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Magazine - Year 1996 - Version 2

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परिष्कृत मनः ऋद्धि-सिद्धियों का भाण्डागार

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मन को साधारणतः इच्छा,ज्ञान और क्रिया में संलग्न रखने वाली चेतना के रूप में जाना जाता है। पर अब उसकी अतीन्द्रिय चेतना पर विश्वास किया जाने लगा है। ऐसे अगणित प्रमाण सामने आ रहे हैं जिनसे प्रतीत होते हैं कि हाड़-माँस का सोचने, बोलने वाला पिण्ड जो कर सकता है उससे कहीं अधिक परिधि मानवी चेतना का है। उसमें अतिमानवी असाधारण शक्तियाँ भी सन्निहित है। वैज्ञानिक अनुसंधानों से भी अब यह सिद्ध हो चुका है कि कल्पना, विचार, भावनाएँ और संकल्प कोई हवाई उड़ानें या अवास्तविक बातें नहीं है, बल्कि वे भी स्थूल क्रियाओं की तरह प्रभावशाली होती हैं। इनकी सामर्थ्य स्थूल क्रियाओं से अधिक समर्थ होती है। प्राचीनकाल में ऋषि-महर्षियों ने इस शक्ति का महत्व समझकर उनका उपयोग सरलतापूर्वक करने की विधि खोज ली थी।

विचार संचालन के अंतर्गत बिना यन्त्रों, संकेतों या इन्द्रियों की सहायता के दूरस्थ व्यक्तियों द्वारा परस्पर विचार-विनिमय की प्रक्रिया इसी शक्ति के अंतर्गत आती है। अतीन्द्रिय दृष्टि में बिना आँखों की सहायता के दृश्यों को देखा जाना सम्मिलित है। पूर्व ज्ञान से बीती हुई घटनाओं को जानना और भविष्य ज्ञान में भावी सम्भावनाओं का परिचय प्राप्त करने की बात है। स्वप्नों में व्यक्ति की स्थिति अथवा अविज्ञात घटनाक्रमों के भूतकालीन अथवा भावी संकेत समझे जाते हैं। साइकोकानेसिस के अंतर्गत मस्तिष्क वस्तुओं पर पड़ने वाला प्रभाव आँका जाता है। मूर्धन्य वैज्ञानिक लूथर वरथेन्क ने पौधों, फूल, कीड़ों, पक्षी और पशुओं के द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रभाव डालने में जो सफलता प्राप्त की है, उससे शोधकर्ताओं का उत्साह बहुत बढ़ा और वे न केवल प्राणियों पर, वरन् पदार्थों पर भी विचार शक्ति के आश्चर्यजनक प्रभावों को प्रमाणित कर सकने में सफल हुए।

मैस्मरेजम के आविष्कर्ता डॉ0 मैस्मर ने लिखा है- “मन को यदि संसार के पदार्थों और तुच्छ इन्द्रिय भोगों से उठाकर ऊर्ध्वगामी बनाया जा सके, तो वह ऐसी विलक्षण शक्ति और सामर्थ्यों से परिपूर्ण हो सकता है जो साधारण लोगों के लिए चमत्कार सी जान पड़े। मन आकाश -स्पेश में भ्रमण कर सकता है और उन घटनाओं को ग्रहण करने में समर्थ हो सकता है, जिन्हें हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ ग्रहण न कर सकें और हमारा तर्क जिन्हें व्यक्त करने में असमर्थ हो।”

अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वान डॉ0 जे0 बी0 राइन ने भी उक्त तथ्य की बाद में विस्तृत खोज की और पाया कि विचार, चिन्तन और किसी भी अभ्यास द्वारा यदि मन को विचारणाओं के सामान्य धरातल से ऊपर उठाकर आकाश में घुमाया जा सके तो वह भूत और भविष्य की अनेक घटनाओं को बेतार के तार के संदेश की तरह प्राप्त कर सकता है। ‘न्यू फ्रान्टियर्स ऑफ माइण्ड’ नामक पुस्तक में उन्होंने ऐसी अनेक घटनाओं का विवरण भी दिया है, जो उक्त कथन की सत्यता प्रतिपादित करती हैं। यह एक विज्ञानसम्मत प्रक्रिया है अंधविश्वास नहीं।

