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Magazine - Year 1994 - Version 2

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सतयुगी संकल्प-ईश्वरीय सत्ता का

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इन दिनों विश्व जिस अराजकता और उथल-पुथल के दौर से होकर गुजर रहा है, उसे देखते हुए ऐसा लगता नहीं कि निकट भविष्य में जल्द ही यह संकट टलने वाला है। यह प्रत्यक्षवाद पर आधारित निर्णय-निष्कर्ष है। पर परोक्ष की भी इस संदर्भ में उपेक्षा नहीं की जा सकती। भविष्यवाणियाँ परोक्ष दर्शन पर ही आवृत होती है और अनेक बार शत-प्रतिशत सत्य सिद्ध होती हुई देखी जाती है।

पिछले दिनों ऐसा ही एक भविष्य कथन “टाइम” पत्रिका में मदर स्रिप्टन का प्रकाशित हुआ। इंग्लैंड की इस भविष्यवक्ता ने आने वाले समय का बड़ा उज्ज्वल और आशावादी विवरण प्रस्तुत किया है। वे कहती हैं बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में ऐसी भीषण और भयंकर अस्थिरता विश्व भर में दिखाई पड़ेंगी कि एक बार यह आशंका होने लगेगी कि विश्व-विनाश सुनिश्चित है। इन्हीं दिनों प्रकृति-प्रकोप भी चरम सीमा पर होगा। महामारी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकंप, बाढ़, अकाल, ज्वालामुखी, विस्फोट सभी संसार के के विभिन्न हिस्सों में इस कदर तबाही मचायेंगे कि लोग त्राहि-त्राहि कर उठेंगे। इसमें गृहयुद्ध, शीतयुद्ध, अंतर्राष्ट्रीय विद्वेष, एक-दूसरे से आगे निकल जाने की आपाधापी कोढ़ में खाज की तरह साबित होंगे। वर्ग-संघर्ष, सत्ता संघर्ष, धार्मिक उन्माद, वैयक्तिक संकीर्णता बढ़ोत्तरी पर होंगे, जिससे दुनिया के कई स्थानों में भीषण रक्तपात होगा। स्नेह-सौजन्य और मातृत्व की भावना का निरंतर ह्रास दिखाई पड़ेगा। यह ह्रास वैयक्तिक स्तर से लेकर राष्ट्रों तक में इस कदर होगा कि प्रत्येक अपने से छोटे और कमजोर को दबाने-दबोचने से लेकर अपने में मिला लेने तक में कोई संकोच न करेगा। “नैतिकता” बोलचाल को सैद्धाँतिक शब्द भर बन कर रह जायेगी। व्यवहार में तो सर्वत्र अनीति और अन्याय का ही बोलबाला होगा।

मदर स्रिप्टन लिखती हैं कि इन विसंगतियों के बावजूद विषम स्थिति देर तक टिकी रह न सकेगी। एक ऐसी विचार चेतना का नवोदय घनघोर घटाटोप के बीच से उन्हीं दिनों होगा, जिससे सारी प्रतिकूलताएँ देखते-देखते तिरोहित हो जायेंगी और वातावरण कुछ ऐसा बनेगा, जिसे आने वाले स्वर्णयुग की आधारशिला कहा जा सके। फिर इसी नींव पर नवयुग की सुदृढ़ इमारत विनिर्मित होगी। यह इमारत इतनी मजबूत और विशाल होगी कि अपनी भव्यता के कारण सदियों तक स्मरण की जाती रहेगी। स्रिप्टन कहती हैं कि इस नव-निर्माण में भारत का योगदान अप्रतिम होगा। सच्चाई तो यह है कि इसकी पहली भूमिका वहीं बनेगी और सर्वप्रथम उसे ही गलाई-ढलाई से गुजरते हुए अपना कायाकल्प करना होगा। तत्पश्चात् यह प्रक्रिया संदेशवाहकों और शाँतिदूतों के माध्यम से भारत के बाहर संपन्न होगी और देखते-देखते विश्व के कोने-कोने तक में अपना कलेवर-विस्तार करती चली जायेगी। परिवर्तन प्रक्रिया की संपूर्ण अवधि को स्रिप्टन ने दो सदी जितना बताया है। उनके अनुसार 21 वीं शताब्दी में 2025 तक बदलाव इतना स्पष्ट हो जायेगा कि वह व्यक्ति के चिंतन और आचरण में स्फुट झलकने लगेगा। सन् 2040 के आस-पास तक परिवर्तन समग्र और पूर्ण हो जायेगा। इसके उपराँत विश्व एक ऐसे शाँत और सुस्थिर युग में प्रवेश करेगा, जिसे दिव्यता की दृष्टि से अध्यात्म युग और प्रखरता की दृष्टि से स्वर्णयुग कहा जा सके। इसकी अवधि उनने हजार वर्ष से भी अधिक बतायी है। इसके बाद स्रिप्टन में स्वर्णयुग में लोगों का चरित्र-चिंतन, भौतिक संपन्नता, आध्यात्मिक उन्नति, अर्थव्यवस्था, संचार-सुविधा आदि का वर्णन किया है।

