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Magazine - Year 1996 - Version 2

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आत्महनन एक महापातक

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परिस्थितियां कभी एक-सी नहीं रहतीं, वे बदलती रहती हैं। आवश्यक नहीं कि वे सदैव अनुकूल ही रहें। विवेकशील वे हैं जो परिस्थितियों के अनुरूप अपने को ढाल लेते हैं, अपनी दिशा मोड़ लेते हैं। कुछ ऐसे भी व्यक्ति होते हैं, जो परिस्थितियों से तालमेल नहीं बैठा पाते, प्रतिकूलताएँ कठिनाइयाँ ऐसे ही लोगों को परेशान और हैरान करती हैं। ऐसे ही अधीर और उतावले छोटी-छोटी कठिनाइयों में धैर्य और सन्तुलन गवाँ बैठते हैं, जीवन से हार मान बैठते हैं और जीवन को निरर्थक समझकर हताश, निराश होकर आत्मघात जैसे जघन्य कृत्य पर उतारू हो जाते हैं।

यों संसार भर के लोगों में निराशा, अपना जाल फैलाती और नासमझों, हताशों और कमजोरों को आत्मघात के लिए उकसाती रहती है, किन्तु पूर्व और पश्चिम के देशों में जीवन शैली के अनुरूप कुछ भिन्नता है। इसलिए एक जैसी परिस्थितियों में लोग आत्मघात नहीं करते। भारत में आत्महत्या के प्रमुख कारण पारिवारिक कलह, दांपत्य जीवन में संघर्ष, व्यापार में घाटा, असाध्य रोग, परीक्षा में असफल होना, विपन्नता और अब पिछले दो दशकों से दहेज के कारण अनेक अबलाएँ इस कृत्य पर मजबूर होकर जीवन से हाथ धो बैठती हैं। के0ई0एम0 मेडिकल कालेज बम्बई ने एक हजार घटनाओं का सर्वेक्षण इस सम्बन्ध में कराया और पाया-आत्मघात करने वालों में 47 प्रतिशत पुरुष और 41 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं। जिनमें 20 प्रतिशत जीवन से निराशा के कारण, 7 प्रतिशत लोक लज्जा का भय, 11 प्रतिशत मादक द्रव्य सेवन कर आत्मघात कर बैठे।

इसी तरह मनःचिकित्सकों के एक दल ने परीक्षणोंपरांत निष्कर्ष निकाला है कि 90 प्रतिशत आत्महत्याओं में मनःस्थिति का असन्तुलन, 45 प्रतिशत में निषेधात्मक चिन्तन, 17 प्रतिशत में कुकृत्यों का पश्चाताप, 7 प्रतिशत में भ्रान्तियों का योगदान तथा 16 प्रतिशत में असाध्य रोग तथा 7 प्रतिशत मानसिक बीमारियों के कारण आत्मघात के लिए विवश हुए। इन चिकित्सकों का कहना है कि इस प्रवृत्ति को जन्म देने वाले कुछ प्रमुख कारणों में दुर्भावना, तिरस्कार, मनोबल क्षीण होना, सामाजिक एकाकीपन, सहानुभूति का अभाव, भविष्य के प्रति घोर निराशा है। यह सब होता है दुर्बल मनःस्थिति के कारण। आय लोग अशुभ का चिन्तन करते हैं और अशुभ और अन्धकारमय भविष्य की कल्पनाएँ करते रहते हैं। विपत्ति और सफलताओं की आशंकाओं से उनका मन काँपने लगता है और उन्हें ऐसे तर्क सूझते रहते हैं जो पुष्टि कर सकें कि वे जो सोच रहे है वह सही हैं।

