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Magazine - Year 1996 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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तीर्थ सेवन एवं परिव्राजक धर्म-परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

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(परमपूज्य गुरुदेव द्वारा जुलाई, 1982 में शाँतिकुँज परिसर में दिया गया प्रवचन)

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ-

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियों ! भाइयों !! तीर्थ शब्द याद करके कितना आनंद आता है, कितनी प्रसन्नता होती है। प्राचीनकाल में तीर्थ जब अपने वास्तविक स्वरूप में रहे होंगे, तब कैसा मजा आता होगा। वहाँ जाने के बाद लोग अपने कषाय और कल्मष को धोकर के पुनीत और पवित्र होकर कैसे निकलते होंगे ? गंगा के बारे में तो मुझे ज्यादा मालूम नहीं है कि उसके पानी में नहाकर आप पुनीत और पवित्र हो जाते हैं कि नहीं, लेकिन एक और ज्ञान गंगा के बाबत मैं बतला सकता हूँ । उस ज्ञान गंगा में, वास्तविक तीर्थ में अगर आपको रहने का अवसर मिल जाय, तो यकीन रखिये आप अपने आपको तो धोकर जायेंगे ही भविष्य में आपका कपड़ा धुला हुआ रहेगा। क्यों ? इसलिए कि आपने वहाँ रहकर उपासना की है, साधना की है और उपासना-साधना करने के साथ-साथ में अपनी समस्याओं का समाधान करने के लिये वहाँ के वातावरण का लाभ उठाया है, वहाँ जो ऋषि रहते हैं, उनके परामर्श से आप रास्ता भी तलाश करते हैं और उस तलाश में एक रास्ता यह भी है कि आपने अब तक जो गलतियाँ की है उनका प्रायश्चित कैसे हो ? भरपाई कैसे हो ? आप उसके लिये क्या करे ? मित्रों इसके लिये आप अपने गुण, कर्म और स्वभाव में शालीनता का समावेश करें, इस निमित्त ऐसी कौन-सी गतिविधियाँ अपनायेंगे, जो आपके संस्कारों के रूप में परिणित हो सकें ? जप नहीं नहीं, जप से संस्कार नहीं बनते, रामायण पाठ से भी संस्कार थोड़े ही बन जायेंगे। विचार के साथ-साथ आपको कुछ पुण्य कृत्य भी करने पड़ेंगे। विचार और कृत्य दोनों का समावेश करने के बाद ही यह संभव है कि समग्र प्रक्रिया पूर्ण हो जाये। वास्तव में अध्यात्म का मतलब संस्कार पैदा करना है और संस्कार ज्ञान और कर्म दोनों के समन्वय से ही होते हैं। ज्ञान में पूजा आती है, पाठ (रामायण पाठ) आता है, सत्संग आता है, स्वाध्याय आता है- यह ज्ञान एक्ष है और कर्म पक्ष ! उसे कहते हैं जिसमें सेवा का समावेश होता है, परोपकार का समावेश होता है, पुण्यकर्मों का समावेश होता है। इन दोनों बातों को अगर आप मिला देंगे, तो आपकी प्रक्रिया पूर्ण हो जायेगी। बिजली के दो तार मिल जाने से करेंट चालू हो जाता है। आप ज्ञान और कर्म का समावेश अगर कर पायें, तो आपकी पूर्ण उपासना हो जायेगी। आप उस अध्यात्म के चमत्कार को देख पायेंगे जिसकी चर्चा शास्त्रों में की गई है।

