
जहाँ चाह वहाँ राह
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जीवन में अमुक सफलता न मिलने पर कोई साधनों के अभाव की शिकायत करता है। तो कोई परिस्थितियों की प्रतिकूलता की मार की बात कहता है। कुछ अवसर के उपलब्ध न होने का रोना रोते हैं। स्वस्थ, सुयोग्य एवं प्रतिभाशाली होते हुए भी ऐसे व्यक्ति दीन-हीन एवं असफल जीवन जीने के लिए बाध्य होते हैं। जबकि मनुष्य के जीवन में सफलता साधनों, अवसरों एवं परिस्थितियों से अधिक उसकी मनःस्थिति पर निर्भर करती है। वस्तुतः मनुष्य बना ही कुछ ऐसी धातु का है, जिसके संकल्प एवं पुरुषार्थ की प्रचण्डता के सामने कुछ भी असंभव नहीं रह जाता। स्वस्थ एवं सामान्य व्यक्ति की बात तो दूर, विकलाँग व्यक्ति तक अपने दृढ़ संकल्प, साहस एवं पुरुषार्थ के बूते अपनी मनमाफिक सृष्टि का सृजन कर सकते हैं। प्रस्तुत है ऐसे ही कुछ जीवट के धनी स्त्री-पुरुष, जिनके साथ नियति ने क्रूर मजाक किया, लेकिन इन्होंने हार नहीं मानी व जीवन की चुनौती को सहर्ष स्वीकार करते हुए नए सिरे से नए जीवन के निर्माण में जुट गए। ये अपने-अपने क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धियों के साथ में दूसरों के लिए भी प्रेरणा के स्रोत बनें हैं।
कंचन गावा, एक अंधी युवती है। आठ वर्ष की आयु में ‘ऑप्टिकल नर्व’ के निष्क्रिय होने के कारण वह देख नहीं सकती। लेकिन उसकी रगों में पर्वतारोहण जैसे रोमाँचकारी एवं साहसिक खेल का उत्साह दौड़ रहा था, आँखों में एक स्वप्न था और हृदय में इसे साकार करने का दृढ़ संकल्प। भारतीय स्काउट गाइड के सान्निध्य में साढ़े चार वर्ष की कठोर श्रम साधना ने उसे ट्रेकिंग, रॉक क्लाइंविंग, स्विफट क्रासिंग जैसी पर्वतारोहण की प्राथमिक क्रियाओं में निष्णात कर दिया। आज वह पर्वतारोहण के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियाँ प्राप्त किये है। वह 10,000 फुट ऊँची टोगलू चोटी चढ़ चुकी है, टाइगर हिल अभियान में भाग ले चुकी है, 14,500 फुट ऊँची जोंगरी चोटी की चढ़ाई कर चुकी है। इसकी उपलब्धियों को देखते हुए ब्रिटेन में गाइड के अन्तर्राष्ट्रीय केंप में उसे आमंत्रित किया गया, जिसमें 120 देशों के 600 गाइड प्रतिनिधि आए थे। गावा इनमें एकमात्र विकलाँग प्रतिनिधि थी। वह उन 40 व्यक्तियों में से एक थी जिन्होंने प्रशिक्षण की 41 चुनौतियों में सभी को पार किया। हिमालय माउंटेनीयरिंग इंस्टीट्यूट दार्जलिंग से प्रशिक्षण प्राप्त कंचन गावा का कहना है कि ‘पर्वत मेरे रक्त में है। मैं इन्हें हृदय से अनुभव करती हूँ। बादल कैसे होते हैं मैं यह नहीं बता पाती हूँ लेकिन हृदय की आँखों से देखना अधिक महत्त्वपूर्ण है। मुझे लगता है कि प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में विकलाँग होता है। मेरे पास आँखें नहीं है, दूसरों के पास साहस नहीं होता।’
पर्वतारोहियों में ही दुस्साहस, जीवट एवं साधुता के जीवन्त उदाहरण हैं माउण्ट एवरेस्ट पर विजय पताका फहराने वाले मेजर एच.पी.एस. आहलुवालिया, जो युद्ध के मैदान में गोली लगने के कारण व्हील चेयर पर चलने के लिए बाधित हैं, लेकिन इनके बुलंद हौसले एवं आशावादी दृष्टिकोण असंख्य लोगों के लिए प्रेरणा एवं आशा का स्रोत बने हुए हैं।
