Magazine - Year 1997 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
भारतीय संस्कृति की गौरव-गरिमा अब दिग्दिगन्त तक फैलेगी
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
छेव-संस्कृति की गौरव-गरिमा के कारण ढूँढ़ने हों तो उसमें ऐसी अगणित अच्छाइयाँ मिल सकती हैं, जो समूची मानवता के लिए कल्याणकारी और प्रेरणाप्रद सिद्ध हो सकें। ऐसी विशेषताओं में अत्यधिक महत्व की है-वैचारिक सहिष्णुता। भारत में अनेक विचार और मतमतांतर पनपे और बढ़े है। किसी ने किसी को रोका या काटा नहीं है। औचित्य किस प्रतिपादन में कितना है, इसका निर्णय जन विवेक पर छोड़ दिया गया है। इसमें आस्तिक से लेकर नास्तिक तक, जीव-हिंसा को पाप मानने वालों से लेकर पशु-बलि चढ़ाने वालों तक को अपनी बात कहने की छूट दी गयी है। बौद्ध धर्म भारत में पैदा हुआ और देश निकाल लेकर अन्यत्र चला गया, यह स्वस्थ प्रतिद्वन्द्विता के कारण हुआ। इसके लिए उसे बाधित नहीं किया गया।
इस वैचारिक स्वतन्त्रता से जहाँ यत्किंचित् भ्रम फैलाने की गुँजाइश है, वहाँ बहुत बड़ा लाभ यह है कि देव संस्कृति के अनुपात विचार-सागर में अपने उपयोग का सर्वोत्तम रत्न तलाश करने के लिए विवेक-बुद्धि जाग्रत तलाश करने के लिए विवेक-बुद्धि जाग्रत रहती है। यह विकसित रही तो देर-सबेर में अधिकतम उत्कृष्ट का चुनाव सम्भव हो ही जाएगा। यदि मान्यताओं के बन्धनों से बुद्धि सामर्थ्य को जकड़ दिया गया होता तो कट्टरता भले ही बनी रहती, परन्तु औचित्य को परखने वाला तत्व तो कुँठित ही होता चला जाता। ‘बाबा वाक्यं प्रमाणम्’ के अन्धानुकरण में कई अच्छाइयों पर दृढ़ बने रहने का जितना लाभ है, उसकी तुलना में यह हानि भारी है कि तर्क और तथ्य का उपयोग होना ही बन्द हो जाएगा। तर्क, तथ्य एवं प्रमाण के आधार पर सत्य को स्वीकारने की भारतीय संस्कृति की यह विशेषता ऐसी है, जो कट्टरतावादियों को एक अच्छी दिशा की ओर संकेत करती है। हम अनेक प्रस्तुतीकरणों में से जहाँ जितने उपयोगी अंश मिल सकें, वहाँ से उतना चुन लेने की नीति अपनाकर अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमत्ता का ही परिचय देते हैं।
यही नहीं, देव-संस्कृति में व्यक्ति को ऐसी इकाई माना गया है, जो अपने आप में पूर्णता सम्भावना रखते हुए भी समाज के लिए अति उपयोगी बना रह सकता है। आत्मबोध,आत्मकल्याण, आत्मोत्कर्ष जैसे शब्दों को भारतीय दर्शन में प्रमुखता मिलने से लगता है कि यह व्यक्तिवादी मान्यता है और स्वार्थी बनने के लिए कहा जा रहा है। इसे स्वार्थान्धता को प्रोत्साहन मिलेगा और सामाजिकता क्षीण होगी। लेकिन यह आशंका तभी सही सिद्ध हो सकती थी, जब व्यक्ति विकास को विश्वात्मा के लिए समर्पित करने के स्थान पर निजी सुख-सुविधा के लिए आत्मकेन्द्रित किया गया होता। पर यहाँ तो यह मान्यता है कि विश्वात्मा के, परमात्मा के चरणों पर उत्कृष्टतम पूजा शाकल्य के रूप में परिष्कृत आत्मसत्ता को समर्पित किया जाए। इस प्रकार यह व्यक्तिवादी स्वार्थान्धता का, एकाकीपन का आक्षेप नहीं आता।
अरस्तू ने राज्य को सर्वोपरि माना है और व्यक्ति को उसके हित में कुछ भी करने के लिए कहा है। हीगल ने इस मान्यता को और भी आगे बढ़ाकर सर्वहारा किया है। मार्क्स ने उसे और भी अधिक तर्क और तथ्यपूर्ण ढंग से समाज की सर्वोच्च सत्ता के पक्ष में अपने मत को प्रस्तुत किया है और व्यक्ति की निजी स्वतन्त्रता को अमान्य ठहराया है। व्यक्ति के अधिकार बने रहने पर स्वतन्त्र आत्मोत्कर्ष की, अन्तरात्मा का अनुसरण करने की गुँजाइश रहती है। किन्तु जब वह समाज के संचालकों की वशवर्ती कठपुतली मात्र रह गया हो तो फिर स्वतन्त्र चिन्तन की गुँजाइश कहाँ रही?
