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Books - बाल संस्कारशाला मार्गदर्शिका

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अध्याय- २ बाल प्रबोधन - भाग - २ प्रेरक प्रसंग

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First 18 20 Last
जिन्होंने जीवन ही बदल दिया
(बड़ों के जीवन की कुछ सच्ची घटनाएँ)
जिस प्रकार छोटे- से बीज के भीतर विशाल वृक्ष समाया रहता है, उसी प्रकार बालक के भीतर भी विकसित मानव समाविष्ट रहता है। कदाचित् इसी सत्य को लक्ष्य कर अंग्रेजी के महाकवि वर्डस्वर्थ ने कहा था- ‘‘चाइल्ड इज़ द फादर ऑफ द मैन।’’ अर्थात् बालक में मानव का जनक विद्यमान है। आवश्यकता इस बात की है कि बालक की अन्तर्निहित वृत्तियों और शक्तियों को सहज भाव से विकसित होने का अवसर दिया जाय। कौन जानता है कि बालक किस वृत्ति के विकास से क्या- से बन जाय! अभिभावकों को चाहिये कि बच्चों के प्रति अपने व्यवहार में वे सजग एवं सावधान रहें।
नीचे हम कतिपय महापुरुषों के जीवन की कुछ छोटी- छोटी घटनाएँ दे रहे हैं। पाठक देखेंगे कि छोटी होने पर भी उन्होंने उन महापुरुषों के जीवन पर कितना गहरा प्रभाव डाला। उनके जीवन को एक दिशा में मोड़ दिया। इन घटनाओं से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि बच्चों पर दबाव डालकर उनका निर्माण करने की प्रचलित परिपाटी अत्यन्त दोषपूर्ण है। समझ- बूझकर स्वेच्छा से गलती करके भी बालक अपना जितना विकास कर सकता है, उतना अभिभावकों की सख्ती या ज़ोर- जबरदस्ती से नहीं।
१. संकल्प
वह एक सम्पन्न घर था। घर क्या, आलीशान महल कहिये। वैभव के जितने उपकरण हो सकते हैं, वे सब वहाँ मौजूद थे। मूल्यवान् मेज- कुर्सियाँ, रंग- बिरंगे एक से बढ़कर एक आचरण, दरियाँ, मखमली कालीन, पियानो, रेडियो। वहाँ के समूचे वायुमण्डल में आभिजात्य की भावना व्याप्त थी और यह स्वाभाविक ही था। कारण कि उस भवन के स्वामी सामान्य व्यक्ति नहीं थे। देश के बड़े- बड़े लोगों में उनकी गणना होती थी। दैवयोग से पत्नी भी उन्हें बड़े घर की मिली थी। घर की साज- सज्जा में उनका बड़ा हाथ था।
घर में कई बालक थे, जिनका पालन- पोषण घर के वैभव और प्रतिष्ठा के अनुरूप ही होता था। उनके रहन- सहन, शिक्षा- दीक्षा, बोल- चाल सब में घर का बड़प्पन झलकता था। लेकिन उनमें एक बालक था, जो अन्य बालकों की अपेक्षा कहीं अधिक सुन्दर और प्यारा लगता था। रंग तो- दूसरे बच्चों का भी साफ था, परंतु इस बालक की आकृति में कुछ ऐसा आकर्षण था कि जो भी उसे देखता था, सुग्ध हो जाता था। घर और पड़ोस सबका उसके प्रति असीम प्रेम था। संयोग से बालक का स्वभाव भी अन्य बालकों से कुछ भिन्न था। उस वैभवशाली वायुमण्डल में उसे विशेष रस न था। वह सीधे- सादे ढंग से रहता था और बिना भेद- भाव के सबसे मिलता- जुलता था।
एक दिन अनायास ही घर में कोलाहल मच गया। बात बड़ी नहीं थी। नौकर से चीनी की कुछ मूल्यवान् रकाबियाँ टूट गयीं। अपराध नौकर का नहीं था। वह रकाबियाँ लेकर आ रहा था कि पैर फिसल गया और रकाबियाँ धरती पर गिरकर चूर- चूर हो गयीं। गृह- स्वामी और गृहिणी दोनों ने देखा तो आग- बबूला हो गये। उन्होंने कहनी- अनकहनी सब तरह की बातें उससे कहीं और जब नौकर ने धीमी आवाज में इतना कह दिया ‘कि उसने जान- बूझकर थोड़ी तोड़ डाली?’ तो उनका पारा और भी चढ़ गया। गृह- स्वामी ने कहा- ‘अच्छा, तुम यों बाज नहीं आओगे तो मैं तुम्हें थाने भेज देता हूँ।’
इतना कहकर उन्होंने आवेश में थाने के अधिकारी को पत्र लिखा और उसके साथ नौकर को थाने भेज दिया। बेचारे को जाना पड़ा। न जाता तो करता क्या!
थाने में उस पर कोड़ों की मार पड़ी और इतनी कि उसकी देह नीली पड़ गयी। पिट- पिटाकर शाम को जब वह घर लौटा, तब ऐसा लगता था मानो महीनों का बीमार हो। उसका चेहरा पीला पड़ गया था और कोड़ों की मार तथा अपमान के कारण उसके पैर ठीक से नहीं उठते थे। ज्यों ही उसने घर में प्रवेश किया, वही बालक सामने आया। अपने प्यारे नौकर और उसके मुरझाये चेहरे को देखकर बालक ठिठक कर खड़ा हो गया और क्षणभर उसकी ओर देखता- का रह गया। नौकर की आँखें सूजी हुई थीं और चेतना इतना विवश दीख पड़ता था मानो अभी रो पड़ेगा।
बालक को देखते ही नौकर भी खड़ा हो गया और एक बार उसने निगाह भरकर उसे देखा। वह कुछ कहना चाहता था, पर होंठ नहीं खुले। देखते- देखते उसकी आँखों की बेबसी क्रोध में परिणत हो गयी और उसने मुँह जरा टेढ़ा करके धीमे पर आवेश भरे स्वर में कहा- ‘देखते क्या हो बाबू। एक दिन तुम भी ऐसे ही बनोगे।’
बालक का सारा शरीर काँप उठा, जैसे किसी ने उसके शरीर से बिजली का स्पर्श करा दिया हो। उसका हृदय रो पड़ा। मन- ही उसने कहा कि ‘हे भगवन! धरती फट- जाय तो मैं उसमें समा जाऊँ।’

नौकर के साथ जो हुआ, उससे बालक पहले ही से बहुत क्षुब्ध था और वह प्रतीक्षा कर रहा था कि कब नौकर लौटे और कब वह उसका हाथ पकड़कर बार- बार चूमे और उसे ढाढ़स बँधाये! लेकिन नौकर लौटा तो उसके मुँह से ऐसे शब्द सुनकर उसका बाल- हृदय एक साथ चीत्कार कर उठा। नौकर मूर्तिवत् खड़ा था मानो स्पन्दनहीन हो और बालक के भीतर भारी तूफान उठ रहा था।
नौकर फिर बोला, ‘क्यों बाबू! मैं झूठ कहता हूँ?’
बालक ने अपने सिर को लटका दिया। बोला- ‘नहीं, नहीं, मैं कदापि ऐसा नहीं करूँगा।’ इतना कहकर वह तेजी से आगे बढ़ा और नौकर को अपनी- पतली बाहों में भरकर उसके कपड़ों में उसने अपना मुँह छिपा लिया।
बालक के इस सद् व्यवहार से नौकर का हृदय उमड़ आया। वह अपनी व्यथा को भूल गया।
बचपन का वह संकल्प रूस के महान् अराजकतावादी विचारक प्रिंस क्रोपोट्किन को आजीवन स्मरण रहा और उन्होंने बड़े से बड़ा अपराध होन ेपर भी अपराधी के प्रति सदा सहानुभूति और करुणा का भाव रखा। करुणा का बीज उनमें पहले से मौजूद था। उक्त घटना से उसे जीवन मिला और वह आगे जाकर लहलहा उठा।
२. प्रायश्चित
वह बारह- तेरह वर्ष का बालक ही तो था। कच्ची बुद्धि थी और साथ अच्छा न था। उसके एक सम्बन्धी सिगरेट पीते थे। उसे भी शौक लगा। सिगरेट से फायदा तो क्या, धुआँ उड़ाना उसे अच्छा लगता था। समस्या आयी कि सिगरेट खरीदने के लिये पैसे कहाँ से आयें बड़ों के सामने न तो वह पी ही जा सकती थी, न खरीदने के लिये उन से पैसे ही माँगे जा सकते थे। तब, क्या हो? नौकरों की जेबें टटोली जाने लगीं और पैसा- धेला जो भी पल्ले पड़ता, उड़ा लिया जाता। बड़े सिगरेट पीकर फेंक देते तो वे टुकड़े बीनकर इकट्ठे कर लिये जाते। किसी ने कह दिया कि एक पेड़ की डंठल होती है, जिसे जलाकर पीने से सिगरेट- सा आनन्द आता है। उसका भी प्रयोग किया गया, लेकिन मजा नहीं आया। मजा तो सिगरेट पीने में भी नहीं आता था, पर उससे क्या? यह सिलसिला कुछ दिन तक चला, अचानक एक दिन विचार उठा कि ऐसा काम क्यों करना, जो बड़ों से छिपाना पड़े और जिसके लिये चोरी करनी पड़े? बात उठी। और वहीं की वहीं दब गयी।
फिर उभरी और पराधीनता दिन पर दिन खलने लगी। यह भी क्या कि बड़ोंं की आज्ञा के बिना कुछ न कर सकें? ऐसे जीने से लाभ क्या? इससे तो जीवन का अन्त कर देना ही अच्छा है।
पर करें कैसे? किसी ने कहा था कि धतूरे के बीज खा लेने से मृत्यु हो जाती है। बीज इकट्ठे किये गये, पर खाने की हिम्मत न हुई। प्राण न निकले तो? फिर भी साहस करके दो- चार बीज खा ही डाले, लेकिन उनसे क्या होता था। मौत से वह डर गया और उसने मरने का विचार छोड़ दिया। जान बची, साथ ही एक लाभ यह हुआ कि बीड़ी की जूठन पीने, नौकरों के पैसे चुराने की आदत भी छूट गयी।
दो वर्ष बाद बालक के उस सम्बन्धी- साथी पर २५ का कर्ज हो गया। वह कैसे निकले? जब कोई उपाय दिखायी न दिया, तब सोचा गया कि साथी के हाथ में सोने का जो ठोस कड़ा था, क्यों न उसमें से थोड़ा- सा सोना काटकर बेच दिया जाय और कर्ज चुका दिया जाय? अन्त में यही किया गया। कड़ा कटा, सोना बिका और ऋण से मुक्ति हो गयी।
ऋण से मुक्ति तो हुई, पर वह घटना बालक के लिये असह्य हो गयी। उसने आगे कभी चोरी न करने का निश्चय किया। साथ ही यह भी कि अपनी चोरी को अपने पिता के सामने स्वीकार कर लेगा। यह डर तो था कि पिताजी उसे पीटेंगे, और यह भी कि वे यह सब सुनकर बहुत दुखी होंगे। अगर उन्होंने स्वयं अपना ही सिर पीट लिया, तो जो हो, पर भूल स्वीकार किये बिना मन की व्यथा दूर न होगी।
पिता के आगे मुँह तो खुल नहीं सकता था। तब बालक ने चिठ्टी लिखकर अपना दोष स्वीकार किया। चिठ्टी अपने हाथों ही पिता को दी। उसमें सारा दोष कबूल किया गया था, साथ ही उसके लिये दण्ड माँगा गया था। आगे चोरी न करने का निश्चय भी था।
पिताजी बीमार थे। वे बिस्तर पर लेटे थे। चिट्ठी पकड़ने के लिये उठ बैठे। चिट्ठी पढ़ी। आँखों से आँसू की बूँदें टपकने लगीं। थोड़ी देर के लिये उन्होंने आँखे बंद कर लीं। चिट्ठी के टुकड़े- टुकड़े कर डाले और बिस्तर पर पुनः लेट गये।
मुँह से उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा। बालक अवाक् रह गया। पिता की वेदना को उसने अनुभव किया और उनकी पीड़ा तथा शान्तिमय क्षमा से वह रो पड़ा।
बड़े होने पर उसने लिखा- ‘जो मनुष्य अधिकारी व्यक्ति के सामने स्वेच्छापूर्वक अपने दोष शुद्ध हृदय से कह देता है और फिर कभी न करने की प्रतिज्ञा करता है, वह मानो शुद्धतम प्रायश्चित करता है।’
इस बालक से भारत ही नहीं, सारा संसार परिचित है। वह था मोहनदास करमचंद गाँधी।

३. दया
        एक बालक कहीं से लौट रहा था। सन्ध्या हो चुकी थी और मार्ग जंगल से होकर था। बालक खेलता- कूदता आ रहा था। अचानक एक पेड़ की नीची टहनी पर क्या देखता है कि एक छोटे से घोंसले में दो अंडे रखे हैं और उन पर एक चिड़िया बैठी है। बालक रुक गया। उसे वे अंडे बड़े अच्छे लगे। देखने में सुन्दर तो थे ही, साथ ही बाल- सुलभ कौतूहल भी था। उसने सोचा कि इन अंडो को ले चलूँ और माँ को दिखाऊँ तो वह बहुत खुश होगी। वह घोंसले की ओर बढ़ा, फिर ठिठका। चिड़िया फुर्र से उड़ गयी। घोंसले के बीच में जरा- सा गढ्ढा था, जिसमें एक- दूसरे से सटे दोनों अंडे रखे थे। चिड़िया उड़कर ऊपर की डाल पर जा बैठी और चीं- चीं करने लगी। बालक ने धीरे- धीरे घोंसले की ओर हाथ बढ़ाया और फिर खींच लिया। नहीं, उसे अंडे नहीं उठाने चाहिये। पर क्यों? माँ उन्हें देखकर कितनी प्रसन्न होंगी? और भाई- बहनें? ...कहेंगे कि वाह, क्या बढ़िया चीज लाया है।
     उसने जी कड़ा किया और दोनों अंडे हाथ में उठा लिए। चिड़िया जोर से चीत्कार कर उठी, पर बालक रुका नहीं। अंडे धीरे से मुठ्ठी में दबाकर और हाथ को कोट की जेब में डालकर वह घर चला आया।
घर आकर उसने साँस ली। हाँफता हुआ बोला, ‘ओ माँ, ओ माँ! देख, कैसी बढ़िया चीज लाया हूँ।’
    माँ ने अंडे देखे ओर बालक की आशा के विपरीत उनका चेहरा एकदम गम्भीर हो गया। बोली- ‘हाय! तूने यह क्या किया।’
बालक ने कहा- ‘देखती नहीं कैसे सुन्दर हैं।’ माँ कहती गयी, ‘तूने यह नहीं सोचा कि चिड़िया कितनी हैरान होगी। वह बार- बार घोंसले पर आकर इन्हें खोजती होगी और अपना सिर पीटती होगी। हाय! तूने यह क्या किया। ...और...अगर लाना ही था तो एक ले आता। कम से कम एक तो उसके लिये छोड़ ही आता।’
बालक को अपनी भूल मालूम हुई, पर अब वह क्या करे? देर जो हो चुकी थी।
माँ रातभर नहीं सो सकी और बालक भी सारी रात सपने में चिड़िया का भयंकर आर्त्तनाद सुनता रहा, उसका फड़फड़ाना देखता रहा।
सबेरे उठते ही वह दौड़ा- दौड़ा गया। बड़ी मुश्किल से उसे वह जगह मिली। उसने देखा कि चिड़िया सूने घोंसले के एक द्वार पर सुस्त- सी बैठी है। शायद रातभर रोते- रोते थक गयी थी।
           बालक के आगे बढ़ते ही वह उड़कर दूसरी शाखा पर जा बैठी। बालक ने दोनों अंडे घोंसले में रख दिये और आड़ में खड़े होकर देखने लगा कि आगे क्या होता है?
