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Books - बाल संस्कारशाला मार्गदर्शिका

Media: TEXT
Language: HINDI
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अध्याय- ३ प्रेरणाप्रद गीत

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औरों के हित जो जीता है

औरों के हित जो मरता है, औरों के हित जो जीता है।
उसका हर आँसू रामायण, प्रत्येक कर्म ही गीता है॥

जो तृषित किसी को देख, सहज ही होता है आकुल- व्याकुल।
जिसकी साँसों में पर- पीड़ा, भरती है अपना ताप अतुल॥
वह है शंकर जो औरों की, वेदना निरन्तर पीता है।

जो सहज समर्पित जनहित में, होता है स्वार्थ त्याग करके।
जिसके पग चलते रहते हैं, दुःख दर्द मिटाने घर- घर के॥
वह है दधीचि जिसका जीवन, जगहित तप करके बीता है।

जिसका चरित्र गंगा जल सा, है स्वच्छ विमल पावन निर्मल।
जिसके उर में सद्भावों की, धारा बहती कल- कल, छल- छल॥
वह है लक्ष्मण जिसने, पर नारी को समझा माँ सीता है॥

जिसका जीवन संघर्ष बनी, औरों की गहन समस्या है।
तम में प्रकाश फैलाना ही, जिसकी आराध्य तपस्या है॥
जो प्यास बुझाता जन- जन की, वह पनघट कभी न रीता है।

जिसने जग के मंगल को ही, अपना जीवन- व्रत मान लिया।
परिव्याप्त विश्व के कण- कण में, भगवान तत्व पहचान लिया॥
उस आत्मा का सौभाग्य अटल, वह ही प्रभु की परिणीता है।


मनुज देवता बने

मनुज देवता बने, बने यह धरती स्वर्ग समान। यही संकल्प हमारा॥
विचार क्रांति अभियान, इसी को कहते युग निर्माण। यही संकल्प हमारा॥
द्वेष, दम्भ, छल मिटे यहाँ पर, ना कोई भ्रष्टाचारी हो।
सभी सुखी हों सबका हित हो, जन- जन पर उपकारी हो।
मिल- जुलकर सब रहे प्रेम से, दें सबको सम्मान॥
भेदभाव हो दूर, सिख हिन्दु मुस्लिम ईसाई का।
परमपिता के पुत्र सभी का, नाता भाई- भाई का।
सब ही एक समान सभी, जगदीश्वर की संतान॥
सदाचार अपनायें सब, जन- प्रभु के साझेदार बनें।
अनाचार से नाता तोड़ें, नैतिक बनें उदार बनें।
सादा जीवन बने सभी का, फैले फिर सद्ज्ञान॥


सफलता के सात सूत्र- साधन

जिसके जीवन में यह सात सूत्र हैं वह जीवन में कभी असफल
नहीं हो सकता।
१. परिश्रम एवं पुरुषार्थ
२.आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता
३. जिज्ञासा एवं निष्ठा
४. त्याग एवं बलिदान
५. स्नेह एवं सहानुभूति
६. साहस एवं निर्भयता
७. प्रसन्नता एवं मानसिक संतुलन

  ‘सफलता के सात सूत्र- साधन’ पुस्तक से हमें व्यक्तित्व गढ़ना है
 
व्यक्तित्व को हमारे, गढ़ना हमें पड़ेगा।
सोपान साधना के, चढ़ना हमें पड़ेगा।
है फूल वृक्ष पर जो, नभ से नहीं टपकते।
वरदान से किसी के फल भी नहीं लटकते॥
बस वृक्ष की जड़ें ही रस खींचती धरा से।
व्यक्तित्व की जड़ों तक बढ़ना हमें पड़ेगा॥ सोपान
अन्दर छिपा हुआ जो, जीवन्त देवता है।
वही शक्ति का खजाना, इसका जिसे पता है॥
वह सिद्घियां संजोता है, आत्म साधना से॥
मिलता अकूत बल है, जिसकी उपासना से॥
साधक समान, पीछे पड़ना हमें पड़ेगा॥
व्यक्तितत्व कर परिष्कृत, चुम्बक उसे बनायें।
फिर दिव्य शक्तियों के, अनुदान खींच लायें।
सोया हुआ उदय का, देवता हम जगायें।
अपनी वसुन्धरा को, फिर स्वर्ग सा सजायें।
व्यक्तित्व का नगीना, जड़ना हमें पड़ेगा॥

