Magazine - Year 1997 - Version 2
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Language: HINDI
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सत्कर्मों का मूल आधार मात्र आस्तिकता
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आस्तिकता का अर्थ व स्वरूप गहराई से न समझ सकने वाले संसार के कतिपय लोगों ने उसे एक निरर्थक ईश्वरवाद भर मान लिया और उसे अपने से बहिष्कृत कर नये नैतिक स्वरूप का प्रवर्तन किया। उन्होंने आशा की कि इस प्रकार के नए प्रयोग से समाज में स्थायी सुख-शान्ति और सामान्य सदाचार को मूर्तिमान करने में सफल हो सकेंगे। किन्तु उनकी यह आशा पूरी होती नहीं दिखलाई दी।
इस प्रकार के नये प्रयोग को समाजवाद अथवा साम्यवाद के नाम से पुकारा गया और कहा गया कि यदि समाज के लोग अपनी निष्ठा को न दिखने वाले ईश्वर की ओर से हटाकर इन यथार्थवादों में लगाएँ तो समाज में स्थायी सुख-शान्ति की स्थापना हो सकती है। इस नई विचारधारा का परीक्षण एवं प्रयोग कई दशकों तक साम्यवादी कहे जाने वाले देशों में होता रहा, किन्तु उसका परिणाम देखते हुए यही मानने पर मजबूर होना पड़ता है कि यह प्रयोग सफलता से आभूषित न हो सका। उदाहरण के लिए, साम्यवाद की मूलभूमि रूस को ही लिया जाए और देखा जाए कि क्या उसका समाज साम्यवादी आस्थाओं के आधार पर अपने जनसमूह के लिए वाँछित सुख-शान्ति अर्जित करने में सफल हो सका ? तो इस प्रकार का उत्तर नकारात्मक ही मिलता है।
इसे नास्तिकवाद और नास्तिकता की पूर्ण असफलता ही कहेंगे कि रूस की जनता ने साम्यवादी व्यवस्था को जड़मूल से उखाड़ फेंका और पुनः वहाँ का जन-मानस अपनी आस्थाओं को नये ढंग से पुष्पित-पल्लवित करने के लिए चर्च और गिरजाघरों की ओर मुड़ने लगा। यद्यपि वहाँ की जनता को नास्तिकता का भरपूर शिक्षण एवं प्रशिक्षण दिया गया है। यदि सच पूछा जाए तो अनीश्वरवादी समाज व्यवस्था में अपराधों एवं अपराधियों की संख्या कुछ अधिक ही होती है, अपेक्षाकृत उन समाजों के जो आस्तिकता एवं ईश्वर में आस्था रखते हैं। भ्रष्टाचार मिटाने और सदाचार को लाने के लिए राजदण्ड को कठोर बनाने के बावजूद दुष्प्रवृत्तियों को रोकने की मन्तव्य सिद्धि होते नहीं दिखती।
ऊपर से देखने में तो ऐसा ही लगता है कि दमन, नियन्त्रण और प्रतिबन्धों ने जनता का हृदय परिवर्तित कर दिया है। कहने-सुनने के लिए लोग समाजवाद की दुहाई भी देते हैं, बाहरी तौर पर भ्रष्टाचार आदि अहितकर प्रवृत्तियों के प्रति घृणा भी दिखलाते हैं, किन्तु वास्तविकता यही होती है कि लोगों में खुलकर खेलने का साहस भले ही कम हो जाए, पर भीतर ही भीतर अनैतिकता की आग बराबर सुलगती रहती है, जो अवसर पाकर भय और आतंक को एक ओर ठेलकर जब-तब प्रकट होती रहती है। इसे तो सच्चा सुधार नहीं माना जा सकता।
दमन, दण्ड और आतंक के भय से यदि ऊपर से किन्हीं सदाचारों का प्रदर्शन करते रहा जाए और भीतर ही भीतर उसे मजबूरी अथवा अत्याचार समझा जाए तो उसे सच्ची सदाचार प्रवृत्ति नहीं माना जा सकता। सच्चा सदाचार तो तब माना जाएगा, जब ब्राह्म के साथ मनुष्य का हृदय भी उसे स्वीकार करे। अवसर आने पर और कोई भय अथवा प्रतिबन्ध न रहने पर भी लोग सहर्ष उसकी रक्षा करें। आतंक से प्रेरित मनुष्य का कोई भी गुण, गुण नहीं बल्कि एक याँत्रिक प्रक्रिया होती है। जिसका न कोई मूल्य है, न महत्व।
