत्यु के पूर्व की अंतिम और तीव्र ज्योति है पर वे यह देखकर हैरान रह गए कि कर्नल साहब ने धीरे-धीरे आंखें खोल दीं। हलके मुस्कराने लगे। थोड़ी देर में स्थिति सामान्य हो चली। भयंकर स्थिति से देखते-देखते सामान्य स्वस्थ मनुष्य की सी स्थिति में आ जाना सचमुच बड़े आश्चर्य की बात थी। उपस्थित सभी डाक्टरों का स्वीकार करना पड़ा कि सचमुच अध्यात्म में कोई शक्ति है अवश्य जो पदार्थ के और भौतिक विज्ञान के नियमों का भी उल्लंघन कर सकती है। उन्होंने भारतीय योग की महत्ता भी स्वीकार की तब-जब इला ने और उसकी सहेली से सारी घटना आद्योपाँत विस्तार से डाक्टरों को कह सुनाई। सब कुछ सुनकर सभी लोग अवाक् थे ! वहीं पास खड़े मेजर डिक तो चौंके से पड़े। वे सोचने लगे जब दिया हुआ वरदान फलित हो सकता है, तब दिया गया शाप

जैसे-तैसे एक सप्ताह और पूरा हुआ। साधु को गए अब एक महीना पूर्ण हो चुका था। मेजर डिक साहब उस दिन प्रातःकाल समय पर ही उठे पर वह हैरान थे कि आज न तो कोई नौकर बैड टी लाया और न स्नान के लिए पानी ही, श्रीमती डिक ने बहुतेरी आवाजें लगाई पर जब वहाँ कोई सुनने वाला हो तब तो। मेजर उठे नौकरों के कमरों में जाकर देखा तो सब खाली पड़े थे। एक ही नौकर बचा था, सो उसने भीतर से ही चिल्ला कर कहा-”साहब इधर मत आना इस मुहल्ले में प्लेग फैल चुकी है। इन कमरों में भी चूहे मरे हैं, इसीलिए नौकर घर छोड़कर भाग गए। मुझे तो प्लेग हो गया है, इसलिए मैं तो भाग कर जा भी नहीं सका।”

मेजर ने पुलिस और स्वास्थ्य विभाग से सेवाएँ माँगी। नौकर को दवा का प्रबंध कराया और स्वयं सारा सामान बाँधकर वह बंगला छोड़ देने की तैयारी करने लगे।

सायं होने से पहले ही वे डाक-बंगले पहुँचे गए। इस आपाधापी में प्रातःकाल से चाय भी नहीं मिली थी। डाक बंगले के नौकर को आदेश दिया-”तीन कप चाय लाना।” चाय आई मेजर साहब उनकी धर्मपत्नी और पुत्री तीनों ने एक बार ही मुख लगाया और तीनों ने एक साथ अपने-अपने चाय के प्याले एक ओर सरका दिये। बात यह थी कि उनमें बुरी तरह मिट्टी के तेल की दुर्गंध आ रही थी।

अभी वे कुछ कहें इसी बीच सबका ध्यान कैप्टन स्मिथ नामक एक और अँग्रेज अफसर ने आकर बँटा लिया। जेब से पत्र निकालकर मेजर डिक को देते हुए स्मिथ ने बताया “छावनी के मेडिकल अफसर ने कहा है कि चूँकि आप लोगों के बंगले में प्लेग फैल गई है, इसलिए आप सबको छावनी एरिया से बाहर जाना पड़ेगा।” मेजर स्मिथ का माथा ठनका। उन्हें एक माह पूर्व हुई दुर्घटना याद आ गई। साधु का शाप क्या वस्तुतः सत्य होने जा रहा है? यह सोचते ही उनकी देह से पसीना फूट पड़ा।

अब जिस कोठी में उन्हें जाना था, उसका पता स्मिथ ने हाथ में थमा दिया। मेजर डिक बोले-”स्मिथ मैं वहाँ अभी चला जाता हूँ किन्तु हममें से किसी ने भी दिन भर हो गया, खाना नहीं खाया। पहले हमें खाना खा लेने दें।”

नौकरी तो नौकरी ठहरी। कोई उद्यम कर रहा होता तो भला अपने साथी को, एक असहाय व्यक्ति को दो टूक उत्तर देने की नौबत क्यों आती। स्मिथ को नौकरी चले जाने का भय था सो उसने कहा “मेजर साहब ! आप उस बंगले पर अभी चले जाएँ, आपके लिए भोजन का प्रबंध हम पीछे से करके ला रहे हैं।”

मेजर डिक वहाँ से तुरंत रवाना हो गए। नए बंगले में सामान पहुँच गया, पर उन्हें तो भूख सता रही थी। थोड़ी देर में कैप्टन स्मिथ अपनी पत्नी सहित वहाँ पहुँचे। देर के लिए क्षमा माँगते हुए उन्होंने बताया खाना तो बहुत पहले ही नौकर के हाथ ताँगे से भेज दिया गया था पर ताँगा किसी ट्रक से टकरा गया। खाना बिखर गया, नौकर अस्पताल में है हमें दुःख है कि आप भूखे हैं। इसलिए आप हमारे साथ चलिए घर से खाना खिलाकर लाते हैं।

सिनेमा के पर्दे पर जिस तरह रीलें घूमती हैं, उसी तरह कार्ल डिक के मस्तिष्क में इस समय एक महीने पहले घटी साधु वाली घटना के दृश्य याद आ रहे थे। उन्हें अब पूरी तरह संदेह और विश्वास हो गया था कि खाना मिलेगा नहीं। अपनी आशंका और शाप वाली बात उन्होंने कप्तान स्मिथ को भी बताई, पर स्मिथ ने उसे बहम बताया और मेजर साहब अपनी पत्नी और पुत्री के साथ उनके घर की ओर चल पड़े।