1965 में माउण्ट एवरेस्ट के सफल आरोहण के कुछ ही माह बाद उनके जीवन में नियति ने क्रूर मोड़ लिया। कश्मीर में पाकिस्तान के साथ युद्ध छिड़ गया था। मेजर आहलुवालिया भी इस मोर्चे पर डटे हुए थे। युद्ध के दौरान रीढ़ की हड्डी में गोली लगी, जिसके कारण वे अपंगता का त्रास सहने व जीवन भर के लिए व्हील चेयर पर बैठने व चलने के लिए बाधित हुए। लेकिन जीवट एवं साहस के धनी मेजर आहलुवालिया ने हिम्मत नहीं हारी। चल फिर नहीं सकते तो क्या हुआ, व्हील चेयर पर बैठे ही वे अनवरत रूप से सक्रिय हैं व कई महत्त्वपूर्ण एवं साहसपूर्ण कार्यों को अंजाम दे चुके हैं। अपने अथक श्रम से उन्होंने इण्डियन स्पाइनल इंजरीज सेंटर, बसंत कुञ्ज की स्थापना की, जो विकलाँगों की आशाओं का प्रकाश पुञ्ज बना हुआ है।
मेजर आहलुवालिया 13 पुस्तकें लिख चुके हैं। जिनमें ‘हायर देन द एवरेस्ट’ पर फिल्म भी बनने वाली है। इस पुस्तक के सात संस्करण बिक चुके हैं। जीवन की व्यस्तता के बीच ये हृदय में विद्यमान रोमाँच एवं दुस्साहस के जज्बे को कई चुनौतीपूर्ण अभियानों के माध्यम से क्रियान्वित कर चुके हैं। 1994 में जीप में चीन के ऐतिहासिक रेशम मार्ग पर 12000 किमी. लम्बी यात्रा पूरी कर चुके हैं। जो विश्व की सबसे खतरनाक घाटियों में से होकर जाती है। अपने संघर्षमय एवं रोमाँचकारी जीवन के हृदयस्पर्शी प्रेरक शब्द इन्हीं के शब्दों में- ‘मुझसे प्रायः पूछा जाता है कि एवरेस्ट शिखर पर पहुँच कर कैसा अनुभव हुआ? मेरा उत्तर होता है- खुशी भी और दुःख भी। खुशी शिखर पर पहुँचने की और दुःख इस बात का कि माउँट एवरेस्ट से ऊँचा और पर्वत शिखर नहीं है जिस पर विजय प्राप्त की जा सके। इस ऊँचे शिखर पर आरोहण के बाद तो अब सभी रास्ते उतार की ओर ही ले जाएँगे। लेकिन इसके बाद मैंने अनुभव किया कि जीवन में कठिनाइयों एवं समस्याओं के अनगिनत शिखर हैं जिन पर विजय प्राप्त करनी होगी। हमें भीतर के शिखरों पर चढ़ना होगा, जिनकी कोई अंतिम सीमा नहीं होगी।’
संजय भटनागर 33 वर्षीय ऐसे विकलाँग युवा हैं जो माँसपेशियों के संकुचन के रोग से पीड़ित हैं तथा हमेशा व्हील चेयर का इस्तेमाल करते हैं। अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर वे ऐसे पहले विकलाँग व्यक्ति हैं जो खुली प्रतियोगिता में केन्द्रिय सेवा में चुने गए।
10 वर्ष की आयु में जब संजय भटनागर इस रोग से पीड़ित हुए तो उन्हें स्कूल की सीढ़ियाँ चढ़ पाना भी अत्यन्त कठिन हो गया था। वह चल-फिर नहीं सकता था, सहपाठी मजाक उड़ाते थे। उनकी परवाह किए बिना संजय अपना ध्यान पढ़ाई में केन्द्रित रखते। लेकिन स्थिति बिगड़ती गई और स्थिति ऐसी आई कि दूसरों को ही स्कूल की बस में उठाकर चढ़ाना व उतारना पड़ता। अंततः एक दिन ऐसा आया जब व्हील चेयर का सहारा लेना पड़ा। लेकिन संजय दृढ़ संकल्पित थे कि वे अपनी विकलाँगता के विरुद्ध डटकर संघर्ष करेंगे और अपने जीवन में एक श्रेष्ठ कार्य करेंगे। अपने अथक श्रम के बूते वे दिल्ली विश्वविद्यालय के टॉपर बने व एम.ए. की परीक्षा में भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। कुछ दिन रोजमर्रा की एक दुकान भी चलाते रहे। साथ ही सिविल सेवा की परीक्षा की तैयारी प्रारम्भ की, जिसमें वे एलाइड सर्विस में चुने गए। संजय ने अपनी विकलाँगता को बोझ नहीं समझा बल्कि आशावादी चिन्तन एवं दृढ़ संकल्प से जीवन को सकारात्मक दिशा दी।
