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Magazine - Year 2001 - Version 2

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Language: HINDI
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युगगीता-28 - कर्म में ब्रह्मदर्शन से ब्रह्म की ही प्राप्ति

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(गीता के चतुर्थ अध्याय की युगानुकूल व्याख्या - दसवीं कड़ी)

विगत अंक (नवंबर 2001 की युगगीता) में विस्तार से दिव्यकर्मियों के लक्षण व बंधनमुक्ति प्रकरण पर चर्चा की गई। 18वें श्लोक से 21वें श्लोक तक की गई चर्चा के अनुसार भगवान दिव्यकर्मियों के लक्षण बताते हैं-1. कर्त्तव्य अभिमान से मुक्त होकर ज्ञान में स्थित होकर कर्म करना 2. कामना से मुक्त होकर भगवान के संकल्प बल से युक्त होकर कर्म करना 3. वैयक्तिक संकल्प से परे होकर आध्यात्मिक जीवन जीना 4. पमत्व में स्थित होकर द्वंद्वातीत जीवन जीना।

भगवान अशुभ से मुक्त होने के लिए अर्जुन को कर्मयोग का तत्वदर्शन समझा रहे हैं व बता रहे है कि यह वह कर्म है जिससे वे कर्मबंधन से, अशुभ से उसे मुक्त करना चाहते हैं। ये मानव जाति का उसे महानायक बनाना चाह रहे हैं एवं इसके लिए उसे एक आदर्श लोकसेवी कैसे बनना हैं, यह समझा रहें हैं। बिना माँगे जो मिले उसी में संतुष्ट रह सेवाभाव में पूर्णता प्राप्त कर यदि द्वंद्वों से परे हो जाए तो उसकी मन शक्तियों के नाश बंद हो जाएगा। वह ईर्ष्यामुक्त हो श्रेष्ठ प्रयोजनों में अपनी वृत्तियाँ नियोजित करेगा। वह कभी कर्मबंधनों में नहीं बंधेगा, क्योंकि उसके दिव्यकर्मों से नई वासनाएं नहीं जन्मेंगी। यहाँ तक बाइसवें श्लोक की व्याख्या के बाद इस अंक में तेईसवें श्लोक के द्वारा इस प्रकरण को आगे बढ़ाते हैं।

यज्ञायाचरतः कर्म

चतुर्थ अध्याय का तेइसवाँ श्लोक दिव्यकर्मी की व्याख्या को आगे बढ़ाता है। श्रीकृष्ण कहते हैं-

गतसड्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः। यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते॥

अर्थात् ‘जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गई है, जो देहाभिमान और ममता से मुक्त है तथा जिसका चित्त सदैव परमात्मा के ज्ञान में स्थित है, ऐसे यज्ञ भाव से आचरण करने वाले व्यक्ति के संपूर्ण कर्मों का क्षय हो जाता है।’

यहाँ इस श्लोक में भगवान यह समझाने का प्रयास सूक्ष्म रूप में कर रहे हैं कि कैसे प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक कर्म उस अनंत सत्ता के प्रति समर्पण भावपूर्ण यज्ञ भाव से किया जा सकता है। भगवान ने पहले कहा कि कर्म करते हुए अकर्म तक पहुँचो, कर्म करते हुए साधना की उच्चतम स्थिति तक पहुँचो। ऐसे व्यक्ति के अंतस् में सतत ज्ञानाग्नि जलती रहती है (ज्ञज्ञ्क्नाग्निदग्धकर्माणं 4/19)। ज्ञान किस बात का, इस बात का कि मैं व भगवान एक हैं। वह ज्ञान जिसमें हम भगवत् चेतना के स्फुल्लिंग हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य ब्राह्मी स्थिति में पहुँच जाता है। ईसा जब क्रूस पर चढ़ाए जाते हैं तो यह नहीं कहते कि मेरी रक्षा करो। वे तो कहते हैं, ‘मैं व मेरे पिता एक हैं, इनकी रक्षा करो जिन्हें यह मालूम नहीं है।’ ऐसे में तुलसीदास जी की उक्ति याद आ जाती है, ‘नाते एक राम केमनियत सुहृदय सुसेव्य जहाँ लौं।’ हम राम के हैं राम हमारे हैं। ऐसी स्थिति में सारे काम भगवान के निमित्त होने लगते हैं। ऐसे कार्य प्रारब्ध का निर्माण नहीं करते।

