
अखण्ड ज्योति-एक पत्रिका नहीं एक मिशन, एक आन्दोलन
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अधिकाधिक व्यक्तियों तक पहुँचाकर ही हम सच्चा ज्ञानयज्ञ कर पाएंगे
‘अखण्ड ज्योति’ एक पत्रिका नहीं, प्रेरणा पुँज हैं, प्राणचेतना की संवाहिका है। ‘अखण्ड दीपक’ जो 1926 से प्रज्वलित होकर 1972 में शाँतिकुँज आने के बाद से सतत प्रज्वलित है, अपनी हीरक जयंती इस वर्ष मना रहा है तथा परमपूज्य गुरुदेव के प्रखर तप का प्रतीक है। इसी ‘अखण्ड दीपक’, के, जो अब अखण्ड अग्नि, अखण्ड यज्ञ का स्वरूप ले चुका है, दिव्य प्रभामंडल में ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका का 1938 की वसंत पंचमी को शुभारंभ हुआ। हाथ से बने कागज पर हाथ से चलने वाली मशीन की मदद से इसकी छपाई मात्र दो सौ पत्रिका से आरंभ यह पत्रिका कुछ समय के लिए बंद हो गई। पुनः पूरी तैयारी के साथ फ्रीगंज आगरा से वसंत पर्व 1940 से इसका प्रकाशन आरंभ हुआ। तब से अनवरत चलते हुए इसने 64 वर्षों की यात्रा पूरी कर ली है। मात्र दो सौ पचास पाठकों से आरंभ हुई यह पत्रिका मत्स्यावतार की तरह विराट रूप लेती गई एवं आज सभी अन्य भाषाओं सहित प्रायः साढ़े बारह लाख की संख्या में प्रकाशित होती है। संभवतः इतनी बड़ी संख्या किसी भी आध्यात्मिक पत्रिका की नहीं है, जो बिना किसी विज्ञापन-लाभ की कामना के साथ प्रकाशित होती हो।
‘अखण्ड ज्योति’ एक मिशन है, एक आँदोलन है, युगऋषि का ज्ञानशरीर है। जिस जिसने इसे पढ़ा, उसका चिंतन बदल गया, जीवन की दिशाधारा दूसरी दिशा में मुड़ गई एवं उसका आमूल-चूल कायाकल्प हो गया। चिंतन के ऊर्ध्वगामी होने के सत्परिणाम निश्चित ही जीवन-व्यापार के विभिन्न क्षेत्रों में दिखाई देने लगते हैं। सफलताएं हस्तगत होने लगती हैं। आत्मविश्वास बढ़ जाता है तथा चौबीसों घंटे स्फूर्ति बनी रहती है। लगता है सतत मार्गदर्शन देने वाला कोई सच्चा घनिष्ठ मित्र मिल गया। ‘जीवन जीने की कला’ का शिक्षण देने वाली यह पत्रिका लाखों लोगों द्वारा पढ़ी जाती है एवं सभी वर्ग-समुदाय के व्यक्तियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
परमपूज्य गुरुदेव ने अपनी 19878 जनवरी की ‘अखण्ड ज्योति’ के संपादकीय में लिखा है कि आज गायत्री तपोभूमि, ब्रह्मवर्चस, गायत्री नगर, शाँतिकुँज एवं शक्तिपीठों के रूप में जो भी विस्तार नजर आता है, वह ‘अखण्ड ज्योति’ से ही जन्मा है। यह पत्रिका एक जीता-जागता मिशन है, जिसने इतना बड़ा संगठन खड़ा कर दिया। इसी आधार पर उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी थी, ‘नवयुग का मत्स्यावतार’। कहने का अर्थ यह कि जिस किसी ने भी मिशन को जाना है, गायत्री परिवार के उद्देश्यों को समझा है, उसने सबसे पहले अपनी प्राणप्रिय ‘अखण्ड ज्योति’ से साक्षात्कार किया है। आगे भी जो नए नीतिवान जुड़ेंगे, वे इसी ज्ञानयज्ञ के माध्यम से जुड़ेंगे।
परमपूज्य गुरुदेव एवं परमवंदनीया माताजी की सूक्ष्म व कारण सत्ता को घर-घर पहुंचाने, श्रवण कुमार की तरह उन्हें कंधे पर बिठाकर भारतव्यापी तीर्थयात्रा कराने का किसी का मन हो तो उसे ‘अखण्ड ज्योति’ को जन−जन तक पहुँचाना चाहिए। इससे बड़ा कोई पुण्य नहीं, परमार्थ नहीं, संस्कृति-सेवा नहीं। सभी को जानकारी है कि आज की विपरीत परिस्थितियों में जहाँ कागज के दाम आसमान छू रहें हों, प्रिंटिंग आदि का खर्च बढ़ता चला रहा हो, आसन्न तृतीय विश्वयुद्ध की विभीषिका से महंगाई और भी बढ़ती जा रही हो, इसे निर्धारित चंदे के आधार पर छापना कितना कठिन है। किन्तु बिना लाभ, बिना नुकसान के आधार पर किसी तरह यह आज के वार्षिक चंदे की राशि 72 रुपये प्रतिवर्ष पर प्रकाशित हो रही है। इसके समकालीन कादम्बिनी एवं कल्याण से तुलना की जा सकती है। यही दो पत्रिकाएं हैं, जो अंग्रेजी पत्रकारिता के झंझावातों में भी जीवित रही हैं। कल्याण के साथ तो भावनाशीलों का नियमित अनुदान जुड़ा है, फिर भी 75 वर्षों से प्रकाशित यह धार्मिक पत्रिका अपने 42 पृष्ठ के कलेवर में एक सौ बीस रुपये वार्षिक चंदे पर सभी मंगाते हैं। कादम्बिनी कथा प्रधान पत्रिका है, उसका वार्षिक चंदा दो सौ तीस रुपए हैं। ऐसे में सागर गर्भित सामग्री लिए विज्ञान और अध्यात्म की समन्वयात्मक ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका मात्र 72 रुपये में अपने 68 पृष्ठों के साथ पाठक परिजनों तक पहुँचती है। अंतर सभी को स्पष्ट देख लेना चाहिए व जान लेना चाहिए कि किस तरह अंश-अंश की कटौती करके यह आँदोलन हम सभी ने जीवित बनाए रखा है।
इस पत्रिका को, आँदोलन को जितने अधिक व्यक्तियों तक पहुँचाया जाएगा, उतना ही वह श्रम सार्थक कहा जाएगा, जिसमें सैंकड़ों प्राणवान लगे हुए हैं। इसमें अब कई नए आकर्षण जोड़े जा रहे हैं। रंगीन पृष्ठ बढ़ाने का मन है। पाठ्य सामग्री का स्तर और भी ऊंचा रखते हुए जीवन के हर पहलू को स्पर्श करने की इच्छा है। कागज की क्वालिटी उपलब्ध मूल्य पर जितनी अच्छी हो सकती है, दी जा रही है, पर इसे भी बढ़ाने का मन है। इस वर्ष चंदा विगत वर्ष की तरह 72 रुपए वार्षिक है, विदेश के लिए 750 रुपये प्रतिवर्ष तथा आजीवन 900 रुपये निर्धारित है। इसे इतना ही रखा जाएगा, बस परिजनों से यही भावभरी अपेक्षा है कि वे 2002 से इसकी संख्या पाँच गुनी न सही दूनी तो कर ही दें। हीरक जयंती पर यह सबसे बड़ी पुष्पाँजलि गुरुचरणों में होगी।