
अष्ट सिद्धियों का स्वरूप व उनका जागरण
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आत्मा अनंत शक्तियों का भाँडागार है। उसमें अपने उद्गम केन्द्र परमेश्वर की समस्त शक्तियाँ बीज रूप में सन्निहित हैं। उन्हें उगाने और बढ़ाने के लिए योग-साधना एवं तपश्चर्या का खाद-पानी लगाना पड़ता है, साथ ही साथ उच्चस्तरीय चरित्र निष्ठ एवं उदार सेवा सहायता का अवलंबन अपनाना पड़ता है। इस नीति को अपना कर कोई भी साधक बुद्धिमान माली की तरह अपने अंतः क्षेत्र में विद्यमान ऋद्धि-सिद्धियों को उभार कर उनसे भरा-पूरा उद्यान खड़ा कर सकता है। इसके लिए बाहर से कुछ ढूँढ़ने, लाने या पाने की आवश्यकता नहीं है। मात्र कषाय−कल्मषों की परतों को हटा देने भर का साहस सँजो लेना पर्याप्त है। आत्मशोधन और आत्म परिष्कार ही विभिन्न साधनाओं, तपश्चर्याओं का वास्तविक उद्देश्य है। अंगारे पर चढ़ी राख की परत ही उसे धूमिल और निस्तेज बना देती है। यह परत हअते ही अंगारा फिर अपनी गर्मी और प्रकाश का परिचय देने लगता है। चिंतन, चरित्र कर्तृत्व को यदि उत्कृष्ट एवं उच्चस्तरीय बना लिया जाय तो फिर आत्मिक प्रखरता के कारण उपलब्ध होने वाली असंख्य ऋद्धि-सिद्धियों के मार्ग में और कोई बड़ा व्यवधान शेष नहीं रह जाता।
योगाभ्यास-परक साधना एवं उपासना के समस्त क्रिया-कलाप, विधि-विधान इस उद्देश्य के लिए विनिर्मित हुए हैं कि उनमें निर्दिष्ट संकेतों का अनुसरण करते हुए मनुष्य अपने व्यक्तित्व को अधिकाधिक परिष्कृत एवं उदात्त तथा स्वयं को पवित्र बनाता चले। आत्म परिष्कार की इस प्रक्रिया में जिसने जितनी सफलता पायी वह उसी स्तर का संत, ऋषि, महामानव, देवता एवं अवतारी कहा गया। सामान्य मनुष्यों की तुलना में इन महामानवों को ब्रह्मलोक के निवासी कहा और उन्हें चमत्कारी माना जाता है। लौकिक सफलताओं को समृद्धि कहते हैं, किंतु आत्मोत्कर्ष की अलौकिक उपलब्धियाँ ‘विभूतियाँ’ एवं ‘सिद्धियाँ’ कहलाती हैं। सिद्धपुरुषों के चमत्कारी कर्तृत्व ही संसार भर के महामानवों को ऐतिहासिक श्रेय-सम्मान प्रदान करते हैं। उनकी गतिविधियाँ एवं सफलतायें असाधारण होती हैं, इसलिए उन्हें चमत्कारी भी कहा जाता है। यह चमत्कार बाजीगरों कर जादूगरी जैसे कौतुक-कौतूहल नहीं होते, वरन् इस तरह अर्जित प्रतीत होते हैं कि भव-बंधनों में जकड़े हुए दीन-दयनीय मनुष्यों के लिए जो संभव नहीं था, वह उनने सामान्य परिस्थितियों और स्वल्प साधनों से ही कि प्रकार आश्चर्यजनक ढंग से कर दिखाया। साधना से सिद्धि मिलने और सिद्धि के चमत्कारी होने की मान्यता का यही सुनिश्चित और ठोस आधार है।
जीवनोद्देश्य की पूर्णता ही सबसे बड़ी सिद्धि मानी जाती है। साधना का लक्ष्य उसे प्राप्त करना है। योगशास्त्रों एवं उपनिषदों में वर्णित चौरासी प्रकार के योग एवं विविध विधि तप-साधनाओं का लक्ष्य उसी तक पहुँचाने का है। साधना मार्ग पर चलते हुए सील के पत्थरों की तरह अनेकों छोटी-बड़ी सिद्धियाँ भी बीच-बीच में आती रहती हैं। इनसे लौकिक ऐश्वर्य और पारलौकिक सुख-शाँति का मार्ग प्रशस्त होता है।