मार्ग में श्रीमती डिक ने मेजर से कहा-”हम मन ही मन उन साधु से क्षमा क्यों न माँग लें, संभव इससे ही संकट टल जाए, पर भावनाओं का मूल्य न समझने वाले मेजर डिक के लिए यह सोचना भी असह्य था। उन्होंने कहा-एक साधारण से मनुष्य से हम क्षमा नहीं माँग सकते। उन बेचारों को क्या पता था कि मनुष्य साधारण नहीं होता उसमें देवत्व का भंडार भरा पड़ा है। योगी उसी का विकास करके ईश्वरीय शक्तियों के समान काम करते हैं।

सब लोग स्मिथ की कोठी पर पहुँच कर खाने की मेज पर बैठ गए। अभी एक-एक प्लेट ही परोसी गई थी, नौकर पकाया हुआ माँस ला रहा था। मेजर डिक के पास आते-आते पैर में किसी वस्तु की ठोकर लगी और वह मेजर साहब पर ही जूझ गया। सारा शोरवा मेजर डिक पर ऐसे बिखर गया जैसे उनके साथ होली खेली गई हो। लाज के मारे मेजर चूहा-बिल्ली बन गए। उधर भूख के मारे बुरा हाल। सारी दिमागी ठसक निकल गई।

कप्तान स्मिथ ने उनके कपड़े बदलवाए। गर्दन में चोट आ गई थी सो दवा मली। दुबारा फिर खाने की मेज पर बैठे। नौकर एक ढके हुए बर्तन में कुछ लाया और मेजर साहब के सामने रख गया। मेजर ने ढक्कन खोला तो अजीब दुर्गंध आई। प्लेट में सड़ी हुई घास और पेड़ों के पत्ते रखे थे। कप्तान स्मिथ नौकरों पर बरस पड़े। नौकर भी आश्चर्यचकित थे कि हम तो अच्छा खाना लाए थे, मार्ग में ही यह क्या हो गया। मेजर ने चुपचाप स्वीकार कर लिया कि यह सब उन संन्यासी के शाप का फल है।

वे चुपचाप उठ पड़े। स्मिथ ने खाने के लिए मनाया और इस अपराध जैसे काम के लिए क्षमा भी माँगी, पर मेजर डिक वहाँ रुके नहीं। अपमान की हद हो गई थी। वह दिन यों ही गया। उन्हें पानी पीकर ही रात काटनी पड़ी।

दूसरे दिन वे रेलवे स्टेशन इस आशा के साथ पहुँचे कि वहाँ के होटल में खाना मिल जाएगा। किंतु कहते हैं आफत जब आती है तो साथ-साथ घूमती है-होटल बंद मिला। डिक महोदय स्टेशन मास्टर के पास गए तो उसने बताया कि प्लेग का असर हो जाने के कारण होटल बंद कर दिया गया है। उसने कहा-अगले स्टेशन पर भोजन का अस्थाई प्रबंध कर दिया गया है, आप वहाँ जाकर भोजन कर आयें। किंतु दुर्भाग्य कि वहाँ के लिए कार का कोई मार्ग था नहीं और रेलगाड़ी छूट चुकी थी। दूसरी गाड़ी दूसरे दिन जा सकती थी, उस दिन कोई और गाड़ी वहाँ जाने वाली भी नहीं थी।

मेजर साहब घर की ओर लौटे, मार्ग में एक मिठाई वाले की दुकान से थोड़ी मिठाई खरीदी, पर वहाँ पर मिठाई खाना उन्हें अपने स्वाभिमान के प्रतिकूल जान पड़ा। मिठाई कार में रख कर वे आगे बढ़ गए। आगे एक पीपल का पेड़ था वहीं वे रुके। तीनों व्यक्तियों ने मिठाई जैसे ही हाथ में ली कि उसे फेंकते ही बना। मिट्टी के तेल की ऐसी बदबू जैसे वह मिठाई बनी ही मिट्टी के तेल की हो। तीनों ने मिठाई फेंक दी।

तभी वही साधु कार की ओर आते दिखाई दिए। मेजर का अभिमान हवा हो चुका था। वे समझ चुके थे कि आत्मा की भी कोई शक्ति होती है, तीनों ने प्रणाम कर क्षमा माँगी।

साधु ने हँसते हुए कहा-”मुझे दुःख है कि आप लोगों को बड़ा कष्ट हुआ। पर मैं करता क्या? यदि आपको इतना सबक न सिखाया जाय तो आप न जाने क्या-क्या दुर्व्यवहार करते फिरें। अब आपके लिए अच्छा यही है कि स्यालकोट छोड़कर कहीं और चले जायें। इस शहर में आपको खाना नहीं मिल सकता।”

साधु तीनों को लेकर पास ही एक कुटी थी वहाँ गए। तीनों को बैठकर उन्होंने तीन पत्तलें सँजोई। शुद्ध शाकाहारी भोजन उन्होंने अपने हाथों से परोसा। झोपड़ी में कोई था भी नहीं, चूल्हा चौका भी नहीं था, पर भोजन था बिलकुल गर्म-गर्म । तीनों ने भर पेट खाना खाया बड़ा स्वादिष्ट भोजन था।

भोजन कर चुकने के बाद उन्होंने फिर साधु से क्षमा माँगी और अपने घर आए। सामान लादकर वे उसी रात बंबई के लिए चले गए। इस घटना को उस समय के सभी प्रमुख समाचार पत्रों ने छापा। इसी का प्रभाव था अँग्रेज अधिकारियों ने भारतीय साधुओं का, हिन्दू धर्म का उपहास करना बंद कर दिया।

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