
आधुनिकता का अभिशाप एक महारोग
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‘न जाने क्यों हमें भय लग रहा है?’ इस प्रश्नचिह्न में मानव मन के मर्मज्ञ फोबिया की उपस्थिति का अहसास करते हैं। यह फोबिया दरअसल एक निराधार काल्पनिक भय है। यह एक ऐसा मनोरोग है, जिसे भय व मनःसंताप का मिला-जुला रूप कहा जा सकता है। मनोवैज्ञानिक बिना किसी तर्कसंगत कारण से किसी वस्तु या दशा से उत्पन्न असंगत भाव को फोबिया कहते हैं। उनके अनुसार यह आँतरिक और बाह्य दोनों कारणों से संभव हो सकता है। इसके कई रूप हैं। अक्सर यह मानसिक भय पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में अधिक देखा जाता है। अति संवेदनशील व्यक्ति भी इसकी चपेट में आ जाते हैं। फोबिया से ग्रस्त व्यक्ति अपने को असहाय एवं असमर्थ पाता है। मनोरोग विशेषज्ञों की दृष्टि में विधेयात्मक चिंतन ही इसका एकमात्र निदान हो सकता है।
‘फोबिया’ ग्रीक भाषा का एक शब्द है, जिसका तात्पर्य है-डरना, आशंकित या आतंकित होना। दिल्ली के डा. राममनोहर अस्पताल के वरिष्ठ मनोरोग विशेषज्ञ डा. अरुण कुमार गुप्ता के अनुसार फोबिया एक ऐसी मानसिक बीमारी है, जिसमें व्यक्ति बेवजह भयग्रस्त हो जाता है। वह जिस किसी वस्तु, स्थान या व्यक्ति से डरता है, उससे वह हर स्थिति में दूर रहना चाहता है। इसके मूल में कोई वास्तविक लक्ष्य नहीं होता है। यह व्यक्ति का काल्पनिक जाल द्वारा बुना हुआ भय होता है, जिसमें वह बुरी तरह से उलझ जाता है। ऐसी परिस्थिति में रोगी अपने आपको अनियंत्रित एवं असहाय पाता है। यह भय उसके समूचे जीवन पर गहरा प्रभाव डालता है।
प्रो. कैमरान के मतानुसार फोबिया एक ऐसा प्रयास है जो विस्थापन, आरोपण तथा बचने की प्रक्रियाओं के द्वारा आँतरिक रूप से उत्पन्न तनाव तथा चिंतन को बढ़ाता है। विस्थापन व आरोपण किसी बाह्य परिस्थिति के प्रति एक अतर्किक तथा असंगत भय का रूप धारण करता है और व्यवस्थित रूप से इस परिस्थिति से दूर भागने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। सामान्यतः किसी विशेष वस्तु या घटना से डरना उस वर्ग से संबंधित सभी वस्तुओं के प्रति भय पैदा करता है।
फोबिया के मुख्यतः तीन कारण बताए जाते हैं। ‘साधारण मूर्त फोबिया’, जिसमें व्यक्ति किसी मूर्त उत्तेजना से डरता है। थोड़े समय के बाद मूल उत्तेजना को भूल जाता है, परन्तु उसे तरह की समान उत्तेजना से बराबर भय रहता है। इसका दूसरा स्वरूप प्रतीकात्मक मूर्त फोबिया है, इसमें व्यक्ति कुछ मूर्त वस्तुओं से भय करता है, परन्तु वह उन्हें-ज्यों-का-त्यों नहीं बल्कि प्रतीक के रूप में अपनाता है, जबकि तीसरे ‘प्रतीकात्मक अमूर्त फोबिया’ में व्यक्ति किसी कल्पना या विचार से भयग्रस्त रहता है। इस फोबिया में उत्तेजना बाहर से न होकर व्यक्ति के अंदर होती है। मानव रोग विशेषज्ञ बैग्वी फोबिया के सामान्य लक्षण को कुछ इस तरह बताते हैं। शैशवावस्था में फोबिया किसी आघात पहुँचाने वाली घटना की स्थिति में प्रारंभ होता है। इसके मूल में अरुचिपूर्ण अनुभव एवं किसी तरह निषिद्ध या लज्जाजनक घटनाएं भी संबंधित हो सकती हैं, जिससे रोगी उस विषय में सोचते ही तनावयुक्त हो जाता है। यह अनुभव संरक्षणात्मक विस्मरण अथवा दमन के द्वारा मस्तिष्क से बाहर हो जाता है। फोबिया स्थायी भय भी हो सकता है, क्योंकि भय की मूल परिस्थिति से जुड़ी हुई अपराधी चेतना स्मृति में घटना के चेतन प्रत्यारोपण को रोक देती है। अगर सचेतन मस्तिष्क इस तथ्य को स्पष्ट कर सके तो भय का मूल भाव समाप्त हो सकता है, अन्यथा यह जड़ जमाकर बैठा रहता है।
आधुनिक मनोवैज्ञानिक फोबिया के लक्षण की व्याख्या इस तरह से करते हैं। इसमें पहले लर्निंग थ्योरी है। इसके अनुसार जब किसी व्यक्ति के दिल में किसी वस्तु विशेष अथवा स्थिति के प्रति भय होता है, तो वह फोबिया का शिकार हो जाता है। एक छोटा बालक किसी भी वस्तु से नहीं डरता है। वह बिना किसी भय के आग को पकड़ लेता है, परन्तु वह जब आग से जलन का अनुभव करता है तो फिर उसे छूता नहीं। यह स्थिति अगर गहरा प्रभाव डालती है, तो बच्चा जीवनभर आग से घबड़ाएगा। ऐसे भी कई व्यक्तियों को देखा जाता है, जो किसी स्कूटर या मोटरसाइकिल से दुर्घटना हो जाने के बाद भी उसे नहीं चला पाते। साइको एनालिसिस थ्योरी के अंतर्गत, मन में ऐसे विचार आते हैं, जो व्यक्ति को भयग्रस्त कर देते हैं। ये अशुभ विचार बार-बार उठते हैं और मन इनसे सदा आतंकित रहता है। कालाँतर में व्यक्ति मानसिक अंतर्द्वंद्व का शिकार हो जाता है। यह बुरा विचार व्यक्ति का पीछा नहीं छोड़ता और उसे फोबिया का रोगी बना देता है। एक अन्य थ्योरी के अनुसार एक वस्तु के या घटना के प्रति उत्पन्न भय किसी दूसरी वस्तु के प्रति भय में परिवर्तित हो जाता है। खेल में एक खिलाड़ी हार गया और संयोग से तेरह तारीख थी। वह खिलाड़ी 13 तारीख को अपशकुन मान बैठा। जब भी 13 तारीख आती है उस दिन कुछ भी नहीं करता। यह मानसिक भ्रम है, जो फोबिया का रूप धारण कर लेता है।
फोबिया एक मनोरोग है। यह कई प्रकार का होता है। जब कोई खुले स्थान पर जाने से घबड़ाता है, तो उस स्थिति को एग्रोफोबिया कहते हैं। कई बार इंजेक्शन लगवाने, चोट लगने या आपरेशन करवाने के दौरान होने वाले दर्द का डर सताने लगता है, इसे एल्गोफोबिया कहते हैं। तूफान और तेज हवा से डरने वाले व्यक्ति को एस्ट्राफोबिया का रोगी माना जाता है। ऐसे मनोरोगी स्नान के समय बाथरूम का दरवाजा अथवा खिड़की तक खुली रखते हैं। हीमैटोफोबिया का रोगी खून देखते ही काँपने लगता है। मैसोफोबिया का रोगी हर समय इस बात से आतंकित रहता है कि कहीं उसे कीटाणुओं द्वारा इंफेक्शन न हो जाए। जो अकेलेपन से डरता है वह मोनोफोबिया का रोगी होता है। ऐसे लोग कभी भी अकेले नहीं रह सकते। अंधेरे के भय से पीड़ित व्यक्ति बीमारी से घबड़ाते हैं। इन्हें डॉक्टर दवा या अस्पताल के नाम पर ही पसीना छूटने लगता है। इस तरह हाइड्रोफोबिया पानी से, इंसेक्टोफोबिया का रोगी कीड़े-मकोड़ों से परेशान रहता है। इस तरह के रोगी अक्सर चींटी, काकरोच, मेंढक, छिपकली, चूहे आदि से बेहद डरते हैं।