युग की यही पुकार

युग की यही पुकार, बसन्ती चोला रंग डालो।
त्याग- तितीक्षा का रंग है यह, सुनो जगत वालों॥ बसन्ती चोला रंग डालो॥
इस चोले को पहन भगत सिंह, झूला फाँसी पर।
इस चोले का रंग खिला था, रानी झाँसी पर॥
त्याग और बलिदान न भूलो, ऊँचे पद वालो ॥ बसन्ती चोला ०
वासन्ती चोले को, भामाशाह ने अपनाया।
नरसी का चोला तो सबसे, अद्भुत रंग लाया॥
इस चोले से बढ़े द्रव्य की, शोभा धन वालो॥बसन्ती चोला ०
इसे पहन कर हरिश्चन्द्र ने, सत्य नहीं छोड़ा।
चली अग्नि- पथ पर तारा ने, पहना यह चोला॥
मानवीय गरिमा न भुलाओ, भटके मन वालों॥ बसन्ती चोला ०
भूल गये हम अपना पौरुष, गये अनय से हार।
हुए संकुचित हृदय हमारे, बन बैठे अनुदार॥
लेकिन, अब तो दिशा बदल कर, बढ़ो लगन वालों। बसन्ती चोला ०

इन्सान बदलना है

खेत खलिहान बदलना है, हमें इन्सान बदलना है।
बदलने यह सारा संसार, हमें काँटों पर चलना है॥
सूरज कहता है जागो, युग- युग की तंद्रा त्यागो।
नूतन आलोक जगाओ, जग का अज्ञान मिटाओ।
गाओ नये सृजन के गीत, नया निर्माण करना है।
बदलने यह सारा संसार, हमें काँटों पर चलना है॥
उल्लास भरो जन- जन में, विश्वास भरो कण- कण में।
श्रम को ही जीवन मानो, पौरूष का स्वर पहचानो।
मुस्कानों से कैसी प्रीत, हमें शिखरों पर गलना है।
बदलने यह सारा संसार, हमें काँटों पर चलना है॥
आलस्य अविद्या छोड़ो, साहस से युग- पथ मोड़ो।
मृतकों में प्राण भरो रे, युग का निर्माण करो रे।
मत डरो ताप से शीत से, हमें आँधी में पलना है।
बदलने यह सारा संसार, हमें काँटों पर चलना है।।

उठो सुनो प्राची से उगते

उठो सुनो प्राची से उगते, सूरज की आवाज।
अपना देश बनेगा, सारी दुनियाँ का सरताज॥
देश की जिसने सबसे पहले, जीवन ज्योति जलायी।
और ज्ञान की किरणें सारी, दुनियाँ में फैलायीं॥
लोभ मोह के भ्रम से सारे, जग को मुक्त कराया।
भ्रातृ भावना का प्रकाश, सारे जग में फैलाया॥
अगणित बार बचाई जिसने, मानवता की लाज। अपना देश ......
इतना प्रेम की पशु- पक्षी तक, प्राणों से भी प्यारे।
इतनी दया कि जीव मात्र सब, परिजन सखा हमारे॥
श्रद्धा अपरम्पार की पत्थर, में भी प्रीति जगाई।
और पराक्रम ऐसा जिसकी, रिपु भी करे बड़ाई॥
उसी प्रेरणा से रच दें, हम फिर से नया समाज। अपना देश ......
मानवता के लिए हड्डियाँ, तक जिसने दे डाली।
माताओं की हुई अनेकों, बार गोदियाँ खाली।
पर न पाप के आगे उनने, अपना शीश झुकाया।
संस्कृति का सम्मान बढ़ाने, हँस- हँस शीश कटाया॥
रहे शिवाजी अर्जुन जैसा, निज चरित्र पर नाज। अपना देश ......
दिया न्याय का साथ भले ही, हारे अथवा जीते।
गिद्ध गिलहरी तक न रहे थे, परमारथ से पीछे।
इसी भूमि में वेद पुराणों, ने भी शोभा पाई।
जन्म अनेकों बार यहीं, लेते आये रघुराई॥
स्वागत करने को नवयुग का, नया सजायें साज। अपना देश ......
सोये स्वाभिमान को आओ, सब मिल पुनः जगायें।
नव जागृति के आदर्शों को, दुनियाँ में पहुँचायें।
ज्ञान यज्ञ की यह मशाल, हर लेगी युग तम सारा।
हम बदलेंगे युग बदलेगा, आज लगायें नारा॥
सुनो अरे! युग का आवाहन, कर लो प्रभु का काज। अपना देश ......