केवल राजदण्ड और राजनियमों के आधार पर समाज में स्थायी सुख-शान्ति की आशा कभी पूरी नहीं हो सकती। यदि ऐसा सम्भव होता तो संसार के सारे देशों में राजनियम लागू हैं और राजदण्ड की भी व्यवस्था है। तब भी संसार का एक भी ऐसा देश नहीं हैं, जिसमें पूर्ण शान्ति के लक्षण दिखाई दें। सभी देशों और समाजों में अपराध और पाप होते ही रहते हैं, जिसके कारण लोग अशान्त और दुःखी रहते हैं।
सही मायने में समाज में सुख-शान्ति तो तभी सम्भव है, जब जन-जन अपना उत्तरदायित्व समझे, पाप और अपराधों को बिना किसी दबाव के अस्वीकार कर दे और नैतिकता को जीवन मूल्य माने। यही नहीं स्वयं की आत्मप्रेरणा से दुष्कर्मों से विमुख रहे। सामाजिक एवं राजकीय नियम तथा प्रतिबन्ध एक अल्पसीमा तक ही जन-साधारण को कुमार्गगामी होने से रोक सकते हैं। उनकी क्षमता में केवल इतना ही होता है कि जिन्होंने कोई दुष्कर्म किया है उनकी निन्दा, भर्त्सना कर लें या दण्ड दिलवा दें। यह तो कुकर्म का परिणाम है, इससे उसकी प्रवृत्ति कहाँ रुकी, बहुत बार तो लोग इतने निर्लज्ज हो जाते हैं कि बार-बार दण्ड पाते हैं और बार-बार अपराध करते रहते हैं। उन्हें समाज में निन्दा अथवा लाँछना का भय नहीं रहता। इतना ही क्यों बहुत बार तो अपराधी अपनी चतुरता, साधनों अथवा परिस्थितियों का लाभ उठाकर दण्ड व्यवस्था से भी बच निकलते हैं और तब उनकी यह प्रवृत्ति और भी उत्साहित हो उठती है।
पाप प्रवृत्ति का दमन ब्राह्म प्रतिबन्धों अथवा भयों से नहीं हो सकता। उसका दमन तो मनुष्य की स्वयं की अंतःप्रेरणा से ही सम्भव है। इस अंतःप्रेरणा का आधार पूर्ण आस्तिकता ही हो सकती है। जब मनुष्य को यह निश्चय हो जाएगा कि ईश्वर सर्वव्यापक है, न्यायशील तथा सर्वशक्तिमान है। सबके प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष, अच्छे-बुरे कर्मों का साक्षी है, देखने और जानने वाला है तो वह चोरी से भी पाप कर्म करने से बचेगा। उसे विश्वास रहेगा कि वह जो कुछ करेगा, उसको ईश्वर अवश्य देखेगा और उसके अनुसार पूरा-पूरा दण्ड देगा। ईश्वर के अस्तित्व, उनकी सर्वव्यापक और न्यायशीलता में निश्चय हुए बिना मनुष्य के लिए सहज सम्भव नहीं कि वह अज्ञानवश सुन्दर, सुखकर तथा लाभकर दिखाई देने वाले पापों के आकर्षण से बचा रह सके, जो मनुष्य को हठात् अपनी ओर खींच ही लेते हैं। इसकी रक्षा का एकमात्र उपाय सच्ची और संपूर्ण आस्तिकता ही है।
पाप का बीज विचारों में रहता है और उसकी परिणति कर्मों में होती। अन्तः करण में कुविचार उठते ही मस्तिष्क भी उसके अनुसार योजना रचने लगता है, जिसे शरीर और इन्द्रियों की सहायता से अनायास ही कार्यान्वित कर डालता है। यद्यपि इस प्रक्रिया के बीच-बीच में राजदण्ड और समाज का भय भी काम करता रहता है, किंतु निर्बल नैतिकता के कारण वह कुछ अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं हो पाता। कुविचार के सहायक दुस्साहस के बल पर लोग उस कल्याणकारी भय की उपेक्षा कर देते हैं। निष्पाप नैतिकता के विकास और उसकी प्रबलता के लिए विचारों का निर्विकार होना बहुत आवश्यक है।
ईश्वर की सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमत्ता और निष्पक्ष न्यायशीलता का निश्चय हुए बिना अनैतिक विचारों को रोका नहीं जा सकता। कुविचारों पर अंकुश रखना तभी सम्भव होगा, जब कर्मफल, स्वर्ग-नरक, लोक-परलोक, पुनर्जन्म और अधम योनियों में विश्वास हो। इन सत्यों का विश्वासी निश्चय ही कुमार्ग पर पैर रखते डरेगा। उसका यह विश्वास तुरन्त ही पाप की ओर बढ़ते हुए उसके पैरों में जंजीर डाल देगा। इस प्रकार का कल्याणकारी भय किसी आस्तिक के हृदय में ही उत्पन्न हो सकता है नास्तिक के हृदय में नहीं।
