
प्रतिकूलताओं से जूझने की मनःस्थिति बनाएँ
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आवश्यक नहीं कि सदा अनुकूलता ही बनी रहे। जीवन में प्रतिकूलता का भी स्थान और उपयोग है। यदि सदा सुविधाएँ ही बनी रहें तो व्यक्ति को किसी बड़े पुरुषार्थ की आवश्यकता न पड़ेगी। संघर्ष में पड़ने का कभी अवसर ही न आवेगा और इस हेतु जिस सूझबूझ का, साहस और धैर्य को अपनाना आवश्यक होता है उसकी कभी आवश्यकता ही न पड़ेगी। बिना प्रयोग में आये हर वस्तु सड़ती और घटती है जिन्हें प्रतिकूलताओं का सामना नहीं करना पड़ता जो सदा सुख-सुविधाओं में ही डूबे रहते हैं उनकी प्रतिभा पलायन कर जाती है। कठिनाइयों को देखकर वे हतप्रभ हो जाते हैं और तिल को ताड़ बना बेहिसाब घबराते और बेमौत मरते हैं।
माना कि सुविधाओं की अधिकता से जीवन-यापन में सुविधाएँ मिलती हैं। उन्नति की दिशा में सरलतापूर्वक अधिक तेजी से चला जा सकता है। इतने पर भी इस स्थिति में एक कमी बना रहती है कि उत्पन्न अभिवर्धन
के लिए जिस प्रबल पराक्रम की आवश्यकता पड़ती है उसे प्राप्त करने का अवसर ही नहीं मिलता। पौरुष और पराक्रम के दोनों ही स्रोत सूखे पड़े रहते हैं।
जिन्हें सदा प्रकाश में ही रहना और काम करना पड़ता है उन्हें रात्रि का अँधेरा बहुत भयानक लगता है। उसके रहते एकाकी सुनसान में जाते हुए उनका दिल धड़कता है। आवश्यक काम होने पर भी उस प्रवास के लिए हिम्मत नहीं पड़ती, किंतु कितने ही लोग ऐसे हैं जिनका कारोबार अँधेरे में ही काम करने से संबंधित है। चोर-डाकू अँधेरे से घिरे बीहड़ों में ही छिपे रहते हैं और अँधेरी रातों में ही घात लगाने के लिए निकलते हैं। घटाटोप वर्षा में भी खेत की मेड़ों से पानी बाहर न निकलने देने के लिए किसान उसी अँधेरों में साज-संभाल करने जाता है। अभ्यास से डर भगाया जा सकता है और साहसिकता को क्रमशः बढ़ाया जा सकता है।
ऐसे लोग कम ही हैं जिन्हें पूर्वजों की छोड़ी विपुल संपदा हाथ लगी है। जिनने ब्याज भाड़े के सहारे जिंदगी गुजारने की व्यवस्था करली हो या अगली पीढ़ियों के लिए भी निश्चित हों। इन अपवादों के लिए भी, संचय को सुरक्षित, सुव्यवस्थित रखने के लिए हिम्मत और दूरदर्शिता को आवश्यकता पड़ती है। भलाई को अपनाना और बुराई को छोड़ना पड़ता है। यदि ऐसा न किया जाय तो जो संग्रह था वह भी दूसरों के द्वारा किसी न किसी प्रकार के हथकंडे अपनाकर अपहरण कर लिया जाता है। कमाने से भी अधिक रखाने और पचाने का कार्य कठिन है। किसान पूरा परिश्रम करके खेती को उगाता, बढ़ाता है, पर फसल पकने पर यदि असावधानी बरती जाय तो पौधों पर लगे हुए दाने पशु-पक्षियों के पेट में ही चले जाते हैं। संयोजक को खाली हाथ ही रहना पड़ता है। सतर्कता हर स्थिति में आवश्यक है।
यों मनुष्य जन्मतः एकाकी ही आता है और जब दम तोड़ता है तो चिता पर अकेला ही सोता है। इसलिए साथियों और सहायकों की आशा रखकर जीवित रहते समय और परावलंबी होकर काम नहीं चलाया जा सकता, फिर भी इतना तथ्य तो हर किसी को स्मरण रखना होता है कि मिलजुल कर रहा जाय। सहकार के अवसरों को हाथ से न जाने दिया जाय। दूसरों की सहायता, सद्भावना प्राप्त करने का एक ही तरीका है कि पहल अपनी ओर से की जाय। गेंद फेंक कर जितने जोर से जिस दिशा में भी फेंकी जाती है वह आगे वाले अवरोध से टकरा की उसी गति से वापस लौट आती है। लोक व्यवहार से हमारी भूमिका जितनी सदाशयतापूर्ण होती है बदले में उसी अनुपात से दूसरों का सद्व्यवहार हमें उपलब्ध होता है।
