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Magazine - Year 1996 - Version 2

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सूर्य की आत्मा-महाप्राण-सविता देवता

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प्रत्येक वेद मन्त्र का देवता होता है, जिसकी शक्ति से ही वह मन्त्र सिद्ध एवं फलित होता है। गायत्री महामन्त्र का देवता ‘सविता’ है। ‘तत् सवितुः’ इस आरम्भिक वाक्य में उस सविता का उल्लेख करते हुये आगे उसी का ध्यान और धारणा करने का निर्देश दिया गया है। गायत्री की शक्ति इस सविता देवता पर ही अवलम्बित है।

सविता कहते हैं, ‘सूर्य’ को। गायत्री को एक प्रकार से सूर्य का मन्त्र भी कहा जाता है। “पनातु माँ तत्सवितुर्वरेण्यं” इस अन्तिम पद वाले स्तोत्र में सूर्य देवता का ही स्तवन किया गया है। इसलिए कितने ही उपासक सूर्य की देवता का ही स्तवन किया गया है। इसलिए कितने ही उपासक सूर्य की आराधना के लिए गायत्री को माता रूप में मानने वाले साधक भी उसका रूप ‘सूर्य मण्डल मध्यस्था’ सूर्य मण्डल के बीच में उपस्थित स्वरूप का मातृदेवी के रूप में ही ध्यान करते हैं। किसी भी रूप में गायत्री मन्त्र की उपासना की जाय ‘सूर्य’ का उससे अविच्छिन्न सम्बन्ध अनिवार्य रूप से रखना होगा। गायत्री का देवता ही सूर्य है तो उसका स्वरूप भी साथ में होना स्वाभाविक ही है।

स्थूल विज्ञान की दृष्टि से सूर्य एक अग्नि पिण्ड है, जो आकाश में अवस्थित अनन्त आकाश गंगाओं में ‘स्पाइरल’ नामक एक आकाश गंगा के परिवार के लगभग डेढ़ अरब तारों में से एक छोटा सा तारा मात्र है। इसका व्यास करीब 9 लाख मील अर्थात् पृथ्वी की अपेक्षा 110 गुना बड़ा है। उसके परिवार में 9 ग्रह हैं। तथा प्रत्येक ग्रह के अनेक उपग्रह हैं। बुध, शुक्र, और पृथ्वी का एक-एक चन्द्रमा है। मंगल के दो, बृहस्पति के बारह, शनि के नौ, वरुण के पाँच, हरिग्रह के दौ और पीतग्रह (प्लूटो)। इनके अतिरिक्त हजारों छोटे ग्रह तथा ग्रहिकाएँ एवं अगणित धूमकेतु, पुच्छल तारे इस सौर परिवार में सम्मिलित हैं। वह सब सूर्य की प्रबल आकर्षण शक्ति में जकड़े हुए उसकी परिक्रमा करते रहते हैं। अपने सारे परिवार को लेकर सूर्य स्पाइरल ‘आकाश गंगा’ की परिक्रमा करता है। इस एक परिक्रमा में उसे 25 करोड़ वर्ष लग जाते हैं ज्योतिषियों का अनुमान हैं कि जबसे सूर्य पैदा हुआ है तब से अब तक यह सोलह ऐसी परिक्रमा कर चुका है।

स्थूल पदार्थ विज्ञान अभी तक सूर्य के सम्बन्ध में ऐसी जानकारियाँ एकत्रित कर सका है। तथा किरणों से सप्तरंग, विद्युत प्रवाह एवं आणविक विकिरण का कुछ हद तक पता लगा सका है। इस दिशा में और भी जानकारी एकत्रित की जा रही है। पर यह सब सूर्य के स्थूल रूप का ही परिचय है। जिसे मनुष्य की सत्ता का विश्लेषण करने के लिए उसके शरीर सम्बन्धी जानकारी प्राप्त कर लेन पर्याप्त नहीं माना जा सकता। उसकी विद्या, बुद्धि, गुण, कर्म, स्वभाव, प्रवृत्ति, भावना, चेतना एवं आत्मा का पता लगाना भी आवश्यक होता है। इसके बिना केवल शरीर विश्लेषण के आधार पर जो परिचय प्राप्त किया जायेगा, वह अधूरा ही रहेगा। इसी प्रकार सूर्य की आत्मा को जानना भी आवश्यक है। इसके बिना गायत्री मंत्र का साधक दस अग्निपिण्ड सूर्य के जान लेने मात्र से अपना प्रयोजन पूर्ण नहीं कर सकता।

