
शक्तिपात, जिसने राष्ट्रीयता अस्मिता के जागरण की नींव रखी
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श्री श्री परमहंस देव आज बिलकुल बोल नहीं रहे थे। कोई कुछ कहता तो उनकी आँखों की पुतलियां उसकी और घूम जातीं। वे सारी बातें सुनकर या तो थोड़ा-सा मुस्करा देते-वेदनामय, कष्टपूर्ण मुस्कान या फिर अपने गल पर हाथ रखकर बता देते कि वे बोल नहीं सकते। आज उन्होंने लेखन सामग्री भी नहीं माँगी थी कि लिखकर ही किसी को छोटा-मोटा आदेश देते। बीच-बीच में वे आत्मलीन भी हो जाते थे। यह न तो भावसमाधि थी, न अचेतावस्था। लगता था जैसे चेहरे पर प्रायः शाँति थीं।
थोड़ी ही देर में शाम घिरने लगी। भगवान् सूर्य अपना किरणजाल समेटकर वापस लौटने की तैयारी कर रहे थे। काशीपुर योगोद्यान भवन का ऊपरी हिस्सा उनकी किरणों के अंतिम स्पर्श से अभी भी स्वर्णिम था। साँझ के सूरज की बली भी परमहंस देव के कमरे की खिड़की से दिखाई दे रही थी। मानो सूर्यदेव अस्तांचल वापस लौटने से पहले ईश्वरावतार ने एक नजर साँझ के इस ढलते सूरज को देखा-फिर कुछ पलों तक मौन रहे। इसके बाद उन्होंने नरेंद्र को बुलाने के लिए कहा-नरेंद्र आए तो उन्होंने शेष लोगों को संकेत से बाहर जाने के लिए कह दिया।
कमरे के कपाट भीतर से बंदकर नरेंद्र जब उनके निकट आए तो वह बोल, “ध्यान के लिए पद्मानसन लगाकर बैठ जा।”
नरेन्द्र पद्मासन लगाकर उनकी और एकटक देखने लगे।
“आँखें मूँदकर ध्यान कर।” वह बोल।
नरेन्द्र ने आंखें मूँदने से पहले देखा कि श्री रामकृष्ण देव भी समाधिस्थ होने की तैयारी में हैं। नरेन्द्र ने जब आंखें बंद कीं, तो सदा के समान वृत्तियाँ अंतर्मुखी हो गई, किन्तु बातय चेतना के लुप्त होने से पहले कुछ ऐसा लगा कि आज का अनुभव अपेक्षाकृत भिन्न हैं। उसके सारे शरीर में फिर से विद्युत की धारा प्रवेश कर रही थी। विद्युतधारा का सा अनुभव उसे पहले भी कई बार हुआ था, किंतु वह उसके अपने शरीर के भीतर का अनुभव था। यह धारा तो जैसे बाहर से उसमें प्रवेश कर रही थी और उसके अपने अस्तित्व का अंग बनती जा रही थी...। यह उसे समाधि की ओर नहीं, अचेतावस्था की ओर ले जा रही थी।
नरेंद्र की मन हुआ कि वह आँखें खोल दे और देखे कि यह सब क्या हैं। कही ठाकुर कोई और प्रयोग तो नहीं कर रहे हैं.......किंतु उसकी इंद्रियाँ आज जैसे उसके नियंत्रण में नहीं थीं। उनकी आँखें न तो उसकी इच्छा से खुल रही थीं और न ही बंद हो पा रही थीं। वह तो अचेत और असहाय होता चला जा रहा था।
इस विचित्र स्थिति के बाद जब उसकी चेतना लौटी, तो उसे स्मरण हो आया कि परमहंस देव ने उसे ध्यान करने के लिए बैठने को कहा था, किंतु उसका तो जैसे ध्यान नहीं टूटा था, मूर्च्छा टूटी थीं। वह ध्यान की भूमि से नीचे नहीं उतरा था, संज्ञा हीनता से अकस्मात् संज्ञा के क्षेत्र में आया था।
पहली बार जब वह श्री श्री ठाकुर के पास दक्षिणेश्वर गया था, तब उन्होंने अपने दायिने पाँव से उसके शरीर को छुआ था।
उस समय भी उसकी विचित्र स्थिति हो गई थी। वह समझ नहीं पाया था कि उन्होंने यह क्यों किया? किसी के शरीर पर अपना पैर...........पर यह कैसा स्पर्श था? वह सिहर उठा। वह अपनी खुली आँखों से देख रहा था कि कमरे की दीवारों के साथ-साथ सारी वस्तुएँ कहीं शून्य में विलीन होती जा रही हैं। क्या था वह? यह क्या सारे ब्रह्मांड के साथ उसका क्षुद्र अहंभाव भी सर्वव्यापक शून्य में विलीन होता जा रहा था? वह घबरा गया था। ..........अहम भाव का नाश ही तो मृत्यु थीं और वह मृत्यु उसके सामने अत्यंत निकट आ गई। .......वह स्वयं को और रोक नहीं पाया था। चिल्लाकर बोला था, यह क्या कर रहे हैं। आप? घर पर मेरे तो माँ-बाप हैं।
ठाकुर खिलखिलाकर हँस पड़े थे, जैसे कोई बालक अपने खेल की सफलता पर हँसता है। उन्होंने उसका हाथ पकड़ लिया और उसके वक्ष को सहलाते हुए बोल अच्छा तो फिर अभी रहने दे। एकदम ही होने की कोई आवश्यकता भी नहीं हैं। समय आने पर ही सब होगा और फिर सब सामान्य हो गया था। हालांकि इस घटनाक्रम में एक सवाल अनुत्तरित रह गया था, वह समय कब आएगा और क्या होगा?
