
इस सहस्राब्दी का अंधकार युग
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अँधेरा दबे पाँव आया और छा गया। मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर की मृत्यु 26 दिसंबर 1530 ई. को हुई। उसके बाद इतिहास को कई अँधेरों-उजाले से गुजरना पड़ा। बाबर की मृत्यु बाद हुमायूं ने शासन सूत्र संभाला, किंतु 26 जून 1539 को उसे चौसा की लड़ाई में शेरशाह सूरी से पराजित होना पड़ा। 17 मई 1540 को भी शेरशाह ने उसे बिलग्राम (कन्नौज) की लड़ाई में बुरी तरह हराया। 22 मई 1545 को कलिजर की लड़ाई में हुए एक विस्फोट में शेरशाह की मृत्यु हो गई। इसके बाद 23 जुलाई 1555 को हुमायूं ने दिल्ली पर फिर से कब्जा कर लिया, लेकिन 24 जनवरी 1556 को सीढ़ियों से गिर पड़ने की वजह से उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद लगभग 4 सालों तक शासनसूत्र मुगल प्रधानमंत्री बैरम खाँ के हाथों रहा। 1560 ई. में बैरम खाँ के हाथों से शासनसूत्र अकबर ने स्वयं अपने हाथों में लिखा।
यही वे पल थे, जब रोशनी का जमाना आया। यह वही नवयुग था, जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी हैं। 21 अक्टूबर 1605 ई. को अकबर का निधन हुआ और 3 नवंबर 1605 ई. को जहांगीर गद्दीनशीन हुआ। 11 जनवरी 1613 ई. को जहांगीर के हुक्म से अँगरेजों ने सूरत में अपनी फैक्टरी स्थापित की। 10 जनवरी 1627 ई. में श्री टामस रो मुगल दरबार में पहला अंग्रेज राजदूत नियुक्त हुआ। 7 नवंबर 1627 ई. को कश्मीर के पास जहांगीर की मृत्यु हो गई। 6 फरवरी 1627 ई. को शाहजहां ने शासन संभाला। 7 जून 1631 को उसकी बेगम मुमताज महल का निधन हुआ। 1646 ई. को ई. मुगल राजधानी आगरा से दिल्ली स्थानाँतरित हो गई। इसी के कुछ वर्षों बाद अँधेरे ने अपने पाँव पसारे। 8 जून 1658 ई. को औरंगजेब ने आगरा के किले में शाहजहां को कैद कर लिया और 21 जुलाई 1658 को खुद शासन संभाल लिया।
औरंगजेब ने हिंदुस्तान की बादशाहत हासिल करने के लिए अपने पिता को जेल में डाल था। उदार हृदय दाराशिकोह सहित अपने अन्य सभी भाइयों की हत्या की थी। अगणित व्यक्तियों से रँगी-सनी सल्तनत उसने पाई थी। सल्तनत हासिल करने के बाद न तो उसका व्यवहार बदला और न ही उसके तौर-तरीकों में कोई बदलाव आया। कबीर और नानक के स्वरों का सहारा लेकर अकबर ने जो नीति बनाई थी, वह अब मटियामेट हो गई। रहीम, रसखान, सूर, तुलसी की सिखावन के साथ शासन करने वाले जहांगीर एवं शाहजहां की बातों का पूरी तरह से खात्मा हो गया।
अकबर से लेकर शाहजहां तक सभी मुगल बादशाहों ने हिंदुस्तान की जिस सामाजिक संस्कृति को पाल-पोसकर खड़ा किया था उसे औरंगजेब ने एक ही झटके में तहस-नहस कर दिया। वह हिन्दुओं का ही नहीं, हर उदारवादी का दुश्मन हो गया। अपनी कट्टरता की धार
संस्कृत का उद्भट विद्वान वरदराज विद्यालय के सबसे बुद्ध लड़कों में गिना जाता था। बहुत पढ़ने पर भी उसे कुछ याद न होता। एक दिन दुःखी होकर वह घर से भाग गया। रात एक सराय में बिताई। वहाँ उसने देखा कि एक टूटे पंखों वाला पतंगा दीवार पर चढ़ता और गिर जाता है, बीस बार असफल रहने के बाद इक्कीसवीं बार वह दीवार पर चढ़ने में कामयाब हो गया। इस दृश्य को देखकर वरदराज को एक नई दिशा मिली। वह हिम्मत बटोरकर घर बैठा और पढ़ाई में जुट गया। इस बार उसकी असफलता सफलता में बदले गई।
से उसने सूफी संतों को भी नहीं लाख्शा। सरमद जैसे महान् संत को उसने सूली पर चढ़ा दिया। उजाले के बाद यह जो अँधेरा आया था, उस पर उस दौर के किसी शायद ने कहा-
बेकसी मुद्दत तलक बरसा की अपनी गोर पर।
जो हमारी खाक पर से होके गुजरा रो गया।
