
गूँजा देवसंस्कृति दिग्विजय का शंखनाद
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
यह दिग्विजय का शंखनाद था, जो सन् 1893 ई. में अमेरिका के शिकागो शहर में हुए विश्वधर्म सम्मेलन में गूँज उठा। गूँज और प्रतिध्वनि की दृष्टि से यह विजयघोष अभूतपूर्व एवं आश्चर्यजनक था। भारत की सनातन संस्कृति श्री रामकृष्ण परमहंस की अलौकिक धर्म साधना यहाँ स्वामी विवेकानंद के रूप में साकार हुई थी। शिकागो सम्मेलन में स्वामी जी ने जिस ज्ञान, जिस उदारता, जिस विवेक और जिस वाग्मिता का परिचय दिया, उससे समस्त विश्व चमत्कृत हो उठा। वहाँ के सभी लोग मंत्रमुग्ध होकर भारतीय संस्कृति के सनातन स्वरों में विभोर होने लगे। उनके प्रखर एवं ओजस्वी भाषणों पर टिप्पणी करते हुए ‘द न्यूयार्क हैराल्ड’ ने लिखा कि धर्मों की पार्लियामेंट में सबसे प्रखरतम एवं महान् व्यक्ति स्वामी विवेकानंद हैं। उनका भाषण सुनकर अनायास ही यह प्रश्न उठा खड़ा होता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के लिए धर्मप्रचारक भेजने की बात कितनी मूर्खतापूर्ण हैं। बाद के दिनों में महर्षि अरविंद ने कहा स्वामी विवेकानंद के द्वारा अमेरिका में किए गए साँस्कृतिक पुरुषार्थ को करने के लिए लंदन काँग्रेस जैसी सैकड़ों का सम्मिलित प्रयास भी कम पड़ जाएगा।
स्वामी जी ने वहाँ बड़े संक्षेप किंतु सारगर्भित रूप में वैदिक संस्कृति, दर्शन मनोविज्ञान, अध्यात्म साधना, परिचय दिया था। इस प्रकार वैदिक चिंतनराशि को एक अखंड-सुसंबद्ध भाषा में इसके पूर्व कभी किसी ने विदेशियों, प्राचीन वैदिक सत्यद्रष्टा महर्षियों के समान श्रोताओं को ‘अमृत के पुत्रों’ कहकर संबोधित करते हुए महान् ब्रह्मर्षि के स्वर तथा भाषा में कहा- ‘अमृत के पुत्रों!’ कैसा मधुर और आशाजनक संबोधन हैं यह। बंधुओं! मैं इसी मधुर नाम से तुम लोगों को संबोधित करना चाहता हूँ। तुम अमृत के अधिकारी हो। हिंदू तुम्हें पापी कहने से इनकार करता है। तुम तो ईश्वर की संतान हो चिर आनंद के भागी हो, पवित्र और पूर्ण हो। मृत्युलोक के देवता हो तुम। तुम वह अजर-अमर आत्मा हो, जो कतिपय नियमों का भयावह संघात नहीं हैं और न ही कार्यकारण का अनंत कारागार हैं, अपितु इन समस्त नियमों के परे प्रत्येक परमाणु शक्ति में ओत-प्रोत हैं। इन उन विराट् पुरुष के अभिन्न अंश हो, जिनके आदेश से वायु प्रवाहित होती हैं, अग्नि दहकती हैं, मेघ बरसते हैं और समूची प्रकृति पृथ्वी पर अपना खेल रचती हैं।
विश्वधर्म सम्मेलन में स्वामी जी की व्याख्यानमाला के महत्व का वर्णन करते हुए भगिनी निवेदिता ने लिखा, “धर्म महासभा में प्रदत्त स्वामी जी के व्याख्यान के संबंध में कहा जा सकता है कि जब उन्होंने भाषण देना आरंभ किया तो उनका विषय था-’हिंदुओं के धार्मिक विचार’परंतु जब उनका भाषण समाप्त हुआ, तो अभिनव मानव धर्म कीं-हिन्दू संस्कृति अपनी आभा को प्रखर कर चुकी थीं।”