समीर घोष, टाटा स्टील में एक उच्च पद पर आसीन हैं। आठ वर्ष की आयु में खेल के मैदान में एक दुर्घटना के शिकार हो गए थे, जिसमें इनके दोनों हाथ तीव्र विद्युत करंट से बेकार हो गए थे। अपनी यह स्थिति देख मन को गहरा धक्का लगा, लेकिन धीरे-धीरे जीवन का सामान्य क्रम चल पड़ा। माँ का इसमें बहुत बड़ा हाथ रहा जो सदैव निराशा से दूर रहने की प्रेरणा देती रही। अपनी विकलाँगता से उत्पन्न हताशा से दीर्घकालीन संघर्ष चलता रहा। लेकिन सभी समस्याओं के बावजूद समीर ने हिम्मत नहीं हारी।
स्कूल, कॉलेज तथा विश्वविद्यालय तक की शिक्षा प्राप्त करने के लिए संघर्ष चलता रहा। हृदय में दृढ़ संकल्प रहा कि अपने बूते ही जीवन को नये सिरे से गढ़ना है। अपने लक्ष्य के प्रति अनन्य निष्ठ एवं लगन का ही परिणाम था कि वह लंदन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स से स्वर्ण पदक प्राप्त किये। टाटा स्कूल ऑफ सोशल साइंसिस से मास्टर इन सोशल वर्क में भी प्रथम स्थान पर रहे। रामपुर विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण किए।
आज समीर स्वयं ही प्रायः सभी कार्य कर लेते हैं। यहाँ तक कि पंजों से ही कम्प्यूटर के कीबोर्ड संचालित कर सकते हैं। टाटा संस्थान के वरिष्ठतम अधिकारी के रूप में वह सब कुछ कर लेते हैं, जो कि उनसे उपेक्षित हैं। अपनी कार तक स्वयं चला सकते हैं व किसी की सहायता के लिए मोहताज नहीं हैं। अपनी इच्छा से प्रत्येक कार्य करने में स्वतंत्र हैं।
46 वर्षीय प्रभाशाह भी स्वयं में एक उदाहरण हैं। वे जन्म से बधिर हैं लेकिन उन्होंने अपनी शारीरिक विकलाँगता को अपनी प्रतिभा के विकास में बाधा नहीं बनने दिया। बचपन से ही चित्रकला के प्रति तीव्र रुचि रही। कक्षा में सहेलियों, अध्यापिकाओं व कहानियों के चित्र बनाया करती। स्कूल की प्रिंसीपल ने उसकी प्रतिभा को भाँप लिया व चित्राँकन के लिए प्रोत्साहित किया। बालिका की सृजनशीलता तीव्र गति से विकसित होती गयी। उसे राष्ट्रमण्डल बधिर समिति लंदन से पुरस्कार मिला। इसके बाद कई राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। व आज वह देश की श्रेष्ठ महिला चित्रकारों में से एक हैं। उनकी कृतियाँ राष्ट्रपति भवन की दीवारों, गलियों, कई राजनिवासों, नेशनल गैलरी ऑफ मॉर्डन आर्ट, ललित कला अकादमी, एयर इण्डिया, भारतीय पर्यटन विभाग में तथा विदेशी कला गैलरियों में लगी हुई है। जम्मू की इस मूक बधिर का कहना है कि वह अपने रंगों से ही अपनी बात कहती है।
पूर्व टेस्ट क्रिकेट खिलाड़ी बी.एस. चन्द्रशेखर भी ऐसी ही एक मिसाल हैं। पाँच वर्ष की आयु में पोलियो के शिकार हो गए थे, जिसके कारण दाँया हाथ अर्ध विकलाँग हो गया था। लेकिन हृदय में क्रिकेट के प्रति अदम्य उत्साह रहा, अतः कभी भी नियति प्रदत्त विकलाँगता की परवाह नहीं की। घण्टों अभ्यास करने के बाद इसे दूर किया और चन्द्रशेखर स्पिन गेंदबाजी के महानतम खिलाड़ियों में एक बनें। 58 टेस्ट में 242 विकेट, रंजीत टॉफी में 400 विकेट इनकी उपलब्धियों की एक झलक है। 1981 में रिटायर होने वाले इस मधुरभाषी खिलाड़ी का कहना है कि इसने कभी विकलाँगता को खेल के बीच नहीं आने दिया।