आगामी समय का उल्लेख करती हुई वे कहती हैं कि तब अर्थव्यवस्था तो पूँजीवादी जैसा होगा। लोगों को अधिकाधिक उपार्जन करने का अधिकार तो होगा, पर संपत्ति का नियोजन समाज के हाथों में होगा। अधिक ने और अनावश्यक व्यय करने की नीति अन्यायपूर्ण मानी जायेगी और वह किसी प्रकार बर्दाश्त नहीं की जायेगी। समान वितरण प्रणाली के अंतर्गत सभी लोग सुविधाओं का बराबर-बराबर उपभोग करेंगे। किसी को दूसरे के हिस्से को दबाने और निगलने की छूट नहीं होगी। छूट होगी तो इतनी भर कि वे कम से कम साधनों का उपयोग करें और जीवन-निर्वाह की आवश्यकता पूर्ति के बाद शेष बचे साधनों का उपयोग समाज सेवा के लिए करें, किंतु यह सब किसी बाह्य अथवा दंड द्वारा लागू नहीं होगा। आत्मानुशासन द्वारा इनका निर्वाह स्वतः होता रहेगा। जो इस आचार-संहिता की अवहेलना करेंगे, समाज में उनकी गणना अन्यायी, अत्याचारियों जैसी होगी। वे निम्न और क्षुद्र स्तर के असभ्य माने जायेंगे। ऐसे कुछ एक अपवादों को छोड़ दिया जाय, तो हर क्षेत्र में हर जगह विलक्षण समानता नजर आयेगी। निजी विभूतियों और व्यक्तिगत प्रतिभाओं के कारण बौद्धिक और मानसिक स्तर की असमानता भले ही दीख पड़े, पर भौतिक भिन्नता किसी प्रकार जीवित न रह सकेगी। यदि जिंदा रही, तो असुर बन कर ही साँस ले सकेगी।

पदार्थ विज्ञान का उल्लेख करती हुई वह कहती हैं कि उसका विकास तब चरमोत्कर्ष पर होगा। जिन क्षेत्रों में आज सोचते तक नहीं बन पड़ रहा है, अथवा जिनकी कल्पना तक नहीं की जा सकी है, उनका आविष्कार लोगों को चमत्कृत कर देगा। अनेकानेक ऐसे यंत्र-उपकरण विकसित कर लिये जायेंगे, जो आने वाले समय को भौतिक विकास की दृष्टि से अभूतपूर्व बना दें, किंतु इनके विकास में पदार्थपरक जानकारी का महत्व कम और अंतस् से आविर्भूत ज्ञान की महिमा अधिक होगी। इन दोनों के समन्वय से ही विज्ञान सर्वोच्च शिखर पर सुशोभित होगा। ऐसे यानों का निर्माण संभव होगा, जो बिना किसी ईंधन के सहारे द्रुतगति से उड़ सकें। इनकी सहायता से कई ऐसे ग्रहों की यात्रा शक्य हो सकेगी, जिनके बारे में अभी सोचा तक नहीं गया है। अंतर्ग्रही सभ्यता का पता लगा लिया जायेगा। तब विज्ञान कई क्षेत्रों में क्राँतिकारी परिवर्तन लायेगा। समुद्र में नये संपदा-भंडार की जानकारी मिलेगी। नये प्रकार के द्रुतगामी वाहन विकसित किये जायेंगे। आज के वाहनों का कोई मूल्य और महत्व न रह जायेगा। पर्यावरण को दूषित करने वाले प्रचलित वाहनों की तुलना में आगामी समय में ऐसे वाहनों का निर्माण होगा, जो पर्यावरण को अनावश्यक गंदगी से मुक्त रख सकें और समयानुरूप अपनी उपयोगिता भी सिद्ध करते रहें। वैसी वस्तुओं का उत्पादन रोक दिया जायेगा, जो जीवन को भोगी और विलासी बनाती हैं। इनके स्थान पर वैसी चीजें अधिकाधिक परिमाण में विनिर्मित की जायेंगी, जिनसे जीवन-मूल्यों में विकास होता हो। आग्नेयास्त्रों का बनना नहीं के बराबर होगा। तब इसकी आवश्यकता लगभग समाप्त हो जायेगी। जिन उद्देश्यों में आज इनका प्रयोग होता है, उस समय बदली मानसिकता से उत्पन्न हुए उत्कृष्टतावादी विचार के कारण ये निरुपयोगी सिद्ध होंगे। सामाजिक असहयोग और निंदा घृणित कार्यों के रास्ते प्रबल प्रतिरोध बन कर आड़े आयेंगे और उस प्रयोजन की सहज पूर्ति करते रहेंगे, जिनके लिए इन दिनों बल प्रयोग का अंतिम उपाय अपनाया जाता है।