सिद्धियों का वर्णन सभी योग ग्रंथों में मिलता है। योगी और सिद्धपुरुषों में कुछ विलक्षण प्रतिभा, सामर्थ्य एवं शक्ति देखी जाती है। उनमें सामान्य मनुष्य की अपेक्षा कहीं विशिष्ट आत्मबल होता है, जो विविध रूपों में परिलक्षित होता है। सिद्धपुरुष अपनी उपार्जित सिद्धियों का लाभ अपने निज के लिए नहीं उठाते, पर उनसे दूसरे सत्पात्रों को लाभान्वित करते रहते हैं। अपना आत्मबल देकर दूसरों की आत्मा को ऊपर उठा देने की महान सेवा तो वे निरंतर करते ही रहते हैं, यदा-कदा किन्हीं साँसारिक अभाव और कष्टों से पीड़ित व्यक्तियों को अपनी साधना का एक अंश देकर उन्हें कष्टमुक्त कर देते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें अपना पुण्य-तप कष्ट पीड़ित को दान रूप में देना पड़ता है और उसके कठिन प्रारब्ध भोग को भुगतने को स्वयं तत्पर होना पड़ता है। संसार में हर वस्तु एक नियत नियम के आधार पर चल रही है। केवल कोरे आशीर्वाद देने से किसी का कोई भला नहीं हो सकता। सच्चा आशीर्वाद जो फलित हो, वही व्यक्ति दे सकता है जिसके पास तप की पूँजी संग्रहित हो और उसके एक भाग को आशीर्वाद के साथ देते हुए दूसरे का कठिन प्रारब्ध भोगने के लिए स्वयं तैयार हो। शक्तिपात के द्वारा दूसरों की आत्मा को ऊंचा उठाने में भी यही प्रक्रिया पूर्ण करनी पड़ती है। यह सब सिद्ध पुरुषों के लिए ही संभव है और सिद्धि साधना के ऊपर टिकी हुई है। कठिन तपश्चर्या एवं उच्चस्तरीय व्यक्तित्व द्वारा ही उसे उपार्जित रूप में वह किसी को नहीं मिलती।
साधना मार्ग में अग्रसर साधकों को समयानुसार जो सिद्धियाँ मिलती है, उनका वर्णन योगशास्त्रों एवं उपनिषदों में मिलता है। उनकी संख्या आठ हैं, जिन्हें अष्ट सिद्धियाँ भी कहते हैं। उनका वर्णन इस प्रकार है-
आत्म सिद्धि-इंद्रिय संयम, मनोनिग्रह, स्थित प्रज्ञता की प्राप्ति, समाधि, आत्म साक्षात्कार, ईश्वर दर्शन, तत्वज्ञान, भूतजय, मोक्ष, पंच क्लेशों से निवृत्ति, भव बंधनों से मुक्ति संसार की किसी भली-बुरी परिस्थिति का प्रभाव ग्रहण न करना।
विविधा सिद्धि:- पंच तत्वों पर नियंत्रण, उनके द्वारा अभीष्ट वस्तुयें तथा परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकना, दूसरों के मन में अपनी भावना तथा मान्यता की स्थापना।
ज्ञान-सिद्धि-तीक्ष्ण बुद्धि, तीव्र स्मरण शक्ति, भूतकाल में हुई तथा भविष्य में होने वाली घटनाओं को जान सकना, दूरस्थ और समीपवर्ती परिस्थितियों का समान रूप से साक्षात्कार, पूर्वजन्मों को वृत्ताँत जानना, सब प्राणियों के मनोगत भावों को जानना, शास्त्रों का सारदर्शन, अंतः करण में वैराग्य और निस्पृह प्रेम।