इस तथ्य को समझने से पूर्व की मनःशक्ति के बारे में जान लेना आवश्यक होगा। जिस प्रकार ध्वनि तरंगों को पकड़ने के लिए रेडियो में एक विशेष प्रकार का क्रिस्टल है और वह मन है। विज्ञान जानने वालों को पता है कि ईथर नामक तत्व सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। हम जो भी बोलते हैं उनका भी एक प्रवाह है, पर वह बहुत हल्का होता है, किन्तु जब अपने शब्दों को विद्युत् परमाणुओं में बदल देते हैं तो वह शब्द तरंगें भी विद्युत् शक्ति के अनुरूप ही प्रचण्ड रूप धारण कर लेती हैं और बड़े वेग से चारों तरफ फैलने लगती हैं। वह शब्द तरंगें सम्पूर्ण आकाश में भरी रहती हैं, रेडियो उन लहरों को पकड़ता है और विद्युत् परमाणुओं को रोककर केवल शब्द तरंगों को लाउडस्पीकर तक जाने देता है। जिससे दूर बैठे व्यक्ति की ध्वनि वहाँ सुनायी देने लगती है। शब्द को तरंग और तरंगों को फिर शब्द में बदलने का काम विद्युत करती है, उसी प्रकार आध्यात्मिक चिकित्सा और विचार प्रेषण टेलीपैथी का काम मन करता है।

यों मन शरीर में एक प्रथम सत्ता की भाँति दिखायी देता है, पर वैज्ञानिक जानते हैं कि शरीर के प्रत्येक कोश में एक पृथक मन होता है। कोशों के मनों का समुदाय ही अवयव स्थित मन का निर्माण करता है। प्रत्येक अवयव का क्रिया क्षेत्र अलग-अलग है, पर वह सब मन अवयव के अधीन हैं। मान लीजिए गुदा के समीपवर्ती जीवकोश (सेल्स) अपनी तरह के रासायनिक पदार्थ ढूँढ़ते और ग्रहण करते हैं। उनकी उत्तेजना काम-वासना को भड़काने का काम करती है, किन्तु अवयव मन नहीं चाहता कि इन गुदावस्थित जीवकोषों की इच्छा को पूरा किया जाये, तो वह काम वासना पर नियन्त्रण कर लेगा। इसी प्रकार शरीर के हर अंग के मन अपनी-अपनी इच्छायें प्रकट करते हैं, पर अवयव मन उन सबको काटता-छाँटता रहता है, जो इच्छा पूर्ण नहीं होने को होती , उसे दबाता रहता है और दूसरे को सहयोग देकर वैसा काम करने लगता है।

इस बात को और ठीक तरह से समझने के लिए शरीर रचना का थोड़ा ज्ञान होना आवश्यक है। यह भौतिक शरीर सूक्ष्म जीवकोशों से बना है। प्रत्येक जीवकोश प्रोटीन की एक अण्डाकार दीवार में घिरा रहता है, उस कोश के अन्दर सैकड़ों प्रकार के यौगिक और मिश्रण पाये जाते हैं। नाइट्रोजन और न्यूक्लिक अम्लों का सबसे बड़ा समूह इस कोशिका के अन्दर होता है। फास्फोरस, चर्बियाँ (बसायें) और शर्करायें भी उसमें मिलती हैं, साथ ही बीसियों अन्य कार्बनिक पदार्थ सूक्ष्म मात्राओं में पाये जाते हैं जैसे- विटामिन और हार्मोन। उसमें बहुत से अकार्बनिक लवण भी होते हैं। श्बसायें, शर्करायें और लवण, ये साँसारिक पदार्थ जिन्हें रसायन एक जीवित कोशिका में पाते हैं, निश्चय ही ऐसे पदार्थ नहीं हैं, जिनसे विचारों का निर्माण होता है, फिर भी ऐसे ही पदार्थों के ऊपर उस असंभव विचार का भवन निर्मित होता है, जिसे हम जीवन कहते हैं। अतः उस जीवन की विचित्रता और भी बढ़ जाती है, यह मान्यता आधुनिक विज्ञानवेत्ताओं की है।

यह जीवकोशों के मन ही मिलकर अवयव मन का निर्माण करते हैं। इसलिए मन को एक वस्तु न मानकर अध्यात्म शास्त्र में उसे ‘मनोमय कोश’ कहा गया है। एक अवस्था ऐसी होती है जब शरीर के सब मन उसके आधीन काम करते हैं। जब यह अनुशासन स्थापित हो जाता है तो मन की क्षमता बड़ी प्रचण्ड हो जाती है और उसे जिस तरफ लगा दिया जाये, उसी ओर वह तूफान की सी तीव्र हलचल पैदा कर देता है।

