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Magazine - Year 1996 - Version 2

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आद्यशक्ति ने बनाया उन्हें ब्रह्मर्षि

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First 6 8 Last
मैं नवीन सृष्टि करूंगा और उसका ब्रह्मर्षि ही नहीं ब्रह्म बनकर रहूँगा। उनके नेत्रों से चिंगारियाँ निकल रही थी। वह क्रोध के कारण काँप रहें थे। उन्होंने कठोर तप किया, बार बार ब्रह्म को संतुष्ट किया किन्तु वरिष्ठ के द्वारा वे अपने को ब्रह्मर्षि नहीं कहला सके। उस ब्रह्म तेज के सम्मुख सदा उन्हें पराजित होना पड़ा।

जगन्मयी आद्या उनका क्षत्रिय हृदय निराश जानता ही नहीं था। उन्होंने असंभव नहीं सीखा था। पराकाष्ठा की तितिक्षा एवं दृढ़ निश्चय था उनमें। ‘माँ ‘ तुम्हारी ही कृपा कटाक्ष से सृष्टा की सृजन शक्ति प्राप्त की है। आज यह शिशु भी उसी लिए मचलता है।

जाने कितनी वर्षा की झड़ियाँ, हिम की कंपा देने वाली शीत और आतप की लू उस तापस के ऊपर से गुजर गयी। अर्जुन वक्ष में कितनी बार पतझड़ हुआ और कितनी बार कपोलें आई पर कौन गिने ? जिस ममेर शिला पर वह तपस्वी बैठता है, उसमें गढ्ढे पड़ गये। आस पास तृण उगे, सड़े और अंततः वह पाषाण भूमि के बराबर हो गया। कुछ दिन तो उन्होंने त्रिकाल संध्या एवं पूजन किया और फिर सब छोड़कर जो बैठे तो उठने का नाम नहीं। जटाओं में पक्षियों ने घोंसले बना दिये पैरों पर मिट्टी चढ़ गयी। आस पास घूमने वाले हिरन अपनी देह खुजाकर कभी कभी उनकी देह पर जमीं मिट्टी छुड़ा देते थे।

अंततः एक दिन उनकी समाधि खुली। उन्होंने पलकें खोली। ऊपर की ओर देखकर ठहाका लगाया, और अपने शरीर की जमीं मिट्टी के खिलौने बनाने आरंभ किये। जैसे उन्हें उठने और भोजन पाने की आवश्यकता नहीं थी। अपनी धुन के सम्मुख वह कुछ नहीं देख पा रहें थे।

सृष्टा, देख ! तेरे जौ से मेरा गेहूँ कहा अधिक पौष्टिक और सुस्वादु है। तेरी गाय से मेरी भैंस अधिक दूध देती है। वह प्रत्येक पदार्थ एवं प्राणियों के प्रतिनिधि बनते जा रहें थे। सचल सजीव एवं वास्तविक।

तुम मानव से मानव उत्पन्न करते हो मेरे मानव वृक्ष फलेंगे। उन्होंने नारियल का फल बनाया।

“ अलम् वत्स ! “ वृद्ध हँसकर वाहन ब्रह्म जी आकाश में उपस्थित होकर उनको निवारण कर रहें थे।

आदरणीय का आदर न करना उद्दण्डता है। वह उठकर खड़े हुए। अर्घ्य निवेदित किया और दोनों हाथ जोड़कर नम्र सिर पितामह के सामने खड़े हो गये। हँस धीरे धीरे नीचे उतरा। उसी मर्म पाषाण पर उसी तपस्वी ने लोक सृष्टा की विधिवत अर्चना की।

“ मानव कृत सृष्टि स्थायी नहीं होती। “ ब्रह्म ने तपस्वी से कहा - “बड़वा एवं गर्दभ सुयोग से बना खच्चर संतति उत्पादन में असमर्थ है। उसके लिए सदा वही संयोग अभीष्ट है। ”

“ पितामह ! “ उन्होंने नम्रतापूर्वक कहा -” जिन महा शक्ति की कृपा से आप सृष्टि करते हैं, उन्होंने ही इस शिशु का हठ रखा हैं, मेरी सृष्टि मानव तो है नहीं। वह उन्हीं की कृपा से पालित है। ”

“ बिना प्रजापतियों एवं भगवान विष्णु के पालन के कोई सृष्टि नहीं रह सकती। “ पितामह ने दूसरा तर्क उपस्थित किया। ‘ निर्माता को सदा रक्षक की अपेक्षा है। रक्षण के बिना सृजन का कोई मूल्य नहीं। “