मूर्धन्य मनोचिकित्सा विज्ञानी डॉ0 क्लाड हाटन का कहना है कि बीसवीं सदी में जैसे-जैसे भौतिक प्रगति होती जा रही है, लोगों में आत्महनन की प्रवृत्ति अधिक बढ़ती जा रही है। एक अनुमान के अनुसार संसार में प्रतिदिन डेढ़ हजार से भी अधिक व्यक्ति आत्महत्याएं कर लेते हैं। बर्लिन आत्महत्या निरोध केन्द्र के अध्यक्ष डॉक्टर कलौजा का कहना है कि सम्पन्न देशों में गरीब देशों की अपेक्षा आत्महनन का औसत अधिक हैं विलासिता उन पर इस हद तक हावी है कि वे स्वल्प - स्ी कष्ट - कठिनाई और अभाव को झेलने में समर्थ नहीं रह गये हैं, जबकि गरीब देशों के लोग जीवन भर अभावों से जूझते हैं, फिर भी जीवन से निराश नहीं है, क्योंकि उनकी सोच उनसे बेहतर हैं।

शास्त्रकारों ने आत्महनन को महापातक ही संज्ञा दी है और हत्या से भी बढ़कर अपराध माना है। इसमें मृत्युपरान्त जिन समस्याओं से उबरने की कल्पना की गई है वह भूल है। इनका कहना है कि ऐसे आत्मघाती की जीवात्मा भूत-प्रेत योनियों में भटकती और विक्षुब्ध और बेचैन बनी रहती है। इसे कार्पण्य दोष माना गया है। मरने वालों की प्रत्यक्ष निन्दा भी की जाती है। क्लीव, कायर और डरपोक कहा जाता है। यह निन्दा मरण से भी बुरी है। आत्मघात समस्या का हल नहीं। समस्याएँ फिर भी ज्यों की त्यों बनी रहती हैं। इसलिए बुद्धिमानों, विवेकशीलों का कथन है कि कठिनाइयों, समस्याओं, परेशानियों, से जूझने से वे हटतीं, दूर होतीं, हल्की होतीं और सुलझती हैं। संसार में ऐसी कोई समस्या नहीं जो मनुष्य द्वारा सुलझाई न जा सके।

मानवी बुद्धि को चुनौती देती ये विलक्षण घटनाएँ विज्ञान की अधुनातन प्रगति और चन्द्रमा तथा मंगल ग्रहों पर विजय जैसे अभियान यह सिद्ध करते हैं कि मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ और बुद्धिमान प्राणी है। परन्तु इसी कारण यह सृष्टि की सर्वोच्च सत्ता, सामर्थ्य-वान इकाई कहाने का अधिकारी नहीं हो जाता। प्रकृति के थोड़े से रहस्यों का अनावरण कर लेने भर से उस पर दिनोंदिन यह दम्भ छाता जा रहा है कि उसकी बराबरी कोई दूसरा प्राणी तो क्या प्रकृति भी नहीं कर सकती, लेकिन जब प्रकृति उसके समाने ऐसे सवाल कर देती हैं।, जिन्हें वह सुलझा न सके, तब मनुष्य को क्षुद्रता और अल्प सामर्थ्य का आभास होता है।

प्रकृति के कुछ रहस्य तो ऐसे हैं, जिन्हें देखकर बड़े-बड़े मूर्धन्य वैज्ञानिक भी आश्चर्यचकित रह जाते हैं। संसार के विभिन्न भागों में पाई जाने वाली रहस्यात्मक ध्वनियाँ अभी भी मानवी वृद्धि को चुनौती दे रही हैं।

सन् 1961 से हडस्टन लाइब्रेरी में वायलिन का मधुर संगीत सुनाई पड़ता रहता है। वहाँ न तो कोई वाद्य यंत्र है और न की कोई टेपरिकार्डर या ट्राँजिस्टर, जिसे कोई बजाता हो। वायलिन क्यों बजता है? कौन बजाता है? उसका पता लगाने की हर संभव कोशिश की गयी, लेकिन अभी तक कुछ ज्ञात नहीं हो पाया। कुछ लोगों का कहना है कि बहुत पहले वहाँ एक अफसर रहता था, जो घण्टों वायलिन बजाया करता था। वह अब मर चुका है किन्तु संगीत अभी भी सुनाई देता है।

