
युगबोध क्राँतिबोध
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जो विचारों के इतिहास में क्राँति करे, विज्ञान को दिशा दे और दर्शन संवारे, ऐसे ऋषि-मनीषी की आवश्यकता यह सहस्राब्दी कबीर के बाद से ही अनुभव कर रही थी। ऐसे विचारक ही युगबोध-क्राँतिबोध कराके पीड़ित मानवता को दिशा दे पाते हैं, आचार्य श्रीराम शर्मा जी का व्यक्तित्व ऐसी ही युगाँतरकारी परिस्थितियों में महासंक्राँति का पर्याय बनकर आया हैं, जिनमें ऋषित्व और मनीषा एकाकार हुए। ऐसे विरल प्रज्ञापुरुष के रूप में हम आचार्य श्री का दर्शन करते हैं। दर्शन को बुद्धिवाद के चक्रव्यूह से निकालकर आश्चर्यकारी ऐतिहासिक कार्य किया। समय की दार्शनिक भ्रष्टता को दूरकर उसे उच्चस्तरीय चिंतन तक ले जाना ही अवतारी प्रवाह का लक्ष्य रहा है। इस युग की दार्शनिक भ्रष्टता बड़े अजीबोगरीब स्तर की हैं। उपयोगवाद से ऊब चुके विज्ञान के शिखर पर पहुँचे समाज में चिंतन के स्तर पर जो विकृतियों का कुहासा छाया आज दिखाई दे रहा था, उसे युगप्रवर्तक के क्राँतिकारी विचार ही मिटा सकते थे। यही कार्य उन्होंने किया व अब नई सहस्राब्दी के द्वार पर खड़ी मानवजाति के समक्ष एक ऐसा नूतन दर्शन लाकर रख दिया हैं कि सारी समस्याएँ इसी धुरी पर मिटती चली जाएँगी, नया युग शीघ्र आएगा एवं सारे विश्व का वैचारिक-साँस्कृतिक आध्यात्मिक मार्गदर्शन करेगा।
1936 की अखण्ड ज्योति में वे लिखते हैं “लेखन और प्रवचन हमारा व्यवसाय नहीं, अंतःकरण की इठन है जो निरंतर इसलिए होती रहती हैं कि हमारी अनुभूतियों और उपलब्धियों का लाभ हमारे सहचरों को भी मिलना चाहिए। उपर्युक्त दोनों ही क्रिया–कलाप हम अपनी आँतरिक संपदा दूसरों को हस्ताँतरित करने के उद्देश्य से चलाते रहे हैं। वर्ष 30, अंक 11 पृष्ठ 62 जो विचार इस ऋषिसत्ता के अंतःकरण के माध्यम से जन-जन तक फैल, उन्होंने ही एक प्रचंड क्राँतिकारी प्रवाह गायत्री परिवार के रूप खड़ा किया है। ऋषिचेतना के सूत्र-संचालन में प्रवाहित इस प्रवाह ही व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं- “ चेतना के उच्चतम स्तर से अवतरित हुए, अंतःकरण की करुणा में धारण किए गए, बौद्धिक तीक्ष्णता से संवारे गए इन विचारों में कितनी आभा हैं, यह अनुभव करने की बात हैं। रोते हुए आँसुओं की स्याही से जलते हृदय ने इन्हें लिखा है, सो इनका प्रभाव होना चाहिए। (अखण्ड ज्योति वर्ष 30-1969, अगस्त पृष्ठ 41)
विचारक्राँति अभियान की पृष्ठभूमि क्या है, यह उपर्युक्त पंक्तियों को पढ़कर आत्मसात किया जा सकता है। गुरुदेव का दर्शन उनके द्वारा प्रेरित और प्रवर्तित विचारक्राँति का बीज हैं। इसके विषय में विक्टर ह्यूगो ने अपनी एक प्रसिद्ध कृति में कहा हैं कि “क्राँति के बीज एक दो महान् विचारकों के दिमाग में उपजते हैं। वहाँ से फल-फूलकर बाहर आए कि छूतहे रोग की तरह अन्य दिमागों में उपजकर बढ़ते ही जाते हैं। सिलसिला जारी रहता है। क्राँति की बाढ़ आती हैं। चिनगारी से आग और आग से दावानल बन जाता है। बुरे-भले सभी तरह के लोग प्रभाव में आते हैं। कीचड़ और दलदल में भी आग लग उठती हैं।” (सत्रह सौ त्रियानवे नामक उपन्यास से उद्धृत) परमपूज्य के दर्शन के विषय में भी कुछ ऐसा ही सोचा जा सकता है। प्रारंभ से लेकर अब तक का युगबोध क्राँतिबोधपरक चिंतन इसका साक्षी हैं।