“ ये प्रजापति पालक किसकी शक्ति से अनुप्राणित हैं ? “ उनमें अटल विश्वास था - “ वस्तुतः तो जगज्जननी माँ गायत्री ही सबकी पालिका है। उन्हीं की पालक शक्ति से ये सब पालक बनें है। वे अपने बच्चों के निर्माण का रक्षण नहीं करेंगी ?मैंने उन्हीं कि शक्ति का सृजन किया है। उनके किस अनुजीवी में शक्ति हैं, जो मेरे सृजन की अपेक्षा कर सके ? “

“तब तो सृष्टि और भी भयंकर है। “ पितामह मुस्कुरा रहें थे। “ वह बराबर बढ़ती रहेगी। संपूर्ण स्थान घेर लेगी और नवीन स्थान की समस्या सदा बनाए रहेगी। ”

“ ऐसा क्यों ?” वह निश्चिन्त बोल रहे थे। “ ये रुद्र, ये काल, ये विनाशक महामारियाँ तथा दूसरी विश्लेषण शक्तियाँ क्या करेंगी ? उन्हीं महाशक्ति के प्रलय कारी रूप से विनाश की शक्ति प्राप्त ये शक्तियाँ नियमित रूप से मेरी सृष्टि में जो जीर्णता को हटाकर नूतन के लिए भूमि प्रशस्त करेंगी। “

“ मैं आज तुम्हारा अतिथि हूँ। मुझे कुछ दोगे नहीं ? अंततः तो तुम मेरे पुत्र ही हो। “ पितामह ने दूसरे ढंग से कार्य संपन्न करना ठीक समझा।

मेरा अहो भाग्य ! तपस्वी ने प्रसन्न मन से कहा - “मैं स्रष्टा के काम आ सकूँ तो यह शरीर भी त्याग सकता हूँ। “ उनके उपयुक्त ही उदारता थी यह।

“ शरीर नहीं सृष्टि। ” तपस्वी पुनः ब्रह्मर्षि बनने के लिए तप संलग्न हो गया। एक बार पुनः तप का प्रतिमान टूटने लगा। वर्षों की गहन समाधि त्रिशंकु के बाल हठ से भंग हुई उन्होंने उसे स्वर्ग भेज तो दिया किंतु देवताओं ने उसे पुनः नीचे धकेल दिया।

रक्षा करो प्रभु ! बड़ी तीव्र गति से वह नीचे मस्तक के बाल गिर रहे थे। वायु के वेग से अंग अंग उखड़ जाना चाहता था। आंखें बाहर निकली पड़ती थी। मूर्छित होने के पूर्व अंतिम स्वर से उसने कतार पुकार की।

“ अच्छा वही ठहरो !” प्रकृति का कोई नियम महर्षि की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता था। देवता और लोकपालों ने आश्चर्य से देखा कि त्रिशंकु अंतरिक्ष में ही स्थित हो गया।

“ तुम गुरु पुत्रों के शाप से चांडाल हो गये और फिर भी सशरीर स्वर्ग जाने की हठ न छोड़ सके। ” ऋषि ने कहा - “ तुम्हारे आग्रह के कारण मैंने तुम्हें भेज दिया। यह तो निश्चित था कि देवता तुम्हें वहाँ रहने नहीं देंगे। अब तुम जहाँ हो वही बनें रहो। “

“ आर्त क्षम्य होता है प्रभो !” ऊपर से करुण कण्ठ की ध्वनि आ रही थी। “ मुझे बड़ा क्लेश है। मेरा एक एक अंग फटा जा रहा है। मैं चक्कर खा रहा हूँ। मेरी रक्षा कीजिए। “

“ यह मेरे वश से बाहर की बात हैं नरेश। ” बड़े खिन्न स्वर में ऋषि ने कहा। “ अपनी तपस्या का अधिकाँश मैं वसिष्ठ के साथ द्वन्द्व में नष्ट कर चुका। उनके पुत्रों की मृत्यु का कारण बनने से बहुत तपस्या नष्ट हुई। तुम्हें स्वर्ग सशरीर भेजकर रिक्त प्रायः हो गया था और अब तुम्हें अंतरिक्ष में स्थित रखने के लिए मेरा अवशेष समस्त तप कर चुका है। किस शक्ति से अब तुम्हारा क्लेश निवारण करूं। “

“ मेरे लिए तो आपके श्री चरणों के अतिरिक्त और कोई गति ही नहीं प्रभु। ” गिड़गिड़ा कर रोते हुए उस पीड़ित नरेश ने कहा।