चिड़िया आयी घोंसले पर बैठ गयी। उसने तिरछी गर्दन करके अंडों को घूरा। बालक को हर्ष हुआ, लेकिन उसने देखा कि चिड़िया की आँखों में वह दुलार नहीं है, जो पहले था। वह चुपचाप घोंसले के किनारे पर टिकी रही, पर अंडो पर नहीं बैठी।
बालक देर तक खड़ा- खड़ा इस हृदयस्पर्शी दृश्य को देखता रहा। उसके जी में आता था कि वह उस वेदना से विह्वल चिड़िया को पकड़ ले और कहे कि मेरे अपराध को क्षमा कर दे और अपने इन पेट के जायों को स्वीकार कर ले। मेरे लिये नहीं, भगवान् के लिये तू एक बार फिर इन्हें अपने पंखों के साये में समेट ले। पर चिड़िया की खोयी ममता फिर नहीं लौटी। निराश बालक घर की ओर चला तो उसका हृदय बहुत भारी था।
जीव दया का यह ऐसा पाठ था कि वह बालक के हृदय पटल पर गहरा अंकित हो गया और जब तक जिया प्राणि- मात्र के प्रति सदा दयावान् बना रहा।
पाठक इस बालक को जानते हैं। वह थे दीनबन्धु एण्ड्रयूज- भारत के अनन्य मित्र और हितैषी।
४. परदुःखकातरता
      विश्वविद्यालय के प्राध्यापक अपने उपकुलपति से बहुत हैरान थे। वे विद्यार्थियों को जो भी दण्ड देते, विद्यार्थी उपकुलपति के पास जाते और माफ करा लाते। यों अनुशासन कैसे चलेगा? विद्यार्थी उनकी बात कैसे मानेंगे?
    वे काफी दिन तक सहन करते रहे, लेकिन जब उन्होंने देखा कि उपकुलपति के व्यवहार में कोई परिवर्तन होने वाला नहीं है, तब उन्होंने एक दिन उनके पास जाकर शिकायत की ‘आप जो करते हैं, उसका प्रभाव संस्था पर अच्छा नहीं पड़ेगा। विद्यार्थी आपको छोड़कर किसी भी अध्यापक की बात नहीं मानेंगे और हम लोगों को काम करना मुश्किल हो जायगा।’ उपकुलपति ने उनकी बात को ध्यान से सुना। फिर कुछ गम्भीर होकर बोले- ‘आप ठीक कहते हैं, पर क्या आप मेरी विवश्ता के लिये मुझे क्षमा नहीं करेंगे?’
‘कैसी विवशता?’ एक अध्यापक ने पूछा।
      उपकुलपति थोड़ी देर मौन रहे, मानो वह वहाँ न हों। फिर कुछ सँभलकर बोले- ‘अपने बचपन की एक बात मैं भूल नहीं पाता। जब मैं छोटा था, मेरे पिता नहीं रहे थे। माँ थी और घर में बेहद गरीबी थी। मैं स्कूल में पढ़ता था। फीस उन दिनों नाम मात्र को लगती थी, लेकिन वह भी समय पर नहीं निकल पाती थी। माँ चाहती थी कि मैं ढंग के कपड़े पहनकर स्कूल जाऊँ, पर लाती कहाँ से? एक दिन घर में साबुन के लिये पैसा न था। मैं मैले कपड़े पहनकर स्कूल चला गया। अध्यापक आये। उन्होंने क्लास पर एक निगाह डाली। मुझे भी देखा और उनकी निगाह मुझ पर रुक गयी। बोले, ‘खड़े हो जाओ।’ मैं क्या करता? खड़ा हो गया। बोले इतने गंदे कपड़े पहनकर स्कूल आने में शर्म नहीं आती? मैं तुम पर आठ आना जुर्माना करता हूँ।’
     आठ आना! मेरे पैरों के नीचे से धरती खिसक गयी। मुझे अपमान की उतनी चिन्ता न थी जितनी कि इस बात की कि जब घर में साबुन के लिये एक आना पैसा नहीं था तो माँ आठ आने कहाँ से लायेंगी।’ कहते- कहते उपकुलपति की आँखें भर आयीं। फिर कुछ सुस्थिर होकर बोले- ‘तब से मुझे बराबर इस बात का ध्यान रहता है कि विद्यार्थी की पूरी परिस्थिति जाने बिना यदि हम उसे दण्ड देते हैं तो प्रायः उसके साथ अन्याय कर बैठते हैं, दूसरी बात यह कि जब तक आदमी स्वयं कष्ट नहीं पाता, दूसरे के कष्ट को नहीं समझ सकता।’
अध्यापक निरुत्तर होकर चले गये। यह घटना भारतीय राजनीति के पण्डित माननीय श्री निवास शास्त्री के बाल्य- काल की है।

५. निष्काम की कामना
         सभी भाँति समझाने, डराने, धमकाने से लेकर प्रलोभन देने तक के उपाय अपना लेने के बाद भी जब प्रह्लाद ने भगवद्भक्ति का आश्रय नहीं छोड़ा तो हिरण्यकशिपु क्रोधाविष्ट होकर बोला, ‘‘रे दुष्ट! इस कुल में विष्णु का नाम लेने वाला कोई नहीं हुआ है और तुम ईश्वर- ईश्वर की रट लगाकर कुल मर्यादा भंग किये दे रहे हो। यह अक्षम्य अपराध है।’’
        ‘‘श्रेष्ठ कर्म करने से कुल मर्यादा नहीं टूटती तात्!’’प्रह्लाद ने शान्त गम्भीर वाणी में अपने पिता को समझाना चाहा, उन्हें कभी भी कोई भी नमन करे, उससे कुल का गौरव ही बढ़ता है।
       उन्मत्त हिरण्यकशिपु की क्रोधाग्नि में प्रह्लाद के इन वचनों ने घी का काम किया और वह गरजता हुआ प्रह्लाद की ओर दौड़ा, मेरी सीख को न समझकर मुझे ही उपदेश देने वाले दुष्ट! तू ऐसे नही मानेगा। तुझ जैसे कुल कलंकी का तो कुल में न होना ही अच्छा।
हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को मारने के लिये झपटा। आवेश में सन्तुलन न रह सका और जो घूँसा प्रह्लाद पर वार करने के लिये उठा था, वह उस खम्भे पर पड़ा जिसके सहारे प्रह्लाद खड़ा था। खम्भा टूट गया और उसी खम्बे से प्रकट हुए नृसिंह भगवान् आधा नर और आधा सिंह का रूप धारण किये। उन्होंने हिरण्यकशिपु को पकड़कर अपने तीक्ष्ण नखों से उसका पेट फाड़ डाला।
        उस समय भगवान नृसिंह का रौद्र रूप देखकर उपस्थित देवगण तक काँप उठे। सबने अलग- अलग स्तुति की परन्तु किसी का कोई परिणाम नहीं हुआ। देवगण सोचने लगे कि यदि प्रभु का क्रोध शान्त नहीं हुआ। तो अनर्थ हो जायेगा। उन्होंने भगवती लक्ष्मी को भेजा किन्तु लक्ष्मी जी भी वह विकराल रूप देखकर भयभीत हो लौट आईं। अन्त में ब्रह्माजी ने प्रह्लाद से कहा,‘‘बेटा तुम्हीं समीप जाकर उनका क्रोध शान्त करो।’’
प्रह्लाद सहज भाव से प्रभु के सम्मुख गये और दण्डवत् प्रणिपात करके उनके सामने लेट गये। भगवान् नृसिंह ने अपने भक्त को सामने देखकर कहा, ‘‘वत्स! मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो वही वरदान माँग लो।’’
       ‘‘प्रभु! मेरी क्या इच्छा हो सकती है?’’ प्रह्लाद ने कहा- मुझे कुछ नहीं चाहिये। भगवन्! मुझे कुछ नहीं चाहिये। जो सेवक कुछ पाने की आशा से अपने स्वामी की सेवा करता है, वह तो सेवक ही नहीं है। आप तो परम उदार हैं, मेरे स्वामी हैं और मैं आपका आश्रित- अनुचर। यदि आप कुछ देना ही चाहते हैं तो यह वरदान दें कि मेरे मन में कभी कोई कामना ही उत्पन्न न हो।
‘एवमस्तु’, भगवान् ने कहा और पुनः आग्रह किया फिर भी प्रह्लाद कुछ तो अपने लिये माँग लो।
         प्रह्लाद ने सोचा, प्रभु जब बार- बार मुझ से माँगने के लिये कहते हैं तो अवश्य ही मेरे मन में कोई कामना है। बहुत सोच- विचार करने, मनःमन्थन करने के बाद भी जब उन्हें लगा कि कुछ भी पाने की आकांक्षा नहीं है तो वह बोले, ‘‘नाथ! मेरे पिता ने आपकी बहुत निन्दा की है और आस्तिकजनों को बहुत कष्ट दिया है। वे घोर पातकी रहे हैं। मैं यही चाहता हूँ कि वे इन पापों से छूटकर पवित्र हो जायें।’’
        भगवान् नृसिंह ने प्रह्लाद को गद्गद् होकर कण्ठ से लगा लिया और उसकी सराहना करते हुये कहा, ‘‘धन्य हो बेटा तुम! जिसके मन में यह कामना है कि अपने को कष्ट देने वाले की भी दुर्गति न हो।’’
६. सत्य की विजय
      काबुल के सम्राट नमरूद ने ऐलान कराया कि वही ईश्वर है, उसी की पूजा की जाय। भयभीत प्रजा ने उसकी मूर्तियाँ बनाईं और पूजा आरम्भ कर दी।
एक दिन राज- ज्योतिषियों ने नमरूद को बताया कि इस वर्ष एक ऐसा बालक जन्मेगा जो उसके ईश्वरत्व को चुनौती देने लगेगा।
सम्राट को यह बात अखरी और उसने उस वर्ष जन्मने वाले सब बालकों को मार डालने की आज्ञा, दे दी। बालक ढूँढ़- ढूँढ़ कर मारे जाने लगे। नमरूद की मूर्तियाँ गढ़ने वाले कलाकार आजर की धर्म- पत्नी को भी प्रसव हुआ और सुन्दर पुत्र जन्मा। मातृ- हृदय बालक की रक्षा के लिये व्याकुल हो गया। वह उसे लेकर पहाड़ की एक गुफा में गई और वहीं उसका लालन- पालन करने लगी।
       बालक बन्द गुफा में बढ़ने लगा। धीरे- धीरे वह पाँच वर्ष का हो गया। एक दिन उसने माता से पूछा- हम लोग जहाँ रहते हैं, क्या उससे बड़ा इस दुनिया में और कुछ है? माता ने बालक को संसार के विस्तार के बारे में बहुत कुछ बताया और कहा इस सबका निर्माता एक ईश्वर है। बालक ईश्वर के दर्शन करने के लिये व्यग्र रहने लगा।
        एक दिन अवसर पाकर बालक गुफा से बाहर निकला, सबसे पहले उसने उन्मुक्त आकाश को देखा। रात्रि का अंधकार छाया हुआ था। उसे एक चमकता हुआ तारा दिखाई दिया। बालक ने सोचा, हो न हो यही ईश्वर होगा। थोड़ी देर में तारा अस्त हो गया और चाँद निकला।
     बालक सोचने लगा कम प्रकाश वाला तारा ईश्वर नहीं, अधिक चमकने वाला यह चाँद ईश्वर होना चाहिये। थोड़ी देर में रात समाप्त हुई, चन्द्रमा डूबा और सूरज निकल आया और दिन गुजरते- गुजरते उसके भी डूबने की तैयारी होने लगी।
बालक इब्राहीम के मन में भारी उथल- पुथल मची। उसने सोचा जो बार- बार डूबता और उदय होता है, ऐसा ईश्वर नहीं हो सकता। वह तो ऐसा होना चाहिये जो न जन्मे और न मरे। विचार ने विश्वास का रूप धारण किया। ईश्वर का स्वरूप उसकी समझ में आ गया। इब्राहीम ने ईश्वर- चिन्तन का व्रत लिया और साधुओं की तरह न जन्मने और न मरने वाले ईश्वर की उपासना करने के लिये प्रचार करने लगा। नमरूद को पता चला कि उसकी सत्ता को चुनौती देने वाला कोई फकीर पैदा हो गया है, तो उसने इब्राहीम को पकड़ बुलाया और अनेक यन्त्रणायें देने लगा। जब इब्राहीम के विचार नहीं बदले, तो उसे जलती आग में पटक कर मार डालने का आदेश हुआ।
      अग्नि प्रकोप से बचाने में सहायता करने के लिये जब देवता इब्राहीम के पास पहुँचे, तो उन्होंने यह कहकर वह सहायता अस्वीकार कर दी कि सत्य की निष्ठा कष्ट सहने से ही परिपक्व होती है और आत्मा का तेज परीक्षा के बाद ही निखरता है। मुझे अपनी निष्ठा की परीक्षा कष्ट सहने के द्वारा देने दीजिये। मेरा आत्मबल विचलित न हो, यदि ऐसी सहायता कर सकें तो आपका इतना अनुग्रह ही पर्याप्त है।
         अन्त में सत्य ही जीता। नमरूद का गर्व गल गया। इब्राहीम अपनी सत्यनिष्ठा के कारण और अधिक चमके। नमरूद नहीं रहा, पर इब्राहीम की ईश्वर विवेचना आज भी बहु- संख्यक मनुष्यों के हृदय में स्थान प्राप्त किए हुये है। बल नहीं जीतता और न आतंक ही अन्त तक ठहरता है। असत्य कितना ही साधन सम्पन्न क्यों न हो वह सत्य के आगे ठहर नहीं पाता। साधनहीन होते हुये भी सत्य, सुसम्पन्न असत्य से कहीं अधिक सामर्थ्यवान होता है। विजय असत्य की नहीं सत्य की ही होती है।