कभी-कभी ऐसी घटनाएँ प्रकाश में आती रहती हैं, जिनका समाधान ढूंढ़ते नहीं मिलता। एक घटना अक्टूबर 1962 की है। नैसाविले, टिनेसी में जान हाकिन्स नामक एक व्यक्ति के मकान में सामने के दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। आवाज सुनकर हाकिन्स ने जब दरवाजा खोला तो वहाँ कोई नहीं था। अन्दर से दरवाजा बन्दर करके जैसे ही वह बैठा कि फिर से खट-पट की आवाज आई। इस प्रकार यह आवाज बार-बार आती रही। कुछ दिन बाद वह मकान अन्य दरवाजों और खिड़कियों पर भी सुनाई देने लगी। पुलिस की चौकसी बिठाई गई, वैज्ञानिकों ने भी जाँच-पड़ताल की, परन्तु कोई व्यक्ति नजर नहीं आया जो इस तरह की शरारतपूर्ण हरकतें करता हो। दो माह तक दिन-रात इस तरह की आवाज बराबर आते रहने के पश्चात् स्वयमेव बन्द हो गई। आश्चर्य तो इस बात का है कि बिना किसी की उपस्थिति के भी दस्तक की आवाज लगातार कैसे आती रही ? यह रहस्य अब तक अनसुलझा ही बना हुआ है।

प्रकृति के विभिन्न अंचलों एवं घटकों से निकलने वाली अद्भुत ध्वनियों को लैटिन में ‘ब्रोनटाइड’ कहा जाता है। इस तरह की आवाजों को विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में समय-समय पर वैज्ञानिकों, यात्रियों ने खोजा भी है। गाने वाली बालू संसार के विभिन्न रेगिस्तानों में पाई जाती है। होनोलूलू के निर्जन हवाई टापू से रोते हुए कुत्तों की आवाज आती है। रात्रि के अंधेरे में यह आवाज और अधिक तीव्र हो उठती है। गोवी मरुस्थल के ‘टकला माकान’ क्षेत्र में फैल रेत से एवं सहारा रेगिस्तान के टीलों से संगीतमय ध्वनि प्रवाह निकलता रहता है। जैसलमेर में बालू के कुछ टीलों से कराहने की आवाज आती है। ऐसे अनेकानेक प्राकृतिक रेडियो स्टेशन हैं जो चित्र-विचित्र स्तर की ध्वनियाँ प्रसारित करते रहते हैं। वैज्ञानिकों ने इन रहस्यों का पता लगाने के प्रयास, प्रयत्न भी किये हैं, पर अभी तक वे इतना ही ज्ञात कर पाये कि प्रकृति में बालू की तरह के कुछ ऐसे कण हैं जो परस्पर संघात से प्राकृतिक ध्वनियों का सृजन करते हैं।

चैकोस्लोवाकिया की एक नदी के समीप कुछ लोग पर्यटन कर रहे थे, तभी समाने से कुछ मधुर संगीत सुनाई देना लगा। लोगों ने दान मारा पर पता न चला कि कौन और कहाँ से गा रहा है, जबकि आवाज उनके पास ही हो रही थीं उस स्थान पर कुछ समय पूर्व कुछ सिपाही मारे गये थे, इसलिए यह मानकर उस बात को टाल दिया गया कि उन सिपाहियों की मृतात्माएँ गा रही होंगी।

एक बार कैलीफोर्निया की एक स्त्री भोजन पकाने जा रही थी, अभी वह उसकी तैयारी कर रही थी, चूल्हें से विचित्र प्रकार के गाने की ध्वनि निकलने लगी। गाना पूरा हो गया, उसके साथ ही ध्वनि आनी भी बन्द हो गयी। न्यूयार्क में एक बार बहुत से लोग रेडियो प्रोग्राम सुन रहे थे, एकाएक संगीत ध्वनि तो बन्द हो गयी और दो महिलाओं की ऊँची-ऊँची आवाजों में बातें आने लगीं। रेडियो स्टेशन से पूछा गया तो पता चला कि वहाँ से केवल नियमबद्ध संगीत ही प्रसारित हुआ है। बीच की आवाज कहाँ से आई? यह किसी को पता नहीं।

