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Magazine - Year 2001 - Version 2

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Language: HINDI
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मानवी प्रेम से दिव्य प्रेम की ओर लौटें

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First 10 12 Last
प्रेम विश्वव्यापी और सनातन है। वह स्वयं को सदा अभिव्यक्त करता रहता है। और अपने सार रूप में समरूप रहता है। यह भगवत् शक्ति है। प्रेम की गति मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है यह सर्वत्र है। अपनी विशुद्ध गति में वह परमात्मा के साथ एक होने के लिए आत्मा की खोज है। यह एक ऐसी खोज है जो अन्य समस्त वस्तुओं से निरपेक्ष और निर्लिप्त रहती है। भागवत प्रेम स्वयं को समर्पित करता है, इसमें माँग नहीं है। प्रेम के द्वारा सृष्टि भगवान् की ओर उठती है और प्रत्युत्तर में भागवत् कृपा सृष्टि से मिलने के लिए नीचे की ओर झुकती है।

प्रेम उदासीन नहीं हो सकता, क्योंकि उदासीन प्रेम जैसा कोई भाव अस्तित्व ही नहीं रखता। वह एक बड़ी ही पवित्र, निश्चित एवं स्थिर वस्तु है। वह न तो अग्नि की तरह भभक उठता है और न ईंधन समाप्त होने पर बुझ जाता है। वह सूर्य के प्रकाश के समान स्थिर, सर्वग्राही तथा स्वयं सत् होता है।

प्रेम एक परम शक्ति है। शाश्वत चेतना ने इसे जगत् के उद्धार के लिए भेजा है। जब जगत् और मनुष्य अज्ञान व अंधकार में भटक गये थे, तभी प्रेम ने उन्हें जगाया एवं झकझोरा। उनके बंद कान में दिव्य संदेश फूँका- ‘एक वस्तु है जो इस योग्य है कि उसके लिए जागा जाये और उसके लिए जिया जाये और वह है प्रेम।’ जगत् में भगवान् के प्रेम की अभिव्यक्ति को मानव जीवन का उद्देश्य कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है। भागवत् प्रेम स्वयं सत् है और बाह्य संपर्क या बाह्य अभिव्यक्ति पर निर्भर नहीं करता। यह आध्यात्मिक सत्य पर निर्भर करता है। भागवत प्रेम कोई वायवीय, शीतल और दूरस्थ वस्तु नहीं है। बल्कि एक ऐसा प्रेम है, जो पूर्णतः तीव्र, घनिष्ठ, एकत्व, समीपता व आनंदोल्लास से परिपूर्ण है। यह अपनी अभिव्यक्ति के लिए समस्त प्रकृति का उपभोग करता है।

भगवान् के प्रति सच्चा प्रेम है आत्मदान- माँग से मुक्त, नमन और समर्पण से युक्त। यह प्रेम कोई दावा नहीं करता, कोई शर्त नहीं रखता, कोई मोल-तोल नहीं करता। यह ईर्ष्या, अभिमान या क्रोध के अधिकार में नहीं होता है। इसमें कृत्रिमता नहीं होती। उसके बदले में भगवान् भी स्वयं को न्यौछावर कर देता है। उनका प्रेम प्रेमी को परिव्याप्त कर लेता है और भगवान् की ओर उन्मुख करता है। यही प्रेम है जिसे अपने समाज भागों में अनुभव करने और प्राप्त करने की सतत् अभीप्सा करनी चाहिए। यह प्रेम अनन्त व सीमाहीन है। समय और परिपूर्णता में भी इसकी कुछ सीमा नहीं है। अतः भागवत प्रेम गम्भीर, विशाल और प्रशान्त होता है।

भगवान् का प्रेम वह है जो ऊपर से आता है और भागवत् एकत्व तथा उसके आनन्द से मानव-सत्ता के ऊपर बरसता है। चैत्य प्रेम भागवत प्रेम का एक रूप है। जिसे वह मानव चेतना की आवश्यकता और संभावनाओं के अनुसार मनुष्य सत्ता के अन्दर ग्रहण करता है। वह सत्ता को एक आन्तरिक सघन समीपता का अनुभव प्रदान करता है। भागवत प्रेम एकत्व पर आधारित होता है और चैत्य प्रेम भागवत प्रेम से निःसृत होता है। चैत्य पुरुष भगवान् के साथ तादात्म्य हो जाय तो वह पृथक् नहीं हो सकता। पृथक्करण का अर्थ है एकत्व का अभाव। चैत्य अनुभूति है अनेकता में एकता की। यह समुद्र में पानी की एक बूँद की तरह लय हो जाने की अनुभूति नहीं है। क्योंकि ऐसी स्थिति में किसी प्रेम का होना सम्भव नहीं होगा जब तक कि वह प्रेम स्वयं अपने लिये ही न हो।