फोबिया पर सर्वेक्षण करना दुष्कर एवं कठिन कार्य हैं, फिर भी मनोविज्ञानियोँ के एक दल ने अपनी आधुनिकतम सर्वेक्षण रिपोर्ट में स्पष्ट किया है कि समाज में 60 प्रतिशत व्यक्तियों को एग्रोफोबिया अर्थात् सार्वजनिक स्थानों पर भय लगता है। महिलाओं की संख्या पुरुषों से दो गुनी होती है। यह समस्या पारिवारिक स्तर पर भी देखी जा सकती है। इसमें कुछ आनुवंशिक होते हैं। यह प्रायः 18 से 35 वर्ष के आयु वर्ग में देखा जाता है। इस तरह का मनोरोग बच्चों एवं 40 वर्ष के ऊपर के व्यक्तियों में नहीं होता। ऐसा बेबुनियाद डर खरीददारी, अधिक भीड़ में तथा सफर में होता है। इस परिस्थिति में व्यक्ति तनावग्रस्त एवं बच्चों जैसा असामान्य व्यवहार करने लगता है। भीड़ में वह अकेला एवं असहाय महसूस करता है। वह तमाम लोगों की क्रूर निगाहों को अपने में देखने लगता है एवं भयग्रस्त हो उठता है।
दूसरा मुख्य फोबिया है- सोशल फोबिया यानि सामाजिक भय। इसके लक्षण हैं-जनता के बीच न बोल पाना, दूसरों के सामने शर्माना, सार्वजनिक स्थानों पर न खा पाना एवं असहाय महसूस करना आदि। इस तरह का रोगी अत्यधिक चिंता का अनुभव करता है। यह प्रायः 15 से 20 वर्ष की आयु के किशोरों एवं महिलाओं में अधिक होता है। रोगी सार्वजनिक स्थल पर जाने से सदैव बचा रहना चाहता है। उसके अंदर हमेशा यही डर बना रहता है कि वहाँ वह अपने किसी विचित्र व्यवहार के कारण कहीं हंसी का पात्र न बन जाए। मनोवैज्ञानिक इसके पीछे अनियंत्रित यौन वेग एवं क्रोध का जिम्मेदार मानते हैं। व्यवहारशास्त्रियों के अनुसार यह फोबिया अचानक या धीरे-धीरे प्रारंभ होता है और मन-मस्तिष्क को अपने नियंत्रण में कर लेता है। इसके बेहद घबराहट, बेचैनी, हकलाना, मुँह सूखना, पसीना आना, शरीर काँपना, दिल की धड़कन बढ़ जाना आदि असामान्य क्रियाएं होने लगती हैं।
पैनिक डिस आर्डर्स भी सामाजिक भय से संबंधित होते हैं। इस स्थिति में हृदय की धड़कन एकाएक बढ़ जाती है और भयंकर घबराहट होने लगती है। इस दौरान दिल की धड़कन 100 से 150 प्रति मिनट या उससे सभी आगे निकल जाती है। यह असामान्य स्थिति एक से डेढ़ घंटे तक बनी रहती है। एग्रोफोबिया के आधे से अधिक मरीजों को पैनिक डिस आर्डर की शिकायत होती है। मनोविज्ञानियों की मान्यता है कि सामाजिक भय से एग्रोफोबिया अधिक होता है। कुत्ते, साँप, मच्छर, खून आदि से भय केवल तीन फीसदी लोगों में देखा गया है। यह भी महिलाओं में अधिक होता है। ईर्ष्या से भी फोबिया होता है। फोबिया में सिर दर्द, कमर दर्द, तनाव, उदासी, अपच आदि सामान्य लक्षण है। भय से तनाव की बारंबार तीव्रता की इस स्थिति के प्रति कुछ विशिष्ट लाक्षणिकताओं से युक्त प्रतिक्रिया उठने लगती है। अफ्रीका के अधिकाँश भागों के मूल निवासी वास्तविक तथा काल्पनिक दोनों ही प्रकार की भयंकर आशंकाओं से ग्रसित होते हैं। डेवनपोर्ट ने अमेरिका के कुछ क्षेत्रों में साँप के फोबिया या उल्लेख किया है। उस क्षेत्र में साँप के काल्पनिक भय से सभी परेशान रहते हैं।
