Magazine - Year 1997 - Version 2
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Language: HINDI
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विद्या-विस्तार का राष्ट्रीय महत्व : शान्तिकुँज के प्रयास
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चिरपुरातन काल से विद्या-विस्तार का राष्ट्रीय एवं सामाजिक महत्व रहा है। जीवन जीने एवं सामाजिक महत्व है। जीवन जीने की कला, जिसे अध्यात्म की भाषा में संजीवन विद्या कहा जाता है, मनुष्य की प्रथम चेतनात्मक आवश्यकता है। अर्थोपार्जन करके सुविधा-सम्पादन एक के अनेकानेक प्रयास जानकारी बढ़ाने, मस्तिष्क को सुविकसित करने के लिए किए जाते हैं। आहार-विहार होती है। इस तरह भौतिक जीवन की आवश्यकताएँ शरीर-मस्तिष्क और थप्र-साधनों को सुव्यवस्थित रखने से पूरी हो जाती है। परम चेतनात्मक प्रखरता उस विद्या से आती है, जो दृष्टिकोण को परिष्कृत करती है। और चिन्तन एवं कर्तव्य को सही दिशा में चलने के लिए नियन्त्रित-प्रशिक्षित करती है। जीवन-विद्या का जिसे सफल-सार्थक जीवन-विद्या का जिसे जितना ज्ञान अभ्यास है, वह उतना ही सफल- सार्थक जीवन है, वह उतना ही सफल- सार्थक जीवन जिएगा। अंतरंग क्षेत्र में उसे महानता का आनन्द और बहिरंग में बड़प्पन का श्रेय-सम्मान मिलेगा।
कोई भी कला-कौशल मात्र सुनने, समझने से ही उपलब्ध नहीं हो जाता। उसके से ही उपलब्ध नहीं हो जाता। उसके लिए अनुभव, अभ्यास भी जुटाना पड़ता है। जीवन-विज्ञान को बौद्धिक रूप से जाना-समझा जाए सो ठीक है।, पर साथ ही यह भी जानना आवश्यक है कि उसे अभ्यास में लाने में लाने की, अनुभव में उतारने की प्रबल चेष्टा की जाए, तभी वे जानकारियाँ व्यावहारिक जीवन में उतरेंगी और आदतों का रूप धारण करेंगी। ज्ञान को व्यवहार में परिणत करने का अनवरत प्रयास साधना कहलाता है। यों सामान्य क्रम में योग और तप के क्रियाकलापों को ‘साधना’ कहते हैं। पर वस्तुतः वह शब्द इतना सीमित नहीं है। चेतना को किसी भी प्रकार के अभ्यास में ढालने के हर प्रयास को साधना कहा जा सकता है। कला, शिल्प, व्यायाम, अध्ययन, परमार्थ आदि किसी में भली प्रकार प्रवीण-अभ्यस्त कर लेना साधना ही कही जाएगी। जिन्दगी को परिष्कृत स्तर के जीने की जानकारी को जीवन-विज्ञान और उसे स्वभाव का अंग बना लेना, अभ्यास और आदतों को अनुसार ढाल लेना जीवन-विज्ञान और उसे स्वभाव का अंग बना लेना, अभ्यास और आदतों को तदनुसार ढाल लेना जीवन साधन कही जाएगी। वस्तुतः ये दोनों ही एक दूसरे की पूरक है। दोनों के समन्वय को ही सर्वांगपूर्ण विद्या कहते हैं।