किसी भी समाज या राष्ट्र की चिंतन शैली से वैचारिक स्तर से वहाँ की सभ्यता, रहन, सहन, आचार-व्यवहार और जीवनक्रम की भविष्यत् की संभावनाओं की बारीकियाँ जानी जा सकती हैं। वैदिक युग कभी सतयुग था तो एक ही कारण था कि उस युग की चिंतनपद्धति तथा वैचारिक स्तर उत्कृष्ट था। यदि आज वह नहीं हैं तो निश्चित ही कहीं न कहीं विचारों के स्तर में गिरावट आई हैं, यह मानना चाहिए।
परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि युगनिर्माण योजना की विचारक्राँति युगगीता गायन एवं पाँचजन्य का तुमुलेनाद हैं। नवनिर्माण का विकल्प केवल सर्वनाश हैं। दोनों में से किसी एक को चुनना होगा। निश्चय ही हम सर्वनाश नहीं चुन सकते। नवनिर्माण की जिम्मेदारी स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। नियति हमें-प्रबुद्धतासंपन्न अंतःकरण वालों को इसी दिशा में नियोजित कर रही हैं, करके रहेगी।” (अखण्ड ज्योति अगस्त 1969, पृष्ठ 17)।
राष्ट्र को साँस्कृतिक-वैचारिक स्तर पर मुक्ति दिलाने को कृतसंकल्प आचार्य श्री का चिंतन बड़ा ही स्पष्ट हैं। वे लिखते हैं-”हम लोग सुषुप्ति की स्थिति में पड़ी राष्ट्रचेतना को कुँभकर्णी निद्रा से जगाने का प्रयास करेंगे।
विश्वास हैं, अगले दिनों राष्ट्र जायेगा और उठ खड़ा होगा। जिस दिन यह जगेगा, उस दिन दिशाएँ काँप जाएँगी। उसके पास अध्यात्म, तत्वज्ञान, शौर्य, साहस, विज्ञान एवं संपन्नता की इतनी अधिक परंपरागत पूँजी विद्यमान हैं, जिसके बल पर वह विश्व की अनुपम शक्ति बनकर रहेगा। हमारा उज्ज्वल भविष्य भी ऐसा होने जा रहा हैं, जिसमें हम प्रत्येक क्षेत्र में विश्व का नेतृत्व, मार्गदर्शन कर सकने में समर्थ हो सके।” (अखण्ड ज्योति अगस्त 1969 पृष्ठ 17)। बड़ा ही आशावादी-युगप्रवर्तक स्तर का चिंतन हमारी आराध्यसत्ता का रहा हैं एवं उसी ने इस निराशा के कुहासे से उबारकर सतयुगी संकल्प के साथ जोड़ा हैं। इस संकल्प की धुरी दो हैं- मनुष्य में देवत्व एवं धरती पर स्वर्ग का अवतरण। इसे स्वप्न नहीं, एक वास्तविकता बताते हुए युगऋषि ने विचारक्राँति की चिनगारी को दावानल बनाकर हमें नई सहस्राब्दी के द्वार पर ला खड़ा किया हैं।
आज जो विकास दिखाई दे रहा हैं, वह समाज द्वारा संपन्न की गई क्राँतियों का परिणाम हैं। अपने जीवन की शुरुआत से ही मनुष्य क्राँतिधर्मी रहा हैं। पहली क्राँति तब हुई जब वह अपने आरंभिककाल में छोटे-छोटे समूह बनाकर रहता था। ऐसी ही स्थिति में पहली बार धर्म का उदय हुआ। “धर्म ने ही मनुष्य को असुरता की परतों से उबारकर उस स्तर तक पहुँचता है, जिसमें बढ़ी-चढ़ी संपत्ति के आधार पर ही नहीं, सुविकसित सभ्यता के आधार पर भी गर्व करने का अधिकारी हैं।” (अखण्ड ज्योति मार्च 1967, पृष्ठ 50)। इस धार्मिक क्राँति के बाद मानवी सभ्यता के विकासक्रम में दार्शनिक क्राँति ने जन्म लिया। मनीषी नए समय के लिए नए समाधान खोजने लगे। राजतंत्र का ढांचा व्यक्तिवाद का पर्याय बन गया, धर्म ने चेतना के उन्नयन के स्थान पर रूढ़ियों मूढ़मान्यताओं को स्थान देना आरंभ कर दिया, तो दार्शनिक क्राँतियों की श्रृंखला पड़े निकली। सत्य को जब तर्कों-तथ्यों प्रमाणों की कसौटी पर कसने की प्रक्रिया पड़े पड़ी तो पुनर्जागरण काल की वैज्ञानिक क्राँति संपन्न हुई, जिसने औद्योगिक क्राँति के साथ जुड़कर एक नई जीवनशैली को जन्म दिया एवं आज की स्थिति में ला खड़ा किया, जहां वह भोगवाद से आसक्ति भी रखता है व त्रस्त भी हैं। असमंजस में हैं कि क्या करें।