फोबिया पर अनेकों खोज एवं अनुसंधान जारी हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार डर से संबंधित वस्तु रोगी को काल्पनिक रूप से पूर्व के किसी खौफनाक अनुभव से जोड़ देती है। वैज्ञानिक भय से जुड़े हुए मस्तिष्क के इस विशेष प्रकार के सत्य को PTSD (पोस्ट ट्राँमैटिक स्ट्रेस डिस आर्डर) अर्थात् हादसे के बाद का सदमा कहते हैं। अमेरिका में मुख्यतः वियतनाम युद्ध से लौटे हुए भूतपूर्व सैनिकों में यह बीमारी अधिक संख्या में पाई गई थी। कभी असाध्य एवं कठिन समझे जाने वाले इस रोग का उपचार आज के अत्याधुनिक शोध-अनुसंधान के कारण सरल हो गया है।
वैज्ञानिकों के अनुसार सामान्यतः इंद्रियों से कोई सूचना कार्टेक्स से होते हुए एमीगडाला तक पहुँचती है। कार्टेक्स मस्तिष्क का सचेतन सोच से संबंधित केन्द्र है। इस केन्द्र से पता चलता है कि डर का वास्तविक कारण क्या है। अगर कार्टेक्स सचेतन स्थिति में हो तो फोबिया के मनोरोग से बचाव किया जा सकता है, परन्तु किन्हीं विशेष परिस्थितियों में सूचना सीधे एमीगडाला में पहुँच जाती है और मस्तिष्क को घटना की यथार्थता का ज्ञान नहीं मिल पाता है। सूचना के इस व्यतिक्रम से ही फोबिया का प्रादुर्भाव होता है। आधुनिक अनुसंधानों से स्पष्ट हो गया है कि मस्तिष्क को सूचना संप्रेषण का कार्य ग्लूकामेट नामक रसायन के द्वारा होता है। ग्लूकामेट को नियंत्रित और संतुलित कर लेने पर फोबिया से मुक्ति मिल सकती है। हालाँकि अभी तक किसी दवा के द्वारा इसका उपचार संभव नहीं हो सकता है।
सर्वप्रथम सन 1950 में दक्षिण अफ्रीका के मनोचिकित्सक जोसेफ बोल्प ने इसका उपचार सुझाया। इनके अनुसार फोबिया रोगी को भयग्रस्त वस्तु से सीधे संपर्क कराने पर भय में कमी आती है। सीधे संपर्क से वास्तविकता का बोध होता है और फोबिया से छुटकारा मिलने में सहायता मिलती है। एनसाइक्लोपीडिया ऑफ अमेरिकाना में फोबिया से उपचार की सर्वोत्तम विधि सहानुभूति को बताया है। फोबिया क्लीनिक नई दिल्ली के चिकित्सकगण भी सहानुभूति को फोबिया का मनोवैज्ञानिक उपचार बताते हैं। वे कहते हैं कि रोगी को भय की स्थिति में विधेयात्मक विचारधारा की ओर मोड़ देना चाहिए। आजकल बिहेवियर थेरेपी बिहेवियर मॉडिफिकेशन और फ्लाइंग विधियों से भी इसका उपचार किया जाने लगा है। हालाँकि इसके उपचार का सहज तरीका सहानुभूति एवं सद्चिंतन ही है। इसके द्वारा फोबिया से पूर्णतः मुक्ति पाई जा सकती है, क्योँकि फोबिया के मूल में वैचारिक विकृति ही सन्निहित होती है।
आज का तथाकथित आधुनिक समाज फोबिया जैसे कई अन्य मनोरोगों के शिकंजे में कस चुका है। अतः इसके निदान का एकमात्र विकल्प है- सद्चिंतन एवं सद्भाव। इसके अलावा शेष समस्त उपचार विधियाँ पेड़ की जड़ के स्थान पर पत्तों को सींचने एवं सद्चिंतन द्वारा तमाम मनोविकारों एवं मनोरोगों से बचाव करना चाहिए। यही स्थायी एवं समग्र समाधान है।