
पूर्ण मनुष्य को जन्म देगा वैज्ञानिक अध्यात्मवाद
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समस्याएँ मानव की हों, तो समाधान भी उसी की चेतना में मिलेंगे। यही दार्शनिक सत्य वैदिक चिन्तन यात्रा में पग-पग पर प्रकट हुआ है। वैदिक ऋषियों ने अपनी तपःपूत शोध साधना में मानव की समस्याओं पर गहराई से विचार किया है। और समाधान के लिए वे मानव चेतना के गहनतम प्रदेशों में प्रविष्ट हुए। अपने शोध निष्कर्षों में उन्होंने बताया- ‘एक ध्रुव सत्य है, जो कि सत्य से छिपा हुआ है। जहाँ सूर्य अपने अश्वों को विमुक्त करता है। वह जो एक तम है, उसकी दशशत (सहस्र) किरणें एक साथ एकत्रित हुई। मैंने देवों के अत्यन्त ज्योतिर्मय रूपों को देखा।’ (ऋग्वेद- 5/62/1)
यही नहीं ‘उन्होंने परमदेव की आत्मशक्ति को अपने ही सचेतन सक्रिय गुणों के द्वारा गहराई से छिपी हुई देखा।’ (श्वेताश्वेतर-1/3) और मानव चेतना के सम्बन्ध में कहा कि ‘मरणधर्मा प्राणी ने इस (चेतना) शक्ति का अविर्ज्ञान किया, यह शक्ति अपनी अनन्त कामनाओं को अपने भीतर रखती है, जिससे कि वह समस्त पदार्थों को धारण कर सके। वह समस्त अन्नों का आस्वादन लेती है और जीव के लिए घर बनाती है।’ (ऋग्वेद-5/7/6) मानव अस्तित्व में इस चेतना के सात मुख्य केन्द्र हैं, इस सत्य को स्पष्ट करते हुए ऋग्वेद के ऋषि का कथन है- ‘मन के द्वारा न जान सकने के कारण मैं देवताओं के सात पदों को, जो हमारे भीतर निहित हैं, जानने की इच्छा करता हूँ। सर्वज्ञ देवों ने एक वर्ष के शिशु को ग्रहण किया है। और उन्होंने यह वस्त्र बनाने के लिए उसके चारों ओर सात सूत्रों को बुना है।’
वैदिक ऋषियों ने जहाँ मानव चेतना की विशिष्टताओं को जाना, उसकी सम्भावनाओं को परखा, वहीं उन्होंने यह भी बताया कि मानव चेतना का विस्तार असीम है। बल्कि चेतना का यह सत्य ही सब कुछ है। ऋषि के शब्दों में वह सत्य और अनृत दोनों हुआ। वह सत्य हुआ और जो कुछ भी वह है वह सब भी हुआ। वैदिक ऋषियों के ये निष्कर्ष ही भारतीय दर्शन की विविध परम्पराओं में बहुविध रूप से मुखरित हुए। महर्षि दयानन्द ने इन्हें अपनी तप साधना से पुनः नव प्राण दिए। सत्य यही है कि मानव चेतना सम्बन्धी वैदिक निष्कर्षों को इस युग में प्रचारित करने का जितना श्रेय महर्षि दयानन्द को है, उतना और किसी को नहीं।
परन्तु आधुनिक युग में विज्ञान भी एक युग सत्य बनकर सामने आ खड़ा हुआ है। विज्ञान के आविर्भाव ने अपने नित नूतन आविष्कारों से मानव अस्तित्व को इस कदर घेर दिया है, कि मनुष्य को अपनी चेतना ही विस्मृत हो गयी है। आज मानव अपने हर समाधान के लिए विज्ञान पर निर्भर है। और विज्ञान की स्थिति यह है कि वह जितने समाधान जुटाता है, उससे कहीं अधिक समस्याओं को जन्म देता है। क्योंकि अतिभौतिक प्रकृति के नियम और सम्भावनाओं को जाने बिना न तो भौतिक प्रकृति के नियम और न सम्भावनाएँ ही जानी जाती हैं।