भागवत प्रेम मानवीय भावों का कोई उदात्तीकरण नहीं है, वह एक भिन्न गुण है। क्रिया और सारतत्त्व से युक्त एक निम्न प्रकार की चेतना है। भागवत प्रेम संभवतः भौतिक स्तर पर मानव जाति जैसा है। क्योंकि वह अभी उतनी पूर्णता और स्वच्छन्दता के साथ अभिव्यक्त नहीं हो सकता, जितना की वह अन्य स्थिति में अभिव्यक्त होगा। परन्तु इस कारण भागवत् प्रेम मानवीय प्रेम से कम घनिष्ठ या तीव्र नहीं हो जाता। भागवत प्रेम भागवत सत्य और शक्ति की उपस्थिति में अवतरित होता है और वह इसी संकल्प के अनुसार व्यक्तियों पर क्रिया करता है। परिणामतः वह उस व्यक्तिगत प्रेम की अपेक्षा कहीं अधिक विशाल, विशुद्ध एवं महान् वैयक्तिक प्रेम को उत्पन्न करता है, जिसकी कल्पना कोई मानवीय मन या हृदय कर सकता है। जिसे इस अवतरण का अनुभव हो, वही भागवत प्रेम के जन्म और कर्म का यंत्र बन सकता है।

उच्चतम अथवा गहनतम प्रेम में चैत्य तत्त्व होता है। जो हृदय की गहराई से एवं अन्तरात्मा से उत्पन्न होता है। यह एक प्रकार का आन्तरिक मिलन अथवा आत्मार्पण होता है। यह इसकी खोज में निरत रहता है। यह एक सम्बन्ध या उत्प्रेरणा होता है जो अन्य अवस्थाओं या तत्त्वों से स्वतंत्र होता है। यह स्वयं सत् होता है और किसी मानसिक, प्राणिक, शारीरिक सुख संतुष्टि, स्वार्थ, अभ्यास के लिए नहीं होता। परन्तु मानवीय प्रेम में विद्यमान यह चैत्य तत्त्व दूसरे तत्त्वों के साथ इतना मिश्रित दबा एवं छुपा हुआ होता है कि इसे अपनी स्वाभाविक पवित्रता व पूर्णता प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलता। शुरुआत में जब प्रेम भगवान् की ओर मुड़ता है तब भी उसमें यह सामान्य मानवी तत्त्व विद्यमान रहता है। व्यक्ति बदले में कुछ चाहता है और यदि वह वस्तु मिलती प्रतीत नहीं होती तो प्रेम क्षीण होने लगता है। इसमें स्वार्थ भी होता है एवं मानव की अभिलाषाओं को पूरा करने वाले भगवान् की चाह भी होती है। यदि ये माँगे पूरी नहीं होती हैं तो भगवान् के प्रति मान एवं अभिमान पैदा होता है। फिर विश्वास खो जाता है और उत्कण्ठा नष्ट हो जाती है। परन्तु भगवान् के प्रति सच्चा प्रेम अपने स्वभाव में ऐसा नहीं होता बल्कि चैत्य एवं आध्यात्मिक होता है। चैत्य तत्त्व व्यक्ति की अन्तरतम सत्ता के आत्मार्पण, प्रेम, भक्ति, अन्तर्मिलन के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता है। यह भगवान् द्वारा ही पूर्णतः सन्तुष्ट हो सकती है।

चैत्य प्रेम विशुद्ध तथा अहंपूर्ण माँगों से, शून्य आत्मदान के भाव से पूर्ण होता है। परन्तु यह मानवीय है और भूल कर सकता है एवं कष्ट भोग सकता है। भागवत प्रेम उससे कहीं अधिक विशाल और गम्भीर वस्तु है तथा ज्योति और आनन्द से ओतप्रोत रहता है।

