
अपनों से अपनी बात- - वासंती उल्लास लिए आया है ‘रजतजयंती’ वर्ष
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ऋतुएँ बदलती हैं। उनके बदलने के साथ प्रकृति में भी परिवर्तन आते रहते हैं। कभी पतझड़ आता है तो कभी शिशिर, कभी वर्षा आती है तो कभी हेमन्त। वर्ष भर में छह परिवर्तन चक्रों से समय गुजरता है और हर चक्र में प्रकृति को अपना रंग दे जाता है। लेकिन इन सभी ऋतुओं में जितना महत्व वसंत को मिला है-मनुष्य ने वसन्त के जितने गीत गाए हैं, अन्य किसी ऋतु को उतना तो क्या, आधा-चौथाई महत्व भी नहीं मिला है। इसका कारण है ? वसन्त ने मनुष्य की भावचेतना को जितना स्पर्श व प्रभावित किया है उतना अन्य किसी ने नहीं किया।
वसन्त नवजीवन का चेतना के प्रवाह का प्रतीक है। सम्भवतः यही कारण है कि भगवान कृष्ण ने उसे “ऋतूनाँ कुसुमाकर” कहकर सर्वोपरि महत्व दिया है। वसन्त से पूर्व की ठिठुरन का ठण्ड का जिन्हें अहसास है, वे जानते हैं कि शीत के कारण पेड़-पौधों के पत्ते व बागों में फूल कुम्हला जाते हैं। पक्षी तक अपने घोंसलों में छिपे रहते हैं, धूप निकलने पर ही कहीं हलचल करते दिखाई देते हैं। वसन्त ज्यों ही आता है, पेड़ पौधों को नये पत्तों की कोपलें बाँटता है, कुम्हलाये फूलों को नयी मुस्कान देता है और पक्षियों से उनका अनमनापन छीन कर उन्हें सदाबहार मुसकान दे देता है। पेड़-पौधों और वन-उपवन की बहार, पक्षियों का कलरव, कोयल की कूक तथा सूरज की स्वर्णिम किरणें मिलकर ऐसा वातावरण उत्पन्न करते हैं कि चारों ओर आनन्द तथा उल्लास का वातावरण फैल जाता है। आनन्द और उल्लास-आनन्द और उल्लास ही वसन्त की वह भावचेतना है जिसकी एक झलक भी मनुष्य को जीवन्त बनाए रखती है। बसन्त नव जीवन का, नये उत्साह का, नयी चेतना का संचार करता हुआ आता है, एवं व्यष्टि से लेकर समष्टि तक एक प्रेरणा-उत्साह की लहर उठने उमगने लगती है।
ऐसे ही बसन्त पर्व को मिशन गायत्री परिवार अपने आराध्य इष्ट परमपूज्य गुरुदेव के आध्यात्मिक जन्मदिवस के रूप में, वार्षिकोत्सव के रूप में, नूतन प्रेरणा-संदेशों के उद्गम केन्द्र के रूप में तब से मनाता चला आया है। जब से इसका विधिवत् शुभारंभ हुआ। 1926 में परमपूज्य गुरुदेव की पन्द्रह वर्ष की आयु में यह वसन्त उनकी मार्गदर्शक सत्ता के दीपक की ज्वाला से प्रकटीकरण के रूप में सामने आया एवं तब से ही उनने उसे अपने जीवन का कायाकल्प, आध्यात्मिक जीवन का शुभारंभ वर्ष मनाना आरंभ कर दिया। आज जो गायत्री परिवार का विराट वट वृक्ष विनिर्मित है उसके मूल में जो-जो स्थापनाएँ हैं उन सभी की प्रेरणा पूज्यवर को वसन्त की वेला में ही मिलती रही हैं। सूक्ष्म जगत से आने वाला ऋषि चेतना का प्रभाव ही उन सभी निर्धारणों को करता रहा है। यह विराट मिशन जब एक लम्बी यात्रा पारकर एत्तर वर्ष पूरे कर अब 1996 में एक नये साल में पदार्पण कर रहा हैं। यह वर्ष कई माइनों में महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक है। सत्ताईस विराट आयोजन पूरे कर अनुयाज-पुनर्गठन की वेला में यह वसन्त तब आया है जब हमारी गुरुसत्ता को शाँतिकुँज का रजतजयंती वर्ष भी है। सन् 1971 में मथुरा से स्थायी रूप से विदाई लेकर परमपूज्य गुरुदेव एवं परमवंदनीय माताजी विश्वामित्र ऋषि की इस तपस्थली में आ विराजे थे। तब यह स्थान छोटा था, आज का एक दसवाँ भाग भी नहीं। किन्तु अब यह अपने विराट रूप में गुरुसत्ता के चमत्कारी विराट रूप का बोध कराता हमें आने वाले पांच वर्षों के लिए कुछ विशेष सन्देश दे रहा है। यदि प्रस्तुत बसन्त पर हम उन निर्देशों का आत्मसात् कर सके तो निश्चित ही हम उन लक्ष्यों की पूर्ति की दिशा में अग्रसर हो सकेंगे जो हमारे लिए हमारी इष्ट सत्ता निर्धारित कर गयी है।