कल आपको तीर्थों का महत्व बताते हुये प्राचीनकाल के तरीके से यह बताया गया था कि अगर कहीं तीर्थ मिल जाये और आपको उस तीर्थ में रहने का सौभाग्य मिल जाय, तो आप वहाँ उसी प्रक्रिया को ग्रहण करना, जो करनी चाहिए। अगर आप शाँतिकुँज को गायत्री तीर्थ मानते हैं तो यहाँ रह करके अपना समय सुव्यवस्थित रूप से व्यय कीजिए। यहाँ सुव्यवस्थित रूप से व्यय करने का एक क्रम बैठा हुआ है। सुबह उठने से लेकर सायंकाल सोने तक का एक टाइम-टेबल इस बात पर निर्भर रहता है कि आपकी गतिविधियाँ क्या होनी चाहिए, आपको अनुशासित कैसे होना चाहिए ? आपको संयमी बसे रहना चाहिए ? आपको तपस्वी की तरह जीवन-यापन कैसे करना चाहिए ? यह जीवनयापन करने की पद्धति दिनचर्या का जो प्रावधान है इसको आप भंग कर लेते हैं , इसलिये जीवन में कुछ विशेष करने और पाने में सफल नहीं हो पाते हैं। यहाँ का एक वातावरण भी है, सेनिटोरियमों का एक वातावरण भी होता है। इलाज तो कहीं भी कराये जा सकते हैं, पर सेनिटोरियम जिसमें डॉक्टर भी रहते हैं, वातावरण भी अनुकूल है, क्लाइमेट भी उपयुक्त है , वहाँ रहने से आदमी जल्दी अच्छे हो जाते हैं। सेनिटोरियम में रह करके जो फायदा उठाया जा सकता है , वही प्राचीनकाल के बच्चे गुरुकुलों में रहकर उठाते थे। बड़ी उम्र के आदमी आरण्यकों में रहते थे। आरण्यक बड़े आदमियों के लिये सेवा-साधना के निमित्त बनाये गये थे। बुद्ध ने बहुत सारे संघाराम बनाये थे , विहार बनाये थे। उसमें लोकसेवा के लिये इच्छुक लोगों की शिक्षाओं का निवास करने का प्रबंध था। यह आरण्यक कहलाते थे। आरण्यक कहिये या बुद्ध-विहार कहिये, नाम और शब्दों से क्या फर्क पड़ता है। ऐसे स्थान जहाँ कहीं भी हाँ, वहाँ आदमी को अपनी आत्मसाधना करनी पड़ती है। तीर्थ वे थोड़े ही हैं कि जहाँ खिलौना देखा, पैसा फेंक दिया बस, यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ धक्के खाते फिरे और जहाँ-तहाँ दान-पुण्य के बहाने जेब कटाते फिरे यह सब तो भाई साहब अज्ञानियों का जंजाल है। आप इस जंजाल से दूर रहकर के तीर्थयात्रा की गहराई जानने की कोशिश कीजिए। तीर्थयात्रा की गहराई यह है कि आप उतने समय, जितने समय तीर्थ सेवन करें, उतने समय के लिये अपने आपका परिशोधन करें। भूतकाल के गड्ढे भरने की कोशिश करें। भविष्य में हम क्या बनेंगे, इसके लिये वर्तमान में हमको तपश्चर्या करनी चाहिए। वर्तमान की तपश्चर्या का मतलब है- भावी जीवन के लिए नीति-निर्धारित करने का संकल्प। ऐसा करेंगे तो आपका तीर्थसेवन सशक्त हो जायेगा।