माना कि इसमें दुष्टता बरतने की गुँजाइश है, पर साथ ही ऐसा भी तो है कि चेतना की साधनात्मक गतिविधियाँ अपनाकर व्यक्ति उस स्थान पर पहुँच जाए, जहाँ अवतारी महामानव पहुँचते हैं। समाज नियन्त्रण को सर्वोपरि मान लेने पर वैचारिक महानता का विकसित कर सकने वाली आत्मसाधना के लिए अवसर ही नहीं रहता। इस प्रकार प्रचलित विचारधारा को अन्तिम मानने से, मानवीय प्रगति के इतिहासक्रम में भागी बाधा उत्पन्न होगी। सच तो यह है कि प्रचलित विचारक भारतीय संस्कृति की प्रतिपादित एवं समर्थित वैयक्तिक स्वतन्त्रता के कितने ही दोष क्यों न गिनाए, पर एक गुण तो उसमें बना ही रहेगा कि इसको मानने से व्यक्ति की अन्तरात्मा जीवित रहेगी और अपने ढंग से, अपने निर्णय लेने और उत्कृष्ट गतिविधियाँ अपनाने में स्वतन्त्र रह सकेगी। इस विशेषता के रहते आत्मनिर्माण की, आत्माभिव्यक्ति की जो सुविधा मनुष्य के हाथ रह जाती है वह असंख्य व्यवधानों के रहते हुए भी अधिक मूल्यवान है।
देव-संस्कृति में संवेदना, कल्पना, आचरण, भावसंयम, नैतिक विवेक, उदार आत्मीयता, के जो तत्व अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए है, उनका आंशिक पालन बन पड़ने पर भी व्यक्ति सौम्य एवं सज्जन ही बनता है। इस दृष्टि से औसत भारतीय नागरिक तथाकथित प्रगतिवान एवं सुसम्पन्न समझे जाने वाले देशों की तुलना में कहीं अधिक आगे है।
कर्मफल के सिद्धांत की मान्यता, पुनर्जन्म के प्रति आस्था भारतीय संस्कृति की ऐसी विशेषता है, जिसके आधार पर नीति और सदाचार की रक्षा होती है। यह एक अच्छी दार्शनिक ढाल है, जिसके कारण अनैतिक बनने के लिए उभरने वाले उत्साह पर नियन्त्रण लगाता है। अपने देश में ईमानदारी, अतिथि सत्कार, दाम्पत्य मर्यादाओं की कठोरता, पुण्य-परोपकार, पाप के प्रति घृणा, जीव-दया जैसे तत्व दरिद्रता और सामाजिक अव्यवस्था के रहते हुए भी जीवित हैं। संसार में अन्य? ऐसी स्थिति नहीं है। जिन दिनों इस कर्मफल सिद्धांत पर वास्तविक आस्था थी, उन दिन यहाँ की चरित्रनिष्ठा और समाजनिष्ठा देखते ही बनती थी। प्राचीनकाल का भारतीय गौरव वस्तुतः उसकी महान संस्कृति का ही एक अनुदान रहा है।
मातृशक्ति को देवी रूप में परम प्रतिष्ठा एवं भोजन-स्नान आदि के साथ जुड़ी हुई स्वच्छता ऐसे आधार योगदान रह सकता है। वर्ण-व्यवस्था आज जन्मजाति के साथ जुड़कर विकृत हो जाने के कारण बदनाम है, पर उसके पीछे हो जाने के कारण बदनाम है, पर उसके पीछे अपने व्यवसाय तथा अन्य विशेषताओं को परम्परागत रूप से बनाए रहने की भारी सुविधा है। आज से बनाए रहने की भारी सुविधा है। आज छोटे-छोटे कामों के लिए नए सिरे से ट्रेनिंग देनी पड़ती है, जबकि प्राचीनकाल में वह प्रशिक्षण वंश-परम्परा के आधार पर बचपन से आरम्भ हो जाता था। और अपने विषय की प्रवीणता सिद्ध करता था। आश्रम धर्म में ब्रह्मचर्य ओर गृहस्थ में बीतने वाली आधी आयु भौतिक प्रगति के लिए ओर आधी आयु आत्मिक प्रगति के लिए ओर आधी आयु आत्मिक विभूतियों के संवर्द्धन के लिए है। वानप्रस्थ और संन्यास में आत्मिक श्रेष्ठता के संवर्द्धन में तथा लोकमंगल में योगदान देने के लिए सारा समय निश्चित है। इससे व्यक्ति ओर समाज दोनों की श्रेष्ठता समुन्नत होती रहती है।