सेण्ट लुईस में एक बार रात्रि - भोज का आयोजन किया गया। जैसे ही संगीतकारों ने वाद्य-यन्त्र उठाये कि उनसे ताजा खबरें प्रसारित होने लगीं। इससे आयोजन के सारे कार्यक्रम ही फेल हो गये। नाहरियाल की एक स्त्री ने बताया कि उसके स्नान करने के टब से गाने की ध्वनियाँ आती हैं। एलवर्टा के एक किसान का कहना है कि जब वह अपने कुएँ के ऊपर पड़ी हुई लोहे की चादर को हटाता है, तो कुएँ के तल से संगीत सुनाई देने लगता है। पुलिस को सन्देह हुआ कि किसान ने कहीं रेडियो छुपाया होगा। इसलिए इंच-इंच जमीन की जांचकर ली। पड़ोसियों के रेडियो भी बरामद कर लिए, परन्तु जैसे ही उस लोहे की चादर को हटाया गया, आवाज बार-बार सुनाई दी और अन्ततः उस समस्या का कोई हल निकाला नहीं जा सका।

‘वण्डर बुक ऑफ दी स्ट्रेंज फैक्टस’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक के लेखक ने नील नदी के किनारे स्थित कारनक के खण्डहरोँ में दो घूरती हुयी प्रतिमाओं का उल्लेख किया है। ये दोनों प्रतिमायें डेढ़ कि0 मी0 के फासले पर जमी हुई हैं तथा उनके पास जाने पर ऐसा लगता है जैसे कोई विशालकाय दैत्य घूर रहा हो। इनमें एक प्रतिमा पत्थर की सामान्य मूर्तियों की तरह चुप खड़ी रहती है, पर दूसरी से अक्सर कुछ बोलने की आवाज आती रहती है। पत्थर की मूर्ति क्यों और कैसे बोलती है ? इसका पता लगाने की हर सम्भव कोशिश की गयी, किन्तु अभी तक कुछ कारण खोजा नहीं जा सका। मूर्ति के कोई रेडियो भी नहीं जिससे यह अन्दाज लगाया जा सके कि वह अदृश्य शब्द प्रवाहों को पकड़कर ध्वनि में रूपांतरित कर देते हैं।

ब्रिटेन के नार्थ वेल्स प्रदेश के तट पर चलने से उसमें रेतीय सुमधुर संगीत ध्वनि सुनाई पड़ती है। जिससे वह लोगों के आकर्षण का केन्द्र बनता चला गया। लन्दन विश्व-विद्यालय के सुप्रसिद्ध रसायन - शास्त्री डॉ0 केमेथ रिजवे तथ्य की पुष्टि के लिए इस संगीतमय रेत को बोरियों में भरवाकर अपनी प्रयोगशाला में ले गये। प्रयोगों के उपरान्त उन्होंने बताया कि पैर के दबाव के कारण बालू के कण आगे-पीछे सरकते हैं ये कण अधिकाँशतः समान आकार के होते हैं इसलिए उनमें से संगीतमय ध्वनि निकलती है। लेकिन हुआ यह कि रेत ने प्रयोगशाला में संगीत नहीं गाया।

अफगानिस्तान में काबुल के पास एक रेतीले मैदान में घोड़ों के दौड़ने और नगाड़ों के पीटने की आवाज आती है। जैसे कहीं से घुड़सवार अपने घोड़े दौड़ते हुये एक नगाड़े को पीटते आ रहे हों।

इज़राइल के सिनाई अंचल की तलहटी में स्थिति एक पर्वत से घण्टियाँ बजने की आवाज आती है। इसी कारण वह ‘बैल माउण्टेन’ कहकर भी पुकारा जाने लगा है। ईरान के मरुस्थल में कई स्थानों से ऐसा स्पष्ट संगीत सुनाई देता है जैसे वहाँ कोई बीन बजा रहा है।

प्रकृति के अद्भुत रहस्यों का पता लगाने में अपने जीवन का अधिकाँश भाग खर्च करने वाले अन्वेषी विलियम आर॰ कार्लिस ने सौ वर्षों से अधिक समय से प्रकाशित विशिष्ट पत्र - पत्रिकाओं जैसे-’साइकोलॉजिकल बुलेटिन” ‘लैक्सेट’ ‘अमेरिकन जर्नल आफ साइकिएट्री’ आदि के माध्यम से प्राकृतिक आश्चर्यों को एकत्र किया है। उन्होंने इन रहस्यमयी घटनाओं से सम्बन्धित 25 हजार से अधिक लेख लिखे हैं।

