
संकल्प (Kahani)
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अब तो उसके मन में महर्षि के वचनों पर अपार श्रद्धा हो आयी थी। उसके मन में आया, एक चोरी और कर लूँ, फिर सदा के लिए चोरी बन्द करके अच्छे आदमी का जीवन जीऊँगा। उसने अवन्तिका राजा की महारानी का नौलखा हार पूर्णिमा की चाँदनी रात को अकेले जाकर चुराने का संकल्प लिया। ठीक पूर्णिमा की रात वह अपने साधनों के सहित राजमहल में पहुँच गया। रानी अट्टालिका में पलंग पर सोयी हुई थी। चाँदनी उसके सुन्दर मुख मण्डल को और अधिक सुन्दर बना रही थी। अभय धीमे कदमों से रानी के पलंग के पास पहुँचा। नौखला हार उसके गले में पड़ा था। कदमों की आहट से रानी एकदम चौंक कर उठी और बोली कौन है तू? चाँदनी में अभय की साँचे में ढली सुगठित बलिष्ठ देह, उभरा हुआ वक्षस्थल एवं सुन्दर रूप को देख रानी चकित ओर मोहित हो गयी। वह पास आकर बोली-मैं जानती हूँ कि तू चोर है; लेकिन आज तो मैं तुझे खुद को चोरी के माल के रूप में सौंपती हूँ। मेरे चित चोर, मैं तो गहनों के साथ देह और दिल भी तुम्हें सौंपने के लिए तैयार हूँ। जरा नजदीक तो आओ। यों कहकर मुस्कराती हुई रानी, ज्यों ही अभय का हाथ पकड़ने के लिए बढ़ी अभय को अपना नियम याद आ गया। कितना कठिन काम था यह? एकान्त स्थान और समय उछलती जवानी और यौवन के मद में मदमाती नारी का आमंत्रण। चाहें शरीर के टुकड़े टुकड़े हो जाएँ मैं नियम को नहीं तोड़ सकता। ऐसा वह मन ही मन सोच रहा था। अभय ने हाथ छुड़ाते हुए कहा-माँ। यह क्या कर रही हो? अपने धर्म को मत भूलो। हम तो तुम्हारे बालक हैं। बालक पर माँ की विकारी दृष्टि कैसे हो सकती है? रानी ने छल,बल भय और प्रलोभन सीज्ञी तरह से उसे अपने काम जाल में फँसाने की कोशिश की, लेकिन अभय चट्टान की तरह अडिग रहा।