तपसिद्धि:- कठोर तप कर सकने की शक्ति, सर्दी-गर्मी को बिना कष्ट के सहन, भूख प्यास पर नियंत्रण, जल-थल और आकाश पर विचरण कर सकना।
क्षेत्र सिद्धि:- थोड़े स्थान में बहुत विस्तृत वस्तुओं का समा सकना, सूक्ष्मशरीर द्वारा देश-देशाँतरों और लोक लोकाँतरों में भ्रमण कर सकना, अपने तेजस् को बाहर दूर-दूर तक फैला कर उस क्षेत्र के दुख तथा अभावों को दूर कर सकना, शरीरस्थ देवताओं का साक्षात्कार।
देवसिद्धि:- देवताओं, यक्ष, गंधर्व, प्रेत, पिशाच, बेताल, ब्रह्मराक्षस, छाया पुरुष आदि का अनुग्रह, स्वामित्व और सहयोग प्राप्त करना। मंत्र सिद्धि, सिद्ध योगियों का ब्रह्मरंध्र में संबंध-सात्रिध्य, षट्चक्रों और कुँडलिनी का जागरण।
शरीर सिद्धि:- दृष्टि या स्पर्श मात्र से दूसरों को निरोग और कष्ट मुक्त कर देना, अपार शारीरिक बल, अद्भुत मनोबल, उत्कृष्ट चिंतन, निर्वाध भाषण, शाप-वरदान से दूसरों को नष्ट कर देना या जीवन दान देना, स्पर्श से पदार्थों का स्वादिष्ट और सुगंधित हो जाना, स्वल्प आहार से बहुतों को तृप्त कर देना, वाणी एवं आशीर्वचनों का सफल होना, शरीर का कायाकल्प, दीर्घजीवन या अमर होना।
विक्रया सिद्धि:- अपने शरीर को अन्य शरीरों में परिवर्तित कर लेना, दूसरों के शरीरों को परिवर्तित कर देना, शरीर को अति भारी, अति हल्का, अति सूक्ष्म, अति विशाल बना लेना, अंतर्ध्यान हो जाना, सर्ववशीकरण, सब कामनाओं की पूर्ति के साधन जुटाना।
पातंजलि योगदर्शन एवं अन्यान्य ग्रंथों में जो आठ सिद्धियाँ गिनायी गयी हैं, वे इस प्रकार हैं- (1)-अणिमा-शरीर को अणु के समान सूक्ष्म कर लेना (2) महिमा-शरीर को बहुत बड़े आकार का बना लेना (3) गरिमा शरीर को बहुत भारी बना लेना (4) लघिमा-शरीर को बहुत हल्का कर लेना (5) प्राप्ति-दूरस्थ पदार्थों को स्पर्श अथवा प्राप्त कर लेना (6) प्राकाम्य-कामनाओं को अभिलाषित रूप में पूर्ण कर लेना (7) ईशित्व-शरीर और मनके भीतरी संस्थानों एवं चक्रों पर प्रभुता तथा संसार के अन्य पदार्थों को अपनी इच्छानुसार प्रयोग कर सकने की सामर्थ्य। (8) वशित्व-सब परिस्थितियों अथवा वस्तुओं को अपने वशवर्ती रख सकना।
अन्य शास्त्रों में सिद्धियों को अन्य रूपों में भी उपस्थित किया गया है, जिनका उल्लेख कई प्रकार से मिलता है। आद्य शंकराचार्य के मतानुसार सिद्धियाँ निम्न प्रकार की हैं-
(1)-जन्म सिद्धि-जन्म से ही पूर्व संचित संस्कार तथा वैभव प्राप्त होना (2) शब्द ज्ञान सिद्धि-श्रवण मात्र से सही अनुमान होना (3) शास्त्र ज्ञान सिद्धि-शास्त्रों के अभ्यास से असाधारण बुद्धि का विकास (4) आधिभौतिक ताप सहन शक्ति (5) आध्यात्मिक ताप सहन शक्ति (6) आधिदैविक सहन शक्ति (7) विज्ञान सिद्धि-अंतः करण से तत्वज्ञान का स्फुरण होना (8) विद्या सिद्धि-विद्या के द्वारा अविद्या का नाश। किन्हीं-किन्हीं शास्त्रों में-(1) परकाया प्रवेश (2) जल आदि में असंग (3) उत्क्राँति (4) ज्वलन (5) दिव्य श्रवण (6) आकाश मार्ग गमन (7) प्रकाशावरण क्षण (8) भूत जय-आदि को अष्ट सिद्धियाँ माना गया है।