भगिनी निवेदिता आगे कहती हैं, भारत की सांस्कृतिक चेतना, उसके संपूर्ण अतीत द्वारा निर्धारित संपूर्ण देशवासियों का संदेश ही उनके माध्यम से मुखरित हो उठा था। जब वे पश्चिम के यौवनकाल-मध्यातन के समय में व्याख्यान दे रहे थे, तभी प्रशाँत के दूसरी ओर तमसाच्छन्न गोलार्द्ध की छायाओं में निद्रित एक राष्ट्र आशान्मुख हो उस संदेश की बाट जोह रहा था, जो अरुणोदय के पंखों पर आकर अपनी महिमा व शक्ति के गूढ़ रहस्य को उद्घाटित करने वाला था। उसी मंच पर स्वामी जी के पास अन्य संस्कृति, मतों व संघों के प्रवक्ता भी उपस्थिति थे परंतु एक ऐसी संस्कृति का प्रचार करने का गौरव उन्हीं को प्राप्त हुआ, जिसकी उपलब्धि के लिए उन्हीं की भाषा में उनमें से प्रत्येक, विभिन्न नर-नारियों की विभिन्न अवस्थाओं तथा परिस्थितियों से होकर एक ही लक्ष्य तक पहुँचने की यात्रा, अग्रसर होने का प्रयास मात्र हैं। स्वामी जी कहना था कि वैदिक संस्कृति की दृष्टि में मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं जाता है, अपितु उच्चतर सत्य की ओर। मानव इतिहास के सुदीर्घ काल में जटिलतम अनुभूतियों द्वारा प्रमाणित इस संस्कृति को भारतवर्ष ने स्वामी विवेकानंद में माध्यम से आज के पाश्चात्य जगत् के सम्मुख प्रस्तुत किया।”
महासभा के पहले दिन से ही देवसंस्कृति दिग्विजय का शंखनाद करने वाले विवेकानंद विश्ववंद्य बने। शिकागो में उनकी उपस्थिति के बारे में श्रीमती एनीबेसेंट ने लखि, “अमेरिका के धूम्रमलनि क्षितिज पर भारतीय सूर्य के समान दीप्तिमान, सिंह के समान उन्नत सिर, अंतर्भेदी दृष्टि, चंचल होष्ठ द्वय, मनोहर तथा द्रुतचाल, गैरिक वस्त्रों में विभूषित एक महिमायम मूर्ति स्वामी विवेकानंद प्राचीनतम जीवन एवं संस्कृति के प्रतिनिधि थे। वे जो संस्कृति संदेश लेकर आए थे, उसके अनुपम सौंदर्य के सामने, भारत के हृदयस्वरूप व भारत के प्राणस्वरूप प्राच्य के उस अतुलनीय संदेश के सामने, उस अद्भुत आत्मविद्या के गाँभीर्य के सामने शेष सब फीका पड़ जाता था। विशाल जनसमुदाय भावविभोर होकर उनके मुख्य से उच्चरित शब्दों के लिए कान खड़े रखता था कि कहीं एक भी शब्द से वंचित न रह जाए।”
अमेरिका की एक कवियत्री हैरियट मनरो इस धर्म महासभा में उपस्थित थीं और बाद में उन्होंने अपनी विवेकानंद की महिमामय उपस्थिति ने वस्तुतः धर्म महासभा और पूरे नगर को जीत लिया था। उनका प्रबल और आकर्षण व्यक्तित्व, काँसे के घंटा ध्वनि के समान उनका गंभीर और मधुर कंठ स्वर, उनके संयत भावोच्छास उच्च्रित उनके संदेश का सौंदर्य इन सबने मिलकर हमारे जगत् के लिए चरम अनुभूति के एक विरल अवसर की सृष्टि की थी।”