भारत वर्ष हमारा प्यारा

भारत वर्ष हमारा प्यारा, अखिल विश्व से न्यारा।
सब साधन से रहे समुन्नत, भगवन् देश हमारा॥

ब्रह्मतेज युत साधक हों सब, सदा लोक हितकारी।
क्षात्रधर्म रक्षक हो सबका, बने न्याय व्रतधारी।
प्रकृति हमारी गौ बनकर दे, मधुर सरस पय धारा॥ भारत...........।

वृषभ तुल्य बलवान् सभी हों, श्रम फिर गौरव पाये।
अश्वों में संचार साधनों में, विद्युत गति आये।
घटें दूरियाँ सभी, सभी को, देते रहें सहारा॥ भारत...........।

देवी जैसी बनें नारियाँ, शक्तिवती गुण आगर।
नर- रत्नों की हों खदान घर, विकसित हों नर- नागर।
जिनकी गुणगाथा से गूँजित, दिग- दिगन्त हो सारा॥ भारत...........।

यज्ञ निरत भारत के सुत हों, शूर सुकृत अवतारी।
सभ्य, सुसंस्कृत कर्मशील हों, गुणी, सरल सुविचारी।
वही बनेंगे फिर नवयुग के, पावन सुदृढ़ सहारा॥ भारत...........।

प्रकृति बने माँ, ऋतुएँ दें, अनुदान समय पर सुन्दर।
खनिज, अन्न, फल, औषधियाँ, सब मिलें प्रचुर हो सुखकर।
योग हमारा, क्षेम हमारा, स्वतः सिद्ध हो सारा॥ भारत...........।

युग- युग से हम खोज रहे हैं

युग- युग से हम खोज रहे हैं, सुरपुर के भगवान को।
किन्तु न खोजा अब तक हमने, धरती के इंसान को॥

चर्चा ब्रह्म ज्ञान की करते, किन्तु पाप से तनिक न डरते।
राम- नाम जपते हैं दुःख में, साथी हैं रावण के सुख में।
प्रतिमाएँ रचकर देवों की, पूजा है पाषण को।
किन्तु न पूजा अब तक हमने, धरती के इंसान को॥

शबरी- केवट के गुण गाये, खूब रीझकर अश्रु बहाये।
पर जब हरि को भोग चढ़ाया, तब सब को दुत्कार भगाया।
तिलक लगाकर अपने उर में, पाला है शैतान को।
किन्तु न पाला अब तक हमने, धरती के इंसान को॥

खोजे मंदिर- मस्जिद, अनगिनते परमेश्वर सिरजे।
किन्तु कभी ईमान न खोजा, कभी खेत- खलिहान न खोजा।
दुनियाँ के मेले में देखा, नित्य नये सामान को।
किन्तु न देखा अब तक हमने, धरती के इंसान को॥

खोजा हमने जिसे भजन में, छिपा रहा वह तो क्रन्दन में।
हमने निशि- दिन धर्म बखाना, लेकिन कर्म नहीं पहचाना।
पैसा पाया, प्रतिभा पायी, पाया है विज्ञान को।
किन्तु न पाया, अब तक हमने, धरती के इंसान को।
युग- युग से हम खोज रहे हैं.............................॥


हमारा है यह दृढ़ संकल्प नया संसार बसाएंगे।

हमारा है यह दृढ़ संकल्प, नया संसार बसाएंगे।
नया इन्सान बनायेंगे॥ नया संसार बसाएंगे॥

क्षीर सागर में सोया जो, उसे झकझोर जगायेंगे।
उसे प्रिय है केवल इन्साफ, जगत को यह समझायेंगे।
कर्मफल देना जिसका काम, नया भगवान बनायेंगे॥

विषमता नहीं टिकेगी कहीं, एकता समता लायेंगे।
न होगा नारी का अपमान, उसे गुणखान बनायेंगे।
निकम्मे प्रचलन बदलेंगे, धरा को स्वर्ग बनायेंगे॥

न आलस बरतेगा कोई, उठेंगे और उठायेंगे।
पसीने की रोटी पर्याप्त, मुफ्त का माल न खायेंगे।
करे जो आदर्शों से प्रीति, नया ईमान बनायेंगे।

