Magazine - Year 1997 - Version 2
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Language: HINDI
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देव -संस्कृति पुनः विश्व -संस्कृति बनेगी।
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अपने स्वजन -सम्बन्धी कही बाहर जाकर रहने लगे तो भी उनके साथ जुड़ी हुई न तो आत्मीयता टूटती है और न रक्त का रिश्ता टूटता है जल्दी -जल्दी मिलना जुलना न हो सकने पर भी दूर निवासी आत्मीयजनों के प्रति ममता का अन्त नहीं हो सकता और न होना ही चाहिए। ये प्रवासीजन भी अपने मूल निवास को भूला नहीं पाते। मात् संस्कृति के प्रति श्रद्धा उमंगती रहती हैं परिस्थितिवश भारत-माता के लाखों करोड़ों सपूतों को विदेश जाना पड़ा और वे प्रवासी भारतीय बन गए। भूतकाल में इस देश से धर्मप्रचारक, समाज व्यवस्थापक, कुशल प्रशासक, शिल्पी, व्यवसायी, चिकित्सक, शिक्षाशास्त्री संसार के कोने-कोने में भेजे जाते रहे है। उन्होंने अपनी प्रतिभा से जो लाभ विदेशों को पहुंचाया उसके लिए समस्त विश्व उनके प्रति कृतज्ञ रहा हैं जगद्गुरु चक्रवर्ती प्रशासक के 3प में उन्हें व्यापक सम्मान प्राप्त हुआ। भगवान बुद्ध ने अपने हजारों शिष्य सुव्यवस्थिति योजना के अंतर्गत विदेशों में भेजे थे और उन्हें संसार के विविध भागों की विभिन्न प्रकार की सेवा साधना का निर्देश दिया था। तदनुसार एशिया भर में बौद्ध धर्म तेजी से फैला और प्रगति के विविध विधि प्रयास वहां हो पाए।
ये प्रवासी भारतीय और उनके वंशज एवं अनुयायी एशिया में बहुलता पूर्वक और संसार भर में न्यूनाधिक रूप में फैले हुए हैं दुर्भाग्य इतनी ही हुआ कि भारत के और उनके बीच का सम्बन्ध एक प्रकार से टूटता चला गया और एक महत्वपूर्ण कड़ी नष्ट हो गयी, अन्यथा हिन्दू धर्म-बौद्ध धर्म होता और उस संस्कृति की पताका विश्व भर में फहरा रही होती । आज तो बौद्ध धर्म अपने आपको हिन्दू तैयार नहीं। इसका प्रवासी भारती धर्मानुयायी और भारतभूमि के सम्बन्ध सुदृढ़ बनाए रखने के लिए बरती जाने वाली प्रक्रिया की उपेक्षा करने की भूल भी सबसे बड़ा दुःखदायी कारण रही हैं मध्यकाल में बहुत से भारतीय विदेशों में व्यापार के लिए गए और वही बस गए। अँग्रेजी शासनकाल के दिनों में गोरों ने संसार के विभिन्न भागों में अपने उपनिवेश कायम किए। उन्हें आबाद करने के लिए कुशल कर्मियों की जरूरत पड़ी। अँग्रेज भारतीयों को आकर्षक प्रलोभन देकर विदेशों में ले गए और उन्हें वही बस जाना पड़ा। उन दिनों वे श्रमिक कारीगर मात्र थे, पर जब वहाँ बस गए तो अपनी योग्यता, शिल्प कुशलता एवं पूँजी के बल पर सम्भ्रान्त नागरिकों जैसी सुखद परिस्थितियों में वे रहने लगे। नेपाल, भूटान, लंका, बर्मा किसी समय विशाल भारत के ही अंग थे, पर पीछे विभाजन एवं पृथक्करण के कारण वहाँ के भारतीय भी प्रवासी बन गए। अब तो पाकिस्तान में भी वही हुआ। है।
