Magazine - Year 1997 - Version 2
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Language: HINDI
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न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते
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मनुष्य की सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है विचार। इसकी प्रचण्डता देखते ही बनती है। जिस प्रकार जलती हुई आग अपने समीपवर्ती क्षेत्र को गर्म करती है उसी प्रकार विचारों की ऊष्मा संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के व्यक्तित्व में भारी उथल-पुथल मचा देती है। रत्नाकर का महर्षि बाल्मीकि में परिवर्तन, डाकू, अंगुलिमाल का सहृदय भिक्षु में बदलाव, देवर्षि नारद एवं महात्मा बुद्ध के विचारों की ऊष्मा का ही परिमाण था। दो समान परिस्थितियों और समान साधनों के व्यक्तियों की मनःस्थिति का विश्लेषण किया जाए तो उनमें भारी अन्तर मिलेगा। कई बार तो उनमें जमीन-आसमान जितना फर्क मिलता है। जिन परिस्थितियों में एक व्यक्ति दुःखी, उदास-खिन्न और असन्तुष्ट बना खीजता रहता है, उन्हीं में दूसरा सन्तोष की साँस लेता है और कई बार तो अपने को सुसम्पन्न सौभाग्यशाली भी अनुभव करता है। इस अन्तर का कारण क्या हो सकता है, इस पर विचार करने से एक ही निष्कर्ष उभर कर आता है- “विचारों के स्तर एवं प्रवाह का अन्तर।” विचारों के स्तर एवं प्रवाह का अन्तर।” वस्तुतः मानवजीवन के दुःख-सुख एवं उत्थान-पतन का केन्द्रबिन्दु यही है।
विचारों के निर्झर प्रतीत होने वाले मस्तिष्क को निश्चित रूप से जादू का पिटारा कह सकते हैं। इन दिनों कम्प्यूटरों के कारण कठिन बौद्धिक कार्यों को जिस सरलता से सम्पादित किया जाता है, उसके कारण उनकी बहुत चर्चा-प्रशंसा है, किन्तु यदि मस्तिष्कीय क्रियाकलाप को देखा जाए तो उस पर अब तक के बने सम्पूर्ण कम्प्यूटरों के आविष्कार न्यौछावर करने पड़ेंगे। यह एक ऐसा अद्भुत यन्त्र है, जिसकी तुलना का दूसरा उपकरण खड़ा कर सकना मनुष्य की बुद्धि, कल्पना से बाहर की चीज है। मस्तिष्क द्वारा शारीरिक क्रियाकलापों का अनवरत और सुव्यवस्थित संचालन किस खूबसूरती के साथ होता है, यदि इसका विवरण तैयार किया जा सके तो प्रतीत होगा कि उसकी क्षमता अद्भुत है कि मनुष्यकृत आज तक के सभी आविष्कार उसके सामने फीके पड़ जाते हैं।
क्योंकि मस्तिष्क केवल जीवन-यापन सम्बन्धी क्रियाकलापों या सोच-विचारों में लगा रहता हो और उतनी ही सीमा में उसकी शक्ति सीमित रहती हो, सो बात नहीं है। सूर्य जिस प्रकार निरन्तर अपना प्रकाश और ताप चारों ओर बखेरता रहता है, ठीक उसी प्रकार मानव मस्तिष्क से एक विशेष प्रकार की ऊर्जा निःसृत होती रहती है। इसे विचार, संकल्प, भावना, इच्छा आदि किसी भी नाम से अथवा उनके संयुक्त सम्मिश्रण के रूप में कह या पहचान सकते हैं इस विकिरण के द्वारा एक व्यक्ति अपने समीपवर्ती लोगों को असामान्य रूप से अनजाने ही प्रभावित करता है।