सच तो यह है कि मनुष्य शरीर में समस्त देवशक्तियाँ विद्यमान हैं जिन्हें साधना एवं तपश्चर्या द्वारा जाग्रत एवं विकसित किया जाता है। इस दिशा में अपने गुण, कर्म, स्वभाव एवं चिंतन, चरित्र, व्यवहार में साधक जितनी अधिक पवित्रता एवं प्रखरता का समावेश करता जाता है, उसी क्रम से एक से बढ़कर एक उच्चस्तरीय विभूतियाँ-सिद्धियाँ हस्तगत होती चली जाती हैं। मनुष्य का मौलिक स्वरूप देवत्व प्रधान है। अतः शारीरिक, मानसिक और आत्मिक क्षेत्र की सिद्धियाँ भी अगणित प्रकार की हैं, उन्हें आठ या किसी अन्य संख्या में विभाजित नहीं किया जा सकता। आत्मबल की जिस दिशा में लगा दिया जाय, उसी में चमत्कार पैदा हो जायेगा और वह एक स्वतंत्र सिद्धि दिखाई देने लगेगी।
साधना की सफलता के रूप में उपरोक्त सिद्धियाँ समयानुसार सामने आती हैं, पर उनकी ओर आकर्षित होना, उन्हें अधिक महत्व देना, उनका प्रदर्शन करना अथवा उनसे कोई भौतिक लाभ उठाना, गर्व करना और चमत्कारी बनकर लोगों को अपने पीछे लगाना एक भारी भूल है।
योगदर्शन विभूति पाद (37) में कहा गया है- “ते समाधावुपसर्ग व्युत्थाने सिद्धयः।” अर्थात् ये सिद्धियाँ समाधि में विघ्न रूप हैं। जाग्रत अवस्था में सिद्धियाँ हैं। इसी ग्रंथ में वि. पा. के 50 वें सूत्र में उल्लेख है- “तद्वैराग्यादपि दोष बीज क्षये कैवल्यम्।” अर्थात् इन सिद्धियों से भी मन हटा लेने पर दोषों का बीज नाश होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार ‘योग सुधाकर’ में कहा है- ‘तत्रापेक्षास्यत् तदा मोक्षाद् भ्रष्टः। कथं कृतकृत्य ताभियात्-’ अर्थात् यदि इन सिद्धियों की आकाँक्षा रही तो साधक मोक्ष-पथ से भ्रष्ट
हो जायेगा। फिर उसे लक्ष्य प्राप्ति कैसे होगी?
ईश्वर का अनुग्रह तथा पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए एक मात्र उपाय साधना है। इसे परम पुरुषार्थ माना गया है। अपने कुसंस्कारों से निरंतर लड़ते रहना, जीवन क्षेत्र में सत्प्रवृत्तियों की फसल उगाना, पशुता को देवत्व में परिणत कर देना-यही है साधना को स्वरूप। साधना उपक्रमों के साथ जुड़े हुए इस दिशा निर्धारण को जो समझते हैं और बिना हारे अनवरत प्रयास करते हैं, उन्हें सिद्ध पुरुष होने का अवसर निश्चित रूप से मिलता है। साधना से सिद्धि का सिद्धाँत अकाट्य है। प्रयास के साथ जुड़ी हुई उपलब्धि का प्रमाण, परिचय हर साधक कभी भी, कहीं भी प्राप्त कर सकता है। साधक को सिद्धियाँ मिलती हैं जिसको देखते हुए यह जाना जा सकता है कि साधना में कितनी प्रगति हुई। सिद्धियाँ और चमत्कारी क्षमतायें, देवी अनुग्रह केवल इसलिए उपलब्ध होते हैं कि उनका उपयोग मानव कल्याण के लिए किया जा सके। यही साधना का मूल लक्ष्य है एवं इसी राजमार्ग पर चलते हुए वह सब कुछ पाने का प्रयास किया जाना चाहिए जो कि साधक को अभीष्ट है।