जो जहाँ निवास करे वहाँ की नागरिक वफादारी उसे राजनैतिक दृष्टि से निभानी ही चाहिए। पर धर्म उद्गम एवं संस्कृति माता के भावनात्मक स्नेह सम्बन्ध भी ऐसे हैं जिन्हें सहज ही नहीं तोड़ फेंका जाना चाहिए। मुसलमान कहीं भी रहें, मक्का की तरफ मुँह करके नमाज पढ़ते हैं। मक्का की तरफ मुँह करके नमाज पढ़ते हैं। येरुसलम के प्रति ईसाइयों की वैसी ही निष्ठा है। लोग बुद्ध भगवान से सम्बन्धित स्थानों का दर्शन करने किस भावना के साथ आते हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं है। इस सबको देखते हुए प्रवासी भारतीयों के मन में अपनी संस्कृति के प्रति ममत्व और अपनत्व की लहर आनी ही चाहिए,। वे जहाँ भी जिस देश में रहे हैं, वहाँ के अपने कर्तव्यों का कुछ इस कलात्मक रीति-नीति से निर्वाह करे, जिससे उनकी अपनी साँस्कृतिक गरिमा परिलक्षित हो। उन्हें स्वयं में इस बात का अहसास होना चाहिए कि वे देव-संस्कृति के अग्रदूत है।
सम्भवतः इसलिए क्योंकि प्रवासी भारतीयों के साथ स्नेह-सद्भाव का आदान-प्रदान करते रहने की महत्ता, उपयोगिता एवं आवश्यकता को हम एक प्रकार से भुला ही बैठे। विदेशों में बसे भारतीयों को यदि उनकी मातृभूमि से मार्गदर्शन, प्रकाश, सहयोग, समर्थन मिलता रहता तो वे लोग जिस प्रकार को भूलते जा रहे हैं, वह दुर्दिन देखने को न मिलता। आदान-प्रदान का सिलसिला चलता रहा होता तो न केवल प्रवासी भारतीय ही अपनी धर्म-संस्कृति के उद्गम केन्द्र के साथ जुड़े होते वरन् भारत की साँस्कृतिक गरिमा भी उन देशों में फैली होती। ईसाई ओर पर प्रवासी भारतीयों की संतानें ही हिन्दू रह सकी है, वहाँ के मूल निवासियों में कहीं भी हिन्दू धर्म नहीं फैल सका है। इसका एकमात्र कारण यही है कि मातृभूमि से उन्हें किसी प्रकार का कोई प्रोत्साहन नहीं मिला।
समय-समय पर भारत से इन प्रवासी भारतीयों के बीच साधु-बाबा, पण्डित, किसी न किसी बहाने उनका भावनात्मक शोषण करके मात्र पैसा बटोरना रहा है। गन्ध भी उसमें नहीं थी। यदि घनिष्ठता और प्रकाश उत्पन्न करने वाले भारतीय जाते रहते ता स्थिति उससे कहीं अधिक आशाजनक रहती जैसी कि आज है। प्रवासी भारतीयों में आज भी जो धर्मनिष्ठा अपनी मातृभूमि, धर्मभूमि के प्रति श्रद्धा का अभिवर्द्धन करने का कुछ दायित्व हमारा भी है, ऐसा नहीं सोचा गया।
अपने समय की इस चुनौती को युग-निर्माण मिशन ने स्वीकारा है। परम पूज्य गुरुदेव के हृदय में प्रवासी भारतीयों इसी प्रेम के वशीभूत होकर उन्होंने वर्ष रहने वाले भारतीयों के मन में देव संस्कृति के प्रति श्रद्धा के बीच बोए। इन बीजों को खाद-पानी देने का काम इस पत्रिका के सम्पादक के हाथों वर्ष 1999 से शुरू किया गया। इससे अपनी संस्कृति के प्रति श्रद्धा एवं निष्ठा की जो फसल सहज वात्सल्य प्राप्त हुआ। वे स्वयं सन् 1993 से 14 तक तीन बार विदेश गयीं। यह क्रम यह काम पहले किया गया होता तो भारत से बाहर रहने वाले करोड़ों हिन्दू धर्मानुयायी देव-संस्कृति के अग्रदूत का भूमिका निभा रहे होते।
होना तो यह भी चाहिए था कि बौद्ध धर्म को विशुद्ध रूप से हिन्दू धर्म का ही एक अंग समझा जाता और उस धर्म के अनुयायियों को बिछुड़े भाई समझ कर गले लगाया जाता। शिया-सुन्नी, कैथोलिक, प्रोटेस्टेण्ट दो सम्प्रदाय होते हुए भी अन्ततः एक हैं, तो कोई कारण नहीं कि हिन्दू और बौद्ध भी उसी प्रकार एक होकर न रहें, जैसे वैष्णव, शैव, शाक्त सनातनी, आर्यसमाजी, सम्प्रदाय भेद होते हुए भी एक है। सिख और जैन हिन्दू धर्मानुयायी हैं, तो फिर बौद्ध और हिन्दू धर्म में परस्पर घनिष्ठता और एकता बढ़ाने में क्यों कठिनाई होनी चाहिए। लेकिन यह सब होगा तभी जब प्रवासी भारतीय स्वयं भी इसके लिए आगे आएँ । वैसे अभी भी उनकी गतिविधियाँ कम सराहनीय नहीं हैं।
ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, कनाडा, फिजी, ट्रिनीडाड, सूरीनाम और सिंगापुर में भारतीय मूल के लोग, विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक संगठन सार्वजनिक सेवा कार्य सुचारु रूप से चलाते हैं अफगानिस्तान, इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड, हांगकांग आदि देशों में भारतीय मूल के लोगों की संख्या काफी है पर विधिवत संगठन और रचनात्मक गतिविधियाँ अपनाने का उत्साह अभी उतना नहीं उभरा है। अफगानिस्तान तो वैसे भी आतंकवाद से झुलस रहा है। हाँ सूरीनाम की सनातन धर्मसभा, गयाना का गाँधी संगठन, बैंकाक की हिन्दू धर्मसभा का कार्य काफी समय से चल रहा है। इंडोनेशिया की हिन्दू धर्म परिषद ने तो ‘हिन्दूधर्म’ नामक मासिक पत्र भी निकालना शुरू किया था।
कैरेबियन टापुओं में श्रमजीवी भारतीयों की संख्या काफी है, उन्होंने धार्मिक संस्कारों को अपेक्षाकृत अधिक अच्छी तरह पकड़े रखा है। ट्रिनीडाड में 45 प्रतिशत से अधिक आबादी हिन्दू है। यही नहीं, वहाँ के प्रधानमंत्री भी भारतीय मूल के ही हैं। हालैण्ड सरकार के उपनिवेश ‘सूरीनाम’ में लगभग आधी आबादी भारतीयों की है। गयाना में कोई 60 प्रतिशत हिन्दू होंगे। बार्बेडोज, ग्रेनेडा, सेन्टविंसेन्ट में काफी भारतीय हैं।
ब्रिटेन में भारतीयों की संख्या पहले से भी काफी थी, अब और भी अधिक बढ़ रही हैं पूर्वी अफ्रीका के केन्या, तस्मानिया आदि देशों की भी यही स्थिति है। गयाना, सूरीनाम और ट्रिनीडाड में प्रायः प्रत्येक गाँव में राम या कृष्ण के मन्दिर हैं। यहाँ पर भजन-कीर्तन एवं संस्कार पद्धतियों का भी प्रचलन है।
जोमेका में लगभग चालीस हजार से भी अधिक भारतीय हैं। फीजी में प्रायः आधी आबादी भारतीयों की हैं ये लोग अभी भी हिन्दी समझते और बोलते हैं। हाँगकाँग यों तो अब चीन का एक अंग है पर वहाँ भी भारतीयों की संख्या पर्याप्त है। इनमें से ज्यादातर सिन्धी है। श्रीलंका कल तक भारत का ही अंग था। उसके पृथक हो जाने पर भी भारतीय मूल के लाखों हिन्दू धर्मानुयायी वहाँ मौजूद हैं। नेपाल भूटान को हिन्दू प्रधान देश कह सकते हैं। वर्मा में कुछ समय पूर्व भारतीयों की बड़ी संख्या थी, अब उसमें काफी कमी हो गयी है, फिर भी काफी तादाद में लोग अभी भी मौजूद हैं। सिंगापुर से लेकर जापान तक हर देश में भारतीयों की हिन्दू धर्मानुयायियों की काफी संख्या मौजूद है। योरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड में भी व महत्वपूर्ण स्थानों पर वे कई महत्वपूर्ण व्यवसाय में लगे हैं। अमेरिका, ब्रिटेन व जर्मनी आदि में तो भारतीय छात्र भी पर्याप्त संख्या में रहते हैं।
फिजी, माँरीशस, दक्षिण अमरीका और अफ्रीका में रहने वाले भारतीय वहाँ के अग्रगामी वर्ग में गिने जा रहे हैं। यहाँ के अलावा भी भारतीयों की स्थिति सम्पन्न एवं बुद्धिजीवी प्रतिभासम्पन्न की मानी जाती है। यदि ये अपनी पुरातन साँस्कृतिक गरिमा को स्वयं के जीवन में समुचित स्थान देकर औरों को उसका बोध कराएँ तो भारतीय संस्कृति को विश्वसंस्कृति बनते देर नहीं लगेगी।