प्राचीन साहित्य में इसके राष्ट्रीय एवं सामाजिक महत्व का विवेचन विस्तारपूर्वक दिया गया है। यह कोई कल्पना विहार या जादुई क्रियाकलाप नहीं कल्पना बिहार या जादुई क्रियाकलाप नहीं है। दृष्टिकोण के चिन्तनक्षेत्र को उच्चस्तरीय पृष्ठभूमि पर अवस्थित करने की आस्था निर्धारण करने का विधि विधान है। अध्यात्म का विवेचनात्मक और साधनात्मक विशालकाय कलेवर इसी प्रयोजन के लिए खड़ा किया गया है। ईश्वर-जीव-प्रकृति के स्वरूप का प्रतिपादन, जीवन-लक्ष्य का निर्धारण-गति विधियों का नियमन, नियमन, नियन्त्रण और वस्तुओं का उपयोग एवं व्यक्तियों से व्यवहार की जो नीति-मर्यादा निरूपित होती उस मान्यता और आकांक्षा का एक उत्कृष्ट आधार बनता है। यही है संजीवनी-विद्या का लक्ष्य। इसी को पाकर मनुष्य का व्यक्तित्व ऊँचा उठता है, देव भूमि में विकसित होता है।
इस संजीवनी-विद्या को उत्कृष्ट जीवनयापन सम्बन्धी मान्यताओं एवं रीति-नीतियों का समन्वय कह सकते हैं। हमें क्या सोचना चाहिए और क्या करना चाहिए, इसी का विस्तार से विवेचन विश्लेषण इसमें किया गया है। इसी का अपनाकर भारतभूमि स्वर्गादपि गरीयसी बनी थी। यहाँ के निवासियों ने देवता होने का गौरव पाया था। इस देश को जगद्गुरु एवं चक्रवर्ती की उपाधियाँ इसी कारण मिली थीं। यहाँ के उपाधियाँ इसी कारण मिली थीं। यह संजीवनी विद्या का ही विस्तार- प्रसार था कि यहाँ के निवासियों की चरित्रनिष्ठा, ईमानदारी की गाथाएँ यहाँ आने वाले विदेशी यात्री करते नहीं अघाते थे। मैगस्थनीज फाहृन, हृनसाँग की रचनाएँ भारत देश की महानता एवं भारतीयों के उज्ज्वल चरित्र के गौरवगान से भूरी-पूरी हैं।
बदलते युग में विद्या-विस्तार की प्रक्रिया एवं परम्परा नष्ट हो गयी। इसी का प्रक्रिया एवं परम्परा नष्ट हो गयी। इसी का परिणाम हमारे सामने है। स्वतंत्रता की पचासवीं वर्षगाँठ मनाते हुए हम भ्रष्टाचार के दल-दल में धँसे खड़े हैं। राष्ट्रीय स्वाधीनता के पचास वर्ष पूरे होने पर संसद का जो छह दिवसीय विशेष सत्र आयोजित किया गया, उसमें भ्रष्टाचार एवं अपराध की ही चर्चा होती रही। जन-प्रतिनिधि से लेकर नौकरशाहों तक सभी इस पाप पंक में फँसे है। यह बात हर ओर से मुक्त कण्ठ से स्वीकारी जा रही है। आखिर ऐसा क्यों हुआ? इससे छुटकारा कैसे मिले? इन प्रश्नों के उत्तर में समाधान के स्वर मौन है। बुद्धिजीवी, राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री सभी असमंजस में है। वे सोच नहीं पर रहे हैं कि इस राष्ट्रीय समस्या का निदान कैसे हो?
