
मूलभूमि से बिछुड़े
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ऐसी मान्यता है कि अब से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व भारत के घुमंतू बंजरों से कुछ समूह यहाँ से बाहर निकलकर विश्व के कई देशों में फैल गए। अपनी यायावर प्रकृति के कारण वे कहीं स्थायी रूप से न बस सके और तब से लेकर अब तक लगातार घूमते रहने के कारण विश्व के करीब हर हिस्से में व्याप्त हो चुके हैं। विदेशों में इन्हें ‘जिप्सी’ कहकर पुकारा जाता है। लंबे अंतराल के गुजर जाने और मातृभूमि से दूर रहने के बावजूद कुछ विकृति के साथ उनमें भारतीय संस्कृति के अंश-अवशेष अब भी देखे जा सकते हैं। उनकी आस्थाओं, मान्यताओं, और बोलियों पर ध्यान देने से यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि वे हिन्दू परंपरा के ही लोग हैं।
जिप्सी संस्कृति का गहराई से अध्ययन करने वाले मनीषी और शोधकर्ता भिक्षु चमनलाल अपने ग्रंथ, ‘जिप्सी-भारत की विस्मृत संतति’ में लिखते हैं, ‘जिप्सी कहे जाने वाले लोग, जो मध्य तथा दक्षिण यूरोप और अमेरिका के कई भागों में पाए जाते हैं, वास्तव में भारतीय मूल के हैं, वे या तो स्वयं उन स्थलों में गए अथवा विदेशी आक्राँतों द्वारा बंदी बनाकर ले जाए गए।’
लगभग ऐसा ही मत अन्य अनेक विद्वानों का है। सभी इस बात पर सहमत हैं कि वे आर्य रक्त के हैं और उनकी मूल भूमि भारत ही है। जिप्सियों को ‘रोम’ या ‘रोमा’ भी कहते हैं। इस शब्द की व्युत्पत्ति बताकर प्रख्यात विद्वान और जिप्सी समुदाय के अध्येता ए.जीर. पशुपति ने भी यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि वे भारतीय परंपरा के ही लोग हैं, कोई और नहीं। लंबे काल तक अपनी जन्मभूतम से दूर रहने के कारण उनमें अन्य संस्कृतियों का भी स्पष्ट असर है, इतने पर भी वे अपनी मूल संस्कृति के चिह्न स्वयं में आज भी संजोए हुए हैं। उनकी पूजा−पद्धति हिन्दुओं के समान है। वे देवता को ‘देवला’ कहकर पुकारते हैं। यह शब्द मालवी के ‘दवल’ शब्द से व्युत्पन्न प्रतीत होता है। वे हिन्दू देवताओं की अब भी पूजा करते हैं। ईसाई बनकर भी उनमें हिन्दुत्व का भाव विद्यमान है। वे ‘क्रास’ को क्रास न कहकर ‘त्रुशुल’ कहते हैं। यह स्पष्ट रूप से भारतीय आस्था का द्योतक है। त्रिशूल भगवान शंकर का आयुध है। जहाँ यह आयुध होगा, वहाँ भगवान शिव की छवि मानस-पटल पर अनायास उभर आती है। ऐसा मालूम पड़ता है, मानो वे कभी शैव मत के अनुयायी थे, अस्तु ईसाई मत का चिह्न धारण करने के बावजूद अपनी शैव आस्था को अक्षुण्ण रखने के लिए क्रास में त्रिशूल की भावना करने लगे। यह अपनी मूल परंपरा को जीवित रखने का एक अनूठा उदाहरण है।
उनकी नाक-नक्श, कद-काठी, रहन-सहन सब कुछ भारतीयों जैसा है। हिन्दुओं की भाँति वे अपने पूर्वजों का सम्मान करते हैं और किसी परिजन की मृत्यु पर भारतीय श्राद्ध प्रथा की तरह मृतक भोज कराते हैं। कई जिप्पसी समुदायों में विवाह की प्राचीन भारतीय परिपाटी-स्वयंवर प्रथा अब भी प्रचलित हैं, जिसमें कन्या अपने पति का चुनाव स्वयं करती है। भगवान राम और कृष्ण कुछ समूहों में आज भी पूजित हैं।
हर वर्ष संपूर्ण यूरोप के जिप्सियों का एक सम्मेलन होता है, जिसमें जिप्सी समाज के मुखिया का चयन होता है। मुखिया के लिए ‘बड़ो सिरो’ शब्द का प्रयोग होता है। इसके अतिरिक्त पुरुष मुखिया के लिए ‘राजा’ और स्त्री मुखिया के लिए ‘रानी’ शब्द भी प्रयुक्त होते हैं।
