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Magazine - Year 1996 - Version 2

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विदाई की घड़ियाँ और गुरुदेव की व्यथा वेदना

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एक सम्पादित लेख पुनर्प्रकाशित किया जा रहा है वसंत पर्व पर। इस लेख को मात्र एक पृष्ठ के कलेवर में खण्ड खण्ड में दिया गया है ताकि परिजन पूज्यवर की भाषाभिव्यक्ति का वास्तविक परिप्रेक्ष्य में समझकर उनकी अपने प्रति असीम प्यार की अनुभूति करा सके। यह लेख सम्पादकीय रूप में जनवरी 61 में ( आज से 26 वर्ष पूर्व ) तब लिखा गया था जब गुरुवर ने घोषणा कर दी थी कि अब वे मथुरा में न रहकर सबसे विदा लेकर जीवन के अध्याय में प्रवेश कर रहे है। आज भी हमें उनके जन्म दिवस पर उनकी अत्यधिक याद आ रही है, ये पंक्तियाँ हम सब को उस मंगल की स्मृति दिलाती है, जिसने यह विराट गायत्री परिवार बनाया है।

आयु की दृष्टि से हम लगभग 60 वर्ष पूरे करने जा रहे है। हमारे साँसारिक जीवन में एक बड़ा विराम यही लग जाता है। एक छोटे नायक का यही पर्दाक्षेप है। दो वर्ष में कुछ ही अधिक शेष है कि हमें अपनी ये सभी हलचलें बंद कर देनी पड़ेगी जिनकी सर्व साधारण को जानकारी बनी रहती है। इसके उपराँत क्या करना होगा इसकी सही रूपरेखा तो हमें भी मालूम नहीं है। पर इतना सुनिश्चित है कि यदि आगे ही जाना पड़े तो उससे सर्वसाधारण का कोई प्रत्यक्ष संबंध न होगा।

ऐसा विचित्र कष्टकर निर्णय हमें स्वेच्छा से ही करना पड़ा है वरन् इसके पीछे एक विवशता है। अब तक का सारा जीवन हमने ऐसी सता के इशारे पर गुजारा जो हर घड़ी हमारे साथ है। हमारी हर विचारणा और गतिविधि पर उसका नियंत्रण है। बाजीगर की अंगुलियों में बँधे हुए धागों के साथ जुड़ी हुई कठपुतली तरह तरह का अभिनय करती है। परन्तु असल में वह एक बेजान लकड़ी का एक तुच्छ सा उपकरण मात्र है। खेल तो बाजीगर की अंगुलियाँ कराती है। हमें पता नहीं कभी कोई इच्छा निज के मन में स्वतः से उठी है क्या ? कोई क्रिया अपने मन से की है क्या ? जहाँ तक स्मृति साथ देती है एक ही अपना क्रम एक ही ढर्रे पर लुढ़कता चला आ रहा है कि हमारी मार्गदर्शक शक्ति जिसे हम गुरुदेव के नाम से स्मरण करते हैं, जब भी निर्देश देती है ना अनुनय किये कठपुतली की तरह सोचने और करने की हलचलें करती रही है।

पिछले और अगले दिनों में कभी तुलना करने लगते हैं तो लगता है कि छाती फट जायेगी और एक हुक पसली को चीर कर बाहर निकल पड़ेगी। कोई अपनी चमड़ी उखाड़कर भीतर का अंतरंग परखने लगें तो उसे माँस हड्डियों का एक तत्व उभरता दृष्टिगोचर होगा- वह है असीम प्रेम। एक ही सम्पदा कमाई है प्रेम। एक ही रस हममें चला है वह है प्रेम का। यों सभी ने हमें अपनाया और आत्मभाव प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है पर उसके प्रति तो असीम ममता है जो एक लम्बी अवधि में भावनात्मक दृष्टि से हमारे समीप रहते रहे है।