आज के घोर भौतिकवादी युग में अध्यात्मिक विचारधारा यदि पूरी तरह मिट नहीं गयी है, तो कम अवश्य हो गयी है। इसी कारण आज आस्तिकता के भाव भी ज्यादा दिखाई नहीं देते। ईश्वर के प्रति यथार्थ निष्ठा में कमी आ जाने का ही तो यह परिणाम है कि आज संसार में चारों ओर अशान्ति, भय और आशंका का वातावरण दिखलाई देता है। सम्पन्न से सम्पन्न और समुन्नत समाज व राष्ट्र सुख-शान्ति के लिए तरस रहे हैं। आस्तिकता की कमी के कारण कुकर्म बढ़ गए हैं और आज की सर्वव्यापी अशान्ति उन्हीं कुकर्मों का ही तो फल है। भौतिकवाद की प्रबलता के कारण जो आज परस्पर राग-द्वेष और छीना-झपटी की अनीतिपूर्ण प्रक्रिया चल रही है, वही आज कष्टों-क्लेशों और शोक-सन्तापों के रूप में फलीभूत होकर जनसमुदाय को चैन की साँस नहीं दे रही है। राग-द्वेष ही, स्वार्थ और संघर्ष का जन्मदाता माना गया है। लोगों में स्वयं के प्रति इतना स्वार्थ और राग भर गया है कि वह समाज के प्रति एक प्रकार से अन्धे हो गए हैं। सब कुछ अपने लिए चाहने वाले और दूसरे के हितों और अधिकारों के प्रति द्वेष रखने वाले समाज में अशान्ति एवं असुख की परिस्थितियों के लिए विशेष उत्तरदायी हैं। स्वार्थी को यदि सौ नास्तिकों का एक नास्तिक मान लिया जाए तो कुछ अनुचित न होगा।
संसार में व्यक्तिगत अथवा समष्टिगत जितने प्रकार के जो भी कष्ट-क्लेश दिखलाई देते हैं, वह सब तद्नुसार कुकर्मों का ही फल है। ऐसा नहीं कि कुकर्म करने वाले को ही केवल अपने किए का फल भोगना होता हो, उसे तो भोगना ही होता है, लेकिन उसका प्रभाव दूसरे लोगों के माध्यम से समाज पर भी पड़ता है। व्यक्ति के साथ समाज को भी दुःख का भाग भोगना पड़ता है। शरीर के अंगों की तरह व्यक्ति भी समाज के एक अंग होते हैं जिस प्रकार शरीर का कोई भी अंग यदि दूषित हो जाता है, तो उसका थोड़ा-बहुत प्रभाव सारे शरीर पर पड़ता है। उसी प्रकार व्यक्ति की बुराई से भी समाज सर्वथा बचा नहीं रह सकता। जिस समाज में जितने ही दूषित, बुरे और कुकर्मी लोग बढ़ते जाते हैं, उससे उसी अनुपात से दुःख और कष्टों की वृद्धि होती जाती है।
इसीलिए व्यक्ति की बुराई से समाज को बचाने के लिए पूर्वकाल में पापी के बहिष्कार अथवा सार्वजनिक निन्दा की एक प्रथा प्रचलित थी। राजदण्ड की तरह यह सामाजिक दण्ड भी अपरिहार्य माना जाता था। समाज द्वारा किया जाने वाला यह बहिष्कार व सार्वजनिक घृणा का दण्ड मृत्युदण्ड से भी अधिक भयानक होता था। इसके डर से लोग किसी हद तक बुराई से बचे रहने का प्रयत्न करते थे।
अब संसार के लगभग सभी समाजों से यह व्यवस्था उठ गयी है। जिन समाजों में इसका कुछ अवशेष दिखलाई देता है, वह भी हुक्का-पानी अथवा रोटी-बेटी तक ही सीमित है और उसका कारण भी कोई सामाजिक मान्यता अथवा रूढ़ि का उल्लंघन करना ही होता है। असत्य, बेईमानी, चोरी, जुआ, शोषण आदि कार्यों के लिए, जिनका कुप्रभाव सारे समाज की शान्ति और व्यवस्था पर पड़ता है, सामाजिक बहिष्कार की प्रथा अब कहीं भी दिखलाई नहीं देती।