निस्संदेह स्वामी जी ने अपने भाषणों, वार्तालापों लेखों, कविताओं और वक्तव्यों के द्वारा भारतीय संस्कृति के सार को सारे पाश्चात्य जगत् में फैला दिया। प्रायः डेढ़ सौ वर्षों से ईसाई धर्मप्रचारक संसार भर में हिंदुत्व की जो निंदा फैला रह थे, उन पर अकेले स्वामी विवेकानंद के कर्तव्य ने रोक लगा दी। इससे भारतवासी भी अपनी प्राचीन संस्कृति के प्रति गौरव का अनुभव तीव्रता से करने लगे। यह वर्तमान सहस्राब्दी की सबसे मूल्यवान एवं युगाँतरकारी घटना थी। भारतीय संस्कृति को लीलने के लिए अंग्रेजी भाषा, ईसाई धर्म एवं संस्कृति और यूरोपीय बुद्धिवाद के पेट से जो तूफान उठा था, वह स्वामी विवेकानंद के हिमालय जैसे विशाल यक्ष से टकराकर बैट गया। इसी दिन से भारत का नवजागरण अभियान नवीन उत्साह के साथ नवीनतर सफलता की ओर प्रारंभ हुआ। एक प्रकार से संन्यासी योद्धा के रूप में स्वामी जी राष्ट्र की स्वतंत्रता के अग्रदूत बनकर निखरे।
स्वामी विवेकानंद के दिग्विजय घोष ने भारत के अंग-प्रत्यंग में सिहरन ला दी। भारतमाता के इस वरदपुत्र ने अपने देश का सांस्कृतिक संदेश जिस ढंग से पाश्चात्य जगत् में प्रचारित किया, उसके द्वारा परतंत्र भारत की अंतरात्मा को एक नए प्रकार से आत्मविश्वास मिला और इसके फलस्वरूप भारत देश में एक प्रबल बलिदान और निर्भयता की शिक्षाएँ भी संस्कृति से निकाली। उनके विचारों से राष्ट्रवाद का जन्म हुआ। एक ऐसा प्रचंड राष्ट्रवाद जो अपने मजबूत एवं सुदृढ़ आध्यात्मिक आधार पर उठ खड़ा हुआ। स्वामी जी ने देशवासियों से आतनान किया-”मैं भारत में बेहे की मांसपेशियाँ और फौलाद की नाड़ी-धमनियाँ देखना चाहता हूँ, क्योंकि इन्हीं के भीतर वह मन निवास करता है, जो झंझाओं और व्रजों से निर्मित होता है। शक्ति, पौरुष, क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज इनके समन्वय से ही भारत में नई मानवता का निर्माण होना चाहिए।
स्वामी विवेकानंद के इन स्वरों में राष्ट्र के आँगन में अखण्ड ज्योति प्रज्वलित हो उठी। यह स्वाधीनता की संघर्ष ज्योति थी। जिसे अखंड रूप से प्रज्वलित बनाए रखने के लिए बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, मोहनदास करमचंद गाँधी, रविन्द्रनाथ टैगोर, महर्षि और महातपस्वी अपना सर्वस्व अर्पित करने उठ खड़े हुए। देवात्मा हिमालय की ऋषिसत्ताएँ भी इन्हीं दिनों उत्तर भारत के छोटे-से गाँव में इस महाअभियान को ऊर्जा देने वाली अखण्ड ज्योति प्रज्वलित कर रही थीं। राष्ट्र का उज्ज्वल भविष्य जन्म ले रहा था।
सम्राट् पुष्यमित्र के एक सेनापति पर महाभियोग लगा। आचार्य मार्तंड न्यायाधीश बनाए गए। अगले दिन दरबार होना था। सेनापति स्वयं भारी धनराशि लेकर आचार्य मार्तंड के पास उपस्थित हुआ और बोला-महाशय, आप चाहें तो अशरफियों की यह थैलियां लेकर अपना दारिद्रय दूर कर सकते हैं। इन्हें रखिए और न्याय हमारे पक्ष में कीजिए। विश्वास रखें यह बात हम दोनों के अतिरिक्त और कोई नहीं जान पाएगा।
आचार्य ने एक उपेक्षित दृष्टि थैलियों पर डाली और हँसकर बोल-महापरमात्मा की जानकारी में जो बात आ गई, वह छुपी कहाँ रही। इन्हें ले जाइए, कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व को प्रलोभन में झुठलाना मेरे लिए संभव नहीं। जिस समाज में ऐसे आदर्श के बदले धनी और तात्कालिक लाभ देखने की अपेक्षा आत्मकल्याण की बात सोचने वाले लोगों का बहुमूल्य हो, वही सुखी और समुन्नत रहते हैं।