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Books - बाल संस्कारशाला मार्गदर्शिका

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अध्याय- ७ योग व्यायाम-उषापान

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(वाटर थेरेपी)
ऊषापान- जल प्रयोग (वॉटर थेरेपी)
       भारत में ऊषापन के नाम से यह उपचार विद्वानों से लेकर ग्रामीणों तक में प्रचलित रहा है। पश्चिम के सम्मोहन और अपनी संस्कृति के प्रति उपेक्षा- अवज्ञा की मानसिकता के कारण यह प्रचलन और इसका ठीक- ठाक स्वरूप भुला दिया गया था। भारत में प्राकृतिक जीवनचर्या की समर्थक कुछ संस्थानों तथा जापान की एक संस्था ‘सिकनेस ऐसोसिएशन’ ने विभिन्न शोधात्मक अध्ययनों के आधार पर इस उपचार प्रणाली को पुनः स्थापित और प्रचारित किया है। हजारों की संख्या में प्रयोगकर्त्ताओं ने इसका लाभ उठाया है।
लाभ- स्वस्थ, शरीर वालों के लिए यह नियमित प्रयोग आरोग्यवर्धक रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाला तथा स्फूर्तिदायक सिद्ध होता है। इसके नियमित प्रयोग से तमाम रोगों से छुटकारा मिलता है। जैसेः-
१. सिरदर्द, रक्तचाप, एनीमिया, संधिवात, मोटापा, अर्थ्राइटिस, स्नायु रोग, साइटिका, दिल की धड़कन, बेहोशी। कफ, खाँसी, दमा, ब्राँकाइटिस, टी.बी.।
२. मेनीन्जायटिस, लिवर संबंधी रोग,गुर्दे की बीमारी, पेशाब की बीमारियाँ।
३. आँखों की कई प्रकार की तकलीफें।
४. स्त्रियों की अनियमित माहवारी, प्रदर (ल्यूकोरिया), गर्भाशय का कैंसर।
५. हाइपर एसीडिटी,गेस्ट्राइटिस, पेचिश, कब्जि़यत, डायबिटीज़ (शर्करायुक्त पेशाब)
६. नाक और गले संबंधी बीमारियाँ। अनुभवों और परीक्षणों से रोग ठीक होने की अवधि निम्रानुसार सिद्ध हुई है- रक्तचाप- १माह में, मधुमेह -१ माह में, कब्ज एवं गैस की तकलीफ -१० दिन में, टी.बी. -३ माह में।
विधि- सबेरे ऊषाकाल में जागकर यह प्रयोग करना विशेष लाभकारी है। इसीलिए इसे ऊषापान कहा जाता है। रात में देर से सोने के कारण जो लोग सबेरे जल्दी न उठ पायें, वे जब जागें तभी इसका प्रयोग करें।
सबेरे उठते ही आवश्यकता होने पर लघुशंका (पेशाब) से निवृत्त होकर, मंजन- ब्रश आदि करने से पहले ऊषापान करें। एकाध सादा पानी का कुल्ला किया जा सकता है। वयस्क व्यक्ति, जिनका शरीर भार ६० कि.ग्रा. के लगभग तक है, वे १ किलो (१लीटर) तथा अधिक भार वाले सवा किलो (सवा लीटर) पानी क्रमशः एक साथ पियें।
पानी उकड़ूँ बैठकर पीना अधिक अच्छा रहता है। यदि रात में ताँबे के बर्तन में रखा गया पानी हो, तो उसकी लाभ अधिक होता है। सामान्यतः किसी भी स्वच्छ बर्तन में रखा पानी पिया जा सकता है। ऊषापान के लगभग ४५ मिनट बाद तक कुछ भी खाना- पीना नहीं चाहिए।
ज्ञातव्य- १. जिनको सर्दी लगती हो, शरीर ठंडा रहता हो, अग्नि मंद हो, कमजोरी हो वे कड़ी सर्दियों में सामान्य स्थिति में भी गर्म पानी या हल्का गर्म पानी पीयें।
२. जिनके शरीर में गर्मी हो, जलन रहती हो, वे रात्रि का रखा सादा पानी पीयें।
३. एक साथ न पी पायें तो ५- १० मिनट रुक कर दो बार में पी लें। प्रारंभ में एक साथ निर्धारित मात्रा तक जल न पी सकें तो धीरे- धीरे (सप्ताह भर में) अभ्यास में लायें।
४. पहले १०- १५ दिन पेशाब बहुत ज्यादा व जोर से लगेगी, बाद में ठीक हो जायेगी।
५. जो लोग वात रोग एवं संधिवात के रोगों से ग्रस्त हों, उन्हें लगभग १ सप्ताह तक यह प्रयोग दिन में तीन बार (सबेरे जागते ही, दोपहर भोजन विश्राम के बाद एवं शाम को) करना चाहिए। बाद में केवल सबेरे का क्रम प्रारम्भ रखें।