आप यहाँ आये हैं, तो यह मानकर चलिये कि यहाँ कल्प-साधना शिविर में बुड्ढे से जवान बनने के लिये नहीं , बल्कि अपने अन्तरंग परिष्कार के लिये आये हैं। इसलिए जितना भी समय है, आप इसको स्वाध्याय में लगाइये, आत्मचिंतन में लगाइये , पूजा में लगाइये , मनन में लगाइये, पूजा में लगाइये , उपासना में लगाइये, और अच्छे लोगों के संपर्क में लगाइये, अच्छी बातों के सोचने में लगाइये , गंगा के किनारे जा करके रहिये। पूरा का पूरा समय आपका ऐसा हो जिसमें कहीं अवाँछनीयता के लिये जगह न हो। आपका चिन्तन ऐसा हो, जिसमें अवाँछनीयता के लिये कोई गुँजाइश न हो। बस, यह एक तीर्थ हमने बनाया है। मान्धाता की सहायता से जगतगुरु शंकराचार्य ने चार धाम बनाये थे, चार तीर्थ बनाये थे। वह शानदार तीर्थ बनाने के इच्छुक थे , इसलिये उन्होंने शानदार ही बना डाले। भगवान बुद्ध ने बहुत सारे तीर्थ बनवाये थे। कहाँ बनवाये थे ? सारे भारतवर्ष में विनिर्मित किये थे। भगवान महावीर ने भी ऐसा ही किया था। समर्थ गुरु रामदास ने भी ऐसा ही किया था। समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र के हर गाँव में दौरा किया था और वहाँ की उस समय की परिस्थिति के हिसाब से अनुमान जी के मंदिर बनवा दिये थे- महावीर मंदिर बनवा दिये थे। पैसे का प्रबंध कहाँ हो सकता था ? विचारशील बातों में कोई आदमी कहाँ पैसा खर्च करता है ? गरीबों को चाहें, तो आप बहका दीजिये, मालदार को बहकाने के तरीके अलग हैं। उन तरीकों को अख़्तियार कर लीजिये, मालदार भी खूब बहकते हैं , कम बहकते हैं क्या ? गरीबों की जेब कटती है तो उनकी भी जेब कटनी है और मालदार और भी ज्यादा उल्लू बनते हैं । इसीलिये मैं उसकी बात नहीं कहता। किसकी ? कि बड़े शानदार मंदिर बनाना जरूरी है या बना सकते हैं क्या ? समर्थ गुरु रामदास ने महावीर मंदिर बनवाये थे। कैसे बनवाये ? मिट्टी की दीवारों से फूँस के झोंपड़ों के बने हुए थे। हनुमान जी की मूर्तियाँ कैसे बनायी ? हनुमान जी की मूर्तियाँ उन्होंने गाँव में पड़े हुये पत्थरों के टुकड़ों से, स्थानीय कारीगरों के माध्यम से जैसे-तैसे बना लीं। उनके पास लिबास कहाँ से आये ? शृंगार कहाँ से आया ? उन्होंने सिंदूर से उनको लपेट दिया और सिंदूर से उन पत्थरों को लपेट देने के बाद में हनुमान जी की मूर्ति , बालाजी की मूर्ति बनकर तैयार हो गई। फिर क्या हुआ उनका ? वहाँ लोग पूजा करते थे ? हाँ, पूजा भी करते थे तथा और भी कार्यक्रम चलाते थे।

आजकल खराबी यह है कि हमारे मंदिरों में अब केवल पूजा ही होती है , होना यह चाहिए कि पूजा भी हो , बाकी समय में कुछ और भी हो। समर्थ गुरु रामदास ने जगह-जगह इस तरह का प्रबंध किया कि उन्होंने हर महावीर मंदिर के साथ व्यायामशाला अभिन्न रूप से जोड़े रखी। स्वास्थ्य संवर्धन और अनुशासन का परिपालन इसके लिये उन्होंने हर जगह व्यायामशालाएँ बनवायीं । व्यायामशाला एक तरह के विद्यालय थे जिसमें गाँव के बच्चे, बड़े आदमी , छोटे आदमी , औरतें , जिस किसी को भी विद्या का शौक था, वह जाये और वहाँ के पुजारी से विद्या प्राप्त करे। इसके अलावा रात्रि को कक्षाएँ होती थीं। कक्षाओं का अर्थ है- प्राचीनकाल के ऐतिहासिक घटनाक्रमों को सुना करके आज की समस्याओं का समाधान । कथा का मतलब यह नहीं है कि आप इधर की गपबाजी करें , उधर की गपबाजी करें , कि श्रीकृष्ण भगवान ने सोलह हजार एक सौ आठ रानियों से शादी की , एक-एक से आठ-आठ बच्चे पैदा हुए। यह सब बेकार की बातें , बेसिलसिले की बातें हैं। जिनका कि न कोई मायने है , न कोई मतलब है। न इन शिक्षाओं की आज कोई उपयोगिता है , न प्राचीनकाल में उपयोगिता थी। आप कथाएँ इन्हीं को कहते हैं कि शंकर जी ने गणेशजी का सिर काट दिया और हाथी का चिपका दिया ! इन बातों से क्या मतलब है ! न यह पुराण है, न सत्संग है। कथा के पीछे उद्देश्य और लक्ष्य होना चाहिए। प्राचीनकाल में समर्थ गुरु रामदास की लिखी ‘दासबोध’ की कथाएं हर महावीर मंदिर में होती थी। उन्हें एक नया ही शास्त्र बनाना पड़ा, नया ही वेद बनाना पड़ा । क्या करते बेचारे ! उस कूड़े-कचरे में से क्या चीज पल्ले पड़ती। आज आपको इस कूड़े-कचरे में से क्या चीज पल्ले पड़ने वाली है ? कुछ भी तो नहीं है , सिवाय आफत पैदा करने के और दिमाग खराब करने के , पुरानी गपबाजियाँ खड़ी करने के, अपना समय और दूसरों का समय बरबाद करने के अलावा क्या है, कथा ! इसलिए कथा भी उन्होंने बनाई और कथा की परंपरा को जिंदा रखा और ऐसे शानदार ढंग से जिन्दा रखा कि मजा आ गया। शिवाजी की सारी सेना को समर्थन वहीं से मिला , हथियार वहीं से मिले , अनाज वहीं से मिला और आजादी की लड़ाई उन महावीर मंदिर से भी लड़ी गई।

