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Magazine - Year 2000 - Version 2

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युगनायक कबीर का समन्वय संदेश

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‘समन्वय का संदेश’ कबीर के व्यक्तित्व का यही सार्थक पर्याय हैं। अगले इसी वैशिष्ट्य की वजह से वह सहस्राब्दी के प्रथम संक्राँति पर्व के नायक बने। हाँ यह अलग बात है कि महात्मा कबीर के समन्वय का ढंग भी उनके अनुरूप ही निराला था। अपने इस समन्वय के लिए उन्होंने कभी भी किसी पक्ष के दोष-दुर्गुणों से, उसके अवगुणों से कोई कमियों को छिपाया-लाख्शा, बल्कि उन्होंने बेबग फक्कड़पन से इन सबको तार-तार कर डाला। रुई की तरह समाज के सभी वर्गों को धुनकर रख दिया। एक सच्चे जुलाहे की भाँति गुणों (धागों) को उकेरा-निकाला और फिर अपनी अद्भुत रीति से समन्वय-सद्भाव की चादर बनाई।

इनके समक्ष चुनौती के आकार और आयाम भिन्न थे। उनके जन्म वर्ष के आसपास ही तैमूर लग का आक्रमण हुआ था। तुगलक सुलतान मोहम्मद पर तैमूर ने जिहाद बोला था। इस्लामी समाज आततायियों के जुल्म पथभ्रष्ट हो गया था। कबीर ने देखा कि बेदी बादशाह ने इटावा के सुलतान मोहम्मद शर्की और जौनपुर के शासक मोहम्मद सुलतान को इस्लाम के नाम पर हराया। प्रतिक्रिया में आतंकित हिंदुओं ने रक्षातंत्र रचा जिसने धर्मांधता और रूढ़िवादिता को बढ़ावा दिया। मजहब जुल्म का पर्याय हो गया तो धर्म कायरता का प्रतीक। ऐसे समय में बेकास्था को पटरी पर लाने का काम कबीर ने किया। आर्थिक तौर पर भी समाज कंगूरों और पायदानों में बँट गया। तभी अमीरी और गरीबी से अलग फकीरी का प्रचार कबीर ने किया।

खरी कहने में उनका कोई सानी न रहा था। समय ने उनके सामने जो भी चुनौती रखी थी, उससे वे भागे नहीं, जूझे। उन्होंने बेकजीवनी को चेताते हुए कहा-क्यों तुम हर छोटी-बड़ी बात के लिए पंडितों और मुल्लाओं का मुँह देखते हो। अरे खुद भी कुछ करो। उनके शब्द हैं।

पंडित मुल्क जो लखि दिया, वो ही रटा तुम किछु न किया।

उनकी प्रखरता की धार पंडितों एवं मुल्लाओं के सामने ही नहीं स्वयं बादशाह के सामने भी कुँद न पड़ती थी। ऐसी ही खरी सुनाने के कारण ही तो कहते हैं कि बादशाह सिकंदर बेदी ने उन्हें जंजीरों में बाँधकर गंगा में फिंकवा दिया था, पर ईश्वर कृपा ने उन्हें बचा लिया। इस घटना की याद दिलाते हुए उनके ही पद का एक अंश हैं-गंग गुसाइन गहिर गंभीर, जंजीर बाँधी करि डरे कबीर। गंगा को लहरि मेरी टूट जंजीर, मृगछाल पर बैठे कबीर।

उन्होंने एक नहीं अनेक कष्ट सहे, पर सच्चाई कहने से चुके नहीं। उनका झगड़ा तो समाज को गुमराह करने वालों से था, हिन्दू-मुसलमान से नहीं। यही कारण हैं कि दोनों ही उनके अपने हुए। दोनों ने ही उन्हें अपनाया। आज के दौर में भी जब हम इक्कीसवीं सदी की देहली पर आ खड़े हुए हैं, उनके समन्वय के संदेश का महत्व कम नहीं हुआ हैं। तब से अब तक व्यवस्थाएँ भले ही अनेकों बार बदल चुकी हो, पर जातीय आग्रह, कुबें का अमानवीय दर्प, वर्गवैषम्य कहाँ कम हुआ हैं? इस दौर का समाज केवल जातीय विषमताओं, क्षेत्रीय

ईसा का क्रूस पर चढ़ना, सुकरात का विष पीना, कृष्ण को तीर लगना, पाँडवों का हिमालय में गलना, गाँधी का गोली खाना, आद्य शंकराचार्य को भगंदर होना यह बताता है कि अगलेा महान् प्रयोजनों के लिए जिन्हें स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करना होता है, वे उपलब्ध शरीर का इस प्रकार अंत करते हैं जिसे बलिदान स्तर का, प्रेरणा प्रदान करने वाला और अपने चलते समय की पवित्रता, प्रखरता प्रदान करने वाला कहा जा सके।

असमानताओं और विद्रूप सामाजिक संस्कारों से ही नहीं घिरा, बल्कि धार्मिक गुरुओं, संकीर्ण मन विचारकों और स्वयंभू देवों, पैगम्बरों द्वारा स्थापित की गई समक्ष की संवेदनहीन सीमाओं और कर्मकाण्डों की अनन्य परिपाटियों से उसी तरह ग्रस्त हैं, जिस तरह विज्ञान और संचार तकनीक विहीन मध्ययुगीन समाज ग्रस्त था। मनुष्य मात्र के प्रति सहज करुणा के विरुद्ध मात्र बाह्योपचार के आधार पर शत्रुभाव जगाने वाली प्रवृत्तियां आज भी उसी तरह जीवित हैं, जिस तरह उनके अपने काल में थी। हिन्दू और मुसलमानों से आज भी वही कहा जा सकता है। जो उन्होंने अपने समय में कहा था।न जाने तेरा साहब कैसा?