अन्तरात्मा का प्रेम सत्य, सरल और पूर्ण वस्तु है। शेष चीजें केवल तभी अच्छी होती हैं, जब वे अन्तरात्मा के प्रेम को प्रकट करने का माध्यम होती हैं। अन्तरात्मा का प्रेम अन्दर से चैत्य पुरुष से आता है। जो ऊपर से आता है वह उच्चतर चेतना का आनन्द होता है। एक मात्र वस्तु जो स्थायी है वह है अन्तरात्मा व आत्मा। अतएव प्रेम केवल तभी स्थायी हो सकता है एवं संतोष दे सकता है जब वह इन पर आधारित हो, यदि उसका मूल वहाँ हो। विश्व प्रेम आध्यात्मिक होता है। वह सर्वत्र विद्यमान भगवान् के बोध पर स्थापित होता है। वह चेतना की आसक्ति तथा अज्ञान से मुक्त होकर एक विशाल विश्वगत चेतना में परिवर्तित हो जाता है। वैश्व प्रेम सर्वदा वैश्व होता है। चैत्य प्रेम व्यक्ति भावापन्न हो सकता है।

विश्व प्रेम सबके साथ एकात्म होने की अनुभूति पर निर्भर करता है। इस अनुभूति के बिना भी सबके लिए चैत्य प्रेम या सहानुभूति हो सकती है। वैश्व प्रेम का आधार है मनुष्य को शान्ति, पवित्रता, अहं से मुक्ति, विशालता और वैश्व चेतना की ज्योति। जब तक सभी प्रकार के दोषों, सीमाओं तथा सामान्य मानवीय प्रेम के कलुषता से मुक्त नहीं हो जाते हैं, तब तक इस प्रेम को पाना कठिन है। जितना अधिक मनुष्य विश्व भावापन्न होता जाता है उतना ही वह इन चीजों से मुक्ति पाता जाता है।

भावावेगों एवं उमंगों की तृप्ति के लिए अहंकार युक्त माँग ही माया है। यह सच्चा प्रेम नहीं है। सच्चा प्रेम मिलन और आत्मदान की तीव्र अपेक्षा रखता है। यही प्रेम भगवान् के प्रति निवेदित हो सकता है। इच्छाओं व वासनाओं से भरा प्रेम केवल दुख और निराशा का कारण ही बनता है। यह सुख का वाहक नहीं हो सकता और कभी संतुष्ट नहीं होता। ऐसा प्रेम स्थायी नहीं होता। इसमें चिर असन्तोष व्याप्त रहता है। यह तो एक वासना है जिसे प्रकृति ने एक क्षणिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए मनुष्य में संजोया है। इस प्रेम का आकर्षण अत्यन्त प्रबल होता है।

प्रेम में तो हर्ष, मिलन, विश्वास, आत्मदान और आनन्द का प्रस्फुटन होना चाहिए। परन्तु निम्नस्तरीय प्राणमय प्रेम केवल कष्ट, विपत्ति, निराशा, एवं वियोग का ही कारण होता है। इस प्रेम का एक अंश भी शान्ति के आधारों को हिला देता है। और आनन्द की ओर ले जाने के बदले मनुष्य को शोक, असन्तोष और निरानन्द में गिरा देता है। प्राण में भी दो प्रकार के प्रेम होते हैं। एक तो आनन्द और विश्वास और त्याग से पूर्ण, उदार, स्वार्थहीन तथा आत्मार्पण में अत्यन्त पूर्ण होता है। यह चैत्य प्रेम से बहुत मिलता-जुलता है। यह उसका पूरक बनने तथा दिव्य प्रेम को अभिव्यक्त करने का साधन बनने के लिए उपयुक्त होता है। चैत्य प्रेम अथवा दिव्य प्रेम कोई भी अपनी अभिव्यक्ति में भौतिक साधनों की अपेक्षा नहीं करते। परन्तु इन साधनों को पवित्र एवं शुद्ध होना चाहिए। भौतिक साधनों का उपयोग दिव्य प्रेम की प्राप्ति एवं आराधना के लिए किया जा सकता है और किया जाता भी है। ये भगवान् प्राप्ति के माध्यम हैं। ये साधन केवल तभी अनुपयुक्त सिद्ध होते हैं, जब इनका दुरुपयोग किया जाता है।