उसी तरीके की पुनरावृत्ति आज भी हुई है। हमने दो धाम पहले बनवाये थे। मथुरा का धाम बनवाया और यहाँ का बनवाया । एक संगठन के लिए बनाया , एक शिक्षण के लिये बनाया। फिर क्या किया ? जगतगुरु शंकराचार्य ने चार तीर्थ बनाये थे, महावीर भगवान के समर्थ गुरु रामदास ने सारे महाराष्ट्र में दो हजार के करीब मंदिर बनाये थे। आज हमारे भी मंदिरों की बहुत बड़ी संख्या है और बढ़ती ही चली जा रही है। गायत्री शक्तिपीठ के नाम से चौबीस सौ मंदिर बना दिये। अभी और भी बहुत से मंदिर बनने जा रहे हैं। इनके लिये कोशिश हमारी यही थी कि इनको गायत्री तीर्थ का रूप दिया जाये और तीर्थों में मंदिर नहीं, बल्कि वहाँ इनको शिक्षण संस्थान के रूप में विकसित किया जाये। वहाँ शिक्षण चले, ज्ञान वृद्धि के उपदेश चलें, रचनात्मक कार्यक्रमों का प्रयोग चल। ठीक उसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमारा यह स्थानीय गायत्री तीर्थ है। आप ऐसे तीर्थों को मजबूत बनाने की कोशिश कीजिये। तीर्थयात्री करें यह तो बहुत अच्छी बात है। तीर्थयात्रा में आपको समय लगाना चाहिए, लेकिन मैं यह पूछता हूँ कि तीर्थ नहीं होंगे फिर आप कहाँ जायेंगे ? कहाँ हैं तीर्थ ? आपको कहीं दिखाई पड़ते हैं क्या ? तीर्थ कहीं दिखाई नहीं पड़ते। पुरानी ऐतिहासिक घटनाएँ जरूर उनसे जुड़ी हुई हैं। लेकिन वे जीवंत तो दिखाई ही नहीं पड़ते। लोगों को साधना कराने वाले, मार्गदर्शन करने वाले, परामर्श देने वाले ऋषि-तीर्थ और आरण्यक कहीं भी दिखाई नहीं पड़ते। इसलिये आपको एक काम और भी करना है, जहाँ तीर्थयात्रा करनी हो, वहाँ तीर्थों की स्थापना करने में भी योगदान देना चाहिए। तीर्थों की मरी हुई परम्परा को पुनर्जीवित भी करना चाहिए ? कोई आदमी आये और तलाश करे कि कैसे होते हैं तीर्थ तो आप दिखा तो सकें। आज तीर्थों के स्थान पर सब जगह बड़े-बड़े विशालकाय मंदिर बने हुये हैं और लोग उनके माध्यम से अपना पेट भरते रहते हैं, झगड़ा करते रहते हैं। तीर्थों के वातावरण , तीर्थों के गुण, तीर्थों के कर्म, तीर्थों के उद्देश्य और तीर्थों के लक्षण सब ऐसे ही गायब हो गये, डुबकी लगाइये, खिलौना देखिये, पैसा चढ़ाइये, मंदिर देखिये। इसके अलावा भी कुछ होता है तीर्थ ? नहीं भाई साहब ! यह तो बिल्कुल उलटा है। असली बात तो तीर्थ की अलग होती है। उसमें ज्ञान गंगा बहती है, जहाँ प्रेरणा मिलती है, दिशा मिलती है, जहाँ भावनाओं को उभारा जाता है, आदमी को समुन्नत स्तर का बनाया जाता है-ऐसे तीर्थों की स्थापना और पुनर्जीवन आवश्यक पड़ गया, इसीलिए हमने तीर्थों की स्थापना की है। आप भी इन तीर्थों की स्थापना में योगदान दीजिये ! जहाँ तीर्थ बन चुके हैं , उनको मजबूत बनाने की कोशिश कीजिए, जहाँ नहीं बने हैं वहाँ बनाने की कोशिश कीजिये।

