
मानव चेतना और उसकी जटिल गुत्थियां
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मानव चेतना के गहन अध्ययन की जितनी आवश्यकता आज है, उतनी शायद पहले कभी नहीं रही। क्योंकि आज के मनुष्य की समस्या का मुख्य कारण किसी भौतिक पदार्थ या परिस्थिति में होने के बजाय उसकी अपनी चेतना में है। तभी तो प्रज्ञावान मनीषियों ने मानवता के वर्तमान संकट को ‘मानव चेतना का संकट’ कहा है। एक आकलन के अनुसार 70 से 80 प्रतिशत बीमारियाँ मानव की आन्तरिक चेतना के विघटन से उपजती और पनपती हैं। एक शोध अध्ययन के मुताबिक इन दिनों 12 में से 5 व्यक्तियों को उपचार के तौर पर मनोवैज्ञानिक परामर्श की जरूरत पड़ती है।
इस तरह के अध्ययन-अनुसंधान की प्रक्रिया से जो तथ्य एवं आँकड़े प्रकाश में आए हैं, उनसे विज्ञजनों की हैरानी बढ़ी है। पिछले दशक से पहले जिन मनोरोगों की चर्चा मात्र किन्हीं लेखों, शोध पत्रों एवं संगोष्ठियों में होती थी, आज उनमें से प्रायः सभी जन सामान्य में व्याप्त हो गए हैं। प्रौढ़ों एवं युवाओं की ही नहीं किशोरों और नन्हें-मुन्ने बालकों की संख्या भी इस चक्रव्यूह में फँसती जा रही है। हर देश का हर वर्ग इस व्यथा से हैरान-परेशान है।
चाहे कहीं लोकतंत्र हो या पूँजीवाद, समाजवाद हो या साम्यवाद, सामूहिक विघटन और विश्व तनाव का मूल कारण मानव चेतना का विघटन और विखण्डन है। मानव ही परिवार, समाज और राष्ट्र की मूल इकाई है। यदि उसकी अन्तर्चेतना में दरारें होंगी, तो उसका बाहरी जीवन बिखरेगा ही। इस संदर्भ में मानव चेतना की सुविख्यात मर्मज्ञ इरा प्रोग्राफ ने अपने शोध निष्कर्ष को प्रस्तुत करते हुए कहा है कि आधुनिक मानव व्यक्तित्व में एक मौलिक चेतनात्मक रूपांतरण ही हमारी सभ्यता के सम्भावित ऐतिहासिक विध्वंस को रोक सकता है।
ऐसा नहीं है कि मानव मनीषा इस ओर से अपनी आंखें मूँदे है। उनके प्रयास जारी हैं, भले ही वे कारगर साबित नहीं हो रहे। इन कोशिशों में जो विश्लेषण किया गया है, उसके अनुसार वैज्ञानिक क्रान्ति से पूर्व जो वैचारिक ढाँचा, मूल्य एवं दार्शनिक परम्पराएँ थी और जो वैज्ञानिक क्रान्ति के बाद बनी, उनमें भारी संघर्ष आज की दशा का कारण है। इस संघर्ष में मानव चेतना लगातार दरकती-टूटती-बिखरती जा रही है। पहले सामाजिक नेतृत्व- दार्शनिक-आध्यात्मिक नेतृत्व के हाथों में था, लेकिन अब यह वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों के हाथों में चला गया है। श्रद्धा और तर्क के इस संघर्ष ने, भाव और बुद्धि के इस तुमुलद्वन्द्व ने मानव चेतना की स्थिति को बहुत ही जटिल बना दिया है। अर्टुर आइजेनवर्ग ने इस स्थिति से उपजी मनोवैज्ञानिक असुरक्षा को मनोरोगों का कारण माना है।
समस्या इतनी जटिल होती जा रही है कि वह आज के वैज्ञानिक मस्तिष्क के बाहर की चीज हो गयी है। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डेनियम सी. डरनेट के शब्दों में- ‘मेरी चेतना की व्याख्या पूर्णता से बहुत दूर है।’ विज्ञानवेत्ता ए.जी. केरन्स का मानना है कि चेतना एक रहस्य बनी हुई है। आज की अणु जैविकी भी इसे समझने में असमर्थ हैं। विज्ञानवेत्ताओं की मानव चेतना के बारे में अनभिज्ञता ने अब तक लगभग निराशा का रूप ले लिया है। निराशा के इस कुहासे से घिरे अब्राहम मैस्लो के शब्द हैं- ‘मेरे विचार से यह असम्भव है कि एक समग्र, नए एवं व्यापक चेतना विज्ञान के तंत्र को विकसित किया जाय।’