तीर्थयात्रा में जहाँ स्वास्थ्य संवर्द्धन अनुभव वृद्धि, स्वस्थ मनोरंजन, व्यवसाय वृद्धि घर बैठे आदर्शवादी लोक शिक्षण की भी प्रचुर सम्भावना है। देवदर्शन के बहाने तीर्थयात्री गाँव-गाँव गली-मुहल्लों में जाकर धार्मिक जीवन की प्रेरणा देते थे। पैदल तीर्थयात्रा का नियम रहने से धर्मात्मा व्यक्ति का नियम रहने से धर्मात्मा व्यक्ति, अपने मार्ग के अनेकों व्यक्तियों तक श्रेष्ठ जीवन के सदुपयोग का मार्गदर्शन करते थे। साधु-ब्राह्मणों के अतिथि-सत्कार एवं दान-दक्षिण के पीछे यही भावना भरी हुई है कि लोकसेवा के लिए स्वेच्छा से समर्पित कार्यकर्त्ताओं को किसी प्रकार की आर्थिक तंगी का सामना न करना पड़े।
व्रत-उपवासों से जहाँ उदर रोगों की कारगर चिकित्सा की पृष्ठभूमि बनती है, वहाँ मनःशुद्धि की प्रेरणा एवं व्यवस्था का भी क्रियान्वयन होता है, साथ ही होती है। प्रत्येक शुभकर्म के साथ अग्निहोत्र जुड़ा रहने के पीछे दूरदर्शी तत्त्ववेत्ताओं की इच्छा यही रही है कि लोगों का यज्ञीय जीवन जीने की प्रेरणा मिले। यज्ञीय प्रेरणाओं से जन-जीवन में त्याग-परमार्थ की पुनीत सत्प्रवृत्तियों का अधिकाधिक समावेश होता रहे। पर्वों एवं जयन्तियों की विशेषता भारतीय संस्कृति की ऐसी विशेषता है, जिसके सहारे सत्परम्पराओं को अपनाए रहने और प्रेरणाओं के हृदयंगम किए रहने के लिए पूरे समाज को प्रकाश मिलता है।
भारतीय संस्कृति की परम्पराओं में न केवल मनुष्यों बल्कि वृक्ष-वनस्पतियों एवं पशु-पक्षियों के प्रति आत्मभाव बरतने की महानता है। यहाँ आने वाले पाश्चात्य पर्यटक इस बात पर भारी अचम्भा करते हैं कि इस बात पर भारी अचम्भा करते हैं कि इस देश में पक्षी अचम्भा करते हैं कि इस देश में पक्षी इतनी बहुलता के साथ जीवित है और वह इतनी निर्भीकता के साथ जीवित है और वह इतनी निर्भीकता के साथ विचरण करते हैं। पश्चिमी देशों में ऐसा नहीं होता। वहाँ ढेरों किशोर, तरुण छोटी बन्दूकें लिए दिन भर पक्षियों के शिकार के लिए दिन भर पक्षियों के शिकार के लिए लुक-छिप कर घात लगाए रहते हैं। लुक-छिप कर घात लगाए रहते हैं फलतः वहाँ उनका एक प्रकार से वंशनाश होता चला जा रहा है।
उन देशों में जहाँ जक हुआ है पक्षी संरक्षण क्षेत्र बनाए जा रहे है। और वहाँ शिकार खेलने का निषेध किया है। भारत में पक्षियों का स्वर्ग देखकर इस सहअस्तित्व पर सभ्यताभिमानी लोग आश्चर्य करते हैं और जब देखते हैं कि यहाँ पक्षियों को दाना डालने जैसी पुण्य-परम्पराएँ है, तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहती है। यही नहीं यहाँ तो कतिपय पक्षियों के दर्शन तक को शुभ और कल्याणकारक माना जाता है।
सच तो यह है कि सभ्यता एक बात है-संस्कृति दूसरी। सभ्यता दूसरी । सभ्यता क्षेत्रीय होती है उस पर स्थानीय परिस्थितियों का ओर समय के उतार-चढ़ावों का प्रभाव रहता है, किन्तु संस्कृति आत्मा की मौलिक विशेषता होने के कारण सनातन और शाश्वत है। समय के साथ वह घटती बढ़ती अवय है, पर उसके मौलिक सिद्धांतों में कोई अन्तर नहीं आता। मानवता के साथ कुछ आदर्श अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए है। वह देश-काल-पात्र से प्रभावित नहीं होते। समर्थन या विरोध की परवाह न करते हुए वह अपने स्थान पर चट्टान की तरह अडिग बन रहते हैं। बहुमत या अल्पमत से भी उन्हें कुछ लेना-देना नहीं पड़ता। देव-संस्कृति ऐसी ही आदर्श शृंखला है, जिसे कोई भी झुठला नहीं सकता। यहाँ तक कि व्यवहार में उन सिद्धांतों के प्रतिकूल चलने वाला भी खुले रूप में उसका विरोध कर सकता।