ईंधन का नया विकल्प समुद्र में ढूँढ़ लिया जायेगा। फिर अधिकाँश कल-कारखाने इसी ऊर्जा से चलेंगे। परंपरागत ईंधन उस समय तक या तो चूक चुके होंगे अथवा समाप्ति के कगार पर पहुँच चुके होंगे। कई अन्य ऊर्जा स्रोतों का भी पता लगा लिया जायेगा। यह ऊर्जा-स्रोत सहायक की भूमिका संपन्न करते हुए विश्व को ईंधन के महत्वपूर्ण भाग की आपूर्ति करते रहेंगे। वाहनों की अनावश्यक बाढ़ कम होने से ऊर्जा की खपत कम हो जायेगी। उस बचत से औद्योगिक प्रतिष्ठानों की सक्रियता लंबे समय तक सजीव बनी रहेगी। निर्जीव-निष्प्राण फिर कोई इकाई ऊर्जा की कमी के कारण नहीं होगी।

चिंतन-चरित्र में आदर्शवाद का समावेश जरूरी समझा जायेगा। वर्तमान में जिसे पुस्तकों में पढ़ने-सुनने तक सीमित माना जाता है, उन दिनों लोगों के आचरणों में उतरता प्रत्यक्ष देखा जा सकेगा। जनसामान्य अधिक व्यावहारिक होंगे। ईश्वरीय सत्ता के प्रति एक बार पुनः आस्था जगेगी। आस्तिकता प्रतिष्ठिता होगी और नास्तिकता का अंत सदा-सर्वदा के लिए हो जायेगा। स्वयं को उस सर्वोच्च सत्ता का जीवंत प्रतिनिधि समझा जायेगा और जीवन में उन उच्चस्तरीय निर्धारणाओं को समाविष्ट करने पर बल दिया जायेगा, जो मनुष्य को वास्तविक अर्थों में परमात्मा का अंशधर साबित कर सके। बुद्धि पर विवेक का अंकुश होगा। किसी भी कार्य को करने से पूर्व व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर उसके व्यापक हानि-लाभ पर गंभीरतापूर्वक हजार बार सोचा जायेगा। इसके उपराँत ही उसे क्रियान्वित करने की बात सोची जायेगी। भावना, क्रिया और विचार का अद्भुत सामंजस्य इसी काल में देखा जायेगा। लोग किसी एक का अकेला आश्रय लेना पसंद

नहीं करेंगे। जहाँ क्रिया और विचार आवश्यक हों, वहाँ भावना प्रवाह में बहना असंतुलन माना जायेगा। सब इससे बचेंगे।

वर्तमान परिस्थितियों और सत्प्रवृत्ति विस्तार की बढ़ती गतिविधियों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मदर स्रिप्टन का पूर्वाभास किस कदर सच्चाई के करीब पहुँचता जा रहा है। इसमें दो मत नहीं कि युग-परिवर्तन का संकल्प ईश्वर की प्रबल आकाँक्षा है। उसकी इस आकाँक्षा को मूर्तिमान बनाने का ठीक यही उपयुक्त समय है। यदि इस अवसर पर हम गिलहरी जितना स्वल्प पुरुषार्थ भी दिखा सकें, तो भगवान के साथ साझेदारी निबाहने का श्रेय-सौभाग्य हमको निहाल बनाये बिना न रह सकेगा।

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