दिव्यकर्मी की यही खूबियाँ हैं। पूर्ण आँतरिक आनंद एवं शाँति उसे ऐसे कर्म से प्राप्त होती है। सामान्य मनुष्य अपने सुख के लिए बाह्य पदार्थों पर निर्भर रहते हैं, इसी से उनकी कामनाएं-वासनाएं होती हैं, इसी कारण उन्हें क्रोध, दुख, शोक, उद्वेग, मानसिक संताप, हर्ष आदि होते हैं। इसीलिए वे सभी वस्तुओं को शुभ-अशुभ के काँटे से तौलते हैं, किन्तु दिव्य आत्मा पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे किसी प्रकार की निर्भरता के बिना सदा तृप्त रहते हैं (नित्यतृप्तो निराश्रयः 4/20)। उनके रोम-रोम में परमात्मसत्ता की ज्योति विद्यमान रहती है। वे बहिरंग सुखों में यदि सुख लेते भी हैं, तो इस कारण नहीं कि उनकी रुचि है या वे उसमें डूबकर पथभ्रष्ट होना चाहते हैं, अपितु इसलिए कि इनमें स्थित आत्मा के लिए, उनके द्वारा भगवान की अभिव्यक्ति के लिए, उनमें स्थित शाश्वत सत्य के लिए यह सुख है। इन पदार्थों के बाह्य स्पर्श में उनकी आसक्ति नहीं होती, बल्कि अपने अंदर मिलने वाला आनंद ही सर्वत्र उन्हें दिखाई-अनुभूत होने लगता है। प्रिय के स्पर्श से उन्हें हर्ष नहीं होता, अप्रिय से शोक नहीं होता। वे सभी पदार्थों में अक्षय आनंद का भोग करते हैं।

आसक्ति व देह भावना से मुक्ति

दिव्यकर्मी की कर्मों के प्रति आसक्ति सर्वथा नष्ट हो जाती है एवं वह देह के अभिमान व ममत्व भाव से मुक्त हो जाता है, यह भगवान यहाँ बता रहे हैं। जब व्यक्ति अपने अंधकारमय जीवन का परित्याग कर देता है, कामोद्वेगों के बंधनों से मुक्त हो जाता है (गतसंगस्य मुक्तस्य 4/23) तो फिर वह ज्ञान में स्थित हो जाता है। ऐसा आध्यात्मिक पुरुष फिर अपने सभी कर्मों का संपादन जगत् के ईश्वर, परमपिता परमात्मा के प्रति भक्तिमय समर्पण भाव द्वारा यज्ञ भावनापूर्वक संपादित करता है। उसके कर्म प्रभु की कृपा और प्रेम के आह्वान के निमित्त ही होते हैं। कर्म ही उसकी पूजा होते हैं।

जब कर्म के प्रति ऐसी दृष्टि होती है तो रैदास की तरह हर कर्म पूजा बन जाता है। भाव की प्रगाढ़ता में किए गए कर्म यज्ञीय कर्म होते हैं। ‘जो मन चंगा तो कठौती में गंगा’ की तरह से अलौकिक शक्तियों का प्रत्यक्षीकरण भी कराते हैं। ऐसे कर्मों को करने से व्यक्ति का दिव्यकर्मी का श्रद्धा से युक्त ज्ञान भी प्रकट होने लगता है। ‘श्रद्धा’ अर्थात् पतझड़ में भी वसंत को देखना। ‘वसंत’ के प्रति आस्था। जो नहीं है उसका अंतर्ज्योति द्वारा दर्शन। अनंतता के प्रति गहन श्रद्धा। अंधकार में भी उजाले का दर्शन। जो हमें हमारे गुरुदेव इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य के रूप में करा गए हैं।

जब इस श्रद्धा और ज्ञान के साथ दिव्यकर्मी अपने कर्म करता है तो परमात्मा के लिए यज्ञीय भाव से कर्म करता है। कर्म कितना छोटा या बड़ा है, यह नहीं देख जाता। भगवान के प्रेम में डूबकर कर्म किए जाते हैं।