प्रस्तुत वसन्त पंचमी जो 24 जनवरी के दिन आ रही है, सभी के लिए जो जाग्रत आत्माओं की श्रेणी में आते हैं, एक ही उमंग-एक ही प्रेरणा लेकर आ रही है कि अब हम सभी को प्रमाद से बचते हुए अपने हर कार्य को साधना के रूप में ही हाथ में लेना है। एक विराट आयोजन सम्पन्न करने के बाद थकान आना स्वाभाविक है किन्तु वह शारीरिक ही होती है एवं सामयिक भी। यदि यह थकान शिथिलता के रूप में आने लगे तो समझ लेना चाहिए कि यह आसुरी उमंग है एवं लोक-मंगल के कार्य में लगे व्यक्ति के लिए अत्यन्त घातक है। वसन्त जागते रहने और कर्मशील बने रहने का संदेश लेकर आया है एवं हमें उसी रूप में उसे ग्रहण करना चाहिए।
पुनर्गठन की इस वेला में जब 21 वीं शताब्दी मात्र पाँच वर्षों की दूरी पर खड़ी हमसे प्रश्न पूछ रही है एवं उज्ज्वल भविष्य परक समाधान क्रिया रूप में हमसे चाहती है, हम सभी को कुछ विचार बिन्दुओं पर गंभीर चिन्तन कर लेना चाहिए।
(1) रजत जयन्ती के इस वर्ष को हम सभी परिजन पूरे भारत व विश्व में उल्लास के साथ मनायें, उत्साहपूर्वक मनायें। अपने-अपने अश्वमेध यज्ञ की वर्षगाँठ अलग-अलग आयोजित न कर वसन्त पर्व, गायत्री जयन्ती, गुरुपूर्णिमा इन तीन पर्वों को व्यापक स्तर पर साधनात्मक रूप में मनायें। इस वर्ष न्यूनतम एक कार्यकर्त्ता सम्मेलन जो विशुद्धतः संगठनात्मक आधार लिये हो सामूहिक आधार पर 8-10 जिलों या बीस लाख की आबादी के परिकर को लक्ष्य रखकर मनालें। इस सम्बन्ध में मात्र हीरक बनने योग्य डेढ़ सौ-दो सौ कार्यकर्त्ताओं को ही आमन्त्रित करें व आयोजन का स्वरूप सादगी प्रधान हो। सम्मेलन कब, कैसे आयोजित करें व आयोजन का स्वरूप सादगी प्रधान हो। सम्मेलन कब, कैसे आयोजित हों, इस सम्बन्ध में शाँतिकुँज संगठन प्रकोष्ठ से जानकारी ले लें एवं ‘प्रज्ञा अभियान’ पाक्षिक पत्रिका का द्वितीय पृष्ठ नियमित रूप से पढ़ते रहें।
(2) स्थान-स्थान पर प्रभात फेरियाँ आयोजित की जायँ, वैयक्तिक साधनात्मक ऊर्जा संवर्धन हेतु पुरश्चरण का क्रम चले एवं सामूहिक साधना भी सम्पन्न की जाती रहे। सामूहिक साधना रविवार को एक घण्टा जप के रूप में एवं गुरुवार को शाम सात से साढ़े सात उज्ज्वल भविष्य की प्रार्थना के रूप में सभी स्थानों पर घरों, शाखा कार्यालयों-प्रज्ञा मण्डलों-शक्तिपीठों स्वाध्याय मण्डलों में सम्पन्न हो सकती है।
(3) प्रतिकूलताओं से भरी परिस्थितियों में भी मिले जन-विश्वास को ऋषियों का दिव्य अनुदान मानते हुए अब स्वयं को बिखराव से समेटकर एक जिम्मेदार-प्रमाणिक लोकसेवी के रूप में विकसित करें। जिम्मेदार वह जो निभा सके। मात्र मुँह से ढेरों संकल्प तो तोते से भी दुहरवाये जा सकते हैं। किन्तु अब मिशन की इस परिपक्वावस्था में हमें एक भारी भरकम व्यक्तित्व के रूप में विकसित होना है जो जिम्मेदारी सँभालना सीख व सिखा सकें। जो भी कार्य हाथ में लिया है, तो फिर “प्राण जाँहि पर वचन न जाँहि” की तरह उसे पूरा करके ही दिखायें। ‘पंजप्यारों’ का उदाहरण सामने रखें जिसने गुरु के कहने पर संस्कृति के निमित्त सीस चढ़ा दिए। भले ही गुय गोबिन्दसिंह जी ने यह परीक्षा ही ली हो पर पाँच शूरवीरों दयाराम क्षत्रिय (लाहौर, ) धर्मदास जाट (दिल्ली), मुहकमचन्द्र धोबी (द्वारिका), हिम्मतराय पनिहार (जगन्नाथपुरी), एवं सहिब चन्द्र