
संचालन हेतु आवश्यक सामग्री एवं व्यवस्था
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१. बाल संस्कारशाला का मुख्य उद्देश्य बालकों में संस्कारों का बीजारोपण करनाहै, एवं उन्हें निज के व्यक्तित्व विकास हेतु जागरूक एवं जिम्मेदार बनाना है। यह ट्यूशन क्लास जैसा नहीं है। इसे प्रत्येक रविवार एवं छुट्टियों में चलाएँ। इस प्रकार यह रविवासरीय या छुट्टियों में चलने वाला विद्यालय है। २. संस्कारशाला संचालन हेतु अतिरिक्त भवन अथवा स्थान की आवश्यकता नहीं है। अपने घर, बगीचे, मंदिर आदि में ही इसे चला सकते हैं। ३. आस- पास के ५- २५ बच्चों को लेकर संस्कारशाला प्रारंभ की जा सकती है। संख्या अधिक होने पर दो कक्षाएँ भी चलाई जा सकती हैं।
४. आवश्यक सामग्रीः
(१) भारत माता का चित्र, गायत्री माता का चित्र, मशाल का चित्र, पंचदेव चित्र ।। (२) बैठने हेतु दरी (३) पीने के लिए पानी (४) रोलर ब्लैक बोर्ड, चौक- डस्टर (५) पर्व पूजन, संस्कार हेतु पूजन सामग्री एवं पूजा की थाली ४. बालकों के जीवन में मानवीय मूल्यों का विकास करते हुए उनकी शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रगति हेतु बालक के लिए व्यवस्थित जीवनचर्या का क्रम इस पुस्तक में दिया गया है। विभिन्न विषयों पर बालक, माता- पिता एवं आचार्य हेतु सुझाव दिये गये हैं। संस्कारशाला में आचार्य, बालकों को अभ्यास करायें तथा अभिभावकों से संपर्क कर उनका भी मार्गदर्शन करें। ५. शिक्षण प्रक्रिया ऋषि परम्परा अनुसार गुरु- शिष्य परम्परा के रूप में होगी। आचार्य स्वयं प्रत्येक विषय का समुचित ज्ञान प्राप्त करें तथा उसे अपने जीवन का अंग बनाएँ। तभी वाणी से वाणी, आचरण से आचरण एवं व्यक्तित्व से व्यक्तित्व का शिक्षण- प्रबोधन संभव हो सकेगा। ६. शिक्षण में उदाहरणों, चित्रों, कहानियों, प्रेरक प्रसंगों, प्रयोगों एवं मूल्यपरक खेलों का विवेक पूर्वक सहारा लें।
४. आवश्यक सामग्रीः
(१) भारत माता का चित्र, गायत्री माता का चित्र, मशाल का चित्र, पंचदेव चित्र ।। (२) बैठने हेतु दरी (३) पीने के लिए पानी (४) रोलर ब्लैक बोर्ड, चौक- डस्टर (५) पर्व पूजन, संस्कार हेतु पूजन सामग्री एवं पूजा की थाली ४. बालकों के जीवन में मानवीय मूल्यों का विकास करते हुए उनकी शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रगति हेतु बालक के लिए व्यवस्थित जीवनचर्या का क्रम इस पुस्तक में दिया गया है। विभिन्न विषयों पर बालक, माता- पिता एवं आचार्य हेतु सुझाव दिये गये हैं। संस्कारशाला में आचार्य, बालकों को अभ्यास करायें तथा अभिभावकों से संपर्क कर उनका भी मार्गदर्शन करें। ५. शिक्षण प्रक्रिया ऋषि परम्परा अनुसार गुरु- शिष्य परम्परा के रूप में होगी। आचार्य स्वयं प्रत्येक विषय का समुचित ज्ञान प्राप्त करें तथा उसे अपने जीवन का अंग बनाएँ। तभी वाणी से वाणी, आचरण से आचरण एवं व्यक्तित्व से व्यक्तित्व का शिक्षण- प्रबोधन संभव हो सकेगा। ६. शिक्षण में उदाहरणों, चित्रों, कहानियों, प्रेरक प्रसंगों, प्रयोगों एवं मूल्यपरक खेलों का विवेक पूर्वक सहारा लें।