चलेंगे नहीं छद्म- पाखण्ड, सच्चाई सब अपनायेंगे।
भ्रान्तियों की न गलेगी दाल, ज्ञान के दीप जलायेंगे।
बढ़ेंगे अन्धकार को चीर, नया अभियान रचायेंगे॥

उनींदे नहीं रहेंगे हम, जगेंगे और जगायेंगे।
रहेंगे हिलमिलकर सब एक, हँसेंगे और हँसायेंगे।
करे जो दुर्गा को साकार, नया सहकार जगायेंगे॥

जब तक मिले न लक्ष्य

जब तक मिले न लक्ष्य बटोही -- आगे बढ़ते जाओ।
खुला हुआ है द्वार प्रगति का -- निर्भय कदम बढ़ाओ॥

भय से रुकना नहीं, आंधियाँ चाहें कितनी आयें।
रूके नहीं पग पथ पर, चाहे टूट पड़ें विपदायें।
संकल्पों में शक्ति न हो, सामर्थहीन हो वाणी।
नहीं जमाने को बदले जो, वह क्या खाक जवानी।
सिद्घि स्वयं दौड़ी आयेगी -- अपनी भुजा उठाओ।
खुला हुआ है द्वार प्रगति का, निर्भय कदम बढ़ाओ॥

हो निज पर विश्वास दृष्टि से- लक्ष्य नहीं ओझल हो।
मोड़ें जग की राह, चाह में इतनी शक्ति प्रबल हो।
कांटो भरा देख पथ तुमने, हिम्मत अगर न हारी ।
चलते रहे विराम-रहित तो, होगी विजय तुम्हारी
नभ में उड़ो सुदूर गगन में, तोड़ सितारे लाओ।
खुला हुआ है द्वार प्रगति का, निर्भय कदम बढ़ाओ॥

खोना मत उत्साह, न नाता मुस्कानों से टूटे।
डूब रही हो नाव भंवर में, फिर भी धैर्य न छूटे।
जलते हुए अंगारे हों, या बर्फीली चट्टानें।
बढ़ते ही जाना रुकना मत, अपना सीना ताने।
कमर बांधकर चले अगर तो, फिर मत पीठ दिखाओ।
खुला हुआ है द्वार प्रगति का, निर्भय कदम बढ़ाओ॥

सच्चा मानव बन जायें।

पाषाण पूजने क्यों कर जाना पड़े हमें।
नर के स्वरूप में यदि नारायण मिल जायें॥

तुम बातें करते बड़े- बड़े निर्माणों की,
तुम बातें करते बड़े- बड़े सोपानों की।
तुम बातें करते बड़े- बड़े बलिदानों की,
तुम बातें करते बड़े- बड़े प्रतिदानों की,
क्रय करने पड़ें, हमें क्यों नीवों के पत्थर।
यदि निष्ठा सबकी, कर्मयोग में हो जाये॥

युग माँग रहा चेतना नई विश्वास नया।
युग माँग रहा भावना नई उल्लास नया।
युग माँग रहा नव जीवन का आभास नया।
युग माँग रहा है क्रिया नयी इतिहास नया।
हम अगर तोड़ दें सड़ी गली रुढ़ियाँ सखे।
तो आगे बढ़ने का प्रशस्त पथ हो जाये॥

हम चाहें यदि पर्वत को धूल बना डालें।
हम चाहें यदि पत्थर को फूल बना डालें।
हम चाहें यदि इंगित को शूल बना डालें।
हम चाहें यदि भँवरों को कूल बना डालें।
हम देवों का भी स्वर्ग उतारें धरती पर,
मानव यदि फिर से सच्चा मानव बन जाये॥

बस एक बार उठ पड़ो सामने आ जाओ।
बस एक बार उठ पड़ो गगन पर छा जाओ।
बस एक बार उठ पड़ो केसरी बन जाओ।
बस एक बार उठ पड़ो काल से लड़ जाओ।
मिट जाए कालिमा कायरता जन जीवन से,
हम ऐसी ज्योति चेतना बनकर छा जायें॥