अनन्त आकाश की पोल में ‘ईथर’ तत्व भरा पड़ा है। ढेला फेंकने पर तालाब में जिस तरह लहरें उठने लगती हैं, उसी तरह विश्वव्यापी ‘ईथर’ महासागर में हमारे विचार अपने स्तर पर प्रहार करते हैं और उनसे प्रकाश या ध्वनि से भी अधिक ऊँची एवं सूक्ष्म स्तर की किन्तु लगभग उसी प्रकार की तरंगें उठती है, वे कुछ दूर तक जाकर ही समाप्त नहीं हो जातीं, बल्कि अनन्त आकाश में भ्रमण करने निकल जाती हैं। स्पष्ट है किसी गोलक पर सीधी यात्रा आरम्भ करने पर उसका अन्त आरम्भ किए जाने वाले स्थान पर ही होगा। इसी प्रकार किसी व्यक्ति के मस्तिष्क से निकलने वाली विचार तरंगें अपनी सुदूर यात्रा करती हुई अन्ततः अपने उद्गम स्त्रोत पर-विचार के मस्तिष्क पर वापस लौट आती हैं। इस क्रिया-प्रक्रिया का दुहरा प्रभाव होता है। एक तो उसी स्तर की विचार-बुद्धि वाले उन कम्पनों से बल तथा प्रोत्साहन पाते हैं दूसरे जब से वापस लौटते हैं तो अपने इस उत्पादन को नए आहार के रूप में पाकर सृजेता मस्तिष्क को भी लाभ मिलता है।
किसान अपनी फसल का लाभ स्वयं भी उठाता और उससे अन्य अनेकों को आहार मिलता है। विचारोत्पादन भी इसी प्रकार का कृषि कर्म है। पशु अपनी शरीर यात्रा सम्बन्धी सोच-विचारों में ही लगे रहते हैं, इसलिए उनका चिन्तन थोड़ा और विचार प्रवाह अत्यन्त क्षीण होता है। किन्तु मनुष्य में भावना, इच्छा, संकल्प, आदर्श आदि की बड़ी शक्तिशाली प्रेरणाएँ चिन्तन क्षेत्र को घेरे रहती हैं। अस्तु, उनसे विचार-तरंगें भी बहुत शक्तिशाली उत्पन्न होती हैं। यों जिनका चिन्तन शरीर-यात्रा की परिधि में ही एक ढर्रे का घूमता रहता है, उनकी विचार तरंगें भी बहुत दुर्बल होती हैं। प्रखरता तब आती है, जब उनमें किन्हीं विशेष भावनाओं की उभार सम्मिलित रह रहा हो।
स्पष्ट है आदर्शवादी उच्चस्तर का चिन्तन करने वाले चरित्रवान एवं सेवाभावी लोग अपनी विचार-तरंगों के माध्यम से समस्त विश्व को अपनी प्रखर प्रेरणाओं से लाभान्वित करते हैं, भले ही उनका वह अनुदान दूसरों को प्रत्यक्ष दिखाई न पड़ता हो। यह बात दुष्ट-दुरात्माओं पर भी लागू होती है। वे मन ही मन दुरभिसन्धियों के कुचक्र रचते हैं और इस प्रकार की भयानक तरंगें छोड़ते हैं, जिनके कारण अगणित दुर्बल मनोभूमि के लोग उसी प्रकार का चिन्तन प्रारम्भ कर दें और कुमार्गगामिता के कदम बढ़ाएँ।
समान विचारों के लोगों को अपने स्तर के नए विचार आकाश से मिलते रहें तो उनका बल बढ़ेगा। सजातीयता का आकर्षण प्रकृति का सर्वविदित नियम है। धातुओं के कण धूल में बिखरे रहते हैं, पर जिधर इन धातुओं की खान होती है, उधर वे धीरे-धीरे सहज ही खिसकते जाते हैं। समुद्र की दिशा में ही समस्त नदियाँ बहती हैं। नदियों की तरह नाले दौड़ते हैं। विचार भी अपने सजातियों की तरफ तेजी से बढ़ते हैं और वहाँ अपना रंग जमाते हैं। चोर, लवार जुआरी, व्यभिचारी अपनी जमात जोड़ लेते हैं। सन्त-सज्जनों के सत्संग भी जमे रहते हैं। यह समान स्वभाव का आकर्षण है।
विचारों के क्षेत्र में भी यही होता है, जहाँ जिस स्तर के विचार उठ रहे होंगे वहाँ उसकी अन्य लोगों द्वारा छोड़ी गयी विचार-तरंगें भी उड़ती हुई आवेंगी और अपना अड्डा जमा लेंगी। यही कारण है कि हर भले-बुरे विचारकर्ता को नई-नई सूझ-बूझें सहज ही मिलती चला जाती हैं, इसे अन्य सजातीय लोगों द्वारा छोड़े गए सजातीय विचारों का अनुग्रह-अनुदान भी कहा जा सकता है। प्रोत्साहनकारी और मार्गदर्शक विचारों की इस दुनिया में कमी नहीं। जिसे जो कुछ पसन्द हो इस विचार-बाजार में मनचाही परन्तु मनमानी मात्रा में बिना मूल्य एवं बिना रोक-टोक के खरीद सकता है।