इसी वजह से न तो उसकी सत्य की शोध पूर्ण हो सकी और न वैज्ञानिक उपलब्धियाँ अपनी उपादेयता भली प्रकार सिद्ध कर सकीं। उल्टे विज्ञान के प्रयासों और उपलब्धियों का जो स्वरूप निखर कर आया उसे देखकर बर्ट्रेण्ड रसेल को कहना पड़ा- ‘हम एक ऐसे जीवन प्रवाह के बीच है, जिसका साधन है मानवीय दक्षता और साध्य है मानवीय मूर्खता। अगर मूर्खता लक्ष्य हो, तो उसकी सिद्धि के लिए कुशलता वृद्धि की दिशा में उठाया गया प्रत्येक कदम बुराई की ओर ले जाता है। मानव जाति अब तक जीवित रह सकी है, तो अपने अज्ञान व अक्षमता के कारण ही, परन्तु अगर ज्ञान व क्षमता मूढ़ता के साथ युक्त हो जाए तो उसके बच रहने की कोई सम्भावना नहीं है। ज्ञान शक्ति है, पर यह शक्ति जितनी अच्छाई के लिए है। उतनी ही बुराई के लिए भी है। निष्कर्ष यह है कि जब तक मनुष्य में ज्ञान के साथ-साथ विवेक का भी विकास नहीं होता, ज्ञान की वृद्धि दुःख की वृद्धि ही साबित होगी।’
पुरातन वैदिक ऋषियों की चिन्तन परम्परा और वैज्ञानिक उपलब्धियों के बीच मचे तुमुलद्वन्द्व के समाधान के युग ऋषि आचार्य श्रीराम शर्मा ने महर्षि दयानन्द की परम्परा को और भी आगे बढ़ाया। उन्होंने महर्षि दयानन्द की पाखण्ड खण्डिनी पताका को और भी अधिक ऊँचाई दी। धार्मिक रूढ़ियों, पाखण्डों, मूढ़-मान्यताओं पर कड़े प्रहार करते हुए वैदिक ऋषियों के स्वर को फिर से मुखरित किया।
दार्शनिक चिन्तन के इतिहास में आचार्य श्री का व्यक्तित्व महाक्रान्ति बनकर उभरा। वह उन विरल प्रज्ञ पुरुषों में थे, जिनमें ऋषित्व और मनीषा एकाकार हुई थी। उन्होंने धर्म का आच्छादन तोड़ने, दर्शन को बुद्धिवाद के चक्रव्यूह से निकालने की हिम्मत जुटायी। यही नहीं, धर्म-दर्शन और विज्ञान के कटु-तिक्त, कषाय हो चुके सम्बन्धों को अपनी अन्तर्प्रज्ञा की निर्झरिणी से पुनः मधुरता प्रदान की। उन्होंने अपने आध्यात्मिक अनुभवों के आधार पर बताया कि मानव की समस्याओं का यथार्थ और सार्थक समाधान उसकी अपनी चेतना में है।
उनका यह निष्कर्ष उनकी गहन आध्यात्मिक साधना का परिणाम है, जिसे उन्होंने पन्द्रह वर्ष की अल्पायु में प्रारम्भ कर दिया था। चौबीस लक्ष के चौबीस गायत्री महापुरश्चरण की चौबीस वर्षीय तप साधना से उन्होंने मानव चेतना पर किए जाने वाले अपने प्रयोगों-अनुसन्धानों की नींव रखी। पन्द्रह वर्ष की आयु से लेकर 80 वर्ष की आयु के अन्तिम पल तक उनका समूचा जीवन मानव चेतना के अध्ययन-अनुसन्धानों में बीता। अपने एक लेख में उन्होंने इस जीवन सत्य को अभिव्यक्त भी किया है। इस सम्बन्ध में उनके शब्द हैं- ‘हमारा जीवन रूढ़ियों और विडम्बनाओं की धुरी पर नहीं घूमा है। उससे अति महत्त्वपूर्ण प्रयोगों, परीक्षणों और अनुभवों का अच्छा-खासा भण्डार जमा हो गया है। हम चाहते थे कि यह उपलब्धियाँ जन-सामान्य को देते जाएँ, ताकि वे भी हमारी ही तरह जीवन की सार्थकता अनुभव कर सकें।’