उदाहरण के लिए, चोर भी अपने यहाँ किसी दूसरे चोर को नौकर नहीं रखना चाहता। व्यभिचारी अपनी कन्या का विवाह व्यभिचारी अपनी कन्या का विवाह व्यभिचारी के साथ नहीं करता और न अपनी पत्नी को किसी ऐसे व्यक्ति के साथ घनिष्ठता बढ़ाने देता है। यही नहीं अपने सम्बन्ध में परिचय देते हुए हर व्यक्ति अपने को नीतिवान के रूप में ही प्रकट करता है। इन तथ्य पर विचार करने से प्रकट होता है कि मनुष्य की अन्तरात्मा एक ऐसी दिव्य परंपराओं के साथ गुँथी हुई है, जिसे झुठलाना किसी के लिए, यहाँ तक कि पूर्ण कुसंस्कारी के लिए भी सम्भव नहीं हो सकता। वह अपने दुराचरण के बारे में अनेक विवशताएं बताकर अपने को निर्दोष सिद्ध करने का प्रयत्न तो कर सकता है, पर अनीति को नीति कहने का साहस नहीं कर सकता। यही सत्य देव-संस्कृति की गरिमामय आत्मा को और अधिक प्रदीप्त करता है।
आज की भोगवादी प्रवृत्तियों एवं परिस्थितियों में इसके प्रकाश को ग्रहण भले लग गया हो, पर अगले ही दिनों भौतिकवादी उच्छृंखल भोगवाद की टक्कर में आदर्शवादी तत्वज्ञान की सेनाएँ देव-संस्कृति की आधारभूत मान्यताओं के सहारे खड़ी होगी अगले ही दिनों एक प्रचण्ड तूफान ऐसा आन्दोलन के रूप में खड़ा होगा, जिसे पुराने धार्मिक या आध्यात्म के नाम से न सही, पुराने धार्मिक के अन्य किसी नाम से पुकारा जाए, किन्तु आवश्यकता उसी प्रयोजन को पूरा करने की करेगा। इसी आंदोलन का बीजारोपण आने वाली कार्तिक पूर्णिमा यानि कि 14 नवम्बर के संस्कृति के अनिवार्य सत्यों की स्थापना, विश्व-संस्कृति या मानव संस्कृति के किसी नाम से ही, पर होगी अवश्य और इसी से प्रस्तुत विषाक्तता का निराकरण हो सकेगा। इस बिखरे हुए निराकरण हो सकेगा। इस बिखरे हुए कालकूट को समेटकर अपने गले में भर लेने वाला शिव अभियान इसी संस्कृति संवर्ग से अपना जन्म लेगा।
अन्धकार कहीं से भी क्यों न फैलाया गया हो, प्रकाश की किरणें सदा पूर्व दिशा से ही उदय हुई हैं। भारत एक देश नहीं मानवी संस्कृति का सेतु है। जिससे टकराकर प्रत्येक तूफान को पीछे लौटना पड़ता है। अगले दिनों मानवी गरिमा को विनाश के गर्त में उबारने के लिए देव-संस्कृति का सेतु है। जिससे टकराकर प्रत्येक तूफान की पीछे लौटना पड़ा है। अगले दिनों मानवी गरिमा को विनाश के गर्त में उबारने के लिए देव-संस्कृति की गरिमा ही अपनी महती ओर देशकाल की समस्त सीमाओं को लांघती हुई विश्वव्यापी तपोवन को शान्त करने वाली अमृतवर्षा सम्पन्न करेगी।
यह सपना नहीं सत्य है कि अगले दिनों भारतीय संस्कृति की खोई हुई आभा पुनः अपने प्रचण्ड प्रकाश के साथ विश्व-गगन पर प्रकट होगी। इस पृथ्वी पर ऋषियों ओर देवताओं द्वारा प्रेरित-प्रवर्तित संस्कृति वाला नया युग पुनः अवतरित होगा। भारतीय संस्कृति के तत्वज्ञान का युगांतरीय आविष्कार पुनः होगा। यही आशा लगाए मानवता आज भी सजल नेत्रों से प्रतीक्षा कर रही है। आज भले ही यह विश्वास कर रही है। आज भले ही यह विश्वास न होता हो प्राप्त हो सकेगा। परन्तु महाकाल के स्वर स्पष्ट रूप से यह आश्वासन देते प्रतीत होते हैं कि नव-जागरण के प्रभाव होने में अब देर नहीं। वर्तमान अन्धकार के पैर अब ज्यादा समय तक जमे न रहेंगे। देव-संस्कृति की गौरव-गरिमा के ज्योतिर्मय आलोक से संसार का लाभान्वित होने का अवसर अब आ गया है।