साथ ही ‘सोर्स बुक प्रोजेक्ट’ ‘इनक्रेडिबल लाइफ’ ‘द अनफैदम्ड माइन्ड’ तथा ‘इनसियन्ट मैन’ जैसी अपनी प्रसिद्ध कृतियों में लगभग दो हजार घटनाओं का वर्णन किया है। उनका कथन है कि अभी तक प्राकृतिक रहस्यों के मात्र कुछ ही अंशों को उद्घाटित करने में वैज्ञानिकों को सफलता मिली है। उसका पच्चीस प्रतिशत भाग अभी भी अविज्ञात है। विश्व में जितनी भी जानकारी प्राप्त कर ली गई है, विभिन्न विषयों के एनसाइक्लोपीडिया में जितना ज्ञान संग्रह कर लिया गया है, उसकी तुलना में विपुल अज्ञात बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। उसे जान लेन पर ज्ञान विज्ञानों का भण्डार मनुष्य के हाथ लग सकता है।

विकासवाद के सिद्धान्त के प्रणेता प्रख्यात वैज्ञानिक डार्विन के पुत्र चार्ल्स फील्ड ने 1975 की ‘नेचर’ पत्रिका में रहस्यमय ध्वनियोँ का प्रकाशन कराया था। उनके अनुसार गंगा के डेल्टा स्थित वेरीसाल परगने से तोप दागने जैसी धाँय-धाँय की आवाज आती थी। कार्लिस ने इस लेख को पढ़ने के बाद अपनी खोज में पाया कि ऐसी रहस्यात्मक ध्वनियाँ अनेक स्थान पर भिन्न-भिन्न नामों से सुनी जाती है। उदाहरण के लिए, बेल्जियम में मिस्टोफर की, स्काटलैण्ड में मूडस की, प्रशान्त महासागर के हैटी द्वीप समूह में गोफरी ध्वनियाँ सुनी जाती है। इनकी पुष्टि समय-समय ऊपर अन्यान्य मूर्धन्य वैज्ञानिकों द्वारा की गई है। रेडियो फिजिक्स तथा अनुसंधान केन्द्र कार्नेल विश्वविद्यालय के निदेशक रामस गोल्ड ने कार्लिस के कार्यों को न केवल स्वीकृति प्रदान की वरन् ब्रोनटाइड को भी स्वीकारा है। अमेरिका के अत्यन्त धनी-मानी मूर्धन्य पत्रकार चार्ल्स फोर्ट ने भी अपना सारा जीवन प्राकृतिक आश्चर्यों को संग्रहित करने में ही व्यतीत कर दिया और अजूबों से भरी एक एनसाइक्लोपीडिया का निर्माण किया। कार्लिस ने लगभग चौबीस फील्ड गाइड’ द्वारा इन अज्ञात रहस्यों को समझने, समझाने को प्रयास किया है।

सुमात्रा-इण्डोनेशिया में एक ऐसा कुआँ है, जिसके अन्दर झाँकने से दर्श को एक के स्थान पर दो प्रतिबिम्ब दिखाई देते हैं। प्रकाश किरणों में ऐसी अद्भुत क्षमताएँ तो हैं कि वे किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब कहीं भी, कैसा भी उल्टा-सीधा, चित्र-विचित्र बना दें। किन्तु उसके लिये तरह-तरह के प्रिज़्म एवं लेन्सों का उपयोग आवश्यक होता है। इस कुएँ में कही कोई शीशा भी नहीं जड़ा है। आश्चर्य तो यह है कि जो दो प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ते हैं उनमें से एक तो स्वयं दर्शक का ही होता है पर दूसरा किसी अपरिचित का वैज्ञानिकों के पास इसका कोई उत्तर नहीं है कि ‘ऑप्टिक्स’ के सौर सिद्धान्तों से परे ऐसा क्यों कर होता है ?