इन सूक्ष्म जीवों के मन निःसन्देह प्रत्युत्पन्न मति पटल (संस्कारजन्य मन) के आधीन हैं और बुद्धि की आज्ञाओं को भी मानते हैं। इन जीवों के मन में अपने विशेष कार्य के लिए विचित्र योग्यता रहती है। रक्त से आवश्यक सार का शोषण, अनावश्यक का त्याग इनकी बुद्धि का प्रमाण है। यह क्रिया शरीर के हर अंग में होती है, जो जीवकोश संस्थान ज्यादा सक्रिय होता है, वह ज्यादा बलवान रहता है और अपने पास-पड़ौस वाले जीवकोशों की शक्ति को मंद कर देता है। वस्तुतः जीवकोशों का अनुशासित न होना ही शरीर की इन चोरियों का कारण बनता है। जो भी हो यह सत्य है कि पचे हुए खाद्य पदार्थ का अवशोषण, घावों का पूरना , आवश्यकतानुसार दूसरे स्थानों पर दौड़ जाना, अन्य बहुत से कार्य कोशगत जीवन के ही मानसिक कार्य हैं। उन्हें विश्रृंखलित रहने देने से उनका सम्राट मस्तिष्क में रहने वाला मन भी कमजोर और अस्त−व्यस्त हो जाता है, किन्तु जब सम्पूर्ण शरीर के मन उसके अनुशासन में आ जाते हैं, तो शक्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है।

केवल कोमल स्नायु, पेशियाँ, झिल्लियाँ आदि ही नहीं हड्डियाँ, दाँत, नाखून आदि कठोर पदार्थ भी सूक्ष्म जीवों के योग से बने होते हैं। अपने कार्यों के अनुसार इनकी आकृतियाँ अलग-अलग होती हैं, पर इनमें भी स्वतंत्र और प्रत्युत्पन्न मन के आधीन काम करने की दोहरी क्षमता होती है। अर्थात् सब जीवकोश स्थानीय कार्य भी करते रहते हैं और संगठित कार्य भी।जिस प्रकार एक गाँव के सब लोग अपना अलग-अलग काम करते रहते हैं अपना खेत जोतना, अपना खेत काटना ,अपने लिए अलग खाना पकाना, अपने ही परिवार के साथ बसना,अपनी बनायी कुटिया में रहना आदि केवल अपने तक ही सीमित रहते हैं पर जब आवश्यकता आ जाती है तो सब लोग इकट्ठे होकर कोई सार्वजनिक कुआँ,तालाब आदि भी खोदते हैं । एक आदमी दूसरे की सहायता करता है। ठीक वैसे ही जीवकोशों के मन और प्रत्युत्पन्न मन के भी दो क्षेत्र है और अत्यन्त महत्वपूर्ण है । कुछ कोष ऐसे भी होते हैं जिन्हें शरीर में केवल सुरक्षा की दृष्टि से तैनात किया गया है। वे गंदगी को दूर करने, कचरा न जमा होने देने की चौकीदारी भी करते हैं और कोई रोग का कीटाणु बैक्टीरिया , वायरस आदि शरीर में आ जाय तो उससे युद्ध करने का काम भी वे कोश करते हैं। इस तरह शरीर में मन तो अपनी-अपनी व्यक्तिगत ड्यूटी पूरी करते हैं, दूसरे बाह्य जगत से संपर्क बनाते हैं।

शरीर के अन्दर इस तरह के जीव-कोशों का मेला लगा हुआ है। अनुमानतः केवल लाल रंग के कोशों की संख्या कम से कम 75000,000,000 है। इनका फेफड़ों से ऑक्सीजन चूसना, धमनियों और वाहिनियों के द्वारा सारे शरीर में बाँटना होता है। यह जीव-कोश अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि यह जगत् से भी शक्ति चूसने के वैज्ञानिक कार्य को पूरा करते हैं इसलिए मनुष्य शारीरिक शक्ति की कमी के बावजूद भी बहुत दिन तक जिन्दा रहता है, क्योंकि यह विश्वव्यापी प्राणसत्ता से शरीर का सम्बन्ध बनाये रहते हैं।

प्रत्युत्पन्न मन जब एकाग्र और संकल्पशील होता है तो सभी कोश स्थित मन जो विभिन्न गुणों और स्थानों की सुरक्षा वाले होते हैं, उसी के आधीन होकर काम करने में लग जाते हैं। फिर उस संग्रहित शक्ति से किसी भी दूसरे के शरीर में पहुंचाकर उस व्यक्ति की किसी रोग से रक्षा की जा सकती है, सुनने, समझने वाले मनों में हलचल पैदा करके उन्हें संदेश दिया जा सकता है, किसी को पीड़ित या परेशान भी किया जा सकता है।

मानवीय प्रगति में परिष्कृत मन का प्रमुख योगदान होता है। यदि इस क्षेत्र को परिष्कृत, परिमार्जित एवं जाग्रत किया जा सके तो उसमें प्रवेश करके बहुमूल्य रत्नराशि ढूँढ़ी जा सकती है। अतीन्द्रिय क्षमताओं से लेकर ऋद्धि-सिद्धियों के भाण्डागार उपलब्ध किये जा सकते हैं।

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