७. ‘ब्रह्म तेजो बलं बलम्’
विश्वामित्र तब तक एक क्षत्रिय राजा थे। उनका प्रचंड प्रताप दूर- दूर तक प्रख्यात था। शत्रुओं की हिम्मत उनके सम्मुख पड़ने की न होती थी। दुष्ट उनके दर्प से थर- थर काँपा करते थे। बल में उनके समान दूसरा उस समय न था।
एक दिन राजा विश्वामित्र शिकार खेलते- खेलते वशिष्ठ मुनि के आश्रम में जा पहुँचे। मुनि ने राजा का समुचित आतिथ्य- सत्कार किया और अपने आश्रम की सारी व्यवस्था उन्हें दिखाई। राजा ने नन्दिनी नामक उस गाय को भी देखा, जिसकी प्रशंसा दूर- दूर तक हो रही थी। यह गाय प्रचुर मात्रा में अमृत के समान गुणकारी दूध तो देती ही थी, साथ ही उसमें और भी दिव्य गुण थे, जिस स्थान पर वह रहती वहाँ देवता निवास करते और किसी बात का घाटा न रहता। सुन्दरता में तो अद्वितीय ही थी। राजा विश्वामित्र का मन इस गाय को लेने के लिए ललचाने लगा। उन्होंने अपनी इच्छा मुनि के सामने प्रकट की पर उन्होंने मना कर दिया। राजा ने बहुत समझाया और बहुत से धन का लालच दिया पर वशिष्ठ उस गाय को देने के लिए किसी प्रकार तैयार न हुए। इस पर विश्वामित्र को बहुत क्रोध आया। मेरी एक छोटी- सी बात भी यह ब्राह्मण नहीं मानता। यह मेरी शक्ति को नहीं जानता और मेरा तिरस्कार करता है। इन्हीं विचारों से अंहकार और क्रोध उबल आया। रोष में उनके नेत्र लाल हो गये। उन्होंने सिपाहियों को बुलाकर आज्ञा दी कि जबरदस्ती इस गाय को खोलकर ले चलो। नौकर आज्ञा पालन करने लगे।
वशिष्ठ साधारण व्यक्ति न थे। उन्होंने कुटी से बाहर निकलकर निर्भयता की दृष्टि से सबकी ओर देखा। अकारण मेरी गाय लेने का साहस किसमें है, वह जरा आगे तो आए। यद्यपि उनके पास अस्त्र- शस्त्र न थे, अहिंसक थे तो भी उनका आत्मतेज प्रस्फुटित हो रहा था।
विश्वामित्र विचार करने लगे। भौतिक वस्तुओं का बल मिथ्या है। तन, मन की शक्ति बहुत ही तुच्छ, अस्थिर और नश्वर है। सच्चा बल तो आत्मबल है। आत्मबल से आध्यात्मिक और पारलौकिक उन्नति तो होती ही है, साथ ही लौकिक शक्ति भी प्राप्त होती है। मैं इतना पराक्रमी राजा, जिसके दर्प को बड़े- बड़े शूर- सामन्त सहन नहीं कर सकते। इस ब्राह्मण के सम्मुख हत- प्रभ होकर बैठा हूँ और मुझसे कुछ भी बन नहीं पड़ रहा है। निश्चय ही तनबल, धनबल की अपेक्षा आत्मबल अनेकों गुनी शक्ति रखता है। उन्होंने निश्चय कर लिया कि भविष्य में वे सब ओर से मुँह मोड़कर आत्मसाधना करेंगे और ब्रह्मतेज को प्राप्त करेंगे। ब्रह्म तेज पर वे इतने मुग्ध हुए कि अनायास ही उनके मुँह से निकल पड़ा ‘धिक् बलं, क्षत्रिय बलं, ब्रह्मतेजो बलंबलम्।’ क्षत्रिय बल तुच्छ है, बल तो ब्रह्म तेज ही है। उसी दिन विश्वामित्र ने संकल्प किया और घोर तपस्या में जुट गए व ब्रह्म तेज को प्राप्त किया।
८. दैवी प्रतिशोध
सूर्यास्त के बाद अन्धकार घना होता जा रहा था। अरब की मरुभूमि में रातें भी बड़ी भयावह लगा करती हैं। ऐसे ही रेतीले सुनसान स्थान पर यात्री को एक झोंपड़ी दिखाई दी, जिसमें कोई व्यक्ति गीत गा रहा था। यात्री एक क्षण को रुका और गीत के बोल सुनने लगा।
यात्री को झोंपड़ी में रहने वाली वृद्ध पुरुष की आकृति जानी- पहचानी लगी। स्मृतियाँ उघड़ती गयीं और उसे याद आया कि इस व्यक्ति से उसका निकटतम सम्बन्ध रह चुका है। झोंपड़ी में रहने वाला वृद्ध व्यक्ति युसुफ के नाम से जाना जाता था, जो अपने समय के बहुत ही विख्यात सन्त थे। यात्री ने यूसुफ से कहा- ‘‘मैं समाज द्वारा बहिष्कृत एक पापी हूँ। सभी ने मुझे अधम कहकर मेरा परित्याग कर दिया। राज कर्मचारी मुझे पकड़कर दण्डित करने के लिए मेरा पीछा कर रहे हैं। आज की रात आपके घर में गुजारने का मौका मिल जाय तो बड़ी दया होगी। युसुफ आप तो अपनी दया के लिये संसार भर में प्रसिद्ध हैं।’’
युसुफ ने बड़ी विनम्रतापूर्वक कहा- ‘‘भद्र पुरुष। यह घर मेरा नहीं उस परमात्मा का ही है। इसमें तुम्हारा भी उतना ही अधिकार है जितना कि मेरा। मैं तो इस देह का भी स्वामी नही हूँ, यह भी एक धर्मशाला है। तुम प्रसन्नतापूर्वक जी चाहे तब तक यहाँ रहो।’’
वह अन्दर खाना खाने के लिए चला गया। अभ्यागत को भरपेट भोजन करवाकर सोने के लिए बिस्तर लगा दिया और बिना परिचय पूछे ही सो जाने के लिए कहा।
प्रातःकाल हुआ। पूर्व दिशा में अरुणिमा फैलने लगी और पक्षियों का कलरव गूँजने लगा। यूसुफ उठ गये थे और नहा- धोकर अतिथि के जागने का इन्तजार कर रहे थे। उधर अतिथि कई दिनों का थका हारा होने के कारण चैन की नींद ले रहा था। यूसुफ अतिथि के पास गये और धीरे से जगाकर बोले- ‘‘उठो भाई, सूरज उग आया है। तुम्हारी सुविधा के लिये मैं थोड़ा- बहुत धन लाया हूँ, उसे लेकर द्रुतगामी घोड़े पर सवार होकर दूर चले जाना ताकि तुम अपने शत्रुओं की पहुँच से बाहर निकल सको।’’
इस सत्पुरुष के मुखमण्डल पर हार्दिक पवित्रता ‘शीतल’ रजनी चन्द्रिका की भाँति फैली हुई थी। उनके शब्द जैसे अन्तःकरण से निकलकर आ रहे थे तभी तो उनका व्यवहार इतना दिव्य बन पड़ा था। इस दिव्य व्यवहार के प्रभाव स्वरूप ही आगन्तुक के हृदय में भी पवित्र और सात्विक विचारों का प्रवाह बहने लगा था। अतिथि को अपना पूरा विगत स्मृत हो आया और लगा कि पापपूर्ण प्रवृत्तियों की कालिमा पश्चाताप के रसायन से स्वच्छ होती जा रही हैं और उनके स्थान पर निर्मल भावों की तंरगें उठने लगी हैं।
पृथ्वी पर घुटने टेक यूसुफ के चरणों में झुककर अतिथि ने कहा- ‘‘हे शेख! आपने मुझे शरण दी, भोजन दिया, शान्ति दी और पवित्रता भी दी, अब आपके प्रति कृतज्ञता के लिये क्या कहूँ? मैं कैसे कहूँ कि यह उपकार पापी इब्राहीम के लिए किया है, जो आपके बड़े पुत्र का हत्यारा है। हमारे कबीलों में हत्यारे को शिरच्छेद कर को मृतात्मा शांति पहुँचायी जाती है, आप भी उसी परम्परा का पालन कीजिए।’’
इब्राहीम यह कहकर मौन हो गया, परन्तु यूस़ुफ ने तो उसे भगाने में और भी जल्दी की क्योंकि वे डरने लगे थे- अपने आप से कहीं अपने पुत्र के हत्यारे का वध करने के लिए पाश्विक प्रतिशोध न जाग पड़े। वे बोले- तब तो तुम और भी जल्दी चले जाओ। कहीं मैं प्रतिशोध के कारण कर्त्तव्य भ्रष्ट न हो जाऊँ।
इब्राहीम चला गया और यूसुफ ने अपने दिवंगत पुत्र को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘‘मैं तेरे लिये दिन- रात तड़पता रहा हूँ। आज मैंने तेरा बदला ले लिया है। तेरे हत्यारे की नृशंस भावना पश्चाताप की अग्नि में जलकर नष्ट हो गयी है और उसका हृदय पवित्र हो गया। अब तू शान्ति की चिरनिद्रा में सो जा।’’

९. मंगलामंगलम्
        भवन अमंगल- मकड़ियों ने जहाँ- तहाँ जाले बुन रखे हैं, शिशुओं का शौच दुर्गन्ध फैला रहा है- पशुओं ने सर्वत्र गोबर फैला रखी है, सर्वत्र, अस्वच्छता, अमंगल ऐसे घर में रहना तो नर्क में रहना है। दिन भर यही विचार उठता रहता, श्रुतिधर बेचैन हो उठे, यह भवन अमंगल है कह कर एक दिन उन्होंने गृह- परित्याग किया और समीप के एक गाँव में जाकर रहने लगे। ग्रामवासी निर्धन हैं, अशिक्षित हैं मैले- कुचैले वस्त्र पहनकर सत्संग में सम्मिलित होते हैं। गाँव की गन्दगी ने पुनः श्रुतिधर के मन में पीड़ा भर दी। ग्राम भी अमंगल है- इस अमंगल में कैसे जिया जाए? श्रुतिधर ने उसका भी परित्याग किया और निर्जन वन में एक वृक्ष के नीचे एकाकी कुटी बनाकर रहने लगे।
         रात आनंद और शान्ति के साथ व्यतीत हो गई किन्तु प्रातःकाल होते ही पक्षियों का कलरव, कुछ जंगली जीव उधर से गुजरे थे कुटी के बाहर उन्होंने आखेट किये जीवों की हड्डियाँ छोड़ दी थीं, आशंका से ओत- प्रोत श्रुतिधर के अन्तःकरण को आकुलित करने के लिए इतना ही पर्याप्त था, उन्हें वन में भी अमंगल के ही दर्शन हुए। अब क्या किया जाए वे इसी चिन्ता में थे तभी उन्हें सामने बहती हुई श्वेत सलिला सरिता दिखाई दी, उन्हें आनन्द हुआ, विचार करने लगे यह नदी ही सर्वमंगल सम्पन्न है सो कानन- कुटी का परित्याग कर वे उस शीतल, पयस्विनी के आश्रय में चल पड़े।
         शीतल जल के सामीप्य से उन्हें सुखद् अनुभूति हुई, अंजुलि बाँधकर उन्होंने जल ग्रहण किया तो अन्तःकरण प्रफुल्लित हुआ, पर इस तृप्ति के क्षण अभी पूरी तरह समाप्त भी नहीं हो पाये थे कि उन्होंने देखा एक बड़ी मछली ने आक्रमण किया और छोटी मछली को निगल लिया, इस उथल- पुथल से सरिता के तट पर हिलोर पहुँची- जिससे वहाँ रखे मेढकों- मच्छरों के अण्डे बच्चे पानी में उतराने लगे अभी यह स्थिति भी न हो पाई थी कि ऊपर से बहते- बहते किसी श्वान का शव उनके समीप आ पहुँचा। यह दृश्य देखते ही श्रुतिधर का हृदय घृणा से भर गया। उन्हें उस नदी के जल में भी अमंगल के ही दर्शन हुए।
         अब कहाँ जाया जाए? इस प्रश्न ने श्रुतिधर को झकझोरा! वन, पर्वत, आकाश सभी तो अमंगल से परिपूर्ण हैं उनका हृदय उद्वेलित हो उठा। इससे अच्छा तो यही है, कि जीवन ही समाप्त कर दिया जाए, अमंगल से बचने का एक ही उपाय उनकी दृष्टि में शेष रहा था।
श्रुतिधर ने लकड़ियाँ चुनीं, चिता बनाई, प्रदक्षिणा की और उस पर आग लगाने लगे तभी उधर कहीं से वासुकी आ पहुँचे। यह सब कौतुक देखकर उन्होंने पूछा- ‘‘तात्! तुम क्या कर रहे हो?’’ दुःख भरे स्वर में श्रुतिधर ने अपनी अब तक की सारी कथा सुनाई और कहा- ‘‘जिस सृष्टि में सर्वत्र अमंगल ही अमंगल हो उसमें रहने से तो मर जाना अच्छा।’’
वासुकी मुस्काराये, एक क्षण चुप रहे फिर मौन भंग करते हुए बोले- ‘‘वत्स तुम चिता मे बैठोगे, तुम्हारा शरीर जलेगा, शरीर में भरे मल भी जलेंगे, उससे भी अमंगल ही तो उपजेगा, उस अमंगल में क्या तुम्हें शान्ति मिल पायेगी?’