इसके उत्तर में कहना इतना ही है कि इस राष्ट्रीय समस्या के निदान एवं समाधान के लिए विद्या-विस्तार का राष्ट्रीय एवं सामाजिक महत्व फिर से पहचानना पड़ेगा। हाँ इसके लिए प्राचीन विधियाँ को युग के अनुरूप सरल सुबोध बनाना पड़ेगा और आज की स्थिति के अनुरूप समझाने और व्यवहार में लाने की शैलो का विकास करना होगा।
प्राचीनकाल में शास्त्री निर्देश और आप्तवचन प्रमाणभूत थे। श्रद्धा ही उन दिनों का आधार थी। पर अब वैसी स्थिति नहीं है विज्ञान के समानान्तर बुद्धिवाद बढ़ा है। विज्ञान ने युग को नई दिशा दी है कि जो कुछ माना जाए, वह प्रत्यक्ष प्रमाणभूत एवं तर्कसंगत होना चाहिए। इन नयी कसौटी पर शास्त्र निर्देश आप्तवचन परम्परा प्रचलन तीनों की अमान्य ठहरते हैं। आधार उलट गया। अब किसी को तर्क और प्रमाणरहित, आप्तवचन स्वीकार नहीं। विज्ञान को पीछे नहीं धकेला जा सकता और बुद्धिवाद से पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता। अतएव विद्या संजीवन विद्या नहीं छुड़ाया जा सकता। अतएव संजीवन व़ा के तत्वज्ञान को अब बुद्धिवादी, युग के अनुरूप शैली में प्रतिपादित करना होगा। यही बात नीति-सदाचार के सम्बन्ध में है। प्राचीनकाल में व्यक्ति को जिन परिस्थितियों में रहना पड़ता था, समाज का ढाँचा जिस स्तर का था उसके अनुरूप क्रियाकलापों का निर्धारण, तत्कालीन नीति-सदाचार के रूप में हुआ था।
अब परिस्थितियों में धारी अन्तर आ गया है। व्यक्ति जिस वातावरण से प्रभावित होता है और समाज ने अपना जो रूप बना लिया है, उससे प्राचीनकाल के प्रचलनों जितना अन्तर दिखाई पड़ता है। ऐसी स्थिति में धर्माचरण का, नीति सदाचार का, आस्था-निरूपण का पुराना स्वरूप यथावत् नहीं रखा जा सकता । शाश्वत मूल्यों को यथावत् रखते हुए भी उनके प्रतिपादन एवं व्यवहार में समयानुकूल अन्तर आवश्यक है ऐसे हेर-फेर अनादिकाल से आज तक होते रहे है। अनेक अवतारों को देवदूतों को सामयिक परिवर्तन की प्रक्रिया सम्पन्न करने के लिए ही बार-बार आना पड़ता है। वे अपने पूर्ववर्ती का आदर्श तो स्थिर रखते हैं, पर व्यवहार में समय की विकृतियों को संस्कृति में बदलने के लिए अपने प्रतिपादनों एवं क्रियाकलापों का ऐसा निर्धारण करते हैं, जो नवीन लगता है, समय की आवश्यकता को पूरा करता है। दैवी मार्गदर्शन का, सृष्टि-सन्तुलन का यह प्रयास प्रतिभाओं द्वारा समय-समय पर होता रहा है और आगे भी होता रहेगा।
जो समस्याएँ प्राचीनकाल में थीं वे अब नहीं हैं । जो अब है वे प्राचीनकाल में नहीं थीं। जो अब है वे प्राचीनकाल में नहीं थीं। ऐसी दशा में प्राचीनकाल की संजीवनी-विद्या की आत्मा को यथावत् रखते हुए भी उसे समझाने और करने की पृष्ठभूमि दूसरी ही बनानी पड़ेगी। यह प्राचीन एवं नवीन का समन्वय होगा। इसकी तुलना सर्प की केंचुली उतरने अथवा जराजीर्ण स्थिति को नवयौवन में बदलने वाले कायाकल्प से की जा सकती है।