आचार्य शंकर का यज्ञ-कर्म

आचार्य शंकर ने यही भाव लेकर कर्म किए। संन्यासी को सामान्यतः कर्मत्यागी कहा जाता है, परन्तु उन दिनों आचार्य शंकर ने संन्यास की अवधारणा इस प्रकार दी की जो लोग अपने दायरे से बाहर नहीं निकल पा रहे थे, उन्हें राष्ट्र के लिए सर्वस्व निछावर करने हेतु अपने प्रभाव से उसने सक्रिय कर दिया। अरबों का राष्ट्र पर आक्रमण था- दुर अवस्था देखी नहीं जा रही थी देश की आचार्य शंकर द्वारा। आचार्य ने कर्म से संन्यास की बात नहीं की। विश्वात्मा के लिए समर्पित कर्म, यज्ञीय भाव से किए गए कर्म की बात उसने कही। अपने संन्यास की व्यवस्था द्वारा उसने लोगों को विलासभोग से मुक्त हो समर्पित भाव से जीने की व्यवस्था बनाई, ‘कर्मणा न्यासः इति कर्म संन्यासः’ की बात कही। परन्तु वह व्यवस्था कालाँतर में समय के साथ घुन लगने के कारण गड़बड़ा गई। उनकी धारणा ‘संगत्यक्त्वा’ एक तरफ रह गई एवं आसक्ति, मठ की संपत्ति आदि ही प्रतीक बनकर रह गए। परमपूज्य गुरुदेव ने ऐसी परिस्थितियों में वानप्रस्थ को, परिव्राजक धर्म को जिंदा किया एवं इसे ‘नवसंन्यास’ नाम दिया, जिसकी महत्ता का गान 100 वर्ष पूर्व स्वामी विवेकानंद ने किया था। यज्ञीय भाव से कर्म ही सच्चा संन्यास है एवं ऐसे व्यक्ति के संपूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं। यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते (4/23) यह बात उन्होंने भी पूरी गरिमा के साथ स्थापित की।

फिर कर्म यज्ञमय कैसे बनें? इसकी व्याख्या ब्रह्मार्पण ब्रह्मकर्म की बात कहकर अगले श्लोक पर हम आते हैं-

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्ग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥

अर्थात् ‘ब्रह्मरूपी अग्नि में ब्रह्मरूपी कर्ता के द्वारा आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म ही है, क्योंकि उसमें अर्पण अर्थात् स्रुवा आदि भी ब्रह्म हैं और हवन किए जाने वाले द्रव्य भी ब्रह्म हैं। इस तरह कर्म में ब्रह्मदर्शन करने से ब्रह्म की ही प्राप्ति होती हैं।’

गीता जी के इस अति प्रसिद्ध श्लोक जिसके द्वारा भारतीय घरों में प्रतिदिन भोजन के पूर्व प्रभु-स्मरण किया जाता है, कितनी गहरी बात भगवान श्रीकृष्ण ने कह दी है। सारे श्लोक का मर्म कितना विलक्षण है। ब्रह्मार्पण का अर्थ है, कुछ उसके अलावा रहे ही नहीं। सब कुछ इस चरम बिन्दु परमात्मा के लिए हो। जो किया जा रहा है, जिस उद्देश्य के लिए है, जिसमें आहुति दी जा रही है, देने वाला भी वही है ब्रह्म का ही अंश है, यह स्थिति दिव्य कर्मी की होनी चाहिए। ऐसी स्थिति में द्वैत का भाव ही नहीं है।

जो कुछ है सो तोर

‘यद् द्वैत तद् भयम’ जहाँ दूसरा आया, वहाँ भय आया। कर्मयोग का ऐसा स्वरूप हो कि जिसमें दूसरा कोई रहे ही नहीं। एक ही स्वर्ण धातु होती हैं, उसी से अंगूठी, उसी से कंगन, उसी से बाजूबंद बनते हैं। तत्वदृष्टि ऐसी विकसित की जाए कि यह सब कुछ ब्रह्म कर्म है। तब ही हमें कर्मयोग की समाधि प्राप्त होती है।