कण कण में आनन्द भरा है

कण कण में आनन्द भरा है लूटें और लुटायें।
आओ दुनियाँ स्वर्ग बनायें॥

वर्षा मीठा नीर पिलाती, धरती मैया अन्न खिलाती
मैया जो कुछ देती हमको, बाँट- बाँट कर खायें। आओ....
परम मित्र ये वृक्ष हमारे, जीवन के अनमोल सहारे।
फूल खिलाते, फल भी देते, देख- देख मुस्कायें। आओ....
आसमान सुन्दर महफिल है, तारों की झिलमिल- झिलमिल है।
बरस रहा आनन्द स्वर्ग से, आनन्दी बन जायें। आओ....
जग तो है आनन्द मय, मन ही करता दुःख, द्वन्द, भय।
मन को अगर जीत लें हम तो, स्वर्ग यहीं ले आयें। आओ....
सबसे मीठी बोली बोलें, कपट छोड़ अपना दिल खोलें।
प्रेम बढ़ायें विनय दिखायें, वत्सलता विकसायें। आओ.....
झूठे सब मद मोह छोड़कर, मानवता से प्रेम जोड़कर।
जग को एक कुटुम्ब समझकर, हिलमिल हँसे हँसायें। आओ....

धनी हृदय

हम धनी न चाहें हों धन के, पर हृदय धनी होवे।
हम हँसें न चाहे सुख पाकर, पर, पर दुःख में रोवें।

हम कृषक बनें तो हृदय खेत में, प्रेम बीज बोवें।
हम सदा जागते रहें देश हित, कभी नहीं सोवें।
हम धनी, निर्धनी, सुखी, दुःखी, जैसे हों वैसे हों।
पर काम आ सकें कुछ स्वदेश के प्रभु हम ऐसे हों।
हम योगी हों तो सब बिछुड़ों का, योग मिला देवें।
हम वक्ता हों तो वाणी से, अमृत बरसा देवें।
हम हों ऐसे गुणवान रेत में, पुष्प खिला देवें।
हम बली बहादुर हों ऐसे, ब्रह्माण्ड हिला देवें।

हमको अपने भारत की मिट्टी

हमको अपने भारत की मिट्टी से अनुपम प्यार है।
अपना तन मन जीवन सब, इस मिट्टी का उपहार है॥
इस मिट्टी में जन्म लिया था, दशरथ नन्दन राम ने।
इस धरती पर गीता गाई, यदुकुल भूषण श्याम ने।
इस धरती के आगे मस्तक झुकता बारम्बार है॥
इस माटी की जौहर गाथा, गाई राजस्थान ने।
इसे बनाया पावन, गाँधी के महान बलिदान ने।
मीरा के गीतों की इसमें छिपी हुई झंकार है॥
इस मिट्टी की शान बढ़ायी, तुलसी, सूर, कबीर ने।
अर्जुन, भीष्म, अशोक, प्रतापी, भगत सिंह से वीर ने।
इस धरती के कण- कण में, शुभ कर्मों का संस्कार है॥
कण- कण मन्दिर इस माटी, का कण- कण में भगवान है।
इस मिट्टी का तिलक करो, ये अपना हिन्दुस्तान है।
इस माटी का हर सपूत, भारत का पहरेदार है॥

चन्दन सी इस देश की माटी तपोभूमि हर ग्राम हो

चन्दन सी इस देश की माटी तपोभूमि हर ग्राम हो।
हर नारी देवी की प्रतिमा, बच्चा- बच्चा राम हो।
जिसके सैनिक समर भूमि में, गाया करते थे गीता।
जहाँ खेत में हल के नीचे, खेला करती थी सीता।
जीवन का आदर्श जहां पर, परमेश्वर का काम हो॥
यहाँ कर्म से भाग्य बदल देती, श्रम निष्ठा कल्याणी।
त्याग और तप की गाथाएँ, गाती थी कवि की वाणी।
ज्ञान जहाँ का गंगा जल सा, निर्मल हो अविराम हो॥
रही सदा मानवता वादी, इसकी संस्कृति की धारा।
मिलकर रहना सीखें फिर से, मस्जिद गिरिजा गुरुद्वारा।
मानवीय संस्कृति का फिर सारे जग में गुण गान हो॥
हर शरीर मन्दिर सा पावन, हर मानव उपकारी हो।
क्षुद्र असुरता को ठुकरा दे, प्रभु का आज्ञाकारी हो।
जहाँ सबेरा शंख बजाता, लोरी गाती शाम हो॥

ओ सपूतो भारत की तकदीर बना दो।

ओ सपूतो भारत की तकदीर बना दो।
हम ऋषियों की संतान हैं, दुनिया को दिखा दो॥

छोड़ विदेशी चकाचौंध को, अपना गौरव देखो॥
बन्धन जो रोकें हैं गति को, उनको तोड़ो फेंकों।
जन- जन में फिर देवों सा, ईमान जगा दो।
हम ऋषियों की संतान हैं, दुनिया को दिखा दो॥