      तात्। सृष्टि में अमंगल से मंगल कहीं अधिक है घर में रहकर सुयोग्य नागरिकों का निर्माण गाँव में शिक्षा संस्कृति का विस्तार, वन में उपासना की शान्ति और जल में दूषण का प्रच्छालन प्रकृति की प्रेरणा यही तो है कि सृष्टि में जो मंगल है उसका अभिसिंचन, परिवर्द्धन और विस्तार हो, जो अमंगल है, उसका शुचि- संस्कार, यदि तुम इसमें जुट पड़ो तो अशान्ति का प्रश्न ही शेष न रहे। श्रुतिधर को यथार्थ का बोध हुआ वे घर लौट आये और मंगल की साधना में जीवन बिताने लगे।
१०. सत्यनिष्ठ बालक
     अपने शयनागार में सोये हुए महाराज छत्रपति शिवाजी के निकट पहुँचकर वह बालक तलवार का प्रहार करने ही वाला था कि सेनापति तानाजी ने उसे देख लिया और लपककर उसका हाथ पकड़ लिया धक्का देकर जमीन पर गिरा दिया।
धमाका सुनकर महाराज शिवाजी जाग पड़े। देखा कि तानाजी द्वारा एक बालक पकड़ा हुआ है, जो उन्हें मारने के लिए किसी प्रकार शयनागार में घुस आया था, पकड़ा हुआ बालक निर्भीकता से खड़ा हुआ था। शिवाजी ने उससे पूछा- ‘तुम कौन हो? और यहाँ किसलिए आये थे?’
     बालक ने कहा- मेरा नाम मालोजी है और मैं आपकी हत्या करने के लिए यहाँ आया था। महाराज ने पूछा- तुम नहीं जानते हो कि इसके लिए तुम्हें क्या दण्ड मिलेगा?
‘‘जानता हूँ महाराज! मृत्युदण्ड’’ बालक ने उत्तर दिया।
तो इतना जानते हए भी तुम मेरी हत्या करने क्यों आये? क्या तुम्हें अपने प्राणों का मोह नहीं था, मालो। शिवाजी ने उससे पूछा।
        बालक ने अपनी सारी कथा कह सुनाई। उसने कहा- ‘‘मेरे पिता आपकी सेना में नौकर थे, वे एक युद्ध में मारे गये। पीछे राज्य से हम लोगों को कोई सहायता न मिली। अब हम माँ- बेटे बड़े कष्ट से जीवन काट रहे है। माँ तो कई रोज से बीमार पड़ी है, घर में अन्न का एक दाना भी न होने के कारण हम लोगों को कई फाके हो गये।’’ बालक की आँखे छलक आईं, उसने अपने वृत्तान्त को जारी रखते हुए कहा- मैं भोजन की तलाश में घर से बाहर निकला था कि आपके शत्रु सुभागराय ने मुझे बताया, कि शिवाजी कितना निष्ठुर है, जिसकी सेवा में तेरे पिता की मृत्यु हुई उस शिवाजी से बदला लेना चाहिए, यदि तू उन्हें मार आवेगा, तो मैं तुझे बहुत- सा धन दूँगा। यह बात मुझे उचित प्रतीत हुई और मैं आपकी हत्या के लिये चला आया।
तानाजी ने कहा- ‘‘दुष्ट! तेरे कुकृत्य से महाराष्ट्र का दीपक बुझ गया होता, अब तू मरने के लिए तैयार हो जा।’’
तैयार हूँ! मृत्यु से मैं बिल्कुल नहीं डरता, पर एक बात चाहता हूँ कि मृत्यु शय्या पर पड़ी हुई माता के चरण स्पर्श करने की एक बार आज्ञा मिल जाय। माता के दर्शन करके सबेरे ही वापस लौट आऊँगा। बालक ने उत्तर दिया।
शिवाजी ने कहा- यदि तुम भाग जाओ और वापस न आओ तो?
बालक ने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया- मैं क्षत्रिय पुत्र हूँ, वचन से नहीं लौटूँगा। महाराज ने मालोजी को घर जाने की आज्ञा दे दी।
दूसरे दिन सवेरे ही मालोजी दरबार में उपस्थित था, उसने कहा- महाराज। मैं आ गया, अब मृत्यु दण्ड के लिए तैयार हूँ।
शिवाजी का दिल पिघल गया। ऐसे चरित्रवान बालक को दण्ड दूँ, न मुझसे यह न होगा। महाराज ने बालक को छाती से लगा लिया और कहा- ‘‘तेरे जैसे उज्जवल रत्न ही देश और जाति का गौरव बढ़ा सकते हैं, मालो। तुझे मृत्युदण्ड नहीं, सेनापति का पद प्राप्त होगा। तेरी सत्यनिष्ठा को सम्मानपूर्ण गौरव से पुरस्कृत किया जायेगा।’’

११. अपनी कमाई- सदा काम आई
       राजा जनमेजय प्रति माह कुछ समय राज्य में यह देखने के लिए भ्रमण किया करते थे कि उनकी प्रजा को किसी प्रकार कष्ट तो नहीं है। विकास की जो योजनाएँ क्रियान्वित की जाती हैं, उनका परिपालन होता है या नहीं? उनका लाभ नागरिकों को मिलता है या नहीं?
वे एक गाँव से गुजर रहे थे। छद्म वेश में थे, इसलिए कोई पहचान नहीं सका। एक जगह, लड़के खेल, खेल रहे थे। एक लड़का उनमें शासक बनकर बैठा था, सभासद बने लड़के सामने बैठे थे। शासक का अभिनय करने वाला लड़का, जिसका नाम कुलेश था, खड़ा सभासदों को व्याख्यान दे रहा था- ‘‘सभासदों! जिस राज्य के कर्मचारीगण वैभव- विलास में डूबे रहते हैं, उसका राजा कितना ही नेक और प्रजावत्सल क्यों न हो, उस राज्य की प्रजा सुखी नहीं रहती। मैं चाहता हूँ, जो भूल जनमेजय के राज्याधिकारी कर रहे हैं, वह आप लोग न करें, ताकि मेरी प्रजा असन्तुष्ट न हो। तुम सबको वैभव- विलास का जीवन छोड़कर जीना चाहिए। जो ऐसा नहीं कर सकता वह अभी शासन सेवा से अलग हो जाय।’’
       सभासद तो अलग न हुए पर बालक की यह प्रतिभा उसे ही वहाँ से अवश्य खींच ले गई। जनमेजय उससे बहुत प्रभावित हुए और उसे ले जाकर महामन्त्री बना दिया। कुलेश युवक था तो भी वह बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से राज्य कार्यो में सहयोग देने लगा। सामान्य प्रजा से उठकर जब वह महामन्त्री बनने चला था, तब उसके पास एक कुदाली, लाठी और एक उतरीय वस्त्र अँगोछे के अतिरिक्त कुछ नहीं था, वह इन्हें अपने साथ ही लेता गया।
उसके प्रधानमंत्रीत्व काल में अन्य मन्त्रियों सामन्तों एवं राज्य कर्मचारियों के लिए आचार- संहिता बनाई गई, जिसके अनुसार प्रत्येक पदाधिकारी को दस घण्टे अनिवार्य रूप से कार्य करना पड़ता था। अतिरिक्त आय के स्रोत बन्द कर दिये गये, इससे बचा बहुत- सा धन प्रजा की भलाई मे लगने लगा। सारी प्रजा में खुशहाली छा गई। जनमेजय कुलेश के आदर्श व प्रबन्ध से बड़े प्रसन्न हुए।
     लेकिन शेष सभासद, जिनकी आय व विलासितापूर्ण जीवन को रोक लगी थी, महामन्त्री कुलेश से जल उठे और उसे अपदस्थ करने का षड्यन्त्र रचने लगे।
उन्हें किसी तरह पता चल गया कि महामन्त्री के निवास स्थान पर एक कक्ष ऐसा भी है, जहाँ वह किसी भी व्यक्ति को जाने नहीं देता, जब वह दिन भर के काम से लौटता है, तब स्वयं ही कुछ देर उसमें विश्राम करता है।
       सभासदों ने इस रहस्य को लेकर ही जनमेजय के कान भर दिए कि कुलेश ने बहुत- सी अवैध सम्पत्ति एकत्रित कर ली है। महाराज उनके कहने में आ गये अतएव जाँच का निश्चय कर एक दिन वे स्वयं सैनिकों सहित कुलेश के निवास पर जा पहुँचे। सब ओर घूमकर देखा पर महाराज को सम्पत्ति के नाम पर वहाँ कुछ भी तो नहीं दिखा, तभी उनकी दृष्टि उस कमरे में गई, वे समझे कुलेश निश्चय ही अपनी कमाई इसमें रखता है।
   महाराज ने पूछा- ‘‘कुलेश! तुम इस कक्ष में एकान्त में क्या किया करते हो?’’ इनकी पूजा महाराज! उसने उत्तर दिया। कुदाली मुझे सदैव परिश्रम के प्रेरणा देती है और लाठी स्वजनों की सुरक्षा की उत्तरीय वस्त्र की पूजा मैं इसलिए करता हूँ कि घर हो या बाहर यही बिछौना मेरे लिए पर्याप्त है। यह कहकर कुलेश ने तीनों वस्तुएँ उठा लीं और फिर उसी ग्रामीण जीवन में चला गया।
      महाराज जनमेजय को सभासदों के षड्यन्त्र का दुःख अब भी बना हुआ है, वह तब दूर हो जब कुलेश जैसे राज्य कर्मचारी देश में उत्पन्न हों।
१२. लोकरंजन के लिए नहीं, लोकमंगल के लिए
       घर के सब लोग सो चुके थे। पर रसोईघर में दीपक का मन्द प्रकाश अभी टिमटिमा रहा है। इसी दीपक तले बैठा एक चौदह वर्षीय बालक जमीन पर खड़िया से चित्र बना रहा था।
      आधी रात इसी प्रकार बीत गयी। नींद आने लगी, तो वह कमरे में सोने चला गया और यह सोचकर प्रसन्न हो रहा था कि प्रातः जब लोग मेरे मर्मस्पर्शी चित्र को देखेंगे, तो खुश होंगे, पुरस्कार देंगे।
       सुबह हुई। बालक प्रतिक्रिया जानने पिता के पास यह सोचते हुए पहुँचा कि आज यदि पुरस्कार मिला, तो सबसे पहले वह उससे एक तूलिका और कुछ रंग- रोगन खरीदेगा एवं कागज पर चित्रकारी करेगा। पिता के समक्ष जब वह उपस्थित हुआ तो इनाम की जगह मिला उसे एक जोरदार तमाचा और अपमान भरे भद्दे शब्द- चित्रकार बनने चला है। अरे! पहले यह भी सोचा है कि तेरे इस पेट को भरेगा कौन? चितेरा ही बनना है, तो पहले अपने इस पेट को भरने का उपाय कर फिर अपनी कलाकारी दिखाना अन्यथा निकल जा इस घर से। मैं इतना धनी- मानी नहीं, जो तुम्हें बिठाकर खिला सकूँ और तुम्हें हाथ भी न हिलाना पड़े।
       बालक अभी था तो किशोरावस्था की दहलीज में ही पर इतना अबोध भी नहीं कि मान- अपमान भी न समझ सके। स्वाभिमान जगा तो घर और घरवालों को सदा- सदा के लिए तिलांजलि देकर निकल पड़ा, आजीविकोपार्जन के लिए। थोड़े से ही प्रयास से बालक राउल्ड को पेरिस के स्टेन्ले ग्लास मेकर कम्पनी में नौकरी मिल गयी। प्रतिमाह 4 फ्रेंक इस छोटी सी नौकरी से ही उसने किराये का एक छोटा सा मकान लिया और किसी प्रकार अपनी गुजर करने लगा। मितव्ययिता निर्वाह से पाँच महीने में उसने इतनी राशि इकट्ठी कर ली, जिससे कैनवास, स्टैण्ड, ब्रुश और रंग खरीदा जा सके। बस, फिर उसने चिरइच्छित अपनी चित्रकारी शुरू कर दी।