स्वामी विवेकानंद के महाप्रयाण के बाद सबसे बड़ी जिम्मेदारी यह शेष गुरु भाइयों पर आई कि अब आगे कार्य कैसे चलेगा। श्रीमती ओलीबुल के दान से भूमि तो क्रय कर ली गई, मठ का नक्शा भी बन गया। निर्माण को परिपूर्णता के चरम तक पहुँचाना था। पहले जनरल सेक्रेटरी महासचिव रामकृष्ण मिशन के बने शारदानंद जी। उन्होंने ‘रामकृष्ण लीला प्रसंग‘ लिखना आरंभ किया। धीरे-धीरे प्रकाशित होने लगे, लोगों को जानकारी मिली, धनराशि भी आने लगी। दिन भर लिखते। लिखते-लिखते घुटनों में भयंकर दर्द होता, पर उन्हें लगता कि मानों वे समाधि की स्थिति में लिख रहे हों। घुटनों में गठिया हो गया पर वे कभी रुके नहीं। उसी स्थिति में लेखन उनका जारी रहा। वे लिखते हैं, ‘इस समय मैं उन क्षणों में जीने लगता हूँ, जिनमें समाधि लग जाती है।’ कर्म में एकाग्रता-मनोयोग व भक्ति तीनों मिल जाएं तो समाधि का आनंद आने लगता है। चौबीसवें श्लोक का यही भाव है। हम सभी जाते हैं कि स्वामी शारदानंद जी के इस लेखन रूपी यज्ञकर्म ने रामकृष्ण मिशन का आधारभूत ढाँचा खड़ा कर दिया एवं आज रामकृष्ण लीलामृत, वचनामृत, कथामृत के कारण भी हम वह सब कुछ जानते हैं, जो आज से 110-120 वर्ष पूर्व घटा एवं एक नया इतिहास रच गया।

ऐसा ही एक प्रसंग स्वामी विज्ञानानंद जी (श्री हरि प्रसन्न चटर्जी) का भी मिलता है। रामकृष्ण मिशन के इस कर्णधार ने बाल्मीकि रामायण का इंग्लिश भावाँतरण किया है। उस समय की स्थिति लिखते हुए वे कहते हैं कि मुझे ऐसा लगता कि मानो राम-सीता मेरे सामने बैठें हों। भाव में, ईश्वरीय प्रेम में डूबकर कर्म करना सबसे बड़ा कार्य है- यज्ञीय कार्य है। प्रेमपूर्वक किया गया, श्रद्धा में डूबकर किया गया हर कर्म यज्ञ स्वरूप बन जाता है।

तीन प्रकार की समाधियाँ

इस श्लोक में ‘ब्रह्मकर्मसमाधिना’ की चर्चा आई है। समाधि तीन प्रकार की बताई जाती है। योगसमाधि, ज्ञानसमाधि, कर्मसमाधि। योगसमाधि पातंजल योगशास्त्र के अनुसार योग की सर्वोच्च स्थिति का नाम है। ज्ञान की उच्चतम स्थिति में पहुँच जाना ज्ञानसमाधि है। कर्म करते-करते अकर्म को प्राप्त हो जाना, ब्रह्म को प्राप्त हो जाना, ब्राह्मीस्थिति में पहुँच जाना कर्मसमाधि है। सब कुछ परमात्मा को समर्पित कर देना हवि, अग्नि, आहुति, यज्ञ सब कुछ परमात्मामय हो। यज्ञीय भाव से हो, यही कर्मसमाधि है।

यज्ञ का बाह्य अनुष्ठान तो जीवन के अंतरतम में घटने वाले क्षणों का बहिरंग में चित्रण मात्र हैं। ‘जब हमारे भीतर चैतन्यता की अग्नि अपनी देदीप्यमान महिमा में प्रज्वलित हो उठती है, तो हमारी ज्ञानेंद्रियाँ आसपास के साँसारिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर मनरूपी कुँड में उनकी आहुति देती हैं।’ यह व्याख्या स्वामी चिन्मयानंदजी की प्रस्तुति श्लोक के विषय में है। वे कहते हैं, ‘हमारे भीतर स्थित महान आत्मा के प्रति अपने समस्त कार्यों का समर्पण ही यज्ञभाव में संपादित कर्मों का सम्यक् सुनियोजन है।’