यहाँ के सारे गायत्री तीर्थों में हमने शिक्षण का प्रबंध करने के लिये प्रावधान रखा है। यहाँ बच्चों की पाठशाला, बुड्ढों की पाठशाला, बड़ों की पाठशाला, महिलाओं की पाठशाला चलनी चाहिए। यहाँ आसनों और प्राणायामों के केन्द्र होने चाहिए। यहाँ जड़ी-बूटियों के सहारे चिकित्सालय चलने चाहिए। यहाँ रात्रि को कक्षाएँ होनी चाहिए तभी तो हम यह कह सकेंगे कि इन तीर्थों को गायत्री मंदिर कहिये या तीर्थ कहिये बात एक ही है। आप अपने ही केवल तीर्थयात्रा पर न निकलें, बल्कि नये आदमियों के लिए रास्ता भी बनायें, तीर्थयात्रा के लिए कोई आदमी जाने वाला हो, तो उसको यह मालूम हो कि तीर्थ कहाँ है ? किस जगह जायें ? किसके पास जायें ? क्या करेंगे वहाँ जा करके ? सैरगाहों में क्या करेंगे जा करके ? सैरगाहों में कितने आदमी आते हैं, आपने देखे होंगे ? विदेशों में भी घुमक्कड़ लोग जाते हैं। कोई नैनीताल जाता है, कोई कहीं जाता है, कोई दार्जलिंग जाता है, कोई आगरे का किला देखने जाता है, कोई दिल्ली की सैर करने जाता है, कोई बंबई जाता है। आप भी चले जाइये, धामों में चले जाइये, कोई फर्क नहीं है। इसलिए फर्क करने वाले तीर्थ तो बनाने ही पड़ेंगे। उनको नवजीवन देना पड़ेगा, उसमें नए प्राण-संसार करने पड़ेंगे। हमने इस दिशा में कदम बढ़ाया है। आप हमसे कंधा मिलाइये, हमारे कदम से कदम मिलाइये। थोड़ा-सा हमने प्रयत्न किया है, थोड़ा आप इसमें सहयोग कीजिए, कर सकते हैं ? जरूर कर सकते हैं। आप मान्धाता तो नहीं हैं, लेकिन उसके बनाने में कुछ तो कर ही सकते हैं। इसके निर्माण में किसी तरह का योगदान तो दे ही सकते हैं। अपने पास धन न हो, तो पड़ोसियों से माँग सकते हैं, मित्रों-रिश्तेदारों से लेकर भी इसमें लगा सकते हैं। आप दूसरे लोगों को तीर्थयात्रा करने के लिए ऐसे मौके दें, स्थान बनायें, वातावरण बनायें- यह आपको एक बहुत बड़ा काम करना है। आप मान्धाता की तरह तीर्थों की स्थापना करने के लिए कुछ कर सकें, तो जरूर करें। अहिल्याबाई की तरह तीर्थों का उद्धार करने के लिए फिर से कुछ कर सकते हों , तो अपने ढंग से अवश्य करें। अहिल्याबाई ने मंदिरों के जीर्णोद्धार कराये थे। अब उनके फिर से जीर्णोद्धार कराने हैं और जीर्णोद्धार ही क्या मैं तो कहता हूँ कि इन मरे हुओं को जिंदा करना है। उनके लिये कम से कम जीर्ण तो था, यहाँ तो जीर्ण भी नहीं है , खण्डहर पड़े हैं। खण्डहरों की तरह थोड़े से नाम-निशान पड़े हैं। जहाँ कभी तीर्थ रहे होंगे।