इस वैज्ञानिक चेतना के अधूरेपन से उपजी परिस्थितियों का विश्लेषण पॉल टिलिच ने कुछ यूँ किया है- ‘आधुनिक मनुष्य जीवन का अर्थ खो चुका है। इस खोएपन की शून्यता को प्रायः उथली विज्ञान पूजा से भरा जाता है। जिसके कारण वह अपने नैतिक जीवन में यहाँ तक कि भावनात्मक समस्याओं के लिए वैज्ञानिक समाधान खोजता है। इस खोजबीन में उसे तनाव, कुण्ठा व असुरक्षा ही हाथ लगती है। और वह दुश्चिन्ता की ग्रन्थि से बंध जाता है। आज यही युग की पहचान बनी हुई है।’
समस्या के समाधान के लिए कोशिश कर रहे वैज्ञानिक समुदाय को भी यह बात समझ में आ गयी है कि कहीं उनसे कुछ भूल हो रही है। उनके मुताबिक यह भूल है- मानव चेतना की एकाँगी समझ। डॉ. जेकिल एवं हाइड के अनुसार मानव चेतना के दो केन्द्र हैं। एक छद्म ‘स्व’ यानि की अहं, दूसरा सच्चा केन्द्र यानि की वास्तविक स्व अर्थात् ‘आत्मा’। आधुनिक शोध विज्ञानी इसी सच्चे ‘स्व’ को भूल गए हैं। इस भूल के कारण ही मानव चेतना के विभिन्न स्तरों में सामञ्जस्य की स्थिति नहीं बन पा रही है। एल्फ्रेड एडलर ने इस बात को बहुत नजदीक से समझा। अपनी समझ को उन्होंने ‘डेफ्थ साइकोलॉजी’ में ‘जेमन शाफ्टस सगेफुहेल’ नाम दिया। इस जर्मन शब्द में समायी धारणा का मतलब है- सामाजिक स्वार्थ एवं ब्रह्मांडीय भावना में समन्वय।
मानव चेतना की समग्रता को खोजने के लिए इन दिनों पश्चिमी मनोवैज्ञानिक भारतीय ज्ञान-विज्ञान एवं योग पद्धतियों की ओर काफी आकर्षित हुए हैं। कार्ल गुस्ताव युँग ने इस संदर्भ में ‘मॉर्डन मैन इन सर्च आफ ए सोल’ नाम के ग्रन्थ की रचना भी की। इसी तरह जीन हार्डी ‘साइकोलॉजी विथ ए सोल’ को लिखने के लिए प्रेरित हुई। बुद्धि के साथ भावनाओं की उपयोगिता को स्वीकार करने एवं उसे योग्यता का सर्वमान्य मानने का निर्णय डेनियल गोलमैन की रचना ‘इमोशनल इन्टेलीजेन्स’ में व्यक्त हुआ है। इस खोज बीन में जुटे पश्चिमी मनोचिकित्सकों ने भी माना कि ‘पश्चिमी दार्शनिक मूलतः प्राकृतिक दार्शनिक हैं, चीनी दार्शनिक सामाजिक दार्शनिक हैं, लेकिन भारतीय दार्शनिक मानव चेतना के दार्शनिक हैं। इस अन्वेषण में उन्होंने उपनिषदों को मानव चेतना के आधार के रूप में स्वीकारा। हालाँकि ये प्रयास अधूरे हैं, क्योंकि अपने अनुसंधान में उन्होंने यह पाया कि भारतीय दर्शन में मानव चेतना के ये सूत्र बहुत ज्यादा बिखरे हुए हैं।’
मानव चेतना के समग्र अनुसंधान के ये प्रयत्न अधूरे इसलिए बने रहे, क्योंकि भारतीय दर्शन को वैज्ञानिक संदर्भ में सही ढंग से समझा नहीं जा सका। हालाँकि इस उद्देश्य से कतिपय भारतीयों ने भी उल्लेखनीय कार्य किया है। डॉ. जदुनाथ सिन्हा द्वारा रचित ‘इण्डियन साइकोलॉजी’ के तीन खण्ड इस पथ के प्रकाश स्तम्भ हैं। इसी तरह से स्वामी अखिलानन्द की ‘हिन्दू साइकोलॉजी’ एवं ‘मेण्टल हेल्थ एण्ड हिन्दू साइकोलॉजी’ भी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। इन प्रयासों का मूल्य एवं महत्त्व इसलिए है, क्योंकि इनमें भारतीय दर्शन में यत्र-तत्र बिखरे मानव चेतना के सूत्रों को समेटने-बटोरने का सराहनीय कार्य किया है। लेकिन इनमें दार्शनिकता एवं वैज्ञानिकता की समन्वित समग्रता की सोच का अभाव है। जिसके बिना समग्र मानव चेतना का अनुसन्धान असम्भव है।
अध्यात्मवाद के अंतर्गत मानव चेतना की जटिल गुत्थियों को सुलझाने का सार्थक प्रयास किया जा रहा है। जिसके सुपरिणाम दार्शनिक एवं वैज्ञानिक जगत् के यक्ष प्रश्नों का सार्थक समाधान प्रस्तुत कर सकेंगे। और मानव चेतना अपना खोया सौंदर्य पुनः पा सकेगी।