परमपूज्य गुरुदेव ऐसी परिस्थिति में सभी समस्याओं को सुलझाने की एक ही ओषधि बताते हैं-अध्यात्म, परिष्कृत स्तर का जीवन-मूल्यों से जुड़ा अध्यात्म। वे लिखते हैं कि “घूम-फिरकर आदमी उससे भी बदतर हालत में आ पहुँचा है, जहां से उसने अपनी यात्रा आरंभ की थी। अब उसे नई व्यवस्था के सृजन की आवश्यकता पड़ रही हैं। कौन करेगा यह सब? इसके लिए क्राँति के उस नए आयाम को ढूँढ़ना पड़ेगा, जो विगत की भूलों से मुक्त हो, जिसमें व्यक्ति के मनोसामाजिक नवसृजन की अपूर्व क्षमता हो। क्राँति का यही आयाम विचारक्राँति है।” (अखण्ड ज्योति अक्टूबर 92, पृष्ठ 43)
आज के इस संकट को परमपूज्य गुरुदेव आस्ि संकट नाम देते हैं। बुद्धि विपर्यय-दुर्मतिजन्य दुर्गति आस्थाक्षेत्र में घुसी निकृष्टता आकाँक्षाओं में समाविष्ट भ्रष्टता और आचरण में गुँथ गई दुष्टता के रूप में आस्था संकट की व्याख्या करते हैं। इसी ने नास्तिकता को, वर्तमान समस्याओं विभीषिकाओं को भी जन्म दिया हैं। इसका समाधान भी एक ही हैं- उलट को उलटकर सीधा करना, मनःस्थिति से परिस्थितियों में बदलाव बना। यही हैं महान् परिवर्तन प्रस्तुत कर सकने वाली विचारक्राँति, जिसे हम आज की परिस्थितियों में अवतारी चेतना का प्रवाह भी कह सकते हैं। ऋतंभरा प्रज्ञा दूरदर्शी विवेकशीलता के साथ भावसंवेदना का जागरण ही मानवी क्रिया व चिंतन में एक सामंजस्य स्थापित कर युगपरिवर्तन की प्रक्रिया को अमली जामा पहना सकता है। इस विचारक्राँति को अपने समय की सबसे सशक्त महाक्राँति कहना चाहिए।
जीवनभर युगऋषि आचार्य श्री ने इसी विचारक्राँति को युगपरिवर्तन का आधार बनाकर प्रस्तुत किया। प्रायः तीन हजार से अधिक छोटी-बड़ी पुस्तिकाओं के माध्यम से जो प्राणचेतना निस्सृत हुई हैं, उसी ने इस सहस्राब्दी की समापन वेला में चिंतन का ढाँचा बदला हैं एवं जन-जन को सतयुगी मनःस्थिति में जीने की दिशा में अग्रगामी बनाया हैं। समाज की आधी जनशक्ति नारी शक्ति के जागरण-उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त कर दिखाया हैं। बौद्धिक क्राँति द्वारा चिंतन का, नैतिक क्राँति द्वारा चरित्र का एवं सामाजिक क्राँति द्वारा व्यवहार का परिष्कार उन्हीं का दिया सबसे व्यावहारिक जीवनदर्शन हैं। इन पुस्तकों के विचारों एवं ‘अखण्ड ज्योति’ में प्रकाशित प्रतिमाह संप्रेषित उनकी चिंतनचेतना ने लाखों-करोड़ों को झकझोर कर ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया हैं, जहां परिवर्तन सुनिश्चित दिखाई पड़ रहा हैं। ऐसा ही युगद्रष्टा अपनी ऐतिहासिक क्राँतिधर्मी रचना ‘सतयुग की वापसी’ 1989 में हमें कहता है। ‘‘इक्कीसवीं सदी उपेक्षित क्षेत्र को ही हरा-भरा बनाने में निष्ठावान् माली की भूमिका निभानी चाहिए। यह विश्व उद्यान इसी आधार पर हरा-भरा, फल-फूल एवं सुषमासंपन्न बन सकेगा। आश्चर्य नहीं कि वह स्वर्गलोक वाले नंदनवन की समता कर सके।”