हमारा रेडियो उन्हीं प्रसारणों को पकड़ता है, जिन पर उसकी सुई अड़ी होती है। उसी समय अन्य रेडियो स्टेशनों से अन्य प्रसारण भी होते रहते हैं, पर हम केवल अपनी रुचि का स्टेशन और प्रोग्राम ही सुनते हैं। अन्य प्रसारण अपनी राह चले जाते हैं, हमसे संपर्क उन्हीं का होता है, जिन्हें अपना रेडियो पकड़ना है। विचार-तरंगों को भी रेडियो का सहधर्मी-सहकर्मी माना जा सकता है। वे उठती हैं, उमड़ती हैं और स्पर्श भी सभी को करती हैं। अत्यन्त सूक्ष्म प्रभाव वे सभी पर छोड़ती हैं, पर विशेष प्रभाव सजातियों पर ही डालती हैं। सज्जनों का मस्तिष्कीय चुम्बकत्व प्रायः उन्हीं को आकर्षित करता है, जिनमें सज्जनता के अंकुर पहले से ही मौजूद हैं। यह बात दुर्जनों के सम्बन्ध में भी लागू होती है।
तथ्य सज्जनों-दुर्जनों तक ही सीमित नहीं है, दर्शन, कला और विज्ञान जैसे विषयों में भी इस सत्य का चमत्कार देखा जा सकता है। ठीक एक ही समय में एक ही वैज्ञानिक शोध पर-कई लोग एक ही स्तर की खोज-बीन करते हैं। वे अपने प्रयोगों की पूर्णता प्राप्त न होने तक छिपाते हैं, पर देखा गया है कि उनमें एक ही स्तर का चिन्तन, एक ही क्रम से, ऐसे ढंग से चला मानो एक-दूसरे की नकलची परीक्षार्थियों की तरह नकलटीप या चोरी की हो। वस्तुतः यह विशेष मनोयोगपूर्वक निःसृत विचारधारा का ही चमत्कार होता है। जिसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक दौड़ जाने से रोका नहीं जा सकता।
शारीरिक पुण्य-पापों की तरह मानसिक पुण्य-पापों की चर्चा भी धर्म-पुस्तकों में मिलती है और इसके अनेक भले-बुरे परिणाम भुगतने पड़ते हैं ऐसा कहा गया है। इस प्रतिपादन में ठोस तथ्य है। हमारा चिंतन समस्त विश्व को प्रभावित करता है, ऐसी दशा में हमारी क्रिया द्वारा न सही, विचारों द्वारा ही सही कुछ क्षति जरूर पहुँचाई गई अथवा सेवा-सहायता की गयी है तो उसका भला-बुरा परिणाम हमें मिलना ही चाहिए। शारीरिक पुण्य-पापों का अपना महत्व है, पर मानसिक पुण्य-पापों को भी काल्पनिक, नगण्य, निरर्थक या विनोद कहकर झुठलाया नहीं जा सकता। जब उनका प्रवाह होता है तो परिणाम क्या नहीं मिलेगा ?
बैठे-ठाले जब चाहे जैसी कल्पनाएँ करते रहने में हम स्वतन्त्र तो हैं, पर यह नहीं समझ बैठना चाहिए कि यह कोई निरर्थक मनोविनोद मात्र था। विचारों की शक्ति आग या बिजली की तरह है, उसके साथ मखौलबाजी करना खतरनाक है। दुष्टता और दुराचार की कल्पना भर करते रहें, योजना भर बनाते रहे, तो भी उसी स्तर के सजातीय विचार चारों ओर दौड़ पड़ेंगे और मस्तिष्क पर हावी हो जाएँगे। इसका परिणाम यह होगा कि हमारे प्रादुर्भूत विचार अनेक गुनी शक्ति-सामर्थ्य से भरे जाएँगे और अनेक भले-बुरे परिणाम सामने आ उपस्थित होंगे। यदि हम बुरे विचारों में निमग्न हैं तो स्वभावतः उस बुराई की अगणित प्रेरणाएँ, योजनाएँ सामने आती चली जाएँगी और क्रमशः इसी दुर्गुण के लिए अपना मन प्रशिक्षित हो जाएगा। विनोद मात्र के लिए निरर्थक कल्पना समझ कर जिन उड़ानों में हम उड़ रहे थे, वे ही मारे गले का फन्दा बन जाएँगी और एक दिन हमें उसी जाल-जंजाल में बेतरह डुबोकर रख देंगी। यदि कल्पना करनी हो तो केवल शुभ कल्पनाएँ करनी चाहिए, ताकि उस मार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहन और बल मिलता चला जाए और समयानुसार हम उसी प्रकार की क्षमताएँ विकसित करते हुए उत्साहवर्धक प्रगति कर सकें।
