
समस्याओं से घिरे भारत को समाधान मिला अध्यात्म से
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स्वाधीन भारत की अपनी मौलिक समस्याएँ थीं, अनेकों ऐसे मौलिक प्रश्न थे, जिन्हें सटीक उत्तर एवं सार्थक समाधान की तलाश थी। अँगरेजों ने हमें खंडित भारत दिया था। यह खंडित देश भी पाँच सौ से भी अधिक रियासती खंडों में बँटा था। इस खंडित देश को अखंड बनाना उस समय के राष्ट्रनायकों की तत्कालिक जिम्मेदारी थी। सरदार बल्लभभाई पटेल इन विषम परिस्थितियों में लौहपुरुष बनकर उभरे। उन्होंने समय की इस कीड़ चुनौती को स्वीकार किया, और अपने नीतिकौशल से राष्ट्र को वह स्वरूप प्रदान किया, जिसे आज हम देखते हैं और जिसमें हम सब रहते हैं। देश के बँटे हुए छोटे-से टुकड़े ने, वहाँ के राजनेताओं ने, जो भारतमाता की अपनी संतानें थे, स्वतंत्रता के तुरंत पश्चात् हमला किया। सन् 1947 ई. में जिन घुसपैठियों ने कश्मीर की ओर से आक्रमण किया, वे कोई बाहरी एवं विदेशी नहीं, भारतमाता की ही पथभ्रष्ट संतानें थीं। देश के जाँबाज सैनिकों एवं नागरिकों ने इसका दृढ़ता से सामना किया और आक्रमण विफल हुआ।
परंतु समस्याओं के स्वरूप और विस्तार इतने तक ही सीमित नहीं था। अँगरेजों ने देश की जमीन ही नहीं बाँटी थीं, उन्होंने दिलों को भी बाँटने की कोशिश की थी। बंटवारे की ये लकीरें हिंदू-मुसलमान के बीच खिंची। हिंदुओं में जाति, क्षेत्र, भाषा के नाम पर अगणित दीवारें खड़ी हुई। फिर जाति वाले भी कहाँ एकमत हो रह सके। जातियाँ में भी तो अनेकों उपजातियाँ थीं कुल गोत्र, वंश के नाम पर न जाने कितने टुकड़े थे। स्वाधीनता पाने के लिए राष्ट्रीय तूफान में जो एकजुट हुए थे, वे फिर से अपने-अपने स्वार्थ एवं अहंकार के दायरे में सिमट गए। जितनी जोश और उमंगे त्याग और बलिदान के लिए पनपीं थीं, उससे कही अधिक घृणा एवं बर्बरता दिखाई देने लगीं। आजादी मिलते ही दंगे भड़क उठे। महात्मा गाँधी ने अपनी सात्विक वृत्तियों के द्वारा इनको शाँत करने के लिए अनेकों प्रयास किए। इनसे वे आँशिक रूप से सफल भी हुए, परंतु 30 जनवरी 1948 को ई. को नाथूराम विनायक गोडसे ने उनकी निर्मम हत्या कर दी। ‘हे राम!’ के ईश्वरस्मरण के साथ ही उनका महाप्रयाण हो गया। इसी वर्ष 5 मार्च को चक्रवती राजगोपालाचारी माउंटबेटन के स्थान पर नए गवर्नर जनरल बने। 26 नवंबर 1949 ई. को संविधान सभा द्वारा भारत को संविधान स्वीकृत किया गया। 24 जनवरी 1950 को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्र के प्रथम राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। 23 जनवरी को इसी वर्ष भारत का संविधान लागू हुआ। 25 अक्टूबर 1951 ई. को 22 राज्यों में पहले आम चुनाव हुए। जवाहर बल नेहरू देश के प्रथम प्रधानमंत्री बने। 17 नवंबर 1954 ई. को फ्राँसीसी आधिपत्य वाले पाँडिचेरी, कराईकाल, मोहे और यानम का भारत में विलय हो गया। 24 फरवरी 1957 ई. को दूसरे आम चुनाव हुए। नेहरू पुनः प्रधानमंत्री बने। 20 दिसंबर 1961 को पुर्तगाली आधिपत्य वाले गोवा, दमन और दीव का कुछ संघर्ष के बाद भारत में विलय हो गया। इसी के साथ देश ने अपनी सार्वभौम स्वरूप प्राप्त कर लिया।
जिन्होंने राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए संघर्ष किया था, उनमें प्रायः बहुसंख्यक जन शासनसत्ता में थे। उनकी नजर में अब मूल्यों के संरक्षण से सत्तासुख कहीं ज्यादा आवश्यक बन गया। इसके परिणामस्वरूप नैतिक मूल्य गिरे, शिक्षा प्रचार से बुद्धिवाद तो बढ़ा किंतु बौद्धिक विचारशीलता में तनाव होता चला गया। समाज को अंग्रेज जिस अवस्था में छोड़ गए थे, उसमें और अधिक गिरावट आई। आजादी के कुछ ही वर्षों बाद ऐसा राष्ट्रीय परिदृश्य उपस्थित हुआ, जिससे हमारी अपनी भारतीय अस्मिता या भारतीयता की पहचान ही संशय और दुविधाग्रस्त हो चली। भारतीयों को लेकर विश्व के बहुतेरे जनों के मन में जो कल्पना उठती हैं, वह समय के साथ बढ़ती आर्थिक-राजनीतिक एवं सामाजिक उथल-पुथल में धूमिल पड़ गई। भारतीय समाज टुकड़ों में बँटकर हिंसा, दुराग्रह, भ्रष्टाचार और अविश्वास के बढ़ते मूल्यहीनता के दलदल में फँसता चला गया। प्रकारांतर से सारी समस्याएँ मूल्यहीनता की थी। और समाधान मूल्यों के संरक्षण से ही संभव था। यह समाधान आध्यात्मिक तप−साधना से ही मुमकिन था।