उनकी अंकपद्धति पूर्णतः भारतीय है। सिर्फ एक और दो पर कुछ ग्रीक प्रभाव झलकता है। सप्ताह के दिनों के नाम संस्कृत उद्गम के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। सोमवार को जिप्सी लोग प्रथम दिवेस कहते हैं, मंगलवार को द्वितीय दिवेस तथा बुधवार को तृतीय दिवेस। यह शोध और अनुसंधान का विषय है कि सात दिनों को इस प्रकार पुकारने की परंपरा भारत में किस काल में थी? इतिहासकारों को इसका पता लगाना चाहिए।
इसके अतिरिक्त उनकी रोमानी बोली पर अब भी उसमें हिन्दी, संस्कृत, पंजाबी, गुजराती, राजपूताना और मालवा की बोलियों के हजारों शब्द देखे जा सकते हैं, कुछ ज्यों-के-त्यों, कुछ विकृत स्थिति में। उदाहरण के लिए रोमानी के कुछ शब्द द्रष्टव्य हैं, ‘वेर्श’ यह रोमानी में वर्ष के लिए प्रयुक्त होता है। ‘दिवेस’ हिन्दी में इसके लिए दिवस शब्द का इस्तेमाल करते हैं। ‘ब्रिशित’- वृष्टि, ‘तल्ली’-तलैया (तालाब), ‘बालू’-बालू, ‘बिक्री’-बकरी, ‘नाक’ ‘दाँत’-दाँत, ‘दादे’-दादा, ‘दुक’-दुःख, ‘बूढ़ा ‘तुद’-दूध, ‘किर्मों’-कृमि, ‘तू पानी’-पानी, ‘श्चाँद’-चाँद, ‘याग‘-आग, ‘कुनारा’-किनारा, ‘राखली’-रखैल आदि कितने ही ऐसे शब्द हैं, जिन्हें देखकर उनके आर्य होने का सहज ही अनुमान लगता है। यह ठीक है कि उनकी भाषा में भारतीय शब्दों की बहुलता है, इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि संप्रति उनकी भाषा विशुद्ध रूप से भारतीय है। उसमें देशाँतरीय भाषाओं का सहज समावेश हो गया है। इससे उनके निष्क्रमण पथ का पता चलता है। जिप्सी भाषा में फारसी, तुर्की, ग्रीक और स्लाव का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, किंतु ‘अरबी’ का स्पर्श तक नहीं मिलता। इससे यह अंदाज लगाया जा सकता है कि उनके प्रवास पथ में अरब देश सम्मिलित नहीं था।
जिप्पिसयों के अनेक उपसमूहों के नाम भारतीय हैं, जैसे जट्टस (जाट), जोराची (सौराष्ट्री), सिंडीज (सिंधी) आदि। यह भी इस बात का संकेत है कि उनकी मूलभूमि भारत है। ‘ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी’ में उन्हें भारतीय नस्ल की एक यायावर प्रजाति बतलाया गया है। दुनिया के विभिन्न भागों में फैले जिप्सी न्यूनाधिक परिवर्तन के साथ अब भी लगभग वही धंधे अपनाए हुए हैं, जो उनके भारतीय पूर्वजों के पैत्रिक धंधे थे। पर आश्रित हैं। इससे भी यही जनजातीय समूह संप्रति उन्हीं धंधों पर आश्रित हैं। इससे भी यही प्रमाणित होता है कि वे हिन्दू हैं। टोकरी बुनना, जादूगरी करना, पशुपालन, सर्पमाँत्रिक, गाना-बजाना, नृत्य करना, अश्व चिकित्सा, घोड़ों में नाल लगाना, नट विद्या, लौहकर्म, घोड़ों और खच्चरों का व्यापार तथा भविष्यवक्ता के रूप में भाग्य और भविष्य बतलाना-यह उनके प्रधान कार्य है। इनके द्वारा ही वे अपना जीविकोपार्जन इन दिनों भी करते देखे जा सकते हैं।
यों तो जिप्सी विश्वव्यापी प्रजाति हैं, पर इस समय उसकी प्रचुरता पश्चिमी गोलार्द्ध में ही अधिक है। यह सत्य है कि जिप्सियों का कोई निश्चित स्थान नहीं है, परिभ्रमण उनकी सहज प्रवृत्ति है। इतने पर भी अनेक देशों में उन्होंने अपना स्थायी आवास बना लिया है। इनमें हंगरी, रुमानिया, सर्विया, आस्ट्रिया, ग्रीस, तुर्की, इटली, जर्मनी, रूस, फ्राँस, स्वीडन, डेनमार्क, नार्वे, पोलैंड, इंग्लैंड तथा ईरान प्रमुख हैं। इन देशों में इनकी संख्या 12 लाख के करीब है।