प्राचीनकाल में समस्त शिक्षा सघन वनों के एकान्त उद्योगों में बने गुरुकुलों में होती थी। अभिभावक अपने बच्चों को पाँच वर्ष की आयु से लेकर पच्चीस वर्ष होने तक निष्णात आचार्यों को सौंप देते थे। अब वैसी शिक्षा प्रक्रिया का चल सकना कठिन है। कितने ही उत्साही गुरुकुलों कठिन है। कितने ही उत्साही गुरुकुलों ने वैसा ही कुछ सोचा और आरम्भ किया, पर वह प्रयास सर्वथा आरम्भ किया, पर वह प्रयास सर्वथा असफल हो गए। अब प्रायः समस्त गुरुकुल सरकारी मान्यता प्राप्त कॉलेजों के रूप में हैं। कोई अपवाद हो तो दूसरी बात है। इसमें दोष किसी का नहीं परिस्थितियों का है। अब परिष्कृत शिक्षा पद्धति चलेगी तो उसमें युग की आवश्यकता का समावेश करना होगा आरण्यक की वानप्रस्थ परम्परा भी अब लुप्तप्राय है। साधु-ब्राह्मण परम्परा के भी अब कहीं दर्शन नहीं होते हैं। प्राचीनकाल में ये परम्पराएँ संजीवनी विद्या को द्वार-द्वार तक जन-जन तक ले जाती थीं। यही नहीं व्यक्ति अपने अवकाश के समय तीर्थस्थानों में निर्धारित पर्वों पर होने वाले धर्मानुष्ठानों में, सत्र सम्मेलनों में सम्मिलित होते थे और प्रस्तुत समस्याओं को सुलझाने एवं भावी प्रगति का सामाजिक प्रकाश प्राप्त करने के लिए वहाँ पहुँचते थे। तीर्थों के निष्णात तत्वदर्शियों द्वारा आवश्यक मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन प्राप्त करते थे । अब तीर्थों का, धर्मायोजनों का रूप कैसा विकृत हो गया है इसे कोई भी आँखें खोलकर देख सकता है। कुम्भ जैसे मेले कितना धन, श्रम, समय बरबाद करते हैं। और जितना पाखण्ड, अंधविश्वास फैलाते हैं, उसे सहज ही देखा-जाना जा सकता है। यातायात और परिवहन की सुविधा, व्यवसायी व्यवसायी दृष्टिकोण और प्रचार प्रपंच ने मिलकर इन मेलों का जो स्वरूप बन दया है, उससे अब प्राचीन स्थिति के शिक्षण सत्रों की स्थिति में लौट पाना असम्भव हो गया हैं अब उस आवश्यकता की पूर्ति तभी सम्भव है, अब युग चुनौती को स्वीकार करके नयी परिस्थितियों के अनुरूप, नए साधन सरंजाम जुटाए जाएँ।
शान्तिकुँज की स्थापना ही इसी उद्देश्य को लेकर की गयी है। परमपूज्य गुरुदेव के विचार-क्रान्ति अभियान के प्रवर्तन का उद्देश्य विद्या विस्तार के प्राचीन-तन्त्र का पुनर्जीवन एवं नवीनीकरण ही था। यहाँ प्राचीनकाल की सभी परम्पराओं की नयी परिस्थितियों के अनुरूप जाग्रत एवं प्राणसम्पन्न देखा जा सकता है। गायत्री विद्यापीठ के रूप में गुरुकुल परम्परा बच्चों में दैवी संस्कारों का रोपण करने के लिए सक्रिय है। यहाँ के तपोनिष्ठ आचार्यगण एवं गार्गी- मैयेयी की भाँति साधना-संपन्न ब्रह्मवादिनी महिलाएँ बच्चों में महामानवों के संस्कार देने में निरत हैं।
आरण्यक परम्परा की शुरुआत यहाँ प्राण प्रत्यावर्तन सत्र से 1973 में आरम्भ हुई थी। इसके पश्चात् वरिष्ठ वानप्रस्थ श्विर, कनिष्ठ वानप्रस्थ शिविर, रामायण शिविर, लेखन शिविर, जीवन साधना शिविर, चान्द्रायण सत्र ब्रह्मवर्चस् लेखन एवं शोध सत्र कल्पसाधना सत्र, युगशिल्पी सत्र आदि के माध्यम से आरण्यक परम्परा के प्रवाह ने विस्तार पाया । जो अभी भी अपने पूरे वेग से गतिमान है। तीर्थ परम्परा का पुनर्जीवन यहाँ से शक्तिपीठों-प्रज्ञापीठों की शृंखला के निर्माण से पूरा हुआ। आज के समय तक लगभग 4000 की संख्या से अधिक शक्तिपीठ एवं प्रज्ञापीठ ज्ञान एवं संस्कार देने की अपनी प्राचीन तीर्थ परम्परा का निर्वाह कर रहे हैं इसी के साथ देश के विभिन्न प्रान्तों एवं विश्व के अनेक देशों में 26ए 427 प्रज्ञामण्डल एवं 11,190 मला अनी महती भूमिका का निर्वाह तत्परता एवं तल्लीनता से कर रहे हैं।
