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Magazine - Year 1994 - Version 2

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संवेदना व सहकार की सरस निर्झरिणी

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इस संपूर्ण सृष्टि में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो भावनाशील हैं। उसमें से यदि संवेदनाएँ निकाल दी जायँ , तो फिर जो शेष बचेगा, वह भले ही कलेवर से मनुष्य जैसा हो, पर स्तर मानवीय नहीं कहा जा सकेगा। भाव-संवेदनाएँ ही हैं, जो जीवन को जोड़ कर रखती हैं, मनुष्य-मनुष्य के बीच मैत्री स्थापित करती है-व्यवस्था बनाये रहती हैं। दुर्भावनाओं से युक्त संसार और मरघट में कोई अंतर नहीं रह जाता। दूसरी ओर सद्भावनाओं की शीतल छाया उपलब्ध हो, तो लोग अभाव की स्थिति में भी आनंदपूर्वक जीवन जीते हैं। संवेदनाएँ न होतीं, तो संसार बिखर गया होता, अब तक कभी का नष्ट भ्रष्ट हो गया होता।

यह मनुष्य के लिए दुर्भाग्य की बात है कि उस जैसा विचारशील प्राणी जबकि इन मानवीय गुणों से रिक्त होता जा रहा है, तब भी सृष्टि के दूसरे अबोध प्राणियों की भाव-संवेदनाएँ अक्षुण्ण हैं। मनुष्य मर्यादाशील विचारशील प्राणी होने का गर्व करता है, पर टूटते हुए दाँपत्य संबंध, नष्ट होती पारिवारिक शाँति, उच्छृंखल होती जा रही पीढ़ियाँ और अराजकतापूर्ण सामाजिक संबंध यह बताते हैं कि हमारा जीवनक्रम गड़बड़ाता जा रहा है। हम चाहें तो प्रकृति के दूसरे जीवों से इस संदर्भ में शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं।

“डिक-डिक” जाति का हिरन पत्नीव्रती होता है, वह सदैव जोड़े में रहता है। अपने जीवनकाल में वह कभी किसी अन्य हिरनी की ओर आँख उठा कर भी नहीं देखता। शेर और हाथी के बारे में भी ऐसी ही बात होती है। जोड़ा बनाने से पूर्व वे पूर्ण सतर्कता बरतते हैं, किंतु एक बार जोड़ा बना लेने के बाद वे तब तक इस मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करते, जब तक कि नर या मादा में से किसी एक की मृत्यु न हो जाय। मृत्यु के उपराँत भी कई ऐसे होते हैं, जो पुनर्विवाह की अपेक्षा विधुर जीवन व्यतीत करते हैं। इस प्रकार वे अपने समुदाय की संवेदना सहज ही प्राप्त करते रहते हैं और दूसरों के दुर्दिनों में अपनी संवेदना भी प्रदर्शित करते हैं।

चिंपांजीयों की पारिवारिक और दाँपत्य निष्ठ मनुष्य के लिए एक उदाहरण है। यह अपना निवास पेड़ों पर बनाते हैं। जोड़ा बनाने के बाद चिंपांजी अपने दाँपत्य जीवन को निष्ठापूर्वक निबाहते हैं और किसी अन्य मादा या नर की ओर आकृष्ट होकर वे कभी भी अपनी वैवाहिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते। जब समस्त परिवार अपने वृक्षीय आवास में आराम कर रहा होता है, तो नर पेड़ के नीचे रहकर उनकी सुरक्षा करता है। कर्तव्यपरायणता से ओत-प्रोत चिंपांजी का यह दायित्व देखते ही बनता है। परस्पर का प्रेम न हो, तो यह कभी भी संभव नहीं।

जंगली बतखों में भी इस प्रकार की निष्ठ देखी जा सकती है। इन बतखों की लगभग चालीस जातियाँ होती हैं, किंतु हर बतख अपनी प्रजाति के अपने जोड़े के अतिरिक्त कभी किसी अन्य की ओर आकृष्ट नहीं होती। जापानी मैंडेरिन इनके बहुत अधिक समीप होती हैं, किंतु जीवशास्त्रियों के अनेक प्रयत्नों के बावजूद उसने उससे मिलन से इनकार कर दिया।