“ संपूर्ण देवता तुमसे रुष्ट है। “ महर्षि का स्वर कुछ शान्त हो चला था। “ गुरु पुत्रों ने तुम्हें शाप दिया हैं। तुम्हारे शुभ कर्म समाप्त हो चुके है। ऐसी स्थित में तुम कर्म लोक से भी दूर हो। कुछ कर भी नहीं सकते हो। तुम्हारे कष्ट का निराकरण बड़ा ही कठिन दिखाई पड़ता है। “

“ आपके लिए असंभव कुछ नहीं है। एक मात्र आश्रय की ओर पीड़ित दृष्टि न डाले तो क्या करें ?”

“ क्या उपाय है। “ त्रिशंकु के जी में जी आया। “ तुम आदि शक्ति माँ गायत्री का स्मरण करो। मैं स्वयं। भी तुम्हारे लिए उनके श्री चरणों का ध्यान करता हूँ। वे निखिल क्लेश निवारिणी ही तुम्हारे क्लेश को दूर करने में समर्थ है। “

महर्षि ने आचमन किया और दोनों हाथों में स्वेत पुष्पों की अंजलि लेकर भगवती गायत्री का ध्यान करने लगे। तन्मय हो जाना तो उनका स्वभाव हो गया था और एकान्त हृदय की प्रार्थना कभी निष्फल जाती नहीं, आंखें खुली देखा तो त्रिशंकु सामने बैठे है। “क्या है नरेश ? “उन्होंने शांत स्वर से पूछा।

“ओह गुरुदेव। “आप धन्य है। आपकी कृपा का प्रभाव महान है। “त्रिशंकु कह रहा था गदगद में वह महा ज्योति, वह आनन्द सौंदर्य की महिमामयी मूर्ति...........। आगे कण्ठ रुद्र हो गया।

“ धन्य तो तुम हो त्रिशंकु। ” आर्द्र स्वर में ऋषि बोले - “ भगवती ने तुम्हें दर्शन दिया। तुम्हारा जीवन सफल हुआ। इस अभागे पर तो उन्होंने ऐसी कृपा तो आज तक नहीं की। अब तुम्हारी क्या दशा है ?”

“ बड़ा सुख है, बड़ा आनन्द है। त्रिशंकु ने हर्ष से कहा - कोई असुविधा नहीं। मंद सुरभित वायु मेरा स्पर्श कर रही है और मुझे जो सुख प्राप्त हो गया, वह तो स्वर्ग में भी मैंने देखा नहीं। मेरे आस पास नवीन नक्षत्र बन गये हैं। उसमें परिचायक हैं तथा से भी दिव्य भोग है। “

“ महाशक्ति की कृपा से अब तुम आकल्पान्त इसी शरीर में इसी प्रकार से रह सकोगे। तुम पूर्ण काम हो गये, तुम्हारा मंगल हो। “ कहते कहते महर्षि के स्वर भक्ति में डूब गये। आज वह कृपा का मर्म अनुभव कर रहें थे। उन्हें इस तत्व का बोध हो चुका था, कि तप से भक्ति पूर्ण हृदय से की गयी प्रार्थना कही अधिक श्रेष्ठ है।

इस भक्ति रस का उनका अहं घुलता जा रहा था। कब उन्हें निर्विकल्प समाधि लगी कुछ पता नहीं, देश और काल जहाँ अपना आस्तित्व खो बैठते हैं वहाँ काल की गणना कौन करें? समाधि टूटी तो तब जब ब्रह्मर्षि वसिष्ठ स्वयं उनके मस्तक पर हाथ फेरते हुए कह रहें थे “ उठो महर्षि विश्वामित्र। ” उन्होंने वरिष्ठ के चरणों में मस्तिष्क रखते हुए कहा - “ सचमुच माँ गायत्री की कृपा से कुछ भी असंभव नहीं। “

इस भक्ति रस का उनका अहं घुलता जा रहा था। कब उन्हें निर्विकल्प समाधि लगी कुछ पता नहीं, देश और काल जहाँ अपना आस्तित्व खो बैठते हैं वहाँ काल की गणना कौन करें? समाधि टूटी तो तब जब ब्रह्मर्षि वसिष्ठ स्वयं उनके मस्तक पर हाथ फेरते हुए कह रहें थे “ उठो महर्षि विश्वामित्र। ” उन्होंने वरिष्ठ के चरणों में मस्तिष्क रखते हुए कहा - “ सचमुच माँ गायत्री की कृपा से कुछ भी असंभव नहीं। “

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