उन्होंने यह भी कहा कि ‘मानव चेतना को सही और समग्र ढंग से जाने बिना विज्ञान को जानना अधूरा ज्ञान है। वह ऐसा ही है कि सारे जगत् में तो प्रकाश हो और अपने ही घर में अंधेरा हो। ऐसे अधूरे ज्ञान से अपनी ही चेतना को न जानने से जीवन दुख में परिणत हो जाता है। जीवन शान्ति, सन्तोष और कृतार्थता से भरे, इसके लिए वस्तुओं को जानना ही पर्याप्त नहीं है। उस तरह समृद्धि आ सकती है, पर धन्यता नहीं आती है। उस तरह परिग्रह आ सकता है पर प्रकाश नहीं आता है। और प्रकाश न हो तो परिग्रह बन्धन हो जाता है। वह अपने ही हाथों से लगायी फाँसी हो जाती है। जो मानव चेतना के ज्ञान से विमुख है, वह अधूरा है। और इस अधूरेपन से दुःख पैदा होते हैं।’
पदार्थ को जानने और पाने से शक्ति उपलब्ध होती है। विज्ञान उसी को खोज है। आज हम सबको पता है, कि विज्ञान ने अपरिसीम शक्तियों की रहस्य कुञ्जियाँ मानव के हाथों में दे दी हैं। पर उस शक्ति उपलब्धि से कुछ भी शुभ नहीं हुआ। शक्ति आयी है, पर शान्ति नहीं आयी है। शान्ति पदार्थ को नहीं चेतना को जानने से आती है। पदार्थ का ज्ञान मानव चेतना के ज्ञान के अभाव में अज्ञान के हाथों में शक्ति है। उससे शुभ फलित नहीं हो सकता है।
अब तक विज्ञान और अध्यात्म में जो विरोध रहा है, उसका परिणाम अशुभ है। जिन्होंने मात्र विज्ञान की खोज की है, वे शक्तिशाली हो गए हैं, पर अशान्त और सन्तापग्रस्त हैं। और जिन्होंने मात्र अध्यात्म का अनुसन्धान किया है, वे शान्त हो गए हैं। पर लौकिक दृष्टि से अशक्त और दरिद्र हैं। यह सब वैदिक ऋषियों की परम्परा को खण्डित करने का दोष है, जो अपने देश में बौद्ध प्रभाव से उपजा एवं पनपा। आवश्यकता वैदिक ज्ञान की परम्परा को महर्षि दयानन्द की भाँति नवजीवन देने की है। मेरे समस्त प्रयास इसी ओर केन्द्रित है। मैं शक्ति और शान्ति को अखण्डित रूप से चाहता हूँ। मैं विज्ञान और अध्यात्म में समन्वय को चाहता हूँ।
युगऋषि गुरुदेव के ये भावोद्गार युग सत्य हैं। क्योंकि ऐसा होने पर न केवल मानव चेतना का समग्र अनुसन्धान होगा, बल्कि उसकी सम्पूर्ण अभिव्यक्ति भी होगी। उससे पूर्ण मनुष्य का जन्म होगा, और एक पूर्ण संस्कृति का भी। जो अन्तर-बाह्य दोनों रूपों में समृद्ध होगी। मनुष्य न तो मात्र शरीर है, न मात्र आत्मा ही। वह दोनों का सम्मिलन है। इसलिए उसका जीवन किसी एक पर आधारित हो, तो वह अधूरा हो जाता है। इस अधूरेपन को पूरा करना ही युगधर्म है। वैज्ञानिक अध्यात्मवाद इसी की सार्थक प्रणाली है।