नाई (बीदर) ने वह मरजीवड़ों वाला साहस तो अन्दर से जुटाया कि गुरु के कारण के लिए अपने आपको समर्पित कर दिया। पंजप्यारे जीवित भी रहें व इतिहास में सदा के लिए अमर हो गए। हमें भी अब इसी स्तर का पुरुषार्थ दिखाने हेतु तत्पर होना है। उससे पूर्व इस बसन्त पर्व पर एक बार पुनः आत्म पर्यवेक्षण कर लें कि गुरुवर की कसौटी पर हम अभी भी खरे उतरते हैं कि नहीं, कहीं महत्वकाँक्षाओं की मूढ़ता उद्धत अहंकार लिप्सा हमें जकड़ तो नहीं रही। कड़ी परीक्षा का समय है यह गायत्री परिवार के लिए।
(4) समयदान की दृष्टि से अपील करते-करते हम अखण्ड ज्योति के कई पन्ने रंग चुके हैं। हमें सभी वर्ग के व्यक्तियों का सुनिश्चित निर्धारित समयदान चाहिए। शाँतिकुँज का संगठन प्रकोष्ठ अब समयदानियों का जो कम समय के लिए हैं (3 या 6 माह के लिए) यदि वे प्रशिक्षण ले चुके हैं तो स्थानीय स्तर पर उपयोग करना चाहता है। निकट के जिलों के लिये यदि समयदान नियोजित हो सके तो वह शाँतिकुँज प्रतिनिधि नाते हुआ सेवा कार्य ही माना जाएगा। शाँतिकुँज में स्थायी स्तर पर अब मात्र कुछ ही विधाओं के प्रशिक्षित निष्णात व्यक्तियों की आवश्यकता है जिनमें कम जिम्मेदारी वाले डाक्टर दम्पत्ति, अध्यापक जो प्रशिक्षित हों तथा अनुवादक स्तर के सौष्ठव पूर्ण शैली वाले व्यक्ति प्रधानतः चाहिए। शेष क्षेत्रों का कार्य अब हीरक मण्डलों के गठन से निकल कर अपने वाले पूर्ण समयदानियों के माध्यम से शाँतिकुँज के वरिष्ठ कार्यकर्त्ताओं के मार्गदर्शन में चलेगा।
(5) मूल धुरी क्षेत्रीय कार्यक्रम की वही है छह महा क्रांतियां किंतु उसका प्राण है आध्यात्मिक पुनर्जागरण व नारी जागरण। साधना प्रधान, संस्कार प्रधान, परिवार, संस्था की धुरी पर ही ये क्रांतियां सम्पन्न हो सकेंगी। इसके लिए जो भी सम्भव हो किया जाना चाहिए।
(6) जहाँ भी बड़ी-बड़ी शक्तिपीठें-प्रज्ञा संस्थान बने हैं किसी के पास लोकसेवी के नाते
गायत्री परिवार की क्रेडिट पर मिली जमीन या बिल्डिंग हैं, उन्हें अब अपनी कानूनी औपचारिकताएँ पूरी कर लेनी चाहिए। किसी भी प्रकार का जमीन जायदाद का झगड़ा न रख, ट्रस्टियों के विवाद सुलझा लिये जायँ-इसके लिए जनमत तैयार किया जाय तथा हर रजिस्टर्ड शक्तिपीठ पर परिव्राजक की नियुक्ति कर ली जाय। इस सम्बन्ध में ‘प्रज्ञा अभियान’ पाक्षिक (1 जनवरी 96) अनिवार्य रूप से पढ़ लें।
(7) प्रज्ञा मण्डलों का भी पुनर्गठन का डालें। पत्रिकाओं के सदस्य, मिशन के कार्यों में रुचि लेने वालों को ही इनका सदस्य बनाये, एक संयुक्त कार्यकारिणी बनाकर सामूहिक दायित्व स्वीकार कर अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करें। शाँतिकुँज से दो-दो परिजनों की टोलियाँ सघन प्रज्ञामण्डल क्षेत्रों को केन्द्र बनाकर भेजी जा रही हैं। वे मार्गदर्शन भी करेंगी। व वाँछित जानकारियाँ भी साथ ले आयेंगी।
(8) इस वर्ष कोई भी बड़ा खर्च प्रधान आयोजन न करें जिनमें चंदा भी माँगना पड़े व समय क्षेप भी हो। अपने मन से घोषणा कर केन्द्र के वरिष्ठ विशेष का नाम छापकर जो पर्चे बाँट देते हैं, फिर आग्रह करते हैं, उनसे विशेष रूप से कड़ाई से कहा जा रहा है। यह वर्ष छोटे-छोटे संगठनात्मक आयोजनों के निमित्त ही नियोजित हों, यही गुरुसत्ता की इच्छा है एवं हम सभी को इसका दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए।
बसंती उल्लास हम सभी के रोम−रोम में प्राण ऊर्जा भर गुरुसत्ता के प्रति समर्पण भाव को और अधिक बढ़ावा चले यही सबके प्रति मंगल कामना है।