एक अनन्त चैतन्य, जीवन एवं शक्ति का समुद्र इस विश्व में लहरा रहा है। जड़ प्रकृति का परमाणु संकुल, उस चेतन-सत्ता की तरंगों से ही तरंगित होकर गतिवान हो रहा है। जड़ पदार्थों में अपने निज की कोई शक्ति या चेतना नहीं है, जब प्रलय होती है, तो वह सब राख के ढेर समान गतिहीन हो जाता है। संसार में जो कुछ हलचल हो रही दीखती है, उसके मूल में यह चेतना का महाभाण्डागार ही काम कर रहा है। जैसे देह के निर्जीव कलेवर में आत्मा का ही संसार गतिशील रहता है, वैसे ही जड़ प्रकृति में जो चेतना होती दिखाई पड़ती है, उसका कारण वह चेतना सागर ही हैं। जिसके लिए गायत्री मंत्र में ‘सविता’ शब्द का प्रयोग हुआ है, यह प्रकाश पिण्ड उस सविता का एक बाह्य शरीर, स्कूल कलेवर मात्र हैं।

सूर्य की गर्मी और रोशनी हर किसी को दीखती है, यह उसकी स्थूल शक्ति हैं। इसके भीतर एक और भी सूक्ष्म - सता उसके अन्तर में मौजूद हैं, वह है - जीवनी शक्ति। प्राणियों को उत्पन्न करने, पोषण और अभिवर्द्धन करने का विश्वव्यापी कार्यक्रम उस सूर्य की आत्मा पर ही आधारित है। रोशनी और गर्मी मशीनों से भी पैदा की जा सकती है, पर उनसे जीवन नहीं मिल सकता। वैज्ञानिक जानते हैं कि यदि सूर्य न होगा तो पृथ्वी जीवन का चिन्ह शेष न रहेगा।

श्रुति में सूर्य को ‘संसार की आत्मा’ बताया गया है। आँखों में आकाश में दौड़ने वाले सूर्य के बाह्य कलेवर की गर्मी और रोशनी को पिण्ड कह सकते हैं, जबकि आत्मा जगत का जीवन है। इस जीवनी शक्ति का दूसरा नाम प्राण-शक्ति भी है। सूर्य की आत्मा को ही महाप्राण कहा गया है। उस महाप्राण की बूँदें विभिन्न प्राणियों में अल्प प्राण के रूप में दृष्टिगोचर होती हैं।

गय कहते हैं - प्राण को, त्री कहते हैं - त्राण उद्धार करने वाली को। प्राण शक्ति का उत्थान करने वाली विद्या को गायत्री कहा जाता है। अपने देवता सविता से गायत्री महामंत्र में प्राण-शक्ति अभिप्रेत होती है और उसी का एक अंश अपने में धारण करके गायत्री उपासक अपने आपको धन्य बनाता है।

सूर्य के माध्यम से प्रस्फुटित होने वाला महाप्राण, परब्रह्म परमात्मा का वह अंश है, जिससे इस विश्व ब्रह्माण्ड का संचालन होता है। एक से अनेक बनने का ब्रह्म संकल्प ही महाप्राण बनकर फूट पड़ा है। यह निर्झर जिस दिन तक झर रहा है, उसी दिन तक सृष्टि है। जिस दिन परम प्रभु उस संकल्प को समेट लेंगे उसी दिन महाप्राण शान्त हो जायगा और फिर महाशून्य के अतिरिक्त और कुछ भी शेष न रहेगा। वह ब्रह्म संकल्प - महाप्राण-परब्रह्म की सत्ता से भिन्न बाहरी पदार्थ नहीं वरन् उसी का एक अविच्छिन्न का एक भाग जो सृष्टि के संचालन में, उसकी समस्त प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित रखने में लगा हुआ है। उस महाप्राण को ही सूर्य की आत्मा-सविता देवता समझना चाहिए। प्राणी का, जीवधारी का सीधा सम्बन्ध इसी से हैं।

जीवन की बाह्य और आन्तरिक सुव्यवस्था के लिए, प्रगति और शान्ति के लिए, परब्रह्म की महाप्राण सत्ता का अधिकाधिक मात्रा में उपलब्ध करना प्राणी के लिए अभीष्ट होता है। इसी प्रयोजन की पूर्ति करना प्राणी के लिए गायत्री महामंत्र द्वारा सविता देवता की उपासना की जाती है।

यह भ्रम नहीं रहना चाहिए कि गायत्री महामन्त्र की शक्ति इस अग्नि पिण्ड सूर्य पर अवलम्बित है। यह तो रोशनी और गर्मी मात्र देता है। यह सब तो बिजली की मशीनों से भी प्राप्त किया जा सकता है। इतने मात्र के लिए किसी उपासना की क्या आवश्यकता ? गायत्री सूर्य की आत्मा सविता शक्ति के साथ उपासक को सम्बन्धित करती है। जिससे द्वारा वह परब्रह्म का महाप्राण अपने शरीर और अन्तःकरण में आवश्यक मात्रा में धारक करके लौकिक सुख एवं आत्मिक शक्ति को अनुभव करता हुआ जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।