तपोलीन आचार्य जी ने अपनी दिव्यदृष्टि से अपनी तप−साधना प्रारंभ करने के कुछ वर्षों के बाद ही न केवल भारतवर्ष की स्वतंत्रता को देख लिया था, बल्कि यह भी समझ लिया था कि स्वाधीनता के पश्चात् राष्ट्र के सामने कौन-सी मौलिक समस्याएँ उभरकर आएँगी। इसके सार्थक समाधान की खोज में जुटें तपोनिष्ठ आचार्य जी ने अपने साधनाकाल में ही ‘अखण्ड ज्योति’ नामक मासिक पत्रिका (1937 ई. से) का प्रकाशन-प्रवर्तन किया। उनका यह कार्य मात्र साहित्य साधना तक सीमित न था। यह तो उनके नैतिक क्राँति एवं सामाजिक क्राँति रूप त्रिविध संकल्प की अभिव्यक्ति थी, विचारक्राँति के महाचक्र का प्रवर्तन था, युगनिर्माण आँदोलन की शुरुआत थी।
सन् 1926 ई. में उन्होंने जिस महासाधना की शुरुआत की थी, वह 27 वर्षों के बाद 1953 में पूरी हो गई। इस बीच स्वतंत्रता संग्राम में संघर्ष के साथ-साथ वे हिमालय भी गए। उनका हिमालय प्रवास वहाँ की दिव्य सत्ताओं के संरक्षण में किसी अलौकिक साधना के लिए था। अपने महाअनुष्ठान की पूर्णाहुति स्वरूप उन्होंने अपने आध्यात्मिक प्रयोगों की प्रथम प्रयोगशाला के रूप में गायत्री तपोभूमि का निर्माण गायत्री जयंती 1953 ई. में किया। यद्यपि मथुरा में तपोभूमि निर्माण के लिए चुना गया यह स्थान पहले कभी महर्षि दुर्वासा की तपस्थली रह चुका था, लेकिन इसे उच्चस्तरीय आध्यात्मिक प्रयास किए।
इस स्थापना के साथ ही गायत्री तपोभूमि में साधना सत्रों का प्रारंभ हुआ। साथ ही गायत्री महाअभियान का आयोजन और गायत्री उपासना के सामूहिक आयोजन किए जाने लगे। राष्ट्रीय आपत्तियों की शाँति के लिए विशद् महायज्ञ का आयोजन किया गया। इसके अंतर्गत 1. चारों वेदों का परायण यज्ञ 2. महामृत्युंजय यज्ञ 3. रुद्रयज्ञ 4. विष्णु यज्ञ 5. शतचंडी यज्ञ 6.नवग्रह यज्ञ 7. गणपति यज्ञ 8. सरस्वती यज्ञ 9. ज्योतिष्टोम 10. अग्निष्टोम आदि अनेक यज्ञों की प्रक्रियाएँ शामिल थीं यह समष्टि हित के लिए संपन्न हुआ एक विराट् आध्यात्मिक प्रयोग था। आचार्य जी के शब्दों में इस यज्ञ का यजमान, संयोजक, पूर्णफल प्राप्तकर्ता कोई एक व्यक्ति नहीं हैं। यह संकल्प समस्त गायत्री उपासकों की ओर से किया गया हैं।
इसके बाद अगलेा प्रयोग उन्होंने ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान के रूप में किया, जिसकी पूर्णाहुति 1958 ई. के सहस्र परिवार द्वारा उसके कुलपति वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के निर्देशन में पूरा हुआ। यह सविता शक्ति के संदोहन का प्रयोग था। इस महाप्रयोग में शामिल होने के लिए साधकों ने एक वर्ष पूर्व ही गायत्री के विशेष पुरश्चरण प्रारंभ किए थे और अक्टूबर 1958 में 4 दिन तक यज्ञ कर शरदपूर्णिमा के दिन पूर्णाहुति की। इस प्रयोग के पश्चात् परमपूज्य आचार्य जी ने 5 जून 1960 को दूसरी बार हिमालय के और प्रस्थान किया।
स्वाधीन भारत की समस्याओं की खोज में जुटें आचार्य जी उसी निष्कर्ष पर पहुँचे, जिसे उनके पूर्ववर्ती महातपस्वियों ने पाया था। अर्थात् अध्यात्म में ही वह शक्ति हैं, जिसे राष्ट्रीय ही नहीं, वैश्विक चेतना को ही भी आलोड़ित-आंदोलित किया जा सकता है। स्वाधीनता के आसपास के वर्षों में हुए वैज्ञानिक विकास ने समूचे विश्व को एक कुनबे लाद लेना शुरू कर दिया था। समस्याएँ भी व्यापक हो चली थीं। उनके समाधान के लिए व्यापक तपशक्ति की आवश्यकता थीं। आचार्य जी ने इसीलिए इन दिनों हिमालय के लिए प्रस्थान किया था। उनकी हिमालय यात्रा से वापसी के साथ ही देश और विश्व में एक नई संस्कृति जन्म ले रही थी। यह महासंक्राँति थीं महासंक्राँति के इस महापर्व में समूची दुनिया एक नई युगड्योढ़ी पर आकर खड़ी हो गई।