सभी कर्मों में ब्रह्म का, जगदीश्वर का, उसके क्रीड़ा-कल्लोल का दर्शन करना एक विलक्षण अनुभूति है। भगवान श्रीकृष्ण इस सुप्रसिद्ध श्लोक के माध्यम से हम सभी से अपेक्षा करते हैं कि हम अपनी सभी भीतर और बाहर की घटनाओं में प्रभु का निरंतर आह्वान करें, उसकी अनुभूति करें तथा अपने सभी दैनंदिन क्रियाकलापों को दिव्यता प्रदान करें। कोई भी क्षण हमारे लिए विश्राम का नहीं है, हर क्षण भक्तिमय है, परमात्मामय है। प्रतिक्षण का यह समर्पण भाव हमारी देवसंस्कृति को बड़ा विलक्षण बनाता है। जब व्यक्ति दिव्य जागरुकता के ऐसे ग्राह्य वातावरण में रहता है, तो उसके सभी कर्म यहाँ तक कि अत्यंत महत्वहीन से दिखाई देने वाले साँसारिक कर्म भी अनजाने में ही अहं के परिपूर्ण समर्पण का रूप ले लेते हैं। ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ सदा ब्रह्म का चिंतन करते रहने से ब्रह्मदर्शन होता है, यह सत्य है। स्वामी अपूर्वानंद जी (रामकृष्ण शिवाश्रम) लिखते हैं, ‘परमहंसदेव भी श्रीकृष्ण की साधना करते समय छह मास तक सर्वत्र कृष्ण का दर्शन करते थे। काली मंदिर में पूजा करते समय सब कुछ चैतन्यमय देखते थे, चिन्मय अर्घा, चिन्मय मंदिर, चिन्मयी देवी।’

ब्रह्म में कर्मों का आधान

कर्मों का यह समर्पण यज्ञ की अधीश्वर सत्ता को है। कर्म का सच्चा संन्यास ब्रह्म में कर्मों का आधान करना ही है। इसी बात को आगे भगवान ने पाँचवें अध्याय के दसवें श्लोक में भी कहा है कि जो पुरुष आसक्ति को त्यागकर ब्रह्म में कर्मों का आधान करके कर्म करता है (ब्रह्मण्याधाय कर्माणि), वह पाप से लिप्त नहीं होता, जैसे कमल के पत्ते पर पानी नहीं ठहरता। चारों ओर दृष्टि दौड़ाने पर हम भगवान के संदेश को समझने का प्रयास करते हैं, तो एक ही बात मुखरित होती है कि बंधनमुक्ति ब्रह्म से युक्त होकर ही मिलेगी, श्रद्धा में, बिना किसी आसक्ति के प्रेम में डूबकर किए गए समर्पण भाव से संपादित कर्मों से ही मिलेगी, क्योंकि इससे हर कर्म यज्ञमय बन जाता है।

परमपूज्य गुरुदेव ने जीवनभर यही किया और यही जीवन जिया। उनकी लेखनी की साधना भी यज्ञकर्म समाधि ही थी। अपना सब कुछ श्रद्धापूर्वक उस परब्रह्म में उड़ेल कर उन्होंने जो साधना की, वह ब्रह्मकर्म था, ब्रह्मकर्म-समाधि थी। उसी ब्रह्म को अर्पित थी। ‘अखण्ड ज्योति’ में वे एक स्थान पर लिखते हैं, ‘मनुष्य जिसे प्यार करता है, उसके उत्कर्ष एवं सुख के लिए बड़े-से-बड़ा त्याग और बलिदान करने को तैयार रहता है। अपने शरीर, मन, अंतःकरण एवं भौतिक साधनों का अधिकाधिक भाग समाज और संस्कृति की सेवा में लगाने से रुका ही नहीं जाता। जितना भी कुछ पास दीखता है, उसे अपने प्रिय आदर्शों के लिए लुटा डालने की ऐसी हूक उठती है कि कोई भी साँसारिक प्रलोभन उसे रोक सकने में समर्थ नहीं होता। दूसरे लोग अपनी छोटी-छोटी सेवाओं और उदारताओं की बार-बार चर्चा करते रहते हैं और उन्हें उसका प्रतिफल नहीं मिला, ऐसी शिकायतें करते रहते हैं। अपने लिए इस तरह सोच सकना संभव नहीं, क्योंकि लोकमंगल, स्वाँत सुखाय आत्मतृप्ति के लिए ही बन पड़ता है। किसी पर अहसान जताने या अपनी विशेषता प्रदर्शित करने के लिए नहीं। लोकसेवा का प्रतिफल जब आत्मसंतोष के रूप में तुरंत मिल गया तो और कुछ चाहने की आवश्यकता ही क्या रहे?’ (‘प्रेम साधना और उसकी परिणति’ मई 1961 अखण्ड ज्योति)।