भिन्न-भिन्न देशों में उन्हें अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। जर्मनी में 16वीं शताब्दी में इन्हें ‘इजिप्टेट, स्पेनिश, गिलर्नो’ नाम से संबोधित किया जाता था। बाद में वहाँ उन्हें ‘जिगूनेर’ भी कहा जाने लगा। इसके अतिरिक्त रूस में ‘जगारी,’ फारस में ‘जेंगी, तुर्की में ‘चिनेगी’, बुल्गारिया में ‘गुप्ती’, स्पेन में ‘गिटानज’ अथवा ‘गिप्टानोज’ तथा फ्राँस में ‘बोहेमियन’ नाम से प्रसिद्ध हैं।
उनके यूरोप प्रवास काल के संबंध में विद्वानों में कोई निश्चित मत नहीं है। कई विद्वान उनके प्रवास काल को छठवीं शताब्दी के आस-पास मानते हैं, जबकि अनेक लोग दसवीं शताब्दी को उनका निष्क्रमण काल मानते हैं। इस संबंध में मार्टिन ब्लौक अपने ग्रंथ ‘जिप्सीज देयर लाइफ एंड कस्टम्स’ में लिखते हैं कि सर्वप्रथम जार्जिया के पादरी माँउट ऐथोस ने यूरोप में इनके अस्तित्व की जानकारी सन 1100 में दी। तत्पश्चात सन 1322 में क्रीट में इनकी उपस्थिति दर्ज की गई। सन 1346 में ये कोरफू में देखे गए। तदुपराँत सन 1340 में इन्हें सर्विया में पाया गया। सन 1417 तक इनकी व्यापकता मालदेविया, हंगरी, जर्मनी और स्विट्जरलैंड आदि देशों तक फैली गई। 1442 में इनका पदार्पण वासले में हुआ और 1457 में पेरिस पहुँच गए। पंद्रहवीं सदी के मध्य तक ये संपूर्ण यूरोप में छा गए। इसके बाद ये पिरेनीज पर्वत के उस पार स्पेन में अपने उन साथियों से जा मिले,जिनके पूर्वज कुछ दशाब्दी पूर्व उत्तरी अफ्रीका होकर यहाँ आए थे।
विश्व के विभिन्न देशों में आश्रय और आजीविका की तलाश में भटक रहे जिप्सियों का जीवन सरल नहीं है। भारत के बंजारा ओर लंबानी जातियों की तरह इन्हें भी अगणित मुसीबतों का सामना करना पड़ा। जहाँ-जहाँ गए, वहाँ इन्हें संदेह की दृष्टि से देखा गया, इन्हें चोर-उचक्के समझा गया और बढ़-चढ़कर कहर ढाए गए। इंग्लैंड, फ्राँस, आस्ट्रिया, जर्मनी, स्पेन आदि देशों में इनका एक जैसा इतिहास है। इन राष्ट्रों में इनका इतना उत्पीड़न किया गया कि इतिहासकारों के लिए यह निर्णय करना कठिन है कि यहूदी और जिप्सी इन दो प्रजातियों में से किसे सर्वाधिक शोषण सहना पड़ा।
जिप्सी हमसे बिछुड़े हुए हैं, वे अपनी मूल भूमि से विलग हैं, इतने पर भी उनकी सोच और संस्कार, आस्थाएं और मान्यताएं भारतीयों जैसी अब भी बनी हुई हैं, यह गर्व की बात है। अच्छा होता, हम उनसे आत्मीयता प्रदर्शित कर पाते और उनमें सोई पड़ी भारतीयता की भावना को जाग्रत करते तो भारत का एक अंग, जो विभिन्न देशों में उक्त समुदाय के रूप में बिखरा पड़ा है और उपेक्षा भाव झेल रहा है, वह अधिक समर्थ-सशक्त बन पाता। इससे आर्य संस्कृति को विश्वव्यापी बनाने में हम अधिक सफल होते। ‘कृण्वंतो विश्वं आर्यम्’ के आर्ष उद्घोष को क्रियान्वित करने का एक आसान तरीका कदाचित यह भी हो सकता है कि मध्यकाल में निर्गत हुए इन भारतीयों को हम आत्मसात कर लें। देह का कोई अंग सड़-गल रहा हो, तो उससे पूरे शरीर को पीड़ा होती है। जिप्सियों की दुर्दशा पर भारतीयता की आत्मा कचोटती है। उन्हें उबारकर ही हम इस आत्मप्रताड़ना से मुक्त हो सकते हैं।