और थोड़े दिनों पहले यहीं काशीपुर योगोधान में जब वह ठाकुर के पास से आकर ध्यान करने बैठा था, तो बैठते ही वृत्तियाँ अंतर्मुखी हो गई। सहसा उसे लगा कि उसके सिर के पिछले भाग के पास एक प्रखर प्रकाश प्रकट हुआ हैं, जैसे किसी ने बहुत तीव्र प्रकाश देने वाला जीवट उसकी पीठ के पीछे, उसके निकट रख दिया हो.....उसे लगा, ऐंद्रिक ज्ञान जैसे वह रस्सी था, जिसने उसे ज्ञान और आनंद के सागर में उन्मुक्त विहार करने से रोक रखा था। ऐंद्रिक ज्ञान जैसे एक पिंजरा था, जिसने उसे ज्ञान भम्र तो ज्ञान का देता था, किंतु वह जैसे अंडे का खोल था, जिसने पक्षी-शावक को अपने भीतर बंदकर विस्तृत संसार में पहुँचाने से रोक रखा था, उस दिन वह रस्सी अकस्मात् ही टूट गई थी।
वह जलयान जो किनारे पर बँधे रहने का बाध्य था, खुल सागर के मध्य जाने के लिए स्वतंत्र हो गया था..... उसकी आत्मा थार्रा देने वाले प्रभंजनयुक्त हर्षोन्माद की स्थिति में पहुँच गई थी। वहीं से वह दिव्य संभ्रम की स्थिति में आ गई थी.....और लगा कि जैसे उसके मस्तिष्क रूपी बरतन में से कबाड़ के रूप भरें हुए विचार, धारणाएँ आस्थाएँ, बिंब इत्यादि बाहर गिर पड़े हैं। मस्तिष्क शून्य की स्थिति में हैं किंतु रिक्त नहीं हैं और तब उसकी आत्मा चरम आनंद की स्थिति में आ पहुँची। उसका सारा व्यक्तित्व जैसे दिव्यता और दिव्य चेतना से आपूरित होने लगा था..... अंततः जैसे व्यक्तित्व विलीन हो गया और दिव्यता का ही अस्तित्व रह गया। आत्मा एक दिव्य प्रकाश के रूप में जैसे हर्षोन्माद की प्रभंजनयुक्त स्थिति से अनंत शाँति में पहुँच गई। ......न कहीं सूर्य था, न सुंदर ज्योति की प्रतिमूर्ति चंद्रमा। यह विश्व निभ्र आकाश में एक छाया के रूप में विद्यमान था। अस्फुट मना आकाश और सारा भासमान विश्व अहंकार की स्रोतस्विनी में डूबता-उतरता तैर रहा था। अहंकार की धारा कुछ मंद हुई और धीरे-धीरे यह छाया दल उसमें लय होने लगा। वह धारा सूख गई और शून्य में शून्य मिल गया......अब सब कुछ ‘आवड्मनसगोचरम्’ हो गया था।
उसका मन जब इस भावभूमि से नीचे उतरा था, तब उसे अपने अस्तित्व की अनुभूति तो हुई थी, पर शरीर की नहीं। वह चिल्लाया था-गोपाल दा! अरे गोपाल दा!! मेरा शरीर कहाँ हैं? घंटों बाद वह प्रकृतिस्थ हो सका था।
उसके बाद उसके ठाकुर प्रसन्न लग रहे थे। बोल-जब माँ ने तुम्हें सर्वस्व का साक्षात्कार कर दिया हैं, तुम्हारा यह सुख संदूक में बंद रहेगा और उसकी कुँजी मेरे पास रहेगी। जब तुम मेरा सारा काम कर दोगे तो तुम्हारा यह सुख तुम्हें बैठा दिया जाएगा।
ठाकुर की ये बातें उस दिन भी एक सवाल छोड़ गई, अनुभव के परिप्रेक्ष्य में न जाने कब तक आँकता रहता, यदि श्री रामकृष्ण देव उसे न पुकारते-नरेन!
उसने देखा कि उसके सम्मुख अपने बिस्तर पर ठाकुर तकियों के सहारे लगभग ऊर्जा शून्य लटे नहीं, पड़े हुए हैं....। क्रमशः वह सजग हुआ। उसके मन में नए प्रश्न जागने लगे। कैसे पड़े हैं ठाकुर? और यह क्या? उनकी आँखों से तो अश्रु गिर रहे हैं.......”क्या हुआ ठाकुर?”
श्री रामकृष्ण देव ने न अपने अश्रु छिपाए, न अपना भाव। गल में फँसती हुई आवाज में बोल-
“नरेन! आज मैंने अपना सर्वस्व तुझे दे डाल। जीवन भर की सारी तपशक्ति तुम्हें सौंप दी। तुझे इस देश की संस्कृति के गौरव को बढ़ाना हैं। संस्कृति की दिग्विजय करनी हैं। जो माँ इस शरीर में निवास करती थी, वे आज से तुझमें निवास करेंगी। आदिशक्ति जगन्माता तेरे माध्यम से इस देश की जनचेतना का जाग्रत करेगी।”
क्ल ने इस सत्य को प्रमाणित किया। श्री रामकृष्ण परमहंस की अनोखी साधना उनके नरेन-जिन्हें विश्व ने स्वामी विवेकानंद के रूप में जाना-के माध्यम से अभिव्यक्त हुई। उनके द्वारा की गई देवसंस्कृति दिग्विजय ने भारत के इतिहास में युगाँतरकारी परिवर्तन कर डाल।