उपासना से आराधना की ओर

परमपूज्य गुरुदेव ने ब्रह्म को अर्पित कर्म को, उपासना के लिए कर्म को सेवा साधना-लोक आराधना का रूप देकर एक विराट संगठन गायत्री परिवार खड़ा कर दिया एवं उनकी जिनकी उपासना को एक विराट रूप दे दिया।

कहा कि परमार्थ में ही सच्चा स्वार्थ है। हर कार्य जो समष्टिगत ब्रह्म को अर्पित करके किया जाएगा, ब्रह्मार्पणं-ब्रह्मकर्म समाधि की स्थिति में ले जाएगा। एक क्राँतिकारी तेवर अपनाते हुए वे आज की स्थिति को देखते हुए लिखते हैं, ‘गिरता-उठता तो जमाना है, पर इसके लिए वास्तविक पाप-पुण्य का बोझ उस समय की अग्रगामी प्रतिभाओं के सिर पर लदता है। उनका अग्रगमन असंख्यों में प्राण फूँकता है। वे गिरते हैं तो ओलोँ की तरह समूची फसल को सफाचट करके रख देते हैं। जो चुप बैठे रहते हैं वे न तो शाँतिप्रिय कहलाते हैं, न निरपेक्ष, न अनासक्त। आड़े वक्त में मुँह छिपाने के लिए शाँति का, भजन का, ब्रह्मज्ञान का लबादा ओढ़ने वाले अपना मन भले ही समझा लें, आपत्तिकाल की यातनाएं उन्हें कभी क्षमा नहीं करेंगी। दुर्घटना, महामारी, अग्निकाँड, आक्रमण-उत्पीड़न से संत्रस्त हाहाकारी वातावरण में जो एकाँत साधना की बात सोचे, उसे ब्रह्मज्ञानी कौन कहेगा? निष्ठुर पाषाण से कम उन्हें दूसरी उपमा क्या दी जाए, यह सोचने के बाद कदाचित ही कोई दूसरा शब्द मिल सकें।’ (अखण्ड ज्योति, अप्रैल 1982, क्या काफिला बिछुड़ ही जाएगा)।

यदि वास्तव में किसी को चौबीसवें इस श्लोक का मर्म समझना हो तो उसे कर्म में ब्रह्मदर्शन करने वाले योगी के रूप में परमपूज्य गुरुदेव की जीवन गाथा ‘हमारी वसीयत और विरासत’ पढ़नी चाहिए। जिनका सारा जीवन यज्ञमय एवं हर श्वास में जिन्होंने संस्कृति को समर्पित जीवन जिया, लाखों नहीं, करोड़ों व्यक्तियों को समष्टि के लिए किए जाने वाले कर्म में नियोजित कर गए, उनके जीवन-दर्शन में इस श्लोक के स्वर मुखरित होते हैं एवं साक्षात् श्रीकृष्ण उन झलकियों में दृष्टिगोचर होने लगते है। भगवान की शक्ति ही प्रकृति में आकर दिव्य कर्मों का संपादन करती हैं। केवल ऐसे कर्म ही मुक्त पुरुष के कर्म बन जाते हैं, सिद्ध कर्मयोगी के कर्म बन जाते हैं। इन कर्मों को उदय आत्मा से होता है और आत्मा में कोई विकार उत्पन्न किए बिना ही इनका लय हो जाता है। इस श्लोक की सूक्ष्मतम व्याख्या के बाद आगे की विवेचना अगले अंक में।

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