ज्ञान और वैराग्य की पुस्तकें हमने बहुत पढ़ी है। माया, मोह की निरर्थकता पर बहुत प्रवचन सुने है। संसार मिथ्या हैं, कोई किसी का नहीं सब स्वार्थ के है आदि आदि ब्रह्मचर्य में भी सम्मिलित होने का अवसर मिला है। यदा कदा उन शब्दों को दूसरों के सामने दोहराया भी हैं,। पर अपनी दुर्बलता को प्रकट कर देना ही भला है। कि हमारी मनो भूमि में अभी तक भी वह तत्व ज्ञान प्रवेश नहीं करता न कोई पराया दिखे, न कोई माया का आभास होता है, जिससे विगल व्रत हुआ जाय। जब अपनी ही आत्मा दूसरों में जगमगाती रही हैं, तो किससे मुंह मोड़ा जाय? जो हमें नहीं भुला पा रहे उन्हें हम कैसे भूल जायेंगे ?जो साथ घुले और जुड़े है उनसे नाता कैसे तोड़ ले? कुछ भी सूझ नहीं पड़ता। पढ़ा हुआ ब्रह्मज्ञान रत्ती भर भी सहायता नहीं करता। इन दिनों बहुत करके रात में जब आंखें खुल जाती हैं तब यही प्रसंग मस्तिष्क में घूम जाता है। स्मृति पटल पर स्वजनों की हंसती बोलती मोह ममता से भरी एक कतार बढ़ती उमड़ती चली आती है। सभी एक से बढ़कर एक प्रेमी-सभी एक से बढ़कर एक आत्मीय सभी को एक से बढ़कर एक ममता। इस स्वर्ग में से घसीट कर। हमें कोई कहाँ लिए जा रहा है? क्यों लिए जा रहा है? इन्हें छोड़कर हम कहाँ रहेंगे? कैसे रहेंगे? कुछ भी तो सूझ नहीं पड़ता। आंखें बरसती रहती है और सिरहाने रखे वस्त्र गीले होते रहते हैं।

ठन दिनों हमारी आत्मिक स्थिति कुछ ऐसी है जिसका विश्लेषण कर सकना हमारे लिए कठिन है। हमारी व्यथा, वेदना के कष्ट से डरने की, परीक्षा में काँपने अथवा मोह ममता न छोड़ सकने वाले अज्ञानी जैसी लगती भर है वस्तुतः वैसी है नहीं। डर या कायरता की मंजिल पार हो चुकी है। सुख सुविधा की इच्छा के लिए अब मरने के दिनों में गुँजाइश ही कहाँ रही। शौक मौज की आयु ढल गयी। अब और कोई न सही अपना जराजीर्ण शरीर भी पग पग असुविधाएँ उत्पन्न करेगा। ऐसी दशा में सुविधाओं की कामना, असुविधाओं की अनिच्छा भी रोने कलपने का कारण नहीं है। कारण एक ही है हमारी भावुकता और छलछलाते प्यार से भरी मनोभूमि। जिनका रत्ती भर भी स्नेह हमने पाया है, उसका बदला पहाड़ जैसे प्रतिपादन देने के लिए मन मचलता रहता है।

जिनने हमारी कुछ सेवा सहायता की हैं, उनकी पाई पाई चुका देंगे। न हमें स्वर्ग जाना है और न हमें मुक्ति लेनी है। चौरासी लाख योनियों में एक बार भगवान से प्रार्थना करके इसलिए प्रवेश करेंगे कि इस जनम में जिस जिस ने जितनी जितनी हमारी सहायता की हैं उसे एक एक चौरासी चक्र में भुगतान कर दिया जाय। घास, फूल, पेड़, लकड़ी, बैल, गाय, भैंस आदि बनकर हम किसी न किसी के काम आते रह सकते हैं और इससे अपने उपकारियों के अनुदान का बदला पूरे अधूरे रूप में चुकाते रह सकते हैं। सद्भावना का भार ही क्या कम है जो किसी सहायता का भार और ओढ़ा जाय ?यह सुविधा भगवान से लड़-झगड़कर प्राप्त कर लेंगे पर जिनने समय समय पर ममता भरा प्यार हमें दिया, हमारी तुच्छता को भुलाकर जो आदर सम्मान, श्रद्धा, सद्भाव, स्नेह एवं अपनत्व प्रदान किया है, उसके लिए क्या कुछ किया जाय समझ में नहीं आता। इच्छा है कि हृदय कोई बादल जैसा बना दें कि जहाँ से एक बूँद स्नेह की मिली हों, वहाँ एक प्रहर की वर्षा कर सकने का अवसर मिल जाय। मालूम नहीं ऐसा संभव होगा कि नहीं। यदि संभव न हो सके तो हमारी अंत व्यंजना उन सभी तक पहुँचे, जिनकी सद्भावना किसी रूप में हमें प्राप्त हुई हों। वे उदार सज्जन अनुभव करें कि उनके प्यार को भुलाया नहीं गया वरन् उसे पूरी तरह स्मरण रखा गया।

हमारे मन में व्यथाएँ बहुत है। उनका समाधान क्या हो सकता है कौन जाने? पर आप इस आन्तरिक उद्वेग की घड़ियों में यह भी अच्छा ही है कि जो हम खोलकर अपनी बात कह लें और परिजनों को बता सकें कि हम क्या सोचते और चाहते है-कहते हुए विदा हों सके।

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