उल्लू एकबार अपने साथी का चयन कर लेने के बाद गृहस्थ जीवन की मर्यादा का आजीवन पालन करते हैं। मादा को 30-35 दिन तक अंडे सेने में लगते हैं। इस अवधि में नर अपनी मादा के लिए स्वयं भोजन जुटाता है और उसकी रक्षा करता है। बच्चे बड़े होने पर ही उड़ना और शिकार करना सीख पाते हैं। इस मध्य उन्हें माता-पिता का आश्रय निरंतर मिलता रहता है।

धनेश पक्षी को तो और भी अधिक कष्टपूर्ण साधना करनी पड़ती है। अंडे सेने के लिए आवश्यक ताप तथा मादा की सुरक्षा के लिए वह जिस कोटर में रहती है, नर उसका मुख बंद कर देता है, वह उतना ही खुला रहता है, जिससे चोंच भर बाहर निकल सके। बस इसी से नर अपनी मादा को खिलाता-पिलाता रहता है।

मातृत्व भावना यदि देखनी हो तो सारस पक्षी को देखना चाहिए। वे अपने अंडे इतने सुरक्षित पानी से घिरे स्थानों में देती हैं, कि उन्हें किसी प्रकार की कोई क्षति न पहुँचे। यदि किसी तरह वहाँ कोई अन्य जानवर पहुँच जाता है, तो सारस उसे रक्त-रंजित बनाकर भाग जाने के लिए मजबूर करते हैं। वे अपने अंडे बच्चों को कभी भी अकेला नहीं छोड़ते । एक साथी सदा उनके पास बना रहता है।

कौवे और सर्प जैसे जीव भी अपने बच्चों के प्रति अत्यधिक भावनाशील होते हैं। कौवे के अंडे-बच्चों से यदि कोई छेड़खानी करे, तो समूचा काक-समुदाय छेड़ने वाले पर टूट पड़ता है। सर्प अपने बच्चों को कुँडली में रखते हैं। इस अवस्था में भोजन का प्रबंध नर के जिम्मे होता है। छछूँदर गर्भधारण के बाद से ही भावी शिशु के लिए खाद्य-संग्रह आरंभ कर देती है, ताकि प्रसव के बाद जब तक बच्चे भली प्रकार चलने-फिरने न लगें, तब तक वह वहीं रह कर उनकी पहरेदारी कर सके।

इस संबंध में सबसे सुचारु व्यवस्था हाथियों में होती है। वे न केवल बच्चे की अपितु समूचा कबीला गर्भिणी को एक घेरे में रखकर उसकी सुरक्षा का प्रबंध करता है यदि ऐसे समय उस पर कोई आक्रमण करे, तो हाथी इतने अधिक खूँखार हो उठते हैं कि सारे जंगल को उजाड़ कर रख देते हैं।

हिन्द महासागर की कुछ मछलियाँ तो अंडों के समुच्चय को अपने साथ-साथ लिए फिरती हैं। ऐसा वह तब तक करती है, जब तक उनसे बच्चे न निकल जायँ और स्वयं तैरने ने लगें। एरियस तथा तिलपिया मछलियाँ तो अंडों को अपने मुख में सेती और बच्चों के आत्मनिर्भर होने तक अपने ही साथ रखती हैं। तिलपिया को थोड़ी भी आशंका हो, तो वह अपने बच्चों को मुँह में छिपा कर उनकी रक्षा करती है। कुत्ते, बिल्ली जिस सावधानी से बच्चों को मुख में दबाकर उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं, यह उससे भी अनूठा उदाहरण है। चूहों के दाँत बड़े तेज होते हैं, किंतु बच्चों को उठाते समय उन्हें कहीं भी कोई खरोंच नहीं आती इतनी कोमलता से उन्हें उठाते हैं।