यह महाप्राण जब शरीर क्षेत्र में अवतीर्ण होता है तो आरोग्य, आयुष्य तेज, ओज, प्राण, उत्साह-स्फूर्ति-पुरुषार्थ, इन्द्रिय शक्ति के रूप में दृष्टिगोचर होता है। जब वह मन क्षेत्र में अवतीर्ण होता है तो प्रफुल्लता, साहस एकाग्रता, स्थिरता, धैर्य, संयम आदि सद्गुणों के रूप में देखा जा सकता है। जब उसका अवतरण अध्यात्मिक क्षेत्र में होता है, तो त्याग, तप, श्रद्धा विश्वास, दया, उपकार, प्रेम विवेक आदि दिखाई देते हैं। तीनों ही क्षेत्र उस महाप्राण से जैसे-जैसे भरते जाते हैं वैसे ही मनुष्य अपूर्णता से पूर्णता की ओर, लघुता से विभुता की ओर, तुच्छता से महानता की ओर बढ़ने लगता है। आत्म कल्याण का, लक्ष्य प्राप्ति का यही मार्ग है।

सविता देवता यद्यपि सूर्य का ही दूसरा नाम है। पर यह भली प्रकार जान लेना चाहिए कि जो अन्तर शरीर और आत्मा का है वहीं सूर्य और सविता में है। गायत्री महामन्त्र का देवता सूर्य वहीं महाप्राण है। उसका स्पष्टीकरण शास्त्रों में स्थान-स्थान पर विस्तारपूर्वक किया गया है।

योऽसावादित्ये पुरुषःसोऽहम् - मैत्रेयी उपनिषद् 6/125

“जो सूर्य है सो ही मैं हूँ।”

प्राणों वै अर्कः॥ - शतपथ 10!4!7!23

“प्राण ही सूर्य है।”

स एष वैष्वानरो विश्वरुपः प्राणोऽग्नियदयते॥ -प्रश्नोपनिषद् 1। 7

“सूर्य के उदय होने पर सारे विश्व में प्राणाग्नि का संचार होने लगता है।”

सहस्त्ररश्मिः शतधा वर्तमानः। प्राणःप्रजानामुदयत्येष सूर्यः॥ - शत॰ 6।7।9।20

“प्राण ही सहस्र रश्मियों वाला, सैकड़ों प्रकार से वर्तमान, प्रजा को उत्पन्न करने वाला सूर्य है।”

योऽसो तपन्नुदेति ससर्वेषा भूतानाँ प्राणनाँ दायोदोति॥ - श्रुति

“इस सूर्य से ही सब प्राणियों को प्राण प्राप्त होता है।”

सूर्याह्णवन्ति भूतानि सूर्येंण पालितानि तु। सूर्य लंय प्राप्नुवन्ति यः सूर्यः सोऽहमेव च ॥ - सूर्योपनिषद्

“सूर्य से ही सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, उसी से उनका पालन होता है, उसी में लय हो जाते हैं, जो सूर्य है सो ही मैं हूँ।”

चारों वेदों में जो कुछ है, वह सविता शक्ति का विवेचन मात्र है। तप, श्रद्धा और साधना के द्वारा योगी-जन इसे ही प्राप्त करने में संलग्न रहते हैं। नाम, रूप, सुविधा के अनुसार कोई भी माना जाय पर वस्तुतः वह सविता देवता ही सब का उपास्य है। उसी को प्राप्त करने के लिये प्रत्येक साधक को प्रयत्नशील होना पड़ता है।

इस सविता की उपासना में संलग्न ऋषि-मुनि योग के द्वारा अपनी आत्मा को उस तेज पुँज महाप्राण परब्रह्म में प्रविष्ट करते हैं। शुकदेव जी अपनी साधना को पूर्ण करते हुए जिस स्थिति में प्रविष्ट हुये उसका उल्लेख महाभारत में इस प्रकार मिलता है -

तस्माद्योगं, समास्थातत्य-क्त्वागृह कलेवरम्। वायुभूतः प्रवेक्ष्यामि तेजोराशिं दिवकरम्॥-महा0

शुकदेव जी ने कहा - “मैं योग से स्थित होकर इस देह को त्याग कर तेजो राशि सूर्य में वायुभूत होकर प्रवेश करता हूँ।”

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