देव-संस्कृति की इस पुरातन गरिमा को अभी भी अनेकों प्रवासीजन एवं अन्य देशों के मूल नागरिक अनेकों तरह से अपनी भावनाओं में सँजोये हैं। कम्बोडिया, खमेर, वियतनाम, उत्तर मलाया, आइलैंड निवासी अपने को कौडिन्य ब्राह्मण के वंशज कहते हैं। उनकी पौराणिक गाथा है कि कौडिन्य भारत से आए। उन्होंने यहीं गृहस्थ बसाया ओर वे उन्हीं के वंशज हैं। पूर्वी अफ्रीका में गुजराती और माल्टा एवं जिब्राल्टर में सिन्धी लोगों ने उन देशों की समृद्धि बढ़ाने में भारी सहयोग दिया है।
पाँचवीं शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी तक मलाया, जावा, सुमात्रा, ब्रूनी, बाली आदि द्वीपों का प्रगाढ़ सम्बन्ध भारत के साथ था। भारतीय वहाँ बसे और व्यवसाय, शिक्षा, धर्म, सुरक्षा, शासन आदि सभी क्षेत्रों में वहाँ के निवासियों के साथ मिल-जुलकर काम करते रहे। यमन के प्राचीन राजभवनों में भारत की बनी काष्ठ मूर्तियाँ मिली हैं। उनकी खुदाई में नीलगिरि पर्वत के पाषाण खण्ड मिले हैं। इतिहासकार पेरीप्लस का कथन है कि पूर्वी अफ्रीका, अरेबिया, पर्शिया और सोकान्ना में भारतीयों का निरन्तर आवागमन रहा है।
इतिहासकार प्लीनी ने लिखा है कि रोम साम्राज्य भर में भारत में बने वस्त्र आभूषणों की भरमार थी। इसके लिए वहाँ से लाखों स्वर्ण मुद्राएँ भारत आती थीं। व्यवसाय के लिए ही नहीं भारतवासी वहाँ लोकशिक्षण एवं चिकित्सा के लिए भी पहुँचते थे। टागोवैरा उन दिनों भारतीय धर्म-पुरोहितों का केन्द्र स्थान था। स्कैडेनेविया में उपलब्ध बौद्ध मूर्तियों भारत से बौद्ध धर्म का प्रभाव वहाँ तक पहुँचना प्रमाणित करती है। मध्य एशिया, वैक्टोरिवा, सोगाडियना, तारीमवेसिन से प्राप्त अवशेषों से विदित होता है कि वहाँ कभी बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार रहा है। ऐसे ही प्रमाण मसका एवं काराशर में भी मिलते हैं।
प्रागैतिहासिक काल के तथ्यों का विश्लेषण करें तो महात्मा तुलसी के इदसी कथन को प्रमाणित मानना पड़ता है कि ‘भूमि सप्त सागर मेखला, एक भूप रघुपति कोसला।’ अर्थात् सातों महाद्वीपों में भारतीय संस्कृति का अविच्छिन्न प्रवाह प्रवाहित था। हाँ आज यह स्थिति अवश्य है कि वहाँ अब इसके ध्वंसावशेष ही मिलते हैं। इस सम्बन्ध में भिक्षु चमन लाल के ग्रन्थ ‘हिन्दू अमेरिका’ ग्रन्थ में अनेकों सन्दर्भों को देखा जा सकता है।
जहाँ तक वर्तमान स्थिति का सम्बन्ध है सी0 कोण्डापै द्वारा लिखित ‘इण्डियन ओवरसीज 1938-1949 नामक ग्रन्थ में विदेशों में बसे हुए भारतीयोँ के बारे में कई महत्वपूर्ण जानकारियाँ उपलब्ध है। लेकिन 1949 के बाद से अब तक परिस्थितियों में भारी बदलाव हुआ है। ये जानकारियाँ भी जिनमें सम्मिलित हों, ऐसे नए ग्रन्थ लिखे जाने और प्रकाशित करने की आज बड़ी आवश्यकता है। ऐसे प्रयास से अपने प्रवासी परिजनों के बारे में अधिक और अधिक जानने-समझने एवं आत्मीय सम्बन्धों को अपनाने की सहूलियत रहेगी।
शान्तिकुँज के संचालकों ने न केवल प्रवासी परिजनों के बीच समन्वय की संस्थापना की है, बल्कि उनके बीच देवसंस्कृति की प्रेरणा एवं प्रकाश को व्यापक बनाया है। इसके माध्यम से युगनिर्माण मिशन के समर्पित कार्यकर्त्ता उन्हें साँस्कृतिक अग्रदूत के रूप में प्रशिक्षित करने का प्रयत्न कर रहे हैं। अपनी इस समर्थ भूमिका को सक्षमतापूर्वक अपनाकर वे अपनी मूल संस्कृति को विश्व-संस्कृति का गौरव प्रदान कर सकेंगे।