अपनी अपंगता के बावजूद इंग्लिश चैनल को पार करने वाले 30 वर्षीय मसुदूर रहमन वैद्य जिजीविषा एवं दृढ़ संकल्प की अजेयता के जीवंत उदाहरण हैं। वैसे अभी तक 23 भारतीय इस चैनल को पार चुके हैं, लेकिन मसुदूर की उपलब्धि इन सबसे महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उनके दोनों पैर नहीं हैं। मसुदूर जब मात्र 12 वर्ष के थे तो स्कूल जाते समय एक दुर्घटना के कारण दोनों पैर गंवा बैठे। बचपन में ही पोखर में तैरते हुए महारत हासिल कर ली थी, लेकिन दोनों पाँव गंवाने वाले शिशु मन में ‘बड़ा तैराक’ बनने की बात रह गयी। लेकिन विकलाँगता के बावजूद अपना अभ्यास जारी रखा। विकलाँगता तैराकी प्रतियोगिता में भाग लेते-लेते वह मुर्शिदाबाद में होने वाले 12 मील और 19 मील तैराकी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने लगा। इसी बीच विश्व की सबसे लम्बी दूरी 81 किमी. की मुर्शिदाबाद-गंगा तैराकी प्रतियोगिता में हिस्सा लेकर सबको चौंका दिया। इसमें पाँचवा स्थान रहा। इस तैराकी की सफलता के बाद मसुदूर ने इंग्लिश चैनल पार करने का निर्णय लिया। और इसे सफलतापूर्वक अंजाम दिया। इस तरह मसुदूर एशिया के प्रथम व विश्व के द्वितीय तैराक हैं, जिसने अपंगता को भी अंगूठा दिखाते हुए इंग्लिश चैनल को पार किया।
कैनटकी के टॉमी स्ट्रक साहस एवं जिजीविषा के अद्भुत उदाहरण हैं। इनके दोनों हाथ नहीं हैं। इसके बावजूद ये किसी भी सामान्य व्यक्ति से कम नहीं, बल्कि भारी ही पड़ते हैं। टॉमी के जन्म से ही दोनों हाथ नहीं हैं। बचपन से ही नन्हें बालक ने संकल्प लिया था कि वह वे सभी कार्य करेगा जो बाजुओं वाले करते हैं, बल्कि उनसे भी अधिक अच्छा करके दिखायेगा। बालक का प्रण था कि वह अपंगता को मार्ग में आड़े नहीं आने देगा। आज टॉमी अपने पैरों को हाथ की तरह इस्तेमाल करता है, वह अपने पैरों से बन्दूक थाम कर अचूक निशाना लगाने में सिद्धहस्त है, वह लिख लेता है और केनटकी के पर्वतों की टेड़ी-मेढ़ी सड़कों पर ट्रक चलाने का काम करता है। साहसी स्ट्रक मछली मारने भी जाता है। घोड़ों की नाल भी लगा लेता है, यहाँ तक कि कंचे खेल सकता है और केवल अपने पाँवों की उँगलियों और पाँवों के सहारे सुई में धागा तक डाल लेता है। स्ट्रक का कहना है कि वह केवल एक काम नहीं कर सकता जो एक सामान्य व्यक्ति कर सकता है, वह है चुटकी बजाना। आगे स्ट्रक कहते हैं ‘जन्म से ही अपंग होने का मुझे जरा भी खेद नहीं है। .... मैं समझता हूँ कि जीवन ने आपको जो कुछ भी थोड़ा सा दिया है, परिश्रम व लगन से इसे बहुत कुछ में बदल सकते हैं।’
ये सभी उदाहरण इस सत्य को उजागर करते हैं कि व्यक्ति के जीवन में सफलता एवं उपलब्धियों की प्राप्ति का मूल उसके मन का दृढ़ संकल्प है। इससे भरा व्यक्ति अदम्य उत्साह एवं साहस के साथ अपने कठोर श्रम, मनोयोग एवं अध्यवसाय द्वारा बड़ी से बड़ी प्रतिकूलता को निरस्त कर सकता है और अपंगता एवं दुर्भाग्य को भी अपनी प्रगति के मार्ग में रोड़ा नहीं बनने देता। यदि व्यक्ति के हृदय में सच्ची चाह हो तो राह उसे मिल ही जाती है। यहाँ दुष्यंत कुमार की इस उक्ति का उल्लेख करना उचित होगा-
कौन कहता है कि आसमाँ में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो जरा।