        बालक राउल्ड बड़ा संवेदनशील था। वह चित्र के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं को उभारना चाहता था। चूँकि वह अल्पशिक्षित था, अतः मानवीय करुणा को मूर्तिमान कर दूसरों के अन्तःकरण को छूने और पीड़ा का आभास दिलाने का एक मात्र आधार भी तो यही था, इसीलिए अपनी इस कला को और अधिक निखारने और जीवन्त बनाने के लिए पेरिस के नेशनल आर्ट इंस्टीट्यूट में उसने दाखिला ले लिया।
       कहते हैं कि यदि सोने में सुगन्ध होती, तो अपनी चमक -दमक से वह चन्दन को भी फीका कर देता। राउल्ड के साथ ऐसा ही हुआ। सोने में सुगन्ध का सम्मिलन, जब वह प्रशिक्षण लेकर बाहर निकला तो मानवता के प्रति उसके हृदय में कसक और वेदना थी, वह उसकी तूलिका से ऐसी उभरी, मानो साक्षात् मानवीय करुणा को उठाकर कैनवास पर रख दिया हो। उसने पहला चित्र प्रशिक्षण लेने के बाद बनाया, वह एक ऐसी पीड़ित नारी का था, जिसके पाँवों के घावों पर मरहम पट्टी करते हुए एक सुहृदय की सौजन्यता को दर्शाया गया था। दूसरी तस्वीर उसने एक गाय को ऊँट के बच्चे को दूध पिलाते हुए बनायी थी। तीसरा चित्र उसने एक भूख से बिलबिलाते प्राण त्यागते बालक का बनाया था। इसी प्रकार उसने ढेर सारी तस्वीरें बनायीं, जो समाज की किसी न किसी समस्या का प्रतिनिधित्व करती थीं, जो भी उन चित्रों को देखता, आह निकले बिना न रहती। हाय! ऐसी दुर्दशा है हमारे समाज की लोगों के मुँह से बरबस उस समय वेदना फूट पड़ती।
      एक बार राडल्ड के एक घनिष्ठ मित्र ने उसे सलाह दी- राउल्ड! यह क्या समाज की घिसी- पिटी समस्याओं को लेकर चित्र बनाते हो। शायद इसीलिए तुम्हारे चित्र दूसरों की तुलना में अधिक नहीं बिकते। मेरा कहा मानो तो मार्डन तस्वीर बनाओ, फिर देखो तुम रातों- रात किस तरह चमकते हो?
      यह मार्डन तस्वीर क्या बला होती है? राउल्ड ने उत्सुकतावश पूछा, क्योंकि इस नये शब्द को उसने पहली बार सुना था।
वही जो दूसरों की समझ में न आये। मित्र ने स्पष्ट किया।
जो दूसरों की समझ में ही न आये, वैसी तस्वीर बनाने का क्या तात्पर्य, उससे समाज को क्या लाभ?
शायद तुमने एक शायर की यह पंक्तियाँ नहीं सुनीं।
‘‘कौन सी?’’ राउल्ड ने पूछ लिया।
‘‘वही तस्वीर कलामय है, जिसे आलिम तो क्या समझे।
अगर सौ साल सर मारे, तो शायद ही खुदा समझे।’’
आज मार्डन आर्ट की परिभाषा यही है और एक बात और! तुम समाज के हानि- लाभ के व्यापार में मत पड़ो। अपने नफे- नुकसान की बात सोचो।
बस तुम्हारे- हमारे विचारों में यही सबसे बड़ा अन्तर है। राउल्ड ने कहा- तुम अपने हानि- लाभ के लिए अपनी यश कीर्ति के लिए काम करना चाहते हो, जबकि हमारा मत ठीक इसके विपरीत है। मैं हर कार्य को करने से पूर्व यह सोचता हूँ कि इससे समाज को क्या और कितना लाभ मिलेगा, भले ही उसमें हमें व्यक्तिगत रूप से हानि उठानी पड़े।
इसलिए प्रिय बन्धु! मैं समाज के समस्यामूलक चित्रों को बनाना न छोडूँगा, भले ही वे न बिकें और मेरा उद्देश्य भी पैसा कमाना नहीं है। मैं इन चित्रों की जगह- जगह प्रदर्शनी लगाकर समाज की विभिन्न समस्याओं के प्रति जनचेतना उभारूँगा और लोगों को उनके प्रति जागरूक करूँगा? भड़ाकने और यौन- उन्माद उत्पन्न करने अथवा प्रेरणाहीन तथाकथित आधुनिक चित्र बनाने को मैं कला की श्रेणी में नहीं गिनता। यही मेरा अन्तिम निर्णय और निश्चय है।
मित्र उसके तर्क के आगे नत्मस्तक हो गया। कभी फ्रांस में मूक क्रांति लाने वाले इस चित्रकार की क्रान्तिधर्मी तस्वीरें आज भी पेरिस के मोरियो गुटराव संग्रहालय में सुरक्षित पड़ी हैं। यद्यपि आज इन चित्रों का सृष्टा तो न रहा, किन्तु काश कोई उसकी प्रेरणा को ग्रहण कर उसके अधूरे आन्दोलन को पूरा करे। काश! आधुनिक चित्रकार उनकी अन्तःपीड़ा को समझकर उनकी आदर्शवादी लीक पर चल सकते तो सामाजिक समस्याओं के प्रति जन- जागृति लाने में काफी मदद मिलती।

१३. प्रतिकूलताओं ने प्रशस्त किया सफलता का पथ
अमेरिका का ख्यातिनामा शहर शिकागो- सर्दी के दिन! व्यस्त राजमार्ग पर भी बहुत कम चहल- पहल नजर आ रही थी। जितने अमरीकी, सड़क पर गुजरते हुए दिखाई भी देते, वे लम्बा ऊनी कोट पहने और कैप लगाए थे। होटल और रेस्तरां खचाखच भरे थे। लोग गर्म चीजें खा- पीकर अपनी ठण्ड को भुलाने का प्रयास कर रहे थे।
ऐसी कड़ाके की ठण्ड में एक भारतीय सन्यासी बोस्टन से आने वाली रेलगाड़ी से शिकागो स्टेशन पर उतरा। सिर पर पगड़ी बँधी थी, उसका भी रंग गेरुआ ही था। विचित्र वेश- भूषा को देखकर अनेक यात्रियों की दृष्टि उस पर जम गई। वह फाटक पर पहुँचा। लम्बे चोगे की जेब से टिकिट निकाला और टिकिट कलेक्टर को देकर वह प्लेटफार्म से बाहर आ गया। उसे देखने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। भीड़ में से ही किसी ने पूछ लिया- ‘‘आप कहाँ से आए हैं?’’
बोस्टन से, पर निवासी भारत का हूँ।
यहाँ किससे मिलना है?
डॉ बैरोज से,
कौन डॉ बैरोज?
सन्यासी ने अपने चोगे की जेब में हाथ डाला पर हाथ खाली ही निकला।
क्यों, क्या हुआ?
मैं डॉ. बैरोज के नाम बोस्टन से प्रोफेसर जे. एच. राइट का एक पत्र लाया था। उसी पर पता लिखा था, पर वह कहीं रास्ते में गुम हो गया।
दर्शक उसकी बात को सुनकर हँसने लगे। भीड़ धीरे- धीरे छँटने लगी। सन्यासी अब अकेला रह गया। पास से निकलने वाले एक शिक्षित व्यक्ति को रोककर संन्यासी ने पूछा- ‘क्या आप मुझे डॉ. बैरोज के घर का पता बता सकते हैं?’
वह अनसुनी करके अपनी आँखें मटकाता हुआ आगे बढ़ गया। सन्यासी स्टेशन की सीमा पार कर राजमार्ग पर चलने लगा। उसकी दृष्टि दोनों ओर लगे साइन बोर्डो पर थी। शायद इन्हीं के बीच कहीं डॉ. बैरोज का बोर्ड दिखाई दे जाए। ढूँढते- ढूँढते शाम हो गयी। बिना पूूरे पते के इतने बड़े शहर में किसी व्यक्ति से मिलना आसान काम न था। ठण्ड बढ़ने लगी। शीत लहर चलने लगी। साधु के पास गर्म कपड़े तो थे नही। उसने दो दिन से भोजन भी न किया था। पास में एक पैसा नही सोचा था शिकागो पहुँचकर वह डॉ. बैरोज का अतिथि बनेगा, पर कभी- कभी सोचा हुआ काम कहाँ हो पाता है?
उसे सामने एक बहुत बड़ा होटल दिखाई दिया। केवल रात काटनी थी। उसने होटल की ओर कदम बढ़ाए। सीढ़ियों की ओर चढ़ना था कि दरबान ने रोक दिया- तुम कौन हो?
मैं रात्रि में यहाँ विश्राम करना चाहता हूँ।
नीग्रो को ठहरने के लिए इस होटल में कोई स्थान नहीं।
मैं भारतीय हूँ।
तुम काले हो। काले लोगों के लिए इस होटल में कोई जगह नहीं। दरबान ने बड़ी बेरहमी से कहा।
सन्यासी के चरण पुनः सड़क की ओर अनमने भाव से बढ़ने लगे। उसे लगा कि अब आगे एक कदम भी चलना मुश्किल है। आँखों के सामने अन्धेरा छाने लगा। यदि वह और आगे बढ़ा तो जमीन पर गिर जाएगा, पर क्या करता? आगे बढ़ना ही जिसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य हो।
उसने देखा वह रेलवे मालगोदाम के पास आ गया है। वह उसी तरफ बढ़ता चला गया, गोदाम बन्द हो चुका था। बाहर लकड़ी का एक बड़ा बॉक्स खाली था अन्दर थोड़ी घास पड़ी थी। ऊपर ढक्कन रखा हुआ था। भोजन की कोई व्यवस्था न हो पायी, पर ठण्ड से अपने शरीर की रक्षा करनी ही थी। वह अन्दर की घास को एक तरफ करके उसमें उतर गया, ऊपर से ढक्कन खिसका लिया।
रात भर बर्फीली हवा चलती रही। जब तख्तों के छेदों से सर्दी अन्दर प्रवेश कर जाती तो वह काँप उठता था। जैसे- तैसे रात कट गयी। बॉक्स से सन्यासी बाहर निकला। शरीर सुन्न पड़ गया था, जैसे- तैसे लकड़ी की पेटी से निकलकर सड़क के किनारे पड़ी बैंच पर बैठ गया।
बैठकर सोच रहा था क्या करे? संघर्ष, निरन्तर संघर्ष, परिस्थितियाँ कैसी भी क्यों न हों, उसने हार मानना सीखा न था। विपरीतताएँ- उसका क्या कर सकती हैं, जिसने हार मानना सीखा न हो। फिर जिन्हें परम सत्ता पर, उसके निर्देशों के अनुसार चलने का विश्वास हो उनका क्या कहना। उसे पूर्ण विश्वास था कि जब मनुष्य किसी सत्कार्य में पूरी तरह अपने शरीर व मन को खपा देता है, तो जैसे ही उसकी शक्तियाँ चुकने को होती हैं, दैवी- चेतना उसकी सहायता के लिए तत्पर हो जाती है। और हुआ भी ऐसा ही- जिस स्थान पर बैठे थे, अचानक उसके सामने के भवन का द्वार खुला। एक सुशील सौम्य महिला बाहर निकली, पास आयी और बोली- स्वामी जी मैं अज्ञात किन्तु सशक्त प्रेरणा से आपके पास आयी हूँ। आप यहाँ सर्व धर्म सम्मेलन हेतु पधारे हैं- मैं आपकी क्या सहायता कर सकती हूँ?
