
अपनों से अपनी बात- - आशावाद के राजमार्ग पर चलने का आमंत्रण
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जिस समाज या राष्ट्र में आत्मबल चुक जाता है, साँस्कृतिक विरासत के प्रति गरिमा का भाव समाप्त होने लगा है एवं सुसंस्कारिता-चरित्रनिष्ठ का स्थान कुसंस्कार एवं राष्ट्रीय चरित्र की गिरावट लाने वाले तत्व लेने लगते हैं, वह समाप्त पराधीन कहलाता है। उस पर कोई भी कभी भी आक्रमण कर सकता है-बंदी बना सकता है व उसकी मूलभूत थाती को समाप्त कर सकता है। विगत डेढ़ हजार वर्षों के अंधकार युग में ऐसा ही कुछ भारतवर्ष के साथ हुआ। अतीत का स्वरूप इतना स्वर्णिम गौरवान्वित करने वाला तथा आज का वर्तमान का स्वरूप कुछ ऐसा कि राजनीतिक दृष्टि से स्वतंत्र होते हुए भी आर्थिक-साँस्कृतिक हर दृष्टि से स्वतंत्र होते हुए भी आर्थिक-साँस्कृतिक हर दृष्टि से परतंत्र होना हमारी कहानी स्वयं कहता है। जिस राष्ट्र को कभी जगद्गुरु कहा जाता था, चक्रवर्ती माना जाता था, वह आज इतना विवश, पतन पराभव की स्थिति में क्यों हैं व क्यों वह अपने आत्मगौरव को अपनी संस्कृति की मूल्यों की गरिमा की पहचान नहीं पा रहा? इन कारणों की शीघ्रातिशीघ्र समझना व उपचार के प्रयास करना आज आपातकालीन स्तर के प्रयासों की तरह अनिवार्य माना जाना चाहिए एवं द्रुतगति से धर्मतंत्र के प्रगतिशील मंच की ओर से इसके लिए प्रयास चलना चाहिए।
अब जब हम 1994 में प्रवेश कर रहे है तथा 1947 में मिली आजादी के बाद 47 वर्ष और एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में बिता चुके हैं, यह एक विचारणीय प्रश्न है कि “सुपरपावर” कहा जाने वाला, प्राकृतिक भौगोलिक हर दृष्टि से विलक्षण, प्रतिभा संपन्न यह देश क्यों जातिवाद, संप्रदायवाद तथा देश की अखंडता को खतरे में डालने वाली आसुरी सत्ताओं के जाल से निकल कर बाहर नहीं आता। गणतंत्र के रूप में इस राष्ट्र को 1950 की 26 जनवरी को घोषित किया गया था व वैविध्यपूर्ण संस्कृति की अभिनव सृष्टि रूप में विनिर्मित इस राष्ट्र का विभाजन से आहत होने के बाद सुगठित कर एक महाशक्ति बनाने का जो संकल्प लिया गया था, वह क्यों गौण हो गया व अन्य ऐसे मुद्दे क्यों आ गये जो किसी प्रासंगिक स्थिति में नहीं है, यह एक गंभीर व पेचीदगी से भरी पहेली है, जिसे हर भारतवासी को अब बुझाना ही होगा।
राष्ट्र की भौतिक प्रगति, कर्मठ निष्ठावान नागरिकों के पुरुषार्थ पर ही संभव हो पाती है। राष्ट्रीय चरित्र जिंदा किये बिना, गले तक डूबे भ्रष्टाचार की दलदल से उबरे बिना हम कभी भी भौतिक क्षेत्र में परिस्थितियों को सही होने व प्रगति के सरंजाम खड़ा होने की कल्पना नहीं कर सकते। आस्थाओं को सशक्त किये बिना राष्ट्र को एक उपास्य-आराध्य देव मानकर उसकी समर्पित भाव से आराधना किये बिना हम उन प्रतिकूलताओं से नहीं जूझ सकते हैं जो आज हमारे समक्ष अवरोध की चट्टानें बनकर खड़ी हैं। परम पूज्य गुरुदेव ने इस मूल कारण को ढूंढ़ तलाश कर ही राष्ट्र की आजादी के साथ मानवी मनों को विनिर्मित करने का-विचारों में एक आमूलचूल क्राँति का तथा व्यक्ति निर्माण से समाज निर्माण का सारा ताना-बाना बुनकर युगनिर्माण योजना की पृष्ठभूमि बनायी थी। धर्मतंत्र ही, आस्थाओं को सशक्त बना सकता है एवं उसे विज्ञान सम्मत प्रगतिशील बनाकर यदि एक मोर्चा खड़ा किया जाय तो राजतंत्र के समानांतर एक ऐसा शक्ति-तंत्र विनिर्मित किया जा सकता है, जो आज की सभी समस्याओं का हल निकाल सके।
सभी ओर से निराश हर भारतवासी या भारत से जुड़े प्रवासी परिजनों व पूर्वी संस्कृति की ओर आशा भरी निगाह से निहार रहे विदेशियों के लिए गायत्री परिवार-युग निर्माण योजना ने नवयुग की उज्ज्वल भविष्य के साकार होने की न केवल योजना बनायी, उन्हें चरितार्थ भी कर दिखाया। एक मॉडल बनाकर खड़ा कर दिया जिसे देखकर इक्कीसवीं सदी के लिए आशान्वित हुआ जा सकता है और कोई तंत्र इस कार्य को कर नहीं सकता सिवा धर्मतंत्र के। परमपूज्य गुरुदेव ने धर्मतंत्र की हर मान्यता व निर्धारणों को विज्ञान सम्मत प्रतिपादित किया, सम्प्रदायवाद व जातिवाद के विद्वेषों से मुक्ति का मार्ग बताया तथा प्रमाणित कर दिखाया कि जाग्रत जनशक्ति धर्मतंत्र के भागीरथी पुरुषार्थ संपन्न कर दिखा सकती है।
समूह मन को जाग्रति कर सूक्ष्म जगत का अनुकूलन करने के निमित्त सामूहिक धर्मानुष्ठान विशिष्ट आध्यात्मिक प्रयोगों द्वारा जन-जन के मनों के रुझान को बदलना एक ऐसी प्रक्रिया है जो इस मिशन ने देव संस्कृति दिग्विजय के अश्वमेधी पराक्रमों द्वारा संपन्न की है तथा लाखों नहीं, करोड़ों व्यक्तियों के चिंतन को इस माध्यम से प्रभावित किया है। जातिवाद के जंजाल को तोड़ा है तथा एक ही ब्राह्मण वर्ग के औसत भारतीय निर्वाह में औरों के लिए जीवन जीने वाले समयदानियों की उत्पादन प्रक्रिया को बलशाली किया है। यदि सत्प्रवृत्ति संवर्धन व दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के कार्यक्रम राष्ट्र को एक अखण्ड व सशक्त बनाने के प्रयोग चल पड़े हैं-अभावग्रस्तता से उबारकर स्वावलंबी बनाने की दिशा में समाज गतिशील हो चला है तो उसका श्रेय जाग्रत धर्मतंत्र की शक्ति को ही जाता है। आह्वान है इस मिशन का हर उस विभूति को, जो आज की इस नैराश्यपूर्ण परिस्थितियों में आशावाद के राजमार्ग पर चलने की बाट जोह रही है। आशा ही नहीं विश्वास है , इस आमंत्रण को प्रबुद्धजन अवश्य स्वीकार करेंगे, नकारेंगे नहीं।
*समाप्त*