
पतझर में वासंती वैभव (Kavita)
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युग युग से ही आत्मा वसंत पतझर से पीड़ हरने को।
ग्रुवर आये पतझर में ही वासंती वैभव भरने को ॥ 1॥
पहिले वसंत आ, पतझर को साँत्वना तनिक दे जाता था, फिर वे पतझर हो जाता था।
आता वसंत, जब जाता था, फिर से पतझर हो जाता था॥
मुस्कान तनिक दिखती भर थी, कुछ क्षण पतझर के अधूरे पर।
बौछार सरस पड़ती भर थी, भावों के भूखे भ्रमरों पर ॥
कोई वसंत आया न कभी, पतझर के मधु रस करने को।
ग्रुवर आये पतझर में ही वासंती वैभव भरने को ॥ 2॥
थे घाव अभावों के गहरे, ऊपर से मरहम लगाते थे।
गहरी ले घावों की पीड़ा, कोई भी जान न पाते थे॥
पतझर को ही जैसे तैसे, अपनी पीड़ा पीनी होती॥
आये वसंत के जाने पर उनकी दुनिया सूनी होती ॥
खोला न किसी ने पतझर ने, पतझर के अंतरस के झरने को।
ग्रुवर आये पतझर में ही वासंती वैभव भरने को ॥ 3॥
गुरुवर वासंती वैभव के उपहार लिये आये भू पर।
समता ममता मृदु करुणा की, रस धार लिये आये भू पर॥
पतझर के अन्यस के रस के वि( रस सब खोल दिये।
पतझर के प्राणों आया हूँ तुममें ही सदा विचरने की॥
ग्रुवर आये पतझर में ही वासंती वैभव भरने को ॥ 1॥
ग्रुवर आये पतझर में ही वासंती वैभव भरने को ॥ 4॥
बस फिर क्या था, पतझर का ही हो गया प्राण परिवर्तन।
वासंती वैभव फूट पड़ा, खिल गया महकता नदन वा॥
दुश्चिंतन के, दुर्भावों के, पतझर में परिवर्तन आया।
सद् चिंतन का सद्भावों का, मानव मन में खुमार छाया ॥
सौरभ के सद् प्रवृत्तियों के, मानव मन लगा महकने को।
ग्रुवर आये पतझर में ही वासंती वैभव भरने को ॥ 5॥
भण्डार वासंती वैभव के! भावों का सुमन समर्पित है।
थ्जस में वासंती प्राण भरे, ऐसे मचले मन अर्पित है॥
हमको महकाया है तुमने, इस जगती को महका देंगे।
संदेश तुम्हारा सुना सुना, हर कोकिला को चहका देंगे॥
उज्ज्वल भविष्य के उद्घोष का प्रस्तुत है प्राण चहकने को।
ग्रुवर आये पतझर में ही वासंती वैभव भरने को ॥ 6॥
मंगल विजय