मेरा नाम विवेकानन्द है। मैं भारत से इस सम्मेलन में भाग लेने आया हूँ। मुझे बोस्टन से डॉ.बैरोज के नाम प्रो.राइट ने पत्र दिया था वह कहीं गुम हो गया।
वह महिला बड़े सम्मान के साथ उन्हें अपने घर ले गयी। भोजन, गर्म कपड़े तथा निवास की पूर्ण व्यवस्था की। दूसरे दिन सर्वधर्म सम्मेलन के कार्यालय में ले जाकर परिचय कराया।
11 सितम्बर, 1893 का दिन बड़े ही महत्त्व का था। इसी दिन हजारों की संख्या में लोगों ने उनके उद्गारों को सुना, सराहा और अनुयायी हुए। अब प्रत्येक अमेरिकावासी की जुबान पर उन्हीं का नाम था। यह वही व्यक्ति था जो रात काटने के लिए एक दिन भटकता रहा था। आज लोगों के हृदय में अपना स्थान बनाए हुए था। अनेक समाचारों के मुखपृष्ठ पर उनके भाषण छपने लगे। उसी नगर में स्थान- स्थान पर अनेक बड़े- बड़े चित्र लगाए गए जिसके नीचे मोटे- मोटे अक्षरों में लिखा था ‘‘स्वामी विवेकानन्द एमाँक फ्रॉम इण्डिया ’’ क्या था उनकी सफलता का राज? उसे उन्होंने ही बताते हुए एक अवसर पर कहा था- ‘‘उठो जागो, रुको मत, जब तक अपने लक्ष्य तक न पहुँच जाओ।’’ इसी मन्त्र की उन्होंने साधना की, आदि काल से महामानवों ने इसी को अपने जीवन मन्त्र के रूप में अपनाया है। हमारे अपने लिए भी यही महामन्त्र है।

१४. सबसे श्रेष्ठ- सबसे महान् स्मारक
         घटना कलकत्ता की है। आजकल श्री सोमानी जी बड़ी ही उलझन में रहते थे, उनके पिताजी का देहान्त हो चुका था और वे उनकी स्मृति को अमर बनाने के लिये कोई प्रतीक बनवाना चाहते थे। वे एक धनीमानी व्यक्ति हैं साथ ही बुद्धिमान भी। यों तो परम्परागत कई चीजे हैं बनवाने को- कुआँ, मन्दिर, धर्मशाला, अस्पताल तथा अन्य उपकरण किन्तु इन सबसे परे वे कोई ऐसी चीज बनवाना चाहते थे, जिससे अधिक से अधिक व्यक्ति केवल लाभान्वित ही न हों- बल्कि जीवन में कोई सही दिशा भी पा सकें।
क्या बनावाएँ? यही निर्णय वे नहीं ले पा रहे थे और इसी से मानसिक स्थिति उद्विग्न बनी रहती थी। आज भी जब भोजन से निवृत्त हुए तो थोड़ी देर आराम करने के उद्देश्य से लेटे थे। पत्नी से भी छिपी न रही थी वह मानसिक ग्रन्थि। वह आई और पास बैठ गई। पूछा- ‘‘आजकल आप बहुत सोच- विचार किया करते हैं। ऐसी क्या नई बात आ गई है? पिताजी के न रहने से काम की सारी जिम्मेदारी आपके ऊपर आ गई है। काम भी बढ़ ही गया है। न हो तो एक- आध आदमी और रख लें।’’
         तब श्री सोमानी जी बोले- नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। काम से मैं नहीं घबराता। सब हो ही रहा है। मेरे दिमाग मे एक ही चिन्ता है। पिताजी का स्वर्गवास हुए एक वर्ष होने को आया और मैं अभी तक उनके स्मारक के रूप में कुछ बनवाने की बात को पूरा नहीं कर सका हूँ।
तब सौहार्द्र भरे स्वर में पत्नी बोली- यदि आप स्वयं इस समस्या का हल निकालने में सफल नहीं हो पा रहे हैं, तो अपने मित्रों से सलाह लीजिये। कोई न कोई बात जँच ही जायेगी।
और दूसरे दिन से सचमुच ही वे अपने सब मित्रों से इस विषय पर परामर्श करने लगे। मित्र भी सभी स्तरों के थे। अधिकांश ने वही बातें दुहराई। किसी ने मन्दिर बनवाने को कहा, किसी ने प्याऊ लगाने को। किसी ने अन्न तथा वस्त्र के वितरण पर जोर दिया तो किसी ने बच्चों को मुफ्त दूध बँटवाने की सलाह दी, पर सारे ही परामर्श उन्हें उपयोगी होते हुए भी प्राणहीन से लगे। वे कोई ऐसी योजना चाहते थे, जिससे व्यक्ति कोई स्थायी सहायता पा सके। तभी उनके एक मित्र ने उन्हें परामर्श दिया कि आप एक पुस्तकालय बनवाएँ, उससे अधिक से अधिक व्यक्ति लाभान्वित होंगे तथा जीवन का शाश्वत- ज्ञान प्राप्त करेंगे।
यह बात श्री सोमानी जी को बहुत पसन्द आई। उनके मस्तिष्क के तन्तु जिस तत्व की खोज में थे, वह मिल गया था। अब उन्होंने तत्काल ही योजना को कार्यान्वित करने के लिये सारी योजनाएँ जुटाने की जिम्मेदारी विभिन्न व्यक्तियों को सौंप दी।
       श्री सोमानी जी ने तीस हजार रुपया इस शुभ कार्य के लिये व्यय किया। पुस्तकालय बन गया, उसमें चुन- चुन कर व्यक्ति और समाज का सही मार्ग- दर्शन कर सकने वाली पुस्तकें रखी गई, निरर्थक साहित्य का एक कागज भी उनमें नहीं घुसने दिया। अब सैकड़ों व्यक्ति हर रोज उसका लाभ उठाने लगे। अनेक दिशाहीनों को जीवन जीने का ढंग मिला। ज्ञान आत्मा का भोजन है वह जिसे भी मिला है उसने सद्पथ की ओर ही कदम बढ़ाये हैं। सदा अनेक व्यक्ति इस पुस्तकालय से जीवन निर्माण का प्रकाश प्राप्त कर रहे हैं।
निश्चय ही इस स्वरूप में अपना स्मारक देखकर स्वर्ग में उनके पिताजी की आत्मा बहुत ही प्रसन्न तथा संतुष्ट हुई होगी।
१५. वीर बाला रत्नावती
        जैसलमेर नरेश महारावल रत्नसिंह अपने किले से बाहर राज्य के शत्रुओं का दमन करने गये थे। जैसलमेर किले की रक्षा का दायित्व उन्होंने अपनी पुत्री रत्नावती को सौंपा था। इसी समय दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन की सेना ने जैसलमेर को घेर लिया। इस सेना का सेनापति मलिक काफूर था। किले के चारों ओर मुसलमानी सेना ने पड़ाव डाल दिया, लेकिन इससे रत्नावती घबराई नहीं ।। वह वीर सैनिक का वेश पहने, तलवार बाँधे, धनुष- बाण चढ़ाये घोड़े पर बैठी किले की बुर्जों पर और दूसरे सब आवश्यक स्थानों पर घूमती और सेना का संचालन करती थी। उसकी चतुरता और फुर्ती के कारण मुसलमान सेना ने जब- जब किले पर आक्रमण करना चाहा, उसे अपने बहुत से वीर खोकर पीछे हट जाना पड़ा।
जब अलाउद्दीन के सैनिकों ने देखा कि किले को तोड़ा नहीं जा सकता, तब एक दिन बहुत से सैनिक किले की दीवारों पर चढ़ने लगे। रत्नावती ने पहले तो अपने रक्षक सैनिक हटा लिये और उन्हें चढ़ने दिया, पर जब वे दीवार पर ऊपर तक चढ़ आये तब उसने उनके ऊपर पत्थर बरसाने और गरम तेल डालने की आज्ञा दे दी। इससे शत्रु का वह पूरा दल नष्ट हो गया।
एक बार एक मुसलमान सैनिक छिपकर रात में किले पर चढ़ने लगा, लेकिन रत्नावती इतनी सावधान रहती थी कि उसने उस सैनिक को देख लिया। सैनिक ने पहले तो यह कहकर धोखा देना चाहा कि मैं तुम्हारे पिता का संदेश लाया हूँ। किन्तु राजकुमारी रत्नावती को धोखा देना आसान नहीं था। उसने शत्रु सैनिक को बाणों से बींध दिया।
         सेनापति मलिक काफूर ने देखा कि वीरता से जैसलमेर का किला जीतना कठिन है। उसने बूढ़े द्वारपाल को सोने की ईंटें दीं कि वह रात को किले का फाटक खोल दे। लेकिन सच्चे राजपूत लोभ में आकर विश्वासघात नहीं करते। द्वारपाल ने रत्नावती को यह बात बतला दी। रत्नावती ने भी देखा कि शत्रु को पकड़ने का यह अच्छा अवसर है। उसने द्वारपाल को रात में किले का दरवाजा खोल देने को कहा।
     आधी रात को सौ सैनिकों के साथ मलिक काफूर किले के फाटक पर आया। बूढ़े द्वारपाल ने फाटक खोल दिया। वे लोग भीतर आ गये तो फाटक बंद करके वह उन्हें रास्ता दिखाता आगे ले चला। थोड़ी दूर जाकर बूढ़ा किसी गुप्त रास्ते से चला गया। मलिक काफूर और उसके साथी हैरान रह गये। कि ले के बुर्ज पर खड़ी होकर राजकुमारी रत्नावती हँस रही थी। राजकुमारी की सूझ- बूझ से वे लोग कैद कर लिये गये थे। सेनापति के पकड़े जाने पर भी मुसलमान सेना ने किले को घेरे रखा। किले के भीतर जो अन्न था वह समाप्त होने लगा। राजपूत सैनिक उपवास रखने लगे। रत्नावती भूख से दुबली और पीली पड़ गई। लेकिन ऐसे संकट में भी उसने राजा के न्याय- धर्म को नहीं छोड़ा। अपने यहाँ जेल में पड़े शत्रु को पीड़ा नहीं देनी चाहिये, यह अच्छे राजा का धर्म है। रत्नावती अपने सैनिकों को रोज एक मुट्ठी अन्न देती पर मलिक काफूर और उसके कैदी साथियों को रोज दो मुट्ठी अन्न दिया जाता था।
         अलाउद्दीन को जब पता लगा कि जैसलमेर के किले में उसका सेनापति कैद है और किला जीता नहीं जा सकता तो उसने महारावल जी के पास संधि का प्रस्ताव भेज दिया। रत्नावती ने देखा कि एक दिन किले के चारों ओर से मुसलमानी सेनाएँ अपना तम्बू- डेरा उखाड़ रही हैं और उसके पिता अपने सैनिकों के साथ चले आ रहे हैं।
मलिक काफूर जब किले की जेल से छोड़ा गया तो उसने राजकुमारी को शीश नवाया और कहा राजकुमारी साधारण लड़की नहीं हैं। वे वीर तो हैं ही, देवी भी हैं। उन्होंने खुद भूखी रहकर हम लोगों का पालन किया है। वे पूजा करने योग्य हैं।

१६. साहस और सामूहिकता का अनुपम चमत्कार
          सन्ध्या बेला थी। दिवाकर की अन्तिम अरुणिम किरणें उस हरी- भरी वाटिका के पुष्पों को दुलार रही थीं। नाना प्रकार के सुन्दर- सुरभित पुष्प- गुच्छ उपवन की शोभा को द्विगुणित कर रहे थे।
       सभी बच्चों ने मिलकर इसी वाटिका को अपना क्रीड़ा- स्थल चुना था। आज भी सदैव की भाँति सभी बालक एकत्रित हो, यहीं खेलने आये। सभी अपना अलग- अलग मन्तव्य देने लगे कि आज अमुक खेल खेलेंगे, किन्तु कुछ समय पश्चात् यह निर्णय लिया गया कि आज लुका- छिपी का खेल खेला जायेगा। छिपने के लिए एक बालक उस वाटिका की सीमा से बाहर निकलकर कुछ दूरी पर एक पेड़ के नीचे जाकर छिप गया। सभी बालक इकट्ठे होकर फिर छिपने की तैयारी में थे, तभी एक बालक को कम पाया। सभी चिन्तित हो गये।
एक लड़का जो कि टोलीनायक था; उसने सभी का शोरगुल बन्द करवाया तथा एक- एक से पूछने लगा। कोई भी उसका सही पता नहीं बता सका।
      इसी शान्त वातावरण के बीच ही एक ओर से कुछ चीखें सुनाई दीं। बालकों ने सोचा शायद उसी की आवाज होगी। वे सभी तुरंत ही उस आवाज की ओर भागे। कुछ ही क्षण में सभी बालक उस निर्जन स्थान में पहुँच गये, जहाँ वह बालक अजगर की लपेट में फँसा छटपटा रहा था। बालक इस भयावह दृश्य को देखते ही उल्टे पाँव भागे, किन्तु उन्हीं बालकों में से एक ग्यारह वर्षीय बालक वहीं खड़ा रहा। वह अपने साथी को इस स्थिति में छोड़कर न जा सका।
      उसने अपने भागते हुए साथियों को पुकारकर कहा- ‘‘हमें अपने साथी को इस विपत्तिग्रस्त स्थिति में छोड़कर नहीं भागना चाहिए। एक तरफ तो वह अकेला अजगर है और एक तरफ हम इतने ढेर सारे साथी। फिर डरकर क्यों भागें? क्या हम सभी अपने साथी को छुड़ा न सकेंगे? अपना वह साथी कुछ ही क्षणों में मृत्यु का ग्रास बनने वाला है और हम हैं कि उसे बचाने का प्रयास भी नहीं कर पा रहे हैं, दूर से ही डर रहे हैं। यह तो उसके प्रति विश्वासघात होगा। हमें ऐसा नहीं करना चाहिये। हम साथ खेलने आये थे, साथ ही जाना चाहिये।’’
        इतना कहते ही वह उस बालक को बचाने के प्रयास में अपने प्राणों का मोह त्यागकर सर्प की तरफ भागा। उसे जाते देख अन्य साथी भी निकट से डण्डे उठाकर ले आये, कोई टहनियाँ तोड़ लाया और वे अपने साथी को छुड़ाने हेतु आगे बढ़े। लड़कों की भीड़ को अपने ऊपर झपटते देख अजगर ने पकड़ ढीली कर दी और समीपवर्ती झाड़ी में छिप गया। बौखलाया हुआ बालक मृत्यु के पंजे से स्वतन्त्र हो गया और प्रसन्न होता हुआ अपने साथियों के गले से लिपट गया।
       ऐसे विकट समय में यदि वह बालक साहस से काम न लेता तो अपने एक साथी को खो देता। साथ ही कायरता का कलंक भी लगता। संकट से जूझने से उन्हें आत्मविश्वास की शक्ति भी मिली और पारस्परिक सहयोग में सफलता की नींव का मर्म उनकी निर्मल बुद्धि में बैठ गया।
      जिन बालकों में ऐसे साहस एवं सहयोग के गुण होते हैं, उन्हें यदि प्रस्फुटित होते रहने का पर्याप्त अवसर मिलता रहे तो वे अपने भावी जीवन में महान् कार्य भी सम्पादित कर जाते हैं, जिससे दूसरों को भी प्रेरणा मिलती है। यही साहसी बालक था ‘‘वर्द्धमान’’ जो आगे चलकर तीर्थंकर ‘‘महावीर स्वामी’’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
१७. मिस कार्लविन सी करुणा हो तो संसार स्वर्ग बन जाए
      २६ नवम्बर १९६२ की बात है। हॉलैण्ड के आन्हर्म शहर में शाम को टी.वी. पर एक डाक्टर ने बड़े ही मार्मिक स्वरों में जनता से अपील की। वह अपंगों के लिए एक गाँव बसाना चाहता था। टी.वी. के माध्यम से उसने अपनी योजना और अपंगों के प्रति करुणा और सहानुभूति जगाने की प्रेरणा जनता को दी। जनता से अपंगों के लिए मदद भेजने की अपील की।
       कार्लविन ने भी इस अपील को सुना और विचार करने लगी ‘‘सचमुच इस योजना के लिए कुछ न कुछ दिया जाना चाहिए। ये सब भी हमारे परिवार, समाज के अंग हैं, इनके लिए हमें कुछ करना चाहिए। पर वह क्या दे?’’