सचमुच में ही उस काल के भयावह अँधेरे में जो भी सौंदर्य पहले का था, वह खाक हो गया। यह खाक बची और उस पर रोने बचे। सिंहासन पर बैठते ही उसने मंदिरों को गिरवाना और उनकी मूर्तियों को तुड़वाना आरंभ कर दिया। उस समय काशी में विश्वनाथ, गुजरात में सोमनाथ और मथुरा के केशवदेव के मंदिर बहुत प्रसिद्ध थे, जो बुरी तरह से ध्वस्त कर दिए गए। 1680 ई. में उसकी आज्ञा से अंबर के सभी मंदिरों को गिरवा दिया गया। उसने यह आज्ञा निकाल दी कि हिंदू लोग न तो पुराने मंदिरों की मरम्मत और न नए मंदिरों का निर्माण कर सकते हैं। इतना ही नहीं, उसने वैदिक संस्कृति को विनष्ट करने का भरपूर प्रयत्न किया। उसकी आज्ञा से मुल्तान व बनारस में स्थित सभी शिक्षा संस्थानों को विनष्ट कर दिया गया। हिंदुओं पर जजिया कर को फिर से लगा दिया गया। पंजाब में सिखों के गुरु तेगबहादुर ने औरंगजेब की इस नीति का विरोध किया। बादशाह के खिलाफ बगावत फैलाने के अपराध में बड़ी क्रूरता के साथ गुरु तेगबहादुर का वध कर दिया गया। गुरु के वध का हाल जानकर सिखों के सनसनी फैल गई।
औरंगजेब से पहले के मुगल शासन में जा उन्नति-प्रगति हुई थी, वह अवनति और अवगति में बदलने लगी। मानवीय जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र न बचा, जो हाहाकार और चीत्कार ने अछूता रह गया। सामाजिक तौर पर समन्वय व सामंजस्य का वातावरण बिलकुल विनष्ट हो गया। हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग फिरकों में ही नहीं बंटे, एक-दूसरे को दुश्मन की नजर से भी देखने लगे। साँप्रदायिक घृणा के साथ जातीय घृणा भी फैली। उच्चवर्ण और निम्नवर्ण के लोगों के बीच पहले कभी जो सौहार्द्र पनपा था, वह अब बिल्कुल भी नहीं बचा। अँधेरे की आँधी इस काल में चली ही नहीं, सब और बढ़ती और फैलती भी गई।
पारिवारिक जीवन हालांकि उन दिनों संयुक्त ही था परंतु इसमें नारी की स्थिति अत्यंत विचित्र एवं दयनीय थी। वह मनुष्य होते हुए भी मनुष्येत्तर प्राणी की तरह जीवन बिताते के लिए विवश थी। उसके सार स्वप्न स्वयं को पतिव्रता सिद्ध करने और पति को प्रसन्न रखने में ही केंद्रित रहते थे। दूसरी ओर पुरुष उसे निर्बल बुद्धि वाली और महत्वपूर्ण मामलों में विश्वास के लिए अयोग्य समझता था। सामाजिक विधान एवं परंपराओं में उसे एक प्रकार से मानसिक रूप से अविकसित माना जाने लगा। नारी को मात्र उपभोग की वस्तु और केवल दासी मानने की रीति इन्हीं दिनों पड़े पड़ी। स्त्रियों, कुमारी कन्याओं को उठा ले जाना, बलात् उनका शीलहरण कर लेना शासकवर्ग के लिए बड़ी आम एवं सामान्य सी बात हो गई थी।
शिक्षा एवं संस्कृति के भग्नावशेष ही शायद उन दिनों बचे रहे रह गए थे। सामान्य ग्रामीण जनता के लिए ये दो शब्द स्वप्न सदृश ही थे। जब-तब जहां-तहाँ चारों ओर लूटमार का ही बोलबाला था। खड़ी फसलों को उजाड़ देना, उनमें घोड़े दौड़ना, फसलों-घरों में आग लगा देना उन दिनों ग्रामीण जीवन के लिए आम बातें हो गई थी। अराजकता एवं दमनचक्र का ही शोरगुल था। औरंगजेब की इन नीतियों के खिलाफ विद्रोह किया। सतनामियों का विद्रोह मुखर होकर प्रखर बना। सिखों एवं मराठों के विद्रोह की तो किंवदंतियां उस युग में गाई जाने लगीं।
इसी आपसी संघर्ष से राष्ट्रीय भावना तो विनष्ट हुई ही, भी टुकड़ों-टुकड़ों में बँट गया। मुगल सम्राट् की नीतियों ने राष्ट्र के गौरव एवं वैभव को बुरी तरह तहस-नहस किया। आपस की इसी फूट का ही तो शायद विदेशियों को इंतजार था। यूरोपीय समुदाय के लोग जो इसी ताक में बैठे थे, अब धीरे-धीरे अपनी संख्या को बढ़ाने के साथ अपना प्रभाव भी बढ़ाने लगे। पुर्तगाली डच एवं अंग्रेज इस देश को लूटने में जुट पड़े। भारत की संस्कृति को एक बार फिर पाश्चात्य संस्कृति से चुनौती मिलनी शुरू हो गई। यह फिर संक्राँति के द्वितीय पर्व का आगमन था। देश के व्यापक अस्तित्व के फलक पर नए प्रश्न उभरने लगे। संक्राँति की वेला फिर आ पहुँची।