मस्जिद भीतर मुल्क पुकारे, क्या साहब तेरा बहिरा है? चिउंटी के पग नेवर बाजे, सो भी साहब सुनता है। पंडित होय के आसन मारे, लंबी माला जपता है। अंदर तेरे कपट-करतनी, सो भी साहब लखता है।

महात्मा कबीर भेदभाव एवं विषमता पैदा करने वाले बाह्योपचार पर निरंतर आघात करते रहे। वह इन्हें मनुष्य को वास्तविक जीवनलक्ष्य से भटकाने का कारण मानते रहे। अपने-अपने पक्ष में अल्लाह, विष्णु, कृष्ण महादेव, गोरख, गोविंद, केशव, ईश्वर, राम हरि, ब्रह्म, खुदा, रब, करीम आदि के नाम पर दिए गए तर्कों वादों और विवादों, समर्थकों और विरोधियों, असहिष्णुताओं और शत्रुताओं से विभाजित समाज को प्रेम का पाठ पढ़ाने की कोशिश करते रहे। उनका यह प्रेम किसी अगम अगोचर के प्रति दिखते हुए भी मनुष्यमात्र के प्रति था और इसे ही वह श्रेष्ठ जीवन का बेहतर मूल्य मानते रहे। उनके अपने समय में जितने भी मत एवं पंथ प्रचलित थे। सभी के बीच समन्वय स्थापित करने का आधार उन्होंने प्रेम को ही बनाया। आज के दौर में भी हम उनके स्वरों को फिर से दोहरा सकते हैं-

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित हो॥

अपने युग की संक्राँति के नायक कबीर मनुष्य को अलग करने वाले, मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद स्थापित करने वाले तथा मनुष्य को विराट् प्रेम की प्रतीति से विमुख करने वाले किसी भी व्यक्ति, भाव या विचार को स्वीकार नहीं करते। वह साफ शब्दों में कहते हैं-

हमारे राम-रहीम करीमा, कैसो अलह राम सति सोई। बिसमिल मेटि बिसंभर एकै, और न दूजा कोई ॥

दरअसल, उनकी बातों से सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि उनका संदेश उस काल के लिए भी था, इस काल के लिए भी है। वह तो शाश्वत और सर्वकालिक है तभी तो इन दिनों मनाई जा रही उनकी 600वीं जयंती पर जहाँ एक और उनकी जन्मस्थली लहरतारा (काशी) में हजारों श्रद्धालु और साधु एकत्र हो रहें हैं, वहीं पिछले दिनों जर्मनी के हाइडर्लवग विश्वविद्यालय में दुनिया भर से एकत्र विद्वानों ने इक्कीसवीं सदी में इस क्राँतिकारी एवं आस्थावान् महान् संत की प्रासंगिकता की चर्चा की। कबीर जयंती का आयोजन इस विश्वविद्यालय के लिए विशेष महत्व का इसलिए भी था, क्योंकि इसकी स्थापना भी 613 वर्ष पहले हुई थी।

मैक्सिको के विद्वान डेविड बरेनेन ने लिटन अमेरिका के बुद्धिजीवियों पर कबीर के असर को स्वीकारा। ‘मारिओब ओफरीडी’ उनके साधनापक्ष को प्रभावकारी ढंग से बताया। लरिटेन के विद्वान थामस डाहनहार्ट कबीर से सूफी अंदाज से प्रभावित हैं जर्मन विद्वान बेटार लत्से ने तो कबीर के दोहों का जर्मन अनुवाद भी कर डाला है। स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय की लिडाहेस यह साफ−तौर पर कहती हैं कि अब कबीर अकेले भारत के लिए ही नहीं, समूची दुनिया के हो गए उनके अनुसार सहस्राब्दी की प्रथम संक्राँति के नायक कबीर का महत्व सहस्राब्दी की इस अंतिम महासंक्राँति के समय कही अधिक बढ़ गया हैं। जग−जाहिर बात यह भी है कि मनीषी और बुद्धिजीवी ही नहीं, सामान्यजन भी उनके दोहों एवं पदों को उत्साह के साथ अपना रहा हैं। अपने यहाँ के सांई, जोगी, मलंग, नट, भाट आदि लोक गायकों के कंठ स्वरों से होते हुए उनके पद अब पश्चिमी पॉप धुनों की भी शान बनते जा रहे हैं। कुमार गंधर्व की तरह वे भी अब कबीर के निर्गुण गाने लगे हैं। समाज के सभी वर्गों में प्रीति ही तो महात्मा कबीर का समन्वय संदेश था। इसी वजह से ही तो उनके दार्शनिक चिंतन से उस जमाने में भी नए युग की स्थापना हुई।

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