मछलियाँ पानी में रहने वाली जीव हैं, पर गौराई जाति की मछलियाँ एक विशेष प्रकार की घास से अपना घोंसला बनाती और उसी में बच्चे पालती हैं। यही नहीं, उन्हें चिड़ियों की तरह बड़े होने तक स्वयं ही खिलाती-पिलाती भी हैं। सील मछलियाँ अपने बच्चों के पोषण के लिए अपने शरीर में भोजन की पहले से प्रचुर मात्रा एकत्र कर लेती हैं और उन्हें वे पाँच सप्ताह तक उसी के बल पर किनारे पड़ी सेती रहती हैं। इस अवधि में वे पूर्ण उपवास करती हैं। संतति प्रेम का यह अद्भुत प्रतिमान है।

आरंगटन और गिवन बंदर तथा चिंपांजी पेट या पीठ पर लादे बच्चों को बड़े होने तक घुमाते हैं। कई बच्चे मर जाते हैं, तो भी ये मातृत्व पीड़ावश कई-कई दिनों तक उनकी लाश को ही छाती से चिपकाये घूमते रहते हैं। ओपोसम बोमनेट के कंगारू की तरह की पेट में थैली होती है। बच्चों को वे उसी में रख कर पालते हैं। कहीं रुकने पर व इन्हें बाहर निकाल कर खेलना और शिकार करना सिखाते हैं।

वेल्स द्वीप से एक बार नाम, क्रम आदि के पहचान पट्ट पैरों में बाँध कर कुछ जल कपोतों को विमान से ले जाकर अन्य देशों में छोड़ दिया गया। इनमें एक कपोती भी थी जिसने हाल ही में दो बच्चों का प्रसव किया था। उसे ले जाकर 930 मील दूर तक एक अन्य टापू में छोड़ दिया गया, पर मातृत्व स्नेह ने उसे वहाँ रहने नहीं दिया। 15 दिनों की कष्टपूर्ण यात्रा के बाद वह अपने बच्चों के पास लौट आयी। जिन कपोतों के बच्चे नहीं थे, साथी थे, वे भी उनसे पृथक नहीं रह सके। अटलाँटिक और जिब्राल्टर होते हुए 3700 मील की लंबी यात्रा कर वे 5-6 महीनों में लौट आये।

इससे स्पष्ट होता है कि कर्तव्य पालन की मूल प्रेरणा संवेदनाओं से प्रस्फुटित होती है। यह संवेदना ही है, जो पारस्परिक स्नेह-सौजन्य को विकसित करती है। प्रगति का आधार भी यही है। व्यक्ति कभी इससे विहीन नहीं रह सकता। जब वह धारा के विपरीत जाता है, तो उसे ऐसी अनेक कठिनाइयों, उलझनों, विपत्तियों, विग्रहों का सामना करना पड़ता है, जैसे इन दिनों वह कर रहा है। सामंजस्य स्नेह का सहोदर है।

जहाँ सद्भावना होगी, वहाँ तालमेल स्वतः बनता और निभता चला जाता है। मानवेत्तर प्राणी इसी कारण मजे में रहते और दिन गुजारते हैं, क्योंकि उनमें पारस्परिक प्रेम अक्षुण्ण रहता है। सद्भाव के अभाव से स्वार्थ पनपते हैं और दो प्रतिद्वंद्वी स्वार्थों के संघात से विद्वेष और वैमनस्य उपजते हैं। जहाँ कटुता होगी, विग्रह होगा, वहाँ प्रगति भी ठप्प हो जायेगी और अवगति का मार्ग अपना लेने की मूर्खतापूर्ण दृश्यावलियाँ दिखाई पड़ेगी। आज यही हो रहा है। पारस्परिक सद्भाव घट कर तिल जितना रह गया है और स्वार्थी की टकराहट ने बढ़ की हिमालय जितना विस्तार ग्रहण कर लिया है, जिससे सर्वत्र अराजकता और अशाँति का वातावरण छाया दीखता है। परिवार से लेकर समाज, राष्ट्र तक में आज ऐसे विषम दृश्य इसी कारण दिखाई पड़ रहे हैं। परिवार विश्रृंखलित हो रहे हैं, समाज टूट रहे हैं और राष्ट्र खण्ड-खण्ड हो रहे हैं-इसके पीछे संवेदना और सहिष्णुता की कमी ही कारणभूत है। हम सद्भाव और सहनशक्ति पैदा करें, यही वर्तमान बिखराव का एक मात्र समाधान है। इसे हर हालत में प्राप्त किया ही जाना चाहिए।

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