‘‘वह तो एक नौकरानी है। बहुत कम कमाती है। जो कमाती है वह सब खर्च भी हो जाता है। उसके पास कुछ बचत भी नहीं है। उसने सोचा कुछ दिनों बाद उसकी शादी होने वाली है, तब वह अपने पति से कहकर इस बस्ती के लिए यथा शक्ति दे सकगी।’’
पर शादी में तो अभी बहुत समय है। तब तक के लिए इस सेवा यज्ञ में आहुति देने से रुकना नहीं चाहिए।’’ उसने अपनी मालकिन से दो महीने की तनख्वाह उधार माँगी। उसकी मालकिन कड़क स्वभाव की थी, ‘‘क्या करोगी? क्या जरूरत आ पड़ी?’’ उसने पूछा।
कार्लविन का मन हुआ कह दे कि ‘‘हेट डार्प’’ के लिए भेजूँगी, पर तभी मन में ख्याल आया कि मालकिन हँसी न उड़ाने लगे। सो उसने बहाना बनाया कि सहेली का विवाह है उसे उपहार देने के लिए चाहिए। ‘‘फिर अपनी शादी के लिए चार महीने की तनख्वाह पेशगी माँगोगी!’’ कहकर मालकिन ने पैसे देने से इन्कार कर दिया। पर कार्लविन का संकल्प दृढ़ था। वह अपनी ओर से कुछ मदद करना चाहती थी। उसने अपना संदूक टटोला कि शायद कहीं कुछ रुपए रखे हों, पर उसे एक पैसा भी नहीं मिला। वह कुछ निराश हो गई और सोचने लगी कि अब क्या करे? तभी उसकी आँखें चमक उठीं। उसके हाथ में कुछ दिनों पूर्व ही बनवाए कपड़े थे। यह कपड़े उसने पाई- पाई जोड़कर अपनी शादी के लिए बनवाए थे।
मन में प्रेरणा उठी कि हेट डार्प में बसने वाली स्त्रियों के लिए कपड़ों की जरूरत भी तो पड़ेगी। क्यों न ये कपड़े उनके लिए दे दिए जाएँ। उसने उसी दिन टी.वी. द्वारा प्रसारित पते पर एक पत्र लिखा। पत्र में अपनी पूरी स्थिति स्पष्ट करते हुए इस क्षुद्र सहयोग को स्वीकार करने का आग्रह किया।
      पत्र जिस तत्परता के साथ लिखा गया था, उसी तत्परता से उत्तर भी आया। उसका योगदान न केवल स्वीकर कर लिया गया था, वरन् उसे यह उपहार देने के लिए टी.वी. स्टेशन बुलाया गया था; ताकि उसकी भावनाओं को फिल्म द्वारा जन साधारण तक पहुँचाकर उनमें भी वैसी ही भावनाएँ उभारी जाएँ। कार्लविन टी.वी. स्टेशन गई और जब उसे अपनी शादी के लिए बनवाए गए कपड़े देते हुए दिखाया गया तो दर्शक दंग रह गए।
लोगों पर इसका इतना प्रभाव पड़ा कि वे अपने रेडियो, कारें, फर्नीचर और दूसरी तरह- तरह की चीजें दान में भेजने लगे। कुछ विद्यार्थियों ने अपनी छुट्टियों में आकर अपंगों की बस्ती के निर्माण कार्य में हाथ बँटाने का उत्साह दर्शाया। छोटे- छोटे बच्चों ने अपना जेब खर्च बचाकर अपने अपाहिज भाइयों के लिए साधन जुटाए। इस प्रकार कुल मिलाकर ८५ हजार रुपए नकद इकट्ठे हुए और ७ लाख २० हजार रुपए के उपहार जमा हुए, जिनके सहारे अपंगों का वह गाँव बसा। जहाँ आज सैकड़ों व्यक्ति लोगों के सामने दया की भीख माँगने की अपेक्षा उनके कार्यों में सहयोग बँटाते हैं।
जन भावना उभारने में मिस कार्लविन ने वैसी ही भूमिका निबाही, जैसी कि अब से ढाई हजार वर्ष पहले एक अकाल पीड़ित क्षेत्र में एक निर्धन बालिका ने भगवान् बुद्ध के समय निबाही थी और पास में कुछ न होते हुए भी सब कुछ जुटाने का साहस दर्शाया था।
१८. युधिष्ठिर की उपासना
एक- दूसरे के मुख से निकलती हुई यह बात अनेक कानों में समा गई। भले ही कहने वालों के स्वर धीमे हों, पर सभी के मनों में आश्चर्य तीव्र हो उठा। ‘‘क्या करते हैं सम्राट? कहाँ जाते हैं?’’ यद्यपि युद्ध प्रारम्भ होने के पूर्व ही उन्होंने इस तथ्य की स्पष्ट घोषणा कर दी थी कि शाम का समय उनकी व्यक्तिगत उपासना के लिए है। इस समय उन्हें कोई व्यवधान न पहुँचाए।
‘‘लेकिन वेष बदलकर जाना?’’ अर्जुन के स्वर के पीछे चिन्ता की झलक थी। प्रश्न उनकी सुरक्षा का है। भीम कुछ उद्विग्न थे। ‘‘इससे सहायक सेनाएँ विचलित हो सकती हैं।’’ नकुल, सहदेव प्रायः एक साथ बोले। महायुद्ध का प्रवाह पिछले दस दिनों से धावमान था। ऐसे में इन सबका चिन्तित होना स्वाभाविक था। इन भाइयों की भाँति अन्य प्रियजनों की भी यही मनोदशा थी। ‘‘सत्य को जानने का उपाय उद्वेगपूर्ण मानसिकता- चिन्ताकुल चित्त नहीं। एक ही समाधान है। शान्त मन से शोधपूर्ण कोशिश।’’ पार्थसारथी के शब्दों ने सभी के मनों में घुमड़ रहे प्रश्न का उत्तर साकार कर दिया।
दिन छिपते ही युधिष्ठिर जैसे ही अपने कक्ष से बाहर निकले। अन्य भाई भी उनके पीछे हो लिए। मद्धिम पड़ते जा रहे प्रकाश में इन्होंने देखा महाराज अपने हाथ में कुछ लिए उधर की ओर बढ़ रहे हैं, जिधर दिन में संग्राम हुआ था। यह देखकर सभी की उत्सुकता और बढ़ गई। वे अपने को छिपाए उनका सावधानी से पीछा कर रहे थे। युद्धस्थल आ गया तो सब एक ओर छिपकर खड़े हो गए। तारों के मन्द प्रकाश में इन सबकी आँखें पूर्ण सतर्कता से देख रही थीं; आखिर अब ये करते क्या हैं? इनकी ओर से अनजान युधिष्ठिर उन मृतकों में घूम- घूम कर देखने लगे। कोई घायल तो नहीं है, कोई प्यासा तो नहीं है, कोई भूख से तड़प तो नहीं रहा, किसी को घायलावस्था में अपने स्नेही- स्वजनों की चिन्ता तो नहीं सता रही। वे घायलों को ढूँढ़ते, उनसे पूछते और उन्हें अन्न- जल खिलाते- पिलाते बड़ी देर तक वहाँ घूमते रहे। कौरव पक्ष का रहा हो या पाण्डव पक्ष का, बिना किसी भेदभाव के वह सबकी सेवा करते रहे। किसी को घर की चिन्ता होती तो वे उसे दूर करने का आश्वासन देते। इस तरह उन्हें रात्रि के तीन पहर वहाँ बीत गए?

ये सभी उनके लौटने की प्रतीक्षा में खड़े थे। समय हो गया। युधिष्ठिर लौटने लगे तो ये सभी प्रकट होकर सामने आ गए। अर्जुन ने पूछा ‘‘आपको यों अपने आपको छिपाकर यहाँ आने की क्या जरूरत पड़ी?’’
         युधिष्ठिर सामने खड़े अपने बन्धुओं को सम्बोधित कर बोले- ‘तात्! इनमें से अनेकों कौरव दल के हैं, वे हमसे द्वेष रखते हैं। यदि मैं प्रकट होकर उनके पास जाता तो वे अपने हृदय की बातें मुझसे न कह पाते और इस तरह मैं सेवा के सौभाग्य से वंचित रह जाता।’
भीम तनिक नाराज होकर कहने लगे- ‘‘शत्रु की सेवा करना क्या अधर्म नहीं है?’’