उनको जीवन्त करने के लिये मित्रों क्या करना चाहिए ? उनको अपने प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर लीजिये। प्रायश्चित्त प्रक्रिया पूरी करने का एक तरीका और भी है। जहाँ अब तक शक्तिपीठें बन गई हैं, उनमें एक काम की बहुत कमी है कि वहाँ ऐसे प्राणवान परिव्राजक नहीं हैं, जो वहाँ रहें और वातावरण को हिला दें, वातावरण को जगा दें। बड़ी मुश्किल से कहीं पण्डा मिल गया, कहीं पुजारी मिल गया, कहीं आरती करने वाला मिल गया, कहाँ नौकर मिल गया, कहीं कर्मचारी मिल गया, कहीं झाडू लगाने वाला मिल गया। बस इसी तरह बेचारे जैसे वैसे काम चला रहे हैं। ऐसे प्राणवान् परिव्राजकों का घोर अभाव है जो वहाँ रहें और अपनी निष्ठा के, अपनी सेवा- भावना के आधार पर उस सारे क्षेत्र को जगा दें और सारे क्षेत्र का वातावरण ऐसा बना दें, जैसा कि तीर्थों का होना चाहिए। तीर्थों का एक विशेष वातावरण होता है। वहाँ जो कोई भी पहुँच जाता है, वह उस ढाँचे में ढलने लगता है। वातावरण बनाना नौकरों का काम नहीं हैं , कर्मचारियों का काम नहीं है, पुजारियों का काम नहीं है, प्राणवानों का काम है। आप प्राणवान मालूम पड़ते हैं। इस कायाकल्प चिकित्सा की कल्प-साधन में आये हुए हैं। प्राणवान न होते तब आप क्यों आ पाते, कष्ट कैसे उठा पाते ? हर आदमी तो माल मारने के लिये, भगवान जी के मंदिरों में फोकट का प्रसाद पाने के लिये घूमता रहता है त्याग कौन करता है ? भूखा कौन रहता है ? अपने घर का काम कौन छोड़ता है ? आपके अन्दर वह शराफत मालूम पड़ती है और जिन्दगी भर मालूम पड़ती है और जिन्दगी भर मालूम पड़ती रहेगी। आध्यात्मिकता का परिचय मालूम पड़ता है तथा और भी कई चीजें मालूम पड़ती हैं अगर यह बात सही है, तो आपको अगला वाला समयदान देने के लिये एक ही स्थान चुनना चाहिए, वह है शक्तिपीठ। परिव्राजक के अलावा, घूम-घूम कर प्रचार करने के अतिरिक्त एक तरीका यह भी है कि आप किसी समीपवर्ती शक्तिपीठ में चल जायँ, वहाँ कुछ समय तक निवास करें और निवास करने के बाद में अपने जीवन को न केवल परिष्कृत करें, बल्कि उस क्षेत्र को जगा देने की सेवा-साधना में भी संलग्न हो जायँ। यह भी आपका बढ़िया वाला प्रायश्चित है। यदि ऐसा आप करें, तब मैं बराबर यह कहूँगा कि आपने तीर्थयात्रा का मर्म समझ लिया और उसे करने के लिये कदम बढ़ा लिया, दो काम तो यह कीजिये।