बल्कि, आज तो इसका उलटा रूप दिखाई देता है। बहुधा ऐसे कुकर्मियों से लोग डरकर अथवा किसी प्रकार के लाभ के लोभ में उनका समर्थन तक करने लगते हैं। ऐसी विपरीत दशा में समाज की सुख-शान्ति को क्षति पहुँचना स्वाभाविक है। प्राचीनकाल में प्रथम तो नास्तिक कदाचित ही होते थे और यदि यदा-कदा किसी में उसके लक्षण दिखाई भी देते थे, तो उसका सामाजिक बहिष्कार होते देर नहीं गलती थी। लोग उससे बोलना , बात करना उसका संग करना अथवा किसी प्रकार का सम्बन्ध रखना पसन्द नहीं करते थे। नास्तिक व्यक्ति को बड़ा पानी माना जाता था। उसका कारण यही था कि नास्तिक को लोक-परलोक, स्वर्ग-नरक, पुनर्जन्म और कर्मफलों में अनास्थावान माना जाता था। प्रायः नास्तिक होते भी ऐसी ही विचारधारा के थे। जिन्हें कर्मफलों का भय ही नहीं, वह कोई भी कर्म-कुकर्म करते संकोच भी क्यों करेगा। केवल भोगवादी होने के कारण इन्द्रिय सुख में ही उसकी लिप्सा बनी रहने से उसका अनैतिक हो जाना कोई असम्भव बात नहीं होती। अनैतिक व्यक्ति का समाज के लिए दुःखदायी होना स्वाभाविक ही है। अतएव समाज नास्तिक में इन सब दोषों को मनोनीत मानता था और सार्वजनिक सुख-शान्ति के लिए शीघ्र ही उसका बहिष्कार करने का प्रयत्न करता था।
आज कोई ऐसा भय रह नहीं गया है। इसलिए लोग वास्तविक आस्तिकता से विमुख होते संकोच नहीं करते। यही नहीं आज के जमाने में बहुत से लोग आस्तिकता को ढकोसला तक कहने लगे हैं। ईश्वर को मनुष्य की कल्पना और धर्म अथवा नैतिकता को अप्राकृतिक प्रतिबन्ध तक मानने लगे हैं। ऐसी ही निरंकुश मनोवृत्ति वाले लोग अपने स्वार्थ के लिए सामाजिक हितों पर ध्यान नहीं देते और मनमाने ढंग से जीवन चलाते हुए दुःख और अशांत की परिस्थितियाँ पैदा करते हैं।
आज समाज बहिष्कार की प्रथा है नहीं और राजदण्ड अनैतिकता एवं अपराधों को रोक सकने में पूर्णतया सफल नहीं हो पा रहा है। सफल हो तो किस प्रकार ? पुलिस और गुप्तचरों की इतनी पर्याप्त संख्या हो सकना सम्भव नहीं कि वह इतने विशाल जनसमूह पर पहरा दे सकें अथवा हर जगह गुप्त-प्रकट स्थानों पर जाकर अपराधों एवं अनैतिकताओं का पता लगा सके॥ जो अपराधी पकड़े जाते हैं, उन पर आरोप सिद्ध करने के लिए गवाही, शहादत और सबूत पर्याप्त मात्रा में जुट सकना कठिन होता है। फिर बहुत से अपराधी इन सब व्यवस्थाओं के बावजूद भी छूट जाते हैं। साधन-सम्पन्न और धन व्यय कर सकने वालों को तो ऊँचे से ऊँचे वकीलों की योग्यताओं के आधार पर बच जाने की और भी सुविधा रहती है। ऐसी दशा में केवल एक ही सफल उपाय रह जाता है और वह है मनुष्यों की मनोभूमि का सुधार, जिसमें कि उसमें न तो कोई कुविचार ही आए और न अनैतिक भावना का जन्म हो, साथ ही मनुष्य की अन्तः प्रेरणा सत्कर्मों की ओर अग्रसर हो।
इस पावन स्थिति को चरितार्थ करने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्यों में अधिक से अधिक आस्तिकता का विकास किया जाए। उसकी शिथिल होती आस्थाओं को बल प्रदान किया जाए। जिस दिन इनसान में सही मायने में आस्तिकता का विकास हो जाएगा, उसकी अंतःप्रेरणा सदोन्मुखी हो जाएगी, ज्यों-ज्यों इस दिशा में प्रगति होती जाएगी, त्यों-त्यों समाज में अशान्ति एवं कष्ट की परिस्थितियाँ कम होती जाएँगी। जिस प्रकार नास्तिकता सारे अनैतिक कर्मों की जड़ है उसी प्रकार आस्तिकता संवर्द्धन को व्यापक आन्दोलन का रूप देने का निश्चय किया है। घर-घर देव स्थापनाएं एवं गायत्री महामंत्र के जप तथा यज्ञ कर्म के प्रचार प्रसार से ही परमात्मभाव की व्यापक आस्था जन-जन में उत्पन्न होगी। यही वह मार्ग है जिससे समाज और संसार में शान्ति की स्थापना हो सकती है।