‘‘बन्धु! शत्रु मनुष्य नहीं, पाप और अधर्म हुआ करता है।’’ युधिष्ठिर का स्वर अपेक्षाकृत कोमल था ‘‘अधर्म के विरुद्ध तो हम लड़ ही रहे हैं, पर मनुष्य तो आखिर आत्मा है, आत्मा का आत्मा से क्या द्वेष?’’ भीम युधिष्ठिर की इस महान् आदर्शवादिता के लिए नतमस्तक न हो पाए थे, तब तक नकुल बोल पड़े- ‘‘लेकिन महाराज! आपने तो सर्वत्र यह घोषित कर रखा है कि यह समय आपकी ईश्वरोपासना का है, इस तरह झूठ बोलने का पाप तो आपको लगेगा ही।’’
‘‘नहीं नकुल।’’ युधिष्ठिर बोले -‘‘भगवान की उपासना, जप- तप और ध्यान से ही नहीं होती, कर्म भी उसका उत्कृष्ट माध्यम है। यह विराट् जगत् उन्हीं का प्रकट रूप है। जो दीन- दुःखी जन हैं उनकी सेवा करना जो पिछड़े और दलित हैं, उन्हें आत्मकल्याण का मार्ग दिखाना भी भगवान् का ही भजन है।’’ अब और कुछ पूछने को शेष नहीं रह गया था।
सहदेव ने आगे बढ़कर उन्हें प्रणित निवेदन करते हुए कहा- ‘‘लोग सत्य ही कहते हैं, जहाँ सच्ची धर्मनिष्ठा होती है, विजय भी वहीं होती है। हमारी जीत का कारण इसीलिए सैन्यशक्ति नहीं, आपकी धर्मपरायणता की शक्ति है।’’
१९. ईश्वर पर विश्वास
उत्तरी अमेरिका में नियाग्रा नामक एक प्रपात है। इसमें पानी की बहुत चौड़ी धार १६० फीट ऊँचाई से गिरती है। यदि प्रपात के पास कोई खड़ा हो तो जल का कल- कल शब्द बहुत ही भयानक प्रतीत होता है। कोई पानी के प्रपात में गिर पड़े तो जीवित रहने की आशा नहीं है।
अभी कुछ वर्ष पहले की बात है। एक अमरीकन पहलवान ने यह घोषणा की कि वह एक तार पर चलकर नियाग्रा प्रपात पार करेगा। नियाग्रा प्रपात के एक किनारे से दूसरे किनारे तक एक हवाई जहाज की सहायता से ठीक प्रपात के ऊपर से तार फैलाया गया।
पहलवान ने जो दिन निश्चित किया था, उस दिन उसके इस कौशल को देखने को बहुत भीड़ इकट्ठी हुई। ईश्वर का नाम लेकर उसने तार पर चलना प्रारम्भ किया।
भीड़ की आँखें उस पहलवान की ओर लगी थीं। वह धीरे- धीरे चलकर उस पार कुशलता से पहुँच गया। ज्योंही उस पार पहुँचा, भीड़ उसकी प्रशंसा में चिल्ला उठी। बहुतों ने उसको ईनाम दिया। उस समय उसने लाउडस्पीकर पर ईश्वर का धन्यवाद दिया और भीड़ से पूछा, ‘‘क्या आपने मुझे तार पर चलकर प्रपात पार करते देखा?’’ भीड़ ने उत्तर दिया ‘‘हाँ।’’
उसने दूसरा प्रश्न किया,‘‘क्या मैं फिर इस पार से उस पार तक इसी प्रकार पार कर सकता हूँ?’’ भीड़ ने उत्तर दिया ‘‘हाँ।’’
उसने तीसरा प्रश्न किया, ‘‘क्या आप लोगों में से कोई मेरे कन्धे पर बैठ सकता है, जब मैं इस प्रपात को पार करूँ?’’
इस प्रश्न पर भीड़ में सन्नाटा छा गया। कोई भी उसके कन्धे पर पार करते समय बैठने को तैयार नहीं हुआ। फिर उसने अपने १६ वर्षीय इकलौते बेटे को कन्धे पर बैठने को कहा। पुत्र पिता के कहने पर कन्धे पर बैठ गया। पिता ने धीरे- धीरे तार पर चलना प्रारम्भ किया। भीड़ की आँखें उनकी ओर लगी हुई थीं। कोई कहता था, ‘‘अभी दोनों गिरते हैं- अब मरे’’ इत्यादि। परन्तु ईश्वर की कृपा से पहलवान अपने पुत्र सहित सरलता से पार हो गया।
भीड़ ने इस बार पहले से अधिक उसकी प्रशंसा की और बहुत से ईनाम दिये। उसने लाउडस्पीकर से ईश्वर की महिमा पर छोटा- सा भाषण दिया। उसने कहा, ‘‘आप लोगों को मेरी सफलता या योग्यता पर विश्वास न था। इस कारण आप लोगों में से कोई मेरे कन्धे पर बैठने को तैयार नहीं था।
मेरे पुत्र को मुझ पर विश्वास था और इस कारण वह मेरे कन्धे पर बैठने को तैयार हो गया और मैं उसे लेकर इस पार आ गया हूँ। हम सबका पिता ईश्वर है। जिस प्रकार से मेरे बेटे को मुझ पर विश्वास था, ठीक उसी प्रकार से यदि आपका विश्वास उस परम पिता परमात्मा पर हो, तो आप सांसारिक कठिनाइयों को ठीक उसी प्रकार पार सकते हैं, जैसे मेरे बेटे ने मेरे कन्धों पर नियाग्रा प्रपात पार किया है। ईश्वर पर दृढ़ विश्वास रखिये और परिश्रम करिये। मुझे ईश्वर पर दृढ़ विश्वास था कि वह मेरी इस कठिनाई के समय सहायता करेगा और उसने सहायता की।’’

२०. ईश्वर की इच्छा
         विक्रमादित्य के इस प्रश्न पर सभासदों के विभिन्न मत थे कि सज्जनता बड़ी है या ईश्वर शक्ति। कई दिन तक विचार- विमर्श होने पर भी निर्णय न निकल सका। कुछ दिन बीते। राजा एक दिन परिभ्रमण के लिए निकले।
दुर्भाग्य से मार्ग में किसी आखेटक जाति के आक्रमण के फलस्वरूप उनका शेष सहयोगियों से संबंध टूट गया। वे निविड़ वन में भटक गये। जंगल में प्यास के मारे राजा का दम घुटने लगा। कहीं पानी दिखाई नहीं दे रहा था। किसी तरह वे एक कुटिया के पास पहुँचे। वहाँ एक साधु समाधि में मग्न थे। वहाँ पहुँचते- पहुँचते महाराज मूर्छित होकर गिर पड़े। गिरते- गिरते उन्होंने पानी के लिये पुकार लगाई।
           कुछ देर बाद जब मूर्च्छा दूर हुई तो महाराज विक्रमादित्य ने देखा, वही सन्त उनका मुँह धो रहे हैं, पंखा झल रहे और पानी पिला रहे हैं। राजा ने विस्मय से पूछा- ‘‘आपने मेरे लिये समाधि क्यों भंग की? उपासना क्यों बन्द कर दी?’’ सन्त मधुर वाणी में बोले- ‘‘वत्स! भगवान् की इच्छा है कि उनके संसार में कोई दीन- दुःखी न रहे। उनकी इच्छापूर्ति का महत्व अधिक है।’’ इस उत्तर से उनका पूर्ण समाधान हो गया। सेवा और सज्जनता भी शक्ति- साधना का अंग है।
२१. सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण -वर्तमान
         प्रसिद्ध साहित्यकार टॉलस्टॉय ने ‘तीन प्रश्न’ नामक एक कहानी लिखी है। कहानी का सारांश इस प्रकार है। किसी समय एक राजा था। उनके मन में तीन प्रश्न उठे- (१) सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य क्या है? (२) परामर्श के लिए सबसे अधिक महत्त्व का व्यक्ति कौन है? (३) निश्चित कार्य को आरम्भ करने का सबसे महत्त्वपूर्ण समय कौन- सा है? इसका उत्तर जानने के लिए राजा ने सभासदों की बैठक बुलायी, पर किसी का उत्तर सन्तोष जनक नहीं रहा। राज्य मन्त्री का परामर्श मानकर वह सुबह ही जंगल की कुटिया में रहने वाले साधु से जिज्ञासा- समाधान के लिये चल पड़ा। साधु की कुटिया के निकट पहुँचने पर उसने साथ में आये सैनिकों को जंगल में ही छोड़कर साधु से अकेले मिलने का निश्चय किया।
      साधु को खेत में कुदाल चलाते देख वह चुपचाप खड़ा होकर देखने लगा। कुछ देर बाद जब साधु ने दृष्टि उठायी तो राजा से आने का कारण पूछा। राजा ने तीनों प्रश्नों को उनके समक्ष रखा तथा उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। साधु ने संकेत द्वारा राजा को निकट बुलाया और अपनी कुदाल दे दी। राजा ने कुदाल लेकर खेत जोतना आरम्भ किया। संध्या होने को आयी। इतने में एक व्यक्ति साधु की कुटिया की ओर दौड़ता हुआ आया और भूमि पर गिर पड़ा। उसके कपड़े रक्त से लथपथ थे। पेट से रक्त की धार निकल रही थी। दोनों ने मिलकर उसकी मलहम- पट्टी की। घायल व्यक्ति सो गया।
      प्रातः काल राजा ने घायल व्यक्ति को क्षमायाचना करते पाया। यह देखकर राजा विस्मय में पड़ गया। आगन्तुक ने अपना परिचय दिया, ‘‘मैं किसी समय आपका घोर शत्रु था। आपने ने मेरे भाई को फाँसी दे दी थी। तभी से बदला लेने का अवसर ढूँढ़ रहा हूँ। मुझे मालूम था कि सामान्य वेशभूषा में आप साधु के पास आये हैं। मार डालने की इच्छा से मैं झाड़ी में छुप गया, किन्तु इसी बीच आपके सैनिकों ने हथियार से हमला कर दिया। शत्रु होते हुये भी आपने मेरे प्राणों की रक्षा की। हमारा द्वेष- भाव समाप्त हो गया। मैं आपके चरणों का सेवक हूँ। आप मुझे चाहें तो दण्ड दें अथवा क्षमा करें।’’
    घायल व्यक्ति की बातें सुनकर राजा स्तब्ध रह गया। अप्रत्याशित ईश्वरीय सहयोग मानकर वह मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद देने लगा। साधु ने मुस्कराते हुये कहा, ‘‘राजन्! क्या अब भी आपको प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले?’’ राजा को मौन देखकर उसने अपनी बात आगे बढ़ायी और कहा कि कार्यों द्वारा आपके प्रश्नों का उत्तर पहले ही दिया जा चुका है। सबसे महत्व का कार्य वह है जो सामने है, सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति वह है, जो हमारे पास है और सबसे महत्त्व का समय वर्तमान ही है। यदि आप आकर मुझे सहानुभूति न दिखाते तथा तुरन्त चले जाते तो आज आपकी जीवन- रक्षा संभव न हो पाती। अतएव महत्त्वपूर्ण व्यक्ति मैं था, जिसे सहायता अपेक्षित थी। दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य आगन्तुक की रक्षा थी। महत्त्वपूर्ण समय भी वही था, जिसके सदुपयोग से शत्रु भी मित्र में बदल गया। राजा को तीनों प्रश्नों का सन्तोषजनक उत्तर मिल गया।
    कहानी के तीनों प्रश्नों के उत्तर में महत्त्वपूर्ण प्रेरणाएँ समाहित हैं। महत्त्वपूर्ण कार्य, महत्त्वपूर्ण व्यक्ति, महत्त्वपूर्ण समय की कल्पना अधिकांश व्यक्ति करते हैं तथा भविष्य की ओर दृष्टि गड़ाये रहते हैं, जबकि सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्तमान है। जिसमें विद्यमान व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत कार्य एवं समय का सदुपयोग कर लिया जाय तो उज्जवल भविष्य की संभावनाएँ बन सकती हैं। प्रस्तुत कार्य को पूरे मनोयोग से करना वर्तमान समय एवं सम्बन्धित व्यक्तियों का सदुपयोग ही सर्वांगीण प्रगति का मूल मन्त्र है।
२२. सुन्दर वह जो सुन्दर करई
सुकरात बहुत कुरूप थे, फिर भी वे सदा दर्पण अपने पास रखते थे और बार- बार उसमें अपना चेहरा देखते रहते थे। एक दिन उनके एक मित्र को इस पर बहुत आश्चर्य हुआ और वह पूछ ही बैठा ‘‘आप बार- बार दर्पण में चेहरा क्यों देखते हैं?’’
सुकरात बोले ‘‘मैं सोचता हूँ कि अपनी इस कुरूपता का प्रतिकार मुझे अपने कार्यों की सुन्दरता को बढ़ाकर करना चाहिए। इस तथ्य को याद रखने के लिए मैं दर्पण देखता रहता हूँ।’’
इसके बाद वे बोले ‘‘जो सुन्दर हैं, उन्हें भी इसी प्रकार बार- बार दर्पण देखना चाहिए और सीखना चाहिए कि ईश्वर ने जो सौंदर्य दिया है, कहीं दुष्कृत्यों के कारण उसमें दाग- धब्बा न लग जाए।’’
सच ही तो है, ‘‘वास्तविक सौंदर्य तो मनुष्य के कार्यों में छिपा है। इसीलिए तो अष्टावक्र (आठ जगह से टेढ़े थे), महात्मा गाँधी, कबीर आदि महापुरुषों को, दिखने में साधारण होने पर भी समाज श्रद्धा से याद करता है। मनुष्य में चंदन जैसे गुण होने चाहिए, सुडौल हो या बेडौल, बिखेरें तो सुगंध ही बिखेरें।’’
२३. रेखा छोटी हो गई
स्वामी रामतीर्थ सन्यास लेने से पूर्व एक कालेज में प्रोफेसर थे। एक दिन बच्चों के मानसिक स्तर की परीक्षा लेने के लिये उन्होंने बोर्ड पर एक लकीर खींच दी और विद्यार्थियों से कहा- ‘‘इसे बिना मिटाये ही छोटा कर दो।’’
एक विद्यार्थी उठा किन्तु वह प्रश्न के मर्म को नहीं समझ सका उसने रेखा को मिटा कर छोटी करने का प्रयत्न किया। इस पर स्वामीजी ने बच्चे को रोका और प्रश्न को दोहराया। सभी बच्चे बड़े असमंजस में पड़ गये।
थोड़े समय में ही एक लड़का उठा और उसने उस रेखा के पास ही एक बड़ी रेखा खींच दी। प्रोफेसर साहब की खींची हुई रेखा अपने आप छोटी हो गई। उस बालक की सराहना करते हुए स्वामी जी ने कहा ‘‘विद्यार्थियों दुनिया में बड़ा बनने के लिये किसी को मिटाने से नहीं वरन् बड़े बनने के रचनात्मक प्रयासों से ही सफलता मिलती है। बड़े काम करके ही बड़प्पन पाया जा सकता है।’’



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