संजीवनी-विद्या के तत्वज्ञान को युगानुरूप वैज्ञानिक प्रतिपादन करने वाली मासिक पत्रिका अखण्ड-ज्योति 5 लाख प्रतिमास छपती है। इसी तरह युग-प्रवाह को जन-जीवन तक पहुँचाने वाली 50,000 है। गुजराती भाषा में युगशक्ति की प्रकाशन संख्या 125,000 है। इसी क्रम में अखण्ड-ज्योति के तेलगू,मराठी, बंगाली, एवं उड़िया संस्करण भी प्रकाशित होते हैं। जो जन-जन को संजीवनी-विद्या को सुगम बोध कराने में सक्षम एवं समर्थ भूमिका अतिरिक्त युगसाहित्य के रूप में लगभग अब तक 3,000 से भी अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। इनमें से कइयों के गुजराती, मराठी, बंगाली एवं उड़िया व तेलगू संस्करण उपलब्ध है। अंग्रेजी भाषा में युगसाहित्य के प्रचार-विस्तार ने अपनी तीव्र गति पकड़ ली है। पूज्यवर द्वारा रचित सभी पुस्तकों, पत्रिकाओं, प्रवचनों आदि विचार सामग्री को एक स्थान पर लाकर वाङ्मय के रूप में प्रकाशित किया गया है।, इसके 70 खण्ड तैयार हैं तथा 39 खण्ड लगभग 1-2 वर्ष में तैयार होंगे। गुजराती तथा अँग्रेजी में इनके अनुवाद कराने की प्रक्रिया प्रारम्भ की गई है।
यही नहीं युगनिर्माण मिशन के कर्मठ परिजनों ने प्राचीनकाल की साधु ब्राह्मण परम्परा को युगानुरूप क्रत तके पुनर्जीवित कर दिया है। अपने मिशन के एक लाख से भी अधिक भाई-बहिन झोला पुस्तकालय के माध्यम से द्वार-द्वार पहुँच कर जन-जन को सद्ज्ञान का वितरण करते हैं। इसी क्रम में 6000 से अधिक ज्ञानरथ भारत एवं विश्व भारत एवं श्वि में सक्रिय तन्ख् द्वारा संचालित यज्ञायोजनों के केन्द्रीय तन्त्र द्वारा संचलित यज्ञायोजनों, धर्म सम्मेलनों, के विश्व भूमिका को परिस्थितियों के अनुरूप प्रस्तुत करने का अभियान चला रखा है। इसे चिरप्राचीन और चिर नवीन का संगम समन्वय कहा जा सकता है।
शान्तिकुँज ने इस पद्धति को संजीवनी-विद्या के विस्तार का नाम दिया है। मृतक को जो जीवित बना दे, वह संजीवनी जीवन के रहस्यों का उद्घाटन करने के साथ-साथ जो उसे परिष्कृत बनाए वह संजीवनी इस विद्या-विस्तार बनाए वह संजीवनी। इस विद्या-विस्तार का शुभारम्भ इस युग की एक महत्वपूर्ण घटना है। इसका श्रीगणेश कितना ही छोटा क्यों न हो, परन्तु यह सुनिश्चित है कि यह चिनगारी इक्कीसवीं सदी में प्रचण्ड दावानल का रूप धारण करेगी और युग की विकृतियों को भस्मसात् करके छोड़ेगी। इस विद्या-विस्तार को नवयुग की एक क्षीण, किन्तु सूर्योदय की सुनिश्चित सम्भावना की घोषणा कहा जा जा सकता है। समय बताएगा कि यह सुखद कल्पना नहीं,वरन् सुनिश्चित सम्भावना का उद्घोष है। शरद पूर्णिमा 16 अक्टूबर, 1997 के तीन दिवसीय सद्ज्ञान सद्शिक्षा संवर्ग समारोह में भाग लेने वाले परिजन इस सत्य को अनुभव किए बिना न रहेंगे।