जाने वह कौन-सी अभिशप्त घड़ी थी जब लैटले-फ्रांस में एक बार भयंकर तूफान आया, तेज बिजली कड़की और एक किसान के फार्म पर टूट पड़ी। इसमें हजारों की संख्या में काली और सफेद रंग की भेड़ें थीं। बिजली से केवल निर्जीव वस्तुएँ बच सकती हैं। पर गोरे-काले के भेदभाव से उसे क्या लेना देना किन्तु यहाँ उसने भेदभाव का बर्ताव किया। फार्म में जितनी काली भेड़ें थी। बिजली गिरने से सब की सब मारी गईं, पर सफेद भेड़ों में से एक का भी बाल-बाँका न हुआ। प्रकृति के भेद-भाव युक्त इस व्यवहार को आज तक कोई भी वैज्ञानिक या बुद्धिजीवी मेधावी हल नहीं कर सका।

अद्भुत स्रष्टा के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। इसका परिचय कभी-कभी इस प्रकार मिलता है। फ्राँस के मोमिन्स नगर में एक ऐसे बच्चे ने जन्म लिया, जिसने आनुवांशिकी के समस्त वैज्ञानिक नियमों को उठाकर एक ओर फेंक दिया। व्रासर्ड नामक यह बालक वैज्ञानिकों के लिए आश्चर्य एवं अनुसंधान का केन्द्र बिन्दु बना हुआ है। उसकी एक आँख भूरी तथा एक आँख नीली है। जीवविज्ञानी इस विचित्रता का कोई कारण नहीं ढूंढ़ पा रहे हैं।

इसी तरह 1921 में लन्दन में चार्ल्सवर्थ नामक एक बच्चे ने जन्म लिया था और आनुवांशिकी के नियमों को चुनौती दी थी। चार वर्ष की आयु प्रायः ऐसी होती है जब बालक अच्छी तरह बोल भी नहीं पाता, किन्तु चार्ल्सवर्थ चार वर्ष में ही पूर्ण वयस्क हो गया। उसके मूँछ-दाढ़ी भी निकल आई उसके व्यवहार बात-चीत में भी पूरी तरह बुजुर्गपन टपकने लगा। सात वर्ष की आयु में उसके संपूर्ण बाल सफेद हो गये और इसी वर्ष उसकी मृत्यु हो गई। ऐसे मामले अब ‘प्रोजेरिया’-व्याधि समूह के अंतर्गत माने जाने लगे हैं। इसी प्रकार इटली में एक ऐसा व्यक्ति हुआ है। जिसका शरीर तो सामान्य था पर आँखें उल्लू जैसी थीं । वह दिन में नहीं देख पाता था, किन्तु रात्रि में घोर अँधेरे में भी किसी वस्तु को स्पष्ट रूप से देख सकता था। 41 वर्ष की उम्र में उसकी मृत्यु हो गई और वह रहस्य अब तक अनसुलझा ही बना रहा।

लन्दन में ‘एडवर्ड मार्डा’ नामक एक अंग्रेज अपनी शारीरिक विशेषताओं के कारण लोगों के आकर्षण का केन्द्र बना रहा। उसके दो चेहरे अन्य व्यक्तियों से अलग सहज की उसका परिचय दे देते थे। सिर तो एक ही था, पर मुँह, आँख, नाक दोनों ओर थे। पीछे स्थित आँख से भी वह अच्छी तरह देख सकता था। पिछले मुँह से अस्पष्ट भाषा में बोलता था, जबकि सामने का सुख सामान्य था।

इसी तरह शरीर विज्ञान के नियमों का उल्लंघन करने वाली फ्राँस के टुरकुइंग नगर में एक बच्ची ने जन्म लिया। उसके अन्य अंग- अवयव तो सामान्य थे, किन्तु आँख एक ही थी और वह भी दोनों भौहों के मध्य, जहाँ आज्ञाचक्र की उपस्थित बतायी जाती है।