विचार-शक्ति को विद्युत-शक्ति जैसी अणुशक्ति जैसी प्रचण्ड सामर्थ्य का माना जाना चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए कि उसका सही सदुपयोग क्या हो सकता है। धन-सम्पत्ति अपने पास हो तो उसे ऐसे ही बरबाद नहीं किया जाता है। धन की बरबादी करने से लोग क्षतिग्रस्त होते और उपहासास्पद बनते हैं। यही तथ्य विचारों की सम्पदा पर भी लागू होता है।
फालतू समय में कुछ भी किसी भी प्रकार के विचार प्रवेश करते रहें तो मोटे तौर पर उससे कुछ प्रत्यक्ष हानि होती दिखाई नहीं पड़ती, पर यदि गम्भीरता पूर्वक देखा जाए तो प्रतीत होगा कि मस्तिष्क में उमड़ने-घुमड़ने वाले विचार मस्तिष्क को उसी अपने ही स्तर का विनिर्मित एवं प्रशिक्षित करते हैं। कुछ समय रुचिपूर्वक जिन विचारों को मस्तिष्क में स्थान दिया जाएगा वे फिर वहाँ अपना अड्डा जमा लेंगे और उसी स्तर की अभ्यस्त विचारधारा चिन्तन के क्षेत्र में बिना बुलाए ही उमड़ने लगेगी। यह सब उमड़-घुमड़ ऐसे ही समाप्त नहीं हो जाती वरन् रुचि, रुझान और प्रवृत्तियों का निर्माण करती है। यह तथ्य है कि देर तक जिन विचारों को अपनाया गया है, वे प्रेरणाप्रद बनते हैं और अन्ततः अपनी ही दिशा में करने के लिए क्रियाशक्ति को सहम तत्पर कर लेते हैं।
अवाँछनीय विचारों को मस्तिष्क में स्थान देने और उन्हें वहाँ जड़ जमाने का अवसर देने का अर्थ है, भविष्य में उसी स्तर के जीवन की तैयारी कर रहे हैं। भले ही यह अनपेक्षित या अनायास ढंग से हो रहा है, पर उसका परिणाम तो होगा ही। उचित यही है कि हम उपयुक्त एवं रचनात्मक विचारों को ही मस्तिष्क में प्रवेश करने दें। उपयोगी एवं विधेयात्मक विचारों का आह्वान करने के लिए ही अपने देश में सत्संग एवं स्वाध्याय की परम्परा को व्यापक महत्व दिया गया था। देवालयों की उपयोगिता का भी यही कारण था। भक्तिभावना सम्पन्न लोग ही वहाँ आते हैं और एक ही स्तर की गतिविधियाँ लगातार चलती रहती हैं। इसका प्रभाव वहाँ के वातावरण पर ही नहीं इमारत पर भी पड़ता है। तीर्थों का निर्माण भी इसी आधार पर किया गया था। सत्संग भवनों की महिमा इसी प्रयोजन को पूरा करते-करते बढ़ जाती है। मनस्वी महामानवों के निवास स्थान इसी दृष्टि से प्रेरणाप्रद बन जाते हैं। उन्हें दिव्यस्मारकों के रूप में सुरक्षित रखने का यही प्रयोजन है।
सामूहिक सद्सम्मेलनों एवं धर्मानुष्ठानों के पीछे एक बड़ा प्रयोजन सामूहिक सद्विचार-प्रवाह के मिलने से एक सम्मिलित शक्ति का उद्भव करना भी होता है सामूहिक प्रार्थना, पर्व-त्योहारों के सम्मिलित आयोजन इसी प्रयोजन की पूर्ति करते हैं। इकट्ठे होकर यज्ञायोजन पूरे करने में छुटपुटे अलग-अलग प्रयत्न करने की अपेक्षा कहीं अधिक लाभ होता है। युगनिर्माण मिशन के जनम का आधार एवं उद्देश्य ही यही है कि सद्विचारों का प्रसार कर प्रचण्ड वातावरण विनिर्मित किया जाए। प्राचीनकाल में आश्रम, बौद्ध विहार, चैत्य आदि को बनाए जाने के पीछे भी यही उद्देश्य निहित था। विचारों की शक्ति एवं सम्पदा का यदि महत्व समझा जा सके और उनके सद्प्रयोग का मार्ग अपनाया जा सके तो निःसन्देह सफल और समुन्नत जीवन की मंगल उपलब्धियाँ प्रचुर परिणाम में प्राप्त कर सकते हैं। पर यह सब होगा तभी जब हम अपने अन्तःकरण में यह गहराई से अनुभव कर लें-’न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ अर्थात् सद्ज्ञान यानि सद्विचार-सद् चिन्तन से पवित्र एवं श्रेष्ठ अन्य कुछ भी नहीं।