कई बार प्रतिकूलताएं सामने आती हैं। लोगों के दुर्व्यवहार आड़े आते हैं। इन परिस्थितियों में कई व्यक्ति सकपका जाते हैं। प्रतिरोध करना, बच निकलना तो दूर उनसे अपना पक्ष प्रस्तुत करते तक नहीं, बनता अभिव्यक्तियों को मन ही मन दबाए रहना, संकोचवश अपनी समस्याओं और कठिनाइयों को प्रकट न करना एक अवगुण है जो घुटन पैदा करता है। घुटन अपने आप में एक विशालता है जो अंततः प्रकटीकरण की तुलना में अधिक हानिकारक सिद्ध होती है।
पत्थर के कोयले जलाकर सर्दी के दिनों में कई लोग कमरा गरम करने की दृष्टि से उसे छोटी कोठरी में बंद कर लेते हैं और तात्कालिक शीत निवृत्ति का लाभ भी अनुभव होता है, किंतु देखा गया है कि उस विषैली गैस से कोठरी में सोने वालों का दम घुट जाता है। सबेरे वे सभी लोग मरे निकलते हैं, जो लोग अपनी समस्याओं घुटते रहते हैं जी की जलन प्रकट नहीं होने देते, असंतोष एवं आक्रोश छिपाये रहते हैं वे मन समझाने को तो यह मानते हैं कि चुप रहकर उनने शाँति बनाये रखी, पर यह तथाकथित शाँति प्रकट अशाँति से महँगी पड़ती है। दूसरे लोग वास्तविकता को समझ नहीं पाते। घुटने वाले पर निराशा का, मन में विद्वेष रखने का, रूठने का, बुरे स्वभाव का लाँछन लगाते हैं। उपेक्षा बरतने के रूप में उसे प्रताड़ित करते हैं। इस प्रकार सहानुभूति की जो अपेक्षा की गई थी वह भी हाथ से चली जाती हैं।
समस्याओं के समाधान का सीधा तरीका यह है कि अपनी बात आवेश में नहीं, तथ्यों और तर्कों के साथ संबंधित व्यक्तियों के सामने रखी जाय। इतने भर से काम न चलता हो तो जो हस्तक्षेप कर सकते हैं, सुलझाव का वातावरण बना सकते हैं उनके सामने भी जटिलता को रखा जाय और उसका समाधान निकालने के लिए सहयोग प्राप्त किया जाय।
कहते हैं कि माता भी बिना माँगे रोटी नहीं देती। उलझनों का सही ढंग से सद्भाव भरा समाधान दूसरों से भी पूछा जा सकता है। वस्तुस्थिति विदित होने पर ही स्वजन संबंधी भी उस ओर ध्यान देते हैं, औचित्य का पक्ष लेते हैं और भ्रमग्रस्त को समझाते, अनीति अपनाने वाले को रोकते हैं। ऐसा न भी होता हो तो घुटन को प्रकट कर देने पर मन तो हलका होता ही है। यह लाभ भी कुछ कम नहीं।
घुटन भरी परिस्थितियों को अपने पक्ष की हलचल उभार कर ही उलझन को सुलझाया और कठिनाई से निपटा जा सकता है। इस हेतु मुखर निपटा जा सकता है। इस हेतु मुखर होना आवश्यक है। वस्तुस्थिति को प्रकट करते रहने से अनीतिकर्ता पर भर्त्सना बरसती है और समुदाय का दबाव पड़ता है। अपनी करतूतों पर पुनर्विचार करने का मन बनता है और अंततः दबाव मिटता या घटता है।
डर कर चुप ही बैठना या दरगुजर करते रहना, शाँति प्रिय होना नहीं हैं। सहनशील तो वे कहलाते हैं जिनके ऊपर अशुभ प्रतिक्रिया ही नहीं होती। अनुकूलता को वे प्रगति के लिए प्रयुक्त करते हैं और प्रतिकूलता के सामने अपने समूचे साहस और पराक्रम का प्रयोग करते हैं। ऐसे ही लोग उभयपक्षीय परिस्थितियों का लाभ उठाते हैं। प्रतिकूलताओं से लड़ने की मनःस्थिति बनाना और साधन जुटाना ऐसा कार्य है जिसके सहारे व्यक्तित्व को सुविकसित और प्रतिभा संपन्न बनाया जा सकता है।