मनुष्य अपनी संकल्पशक्ति को जुटाकर अतिमानव बन सकता है, इसमें सन्देह नहीं। इतना होने पर भी उसे सर्वशक्तिमान नहीं कह सकते इसलिए कि उसकी इच्छा और माँग के विरुद्ध भौतिकी और पराभौतिकी क्षेत्र में ऐसी सैकड़ों घटनाएँ घटती रहती हैं, जिनका नियन्त्रण तो दूर वह उस रहस्य तक को नहीं जान पाता कि उनका कारण क्या है ? जबकि निसर्ग में उस तरह का स्वयं कोई सुनिश्चित सिद्धान्त नहीं होता, उदाहरण के लिए, पेरिस के एक प्रख्यात वकील जैकिव्सल हरवेट 4 वर्ष की आय के बाद से ही 72 वर्ष की उम्र तक एक क्षण भी नहीं सोये। इससे न तो उनके स्वास्थ्य पर कुछ बुरा प्रभाव पड़ा और न काम-काज पर ही मृत्युपर्यन्त वे पूर्णतः स्वस्थ रहें।

1947 में केन्टुकी बालगृह लिंडन ने एक ऐसी घटना प्रकाश में आई, जिसे देख सुनकर मूर्धन्य चिकित्साशास्त्री आश्चर्यचकित रह गये। इस बालगृह में एक छह वर्षीय बाकी नामक निर्धन बालक को भर्ती कराया गया। वह कुपोषणजन्य बीमारियों का शिकार था। उसकी चिकित्सा कर रहे डाक्टरों को यह देखकर बहुत अचम्भा हुआ कि अविकसित और अशिक्षित बाबी लैटिन, स्पेनिश, फ्रेंच, जर्मन, टर्किश भाषा सहित पाँच कठिन भाषाओं का पूर्ण ज्ञाता है। 12 वर्ष की आयु तक वह बीस भाषाएँ पढ़ने की क्षमता रखता था।

पिछले दिनों महाराष्ट्र से एक ऐसा मामला प्रकाश में आया है, जिसका रहस्य वैज्ञानिक जेनेटिक्स से लेकर आधुनिकतम चिकित्सा विज्ञान की किसी विधा में न पा सके। एक ट्रक ड्राइवर ने नासिक के समीप सड़क पर पड़ें अजगर के ऊपर से अपना ट्रक चढ़ाकर यात्रा तो पूरी कर ली, पर खौफ उसके मन में छाया रहा। कुछ ही दिन बाद उसकी पत्नी ने डेढ़ वर्ष के अन्तराल में दो बच्चों को जन्म दिये, जिनकी सारी त्वचा अजगर की तरह थी। सारे उपचार निरर्थक सिद्ध हुए। न इसे भय की प्रतिक्रिया कहा जा सकता है, न ही सहजयोग, क्योंकि उसकी पत्नी पहले से ही गर्भवती थी। कोई इसे अभिशाप भी कह सकता है, पर आज के विज्ञान प्रधान युग में कोई तर्क-सम्मत जवाब किसी के पास नहीं है।

माउल्टिंग-केंचुल छोड़ने अर्थात् त्वक्मोचन के लिए साँप प्रसिद्ध है, किन्तु यदि यही प्रक्रिया मनुष्य की त्वचा के साथ घटित होने लगे तो उसे असामान्य की कहा जायगा। 1971 में शिकागो मेडिकल सोसाइटी ने एक ऐसे व्यक्ति का उपचार किया, जिसे 12 घण्टे के लिए तीव्र बुखार आता था। देह की सारी त्वचा लाल सुर्ख पड़ जाती है और इसके बाद बड़े-बड़े टुकड़ों में केंचुल की तरह छूटती जाती। जिस भाँति दस्ताने या मोजे उतारे जाते हैं उसी तरह चमड़ी की परतें उतरने लगती। तब तक इसका स्थान नई त्वचा ले चुकी होती।

प्रकृति के रहस्य अगम हैं और उससे भी रहस्यपूर्ण और विचित्र है-सूक्ष्म चेतन संसार। प्रकृति जब-तब मनुष्य के सामने इस प्रकार के चुनौती भरे प्रश्न खड़े करती रहती है, जिन्हें लाख प्रयत्न करने पर भी सुलझाया नहीं जा सकता। अभी तक तो यही ठीक से जान पाना सम्भव नहीं हुआ कि प्रकृति में क्या-क्या हैं? उसके सम्पूर्ण रहस्यों को समझ पाना तो दूर की बात रही। फिर चेतन तत्व कितना गूढ़ होगा? क्या उसके रहस्यों का अनुमान लगाया जा सकता है ?

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