प्राणमय प्रेम का एक दूसरा भी प्रकार है। यह मानव प्रकृति का अधिक सामान्य तरीका है। यह अस्मिता और कामना का रूप है। यह लालसाओं, इच्छाओं और माँगों से पूर्ण होता है। इसकी प्रगति इसकी माँगों की पूर्ति पर निर्भर करती है। यह प्रेम सभी प्रकार की कल्पनाओं, मिथ्या धारणाओं, ईर्ष्या, द्वेषों और भ्रम से भरा होता है। यह तत्काल दुखी, मर्माहत एवं क्रुद्ध हो उठता है तथा अन्त में अवरुद्ध होकर समाप्त हो जाता है। यह दिव्य प्रेम का आधार नहीं बनाया जा सकता। जब प्राण प्रेम की शक्ति की क्रिया को अपने नियंत्रण में ले लेता है जिसके यथार्थ या दिव्य स्वरूप के विषय में वह अचेतन होता है। इसमें कई और चीजों के मिल जाने से विकृत हो जाता है।

अपनी गहराई में प्रेम स्वयं अपने अंदर विद्यमान भागवत संभावना या सद्वस्तु के साथ संपर्क है। इस गुण को स्थापित करने एवं बनाये रखने की अक्षमता ही मानव प्रेम को स्थायी एवं अपूर्व बना देती है। मनुष्य जब भगवत् प्रेम में होता है तो आनन्द व विकास की समस्त संभावनाओं बनती हैं। परन्तु जैसे ही व्यक्ति इससे दूर हटता है, तो उसका पतन प्रारम्भ हो जाता है अन्ततः एक क्षीण, एक कम उल्लासपूर्ण क्रिया में डूब जाने का दण्ड मिलता है।

प्रेम अपने आप में पर्याप्त है। इसे अंधे की लाठी की आवश्यकता नहीं होती। इस संदर्भ में वह श्रद्धा तथा अन्य दिव्य शक्ति जैसा है। कोई व्यक्ति अपने स्वभाव में दिव्य बन जाने पर ही दिव्य भाव के साथ प्रेम कर सकता है। इसके अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं है। यदि प्रेम अखण्ड और पूर्ण हो तथा उसके साथ इच्छा व आकाँक्षा न जुड़ी हुई हो तो भी वह दिव्य प्रेम की ओर उन्मुख हो सकता है।

वस्तुतः मानवीय प्रेम में प्राणिक और भौतिक तत्त्व मिश्रित होते हैं। इसे कुछ मानसिक समर्थन भी प्राप्त होता है। यह एक स्वार्थहीन, उच्च व शुद्ध रूप और अभिव्यक्ति को तभी प्राप्त हो सकता है, जब कि इसे चैत्य का सजल स्पर्श प्राप्त हो। अधिकाँशतः यह अज्ञान, आसक्ति, आवेग और कामना का एक मिश्रण होता है। फिर भी यदि मनुष्य भगवान् के पास पहुँचना चाहता है तो उसे कभी मानव प्रेमों और आसक्तियों का बोझ अपने ऊपर नहीं लेना चाहिए। क्योंकि ये इस पथ के लिए कठिनाइयाँ, बेड़ियाँ तैयार कर देते हैं और विकासमान पग को रोकते हैं। उसे एकमात्र चरम विषय के ऊपर अपने हृदयावेगों को एकाग्र करने के बदले अन्य दिशा में मोड़ देते हैं।

भगवान् के लिए मनुष्य के प्रेम में प्राण भी सहयोग दे तो वह उस प्रेम में साहस, उत्साह, तीव्रता, पूर्णता, एकान्तिकता, आत्मत्याग का भाव, समस्त प्रकृति का सम्पूर्ण और आवेगपूर्ण आत्मदान ले आता है। सच पूछा जाय तो भगवान् के प्रति प्राणिक आवेग ही आध्यात्मिक वीरों, विजेताओं व हुतात्माओं को उत्पन्न करता है। अन्तरात्मा को भगवान् की ओर मोड़ने वाले प्रेम को अनिवार्य रूप से दिव्य होना चाहिए। चूँकि मानव प्रकृति से ही इसकी अभिव्यक्ति उठती है। अतः यह प्रारम्भ में मानवी प्रेम तथा भक्ति का रूप ग्रहण कर लेता है। जैसे-जैसे चेतना गहन बनती, महत्तर होती और परिवर्तित होती है, उसमें वह शाश्वत प्रेम विकसित होता और स्पष्ट रूप से मानवी प्रेम को दिव्य प्रेम बना देता है। इस दिव्य प्रेम को विकसित करना ही सच्चे अर्थों में आध्यात्मिक साधना एवं भगवान् की उपासना है।

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