छोड़ याचना देना सीखो, देवभूमि के वासी,
खिले फूल सी जिओ जिन्दगी, कर दो दूर उदासी,
देव भूमि की दिव्य प्ररेणा, फिर भू पर फैला दो।
हम ऋषियों की सन्तान हैं, दुनिया को दिखा दो॥

युग ऋषि ने आह्वान किया है, आदर्शों की राह पर,
आज लगा दो अंकुश पैना, क्षुद्र स्वार्थ की चाह पर।
त्याग तपस्या की सुगन्धि से, फिर भू को महका दो।
हम ऋषियों की सन्तान है, दुनिया को दिखा दो॥

नये सृजन की नई उमंगे, लेकर आगे आओ,
खुला मोर्चा निर्माणों का, मिलकर कदम बढ़ाओ।
रामराज्य के सपनों को, सच करके दिखा दो।
हम ऋषियों की सन्तान हैं, दुनिया को दिखा दो॥

आज दाँव पर लगा देश का,

आज दाँव पर लगा देश का, स्वाभिमान सेनानी।
और पड़ा सोया तू कैसे, जाग वीर बलिदानी॥ सोया जाग .....
भारत माँ ने था तुझको, पौरुष का पाठ पढ़ाया।
बलिपथ पर तूने आगे ही, आगे कदम बढ़ाया॥
लेकिन आज कौन सी तुझपर, हाय पड़ गई छाया।
सबकुछ लुटा जा रहा, लेकिन तुझको होश न आया॥
रे दृग खोल और पढ़ पिछली गौरवपूर्ण कहानी।
और पड़ा सोया तू कैसे, जाग वीर बलिदानी॥
विदेशियों के छद्म जाल में फँसा देश यह सारा।
असम और पंजाब कट रहा है कश्मीर हमारा॥
भाई को भाई से अपने लड़वाते कटवाते।
हाय हन्त हम किन्तु न उनकी चाल समझ हैं पाते॥
अपने ही सब रिश्ते - नाते टूट रहे जिस्मानी।
और पड़ा सोया तू कैसे जाग वीर बलिदानी॥
अपराधों का असुर चतुर्दिक, झंडा गाड़ रहा है।
बहन बेटियों की इज्जत से, हो खिलवाड़ रहा है॥
हाहाकार मचा धरती में,भारी मारा- मारी।
ऋषियों की संतानों! तुम पर क्यों चढ़ रही खुमारी॥
जाग राष्ट्र के पौरुष जागे सोयी हुई जवानी॥
और पड़ा सोया तू कैसे जाग वीर बलिदानी॥
सूरज रुके चन्द्रमा रोये, रीते सागर का जल।
आज हवाओं में करनी है फिर से ऐसी हलचल॥
इज्जत लगी दाँव पर अपनी जागो उसे बचाओ।
नई विचार क्रांति का आओ, फिर से बिगुल बजाओ॥
उदासीन अर्जुन फिर से पढ़ गीता वाली वाणी।
और पड़ा सोया तू कैसे, जाग वीर बलिदानी।

किसी के काम

किसी के काम जो आये उसे इन्सान कहते हैं।
पराया दर्द अपनाये उसे इन्सान कहते हैं॥

कभी धनवान है कितना कभी इन्सान निर्धन है।
कभी सुख है कभी दुःख है इसी का नाम जीवन है।
जो मुश्किल में न घबराये उसे इन्सान कहते हैं।
किसी ने काम जो ..........
यह दुनियाँ एक उलझन है कहीं धोखा कहीं ठोकर
कोई हँस- हँस के जीता है कोई जीता है रो रो कर॥
जो गिरकर फिर संभल जाये उसे इन्सान कहते हैं।
किसी ने काम जो ..........
अगर गलती रुलाती है तो राहें भी दिखाती है
मनुज गलती का पुतला है वो अक्सर हो ही जाती है
जो करले ठीक गलती को उसे इन्सान कहते हैं॥
किसी ने काम जो ..........
यों भरने को तो दुनियाँ में पशु भी पेट भरते हैं।
लिए इनसान का दिल वो जो नर परमार्थ करते हैं।
पथिक जो बाँट कर खाये उसे इन्सान कहते हैं।
किसी ने काम जो ..........
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