और क्या करें ? और यह कीजिये कि इन तीर्थों की देश-विदेशों में स्थापना करने का हमारा बड़ा मन है। आप हमारा हाथ बंटाइए। हाथ बँटा देंगे, तो आपके सहयोग से हम इतना बड़ा काम कर सकेंगे कि तीर्थों का पुण्य, जैसा कि धर्म-ग्रन्थों में लिखा हुआ है वास्तव में सही हो जाये। आप उसमें सहयोग दोनों ही तरीके से कर सकते हैं। तीर्थों में दान-पुण्य की भी परम्परा है, क्षतिपूर्ति के लिये आर्थिक सहयोग की भी परम्परा है , ब्राह्मण भोजन की परम्परा है। पहले लोग जब तीर्थयात्रा जाते थे तो घर लौटने पर जप कराते थे, कथा कराते थे, भागवत कराते थे, दान भी कराते थे। तीर्थों में भी दान कर देते हैं, घर में भी दान कर सकते हैं। आखिर यह दान है क्या ? वास्तव में यह समयदान का ही दूसरा रूप है। समयदान जो आदमी नहीं कर सकता, वह अर्थदान कर सकते हैं, समयदान और अर्थदान दोनों सम्भव हो सकें तो और अच्छा , लेकिन नहीं हो सके, तो आप समय के बदले दूसरे आदमियों का समय खरीद कर भी ऐसा कर सकते हैं। आप नहीं करना चाहते, ऐसा तो मत कीजिए, आपके स्थान पर कोई और आदमी काम कर देगा। आप उसके गुजारे का प्रबन्ध कर दीजिये। गुजारे का प्रबंध कर देते हैं तो अपने काम करने के बराबर बात बन गई ! अपने यहाँ गायत्री परिवार में

सैकड़ों -हजारों ऐसे लाग हैं, जो सेवा करने के बड़े इच्छुक है।, पर क्या करें। घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियाँ ऐसी हैं कि इनको कुछ दिये बिना, कपड़ा दिये बिना, निर्वाह व्यय दिये बिना इनका काम नहीं चलता। कपड़ा हम अपने घर से ले आये हैं, खाना अपने घर से ले आये हैं, बच्चों का प्रबंध अपने घर से कर आये हैं, ऐसे आदमी हो तो सकते हैं लेकिन बहुत कम हैं। अधिकाँश लोग ऐसे हैं जिनको खर्च चाहिए पेट भरने को अन्न चाहिए। इस तरह समाजसेवियों, लोकसेवियों की कितनी बड़ी संख्या रुकी पड़ी है, उनका हम गुजारे का प्रबंध नहीं कर सके, कपड़े पहनाने का साधन हमारे पास नहीं है और जिनकी बहुत जरूरत पड़ रही है उनके बच्चों के लिए नमक रोटी का इंतजाम करने में हम समर्थ नहीं हो सके इसलिए हजारों-लाखों कार्यकर्त्ता जो आज समाज के नये उत्थान, नये निर्माण करने के लिए आवश्यक थे, हमको नहीं मिल पा रहे हैं, क्योंकि उन ब्राह्मणों के लिए रोटी हमारे पास नहीं है। आप अपने खर्चे में कटौती करके दान भी दे सकते हैं , यह प्रायश्चित्त के तरीके हैं।

तीर्थयात्रा में डुबकी मारना ही जरूरी नहीं है, पंचामृत पीना, मंदिरों के दर्शन करना यह सब आवश्यक नहीं है। असली बात भी तो सोचिए, बिल्ली के गले में घंटी भी तो बाँधिये। आप कुछ त्याग भी तो कीजिए, सेवा की बात भी तो सोचिए, मन से उदार तो बनिये, कुछ कष्ट भी उठाइये , कुछ मेहनत भी कीजिए। कुछ करके भी तो दिखाइये। नहीं , साहब ! हम तो पंचामृत पियेंगे , बेकार की बात करेंगे, ऐसे कहीं प्रायश्चित्त होते हैं। खामियाजा चुकाने के लिए तीर्थ सबसे अच्छे माने गये हैं, इसीलिये तीर्थयात्रा के लिए मैंने आपसे निवेदन किया । बस आज की बात समाप्त। ओम् शान्तिः

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