६. पानी पीकर पेट पर हाथ फेरते हुए १०- १५ मिनट जहाँ सुविधा हो वहाँ टहलें या कटिमर्दनासन करें। यह क्रिया कब्ज के मरीजों के लिए विशेष उपयोगी है।
कटिमर्दनासन विधि- चित्त लेटकर, पैरों को मोड़कर नितम्ब से लगा लें व तलवे जमीन से लगा लें। एड़ी घुटने (दोनों पैर के )) सटे हों। दोनों हाथ कंधे की सीध में फैलाकर १८० डिग्री में कर लें। हाथ की मुट्ठी बंद करके धीरे- धीरे पैरों को बायें मोड़ें व गर्दन दाहिने मोड़ें। फिर पैरों को दाहिने ले जायें और गर्दन बायें ले जायें। ऐसा ३० बार से शुरू करें तथा ८४ बार तक ले जायें।
पथ्य- ऊषापान करने वाले, रोगों की प्रकृति के अनुसार आहार पर ध्यान दें।
वात प्रधान रोगों में- पत्तीदार साग बंद कर दें।
पित्त प्रधान रोगों में- तला- भुना पदार्थ, मिर्च, चाय- काफी, गरम मसाले, अचार, खटाई आदि बंद कर दें।
कफ प्रधान रोगों में मैदा, चावल, उड़द, आलू, अरबी, भिण्डी व केला न लें।
१. भूख से कम खायें व चबा- चबा कर खायें। भोजन के तुरंत पहले पानी न पीयें।
२. भोजन के बीच ४- ५ घूँट पानी पीना लाभदायक होता है।
आयुर्वेद का मान्य नियम है कि अपच (आहार के सार तत्त्व से शरीर के आवश्यक रस- रक्तादि बनने तक की प्रक्रिया में गड़बड़ी) की स्थिति में जल प्रयोग औषधि रूप है। निरोग स्थिति में बल- स्फूर्तिदायक है। खाद्य सामाग्री में स्वाभाविक जल की उपस्थिति अमृत तुल्य होती है तथा भोजन के तत्काल बाद पानी पीना पाचन तंत्र को गड़बड़ा देता है।
वैज्ञानिक दृष्टिः- यह प्रयोग रोगी, स्वस्थ सभी के लिए अपनाने योग्य है। शरीर विज्ञान की दृष्टि से इसके लाभों के पीछे निम्रानुसार सूत्र कार्य करते हैं।
-रात में नींद के समय लगभग ६ घण्टे तक हर व्यक्ति के शरीर में कम से कम हलचल होती है, लेकिन इस बीच पेट द्वारा भोजन पचाकर उसका रस सारे शरीर में पहुँचाने का क्रम बराबर चलता रहता है। इस प्रक्रिया के साथ शरीर में नये कोष बनने तथा पुराने कोषों को मल के रूप में विसर्जित करने का चयापचय (मेटाबॉलिज्म) का क्रम चलता रहता है। रात में शरीर की हलचल तथा शरीर में पानी के प्रवाह की कमी से जगह- जगह शरीर में पर्याप्त मात्रा में एक साथ पानी पहुँचने से, शरीर के अन्तरंग अवयवों की धुलाई (फ्लशिंग) जैसी प्रक्रिया चल पड़ती है। अतः सहज प्रवाह में शरीर के विजातीय पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने का काम सहजता से हो जाता है। यदि ये विजातीय पदार्थ या विष शरीर से बाहर नहीं निकल पाते हैं, तो तमाम रोगों का कारण बन जाते हैं। शरीर में पथरी या गाँठों के रूप में भी इन्हीं पदार्थों का जमाव होता है। ऊषापान से ऐसी विसंगतियों का निवारण भी होता है तथा उन्हें पनपने का अवसर भी नहीं मिलता।
    ऊषापान बासी मुँह करने का नियम है। मुख में सोते समय कुछ शारीरिक विषों (माउथ पॉयजंस) की पर्त जम जाती है। एक साथ काफी मात्रा में पानी पीने से उनका बहुत हल्का घोल शरीर में पहुँचता है, जो ‘वैक्सीन’ का काम करता है। उसके प्रभाव से शरीर में उन विषों को निष्प्रभावी बनाने वाले एण्टीबॉयटीज़ तैयार होने लगते हैं। इससे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है। निश्चित रूप से यह प्रयोग स्वस्थ- रोगी, अमीर- गरीब और हर उम्र के नर- नारी द्वारा अपनाया जाने योग्य है। इसे स्वयं भी प्रयोग करें व देसरों को भी बतायें।
प्रकृति का अमृत- गेहूँ के ज्वारे (Green Blood)
       अमेरिका की एक महिला डॉ. एन बीगमोर ने गेहूँ की शक्ति के सम्बन्ध में अनुसंधान तथा अनेकानेक प्रयोग करके यह सिद्ध कर दिया है कि गेहूँ के ज्वारे के रस के प्रयोग से कठिन से कठिन रोग अच्छे किये जा सकते हैं। वे कहती हैं कि संसार में ऐसा कोई रोग नहीं है, जो इस रस के सेवन से अच्छा न हो सके। कैंसर के बड़े- बड़े भयंकर रोगी तक उन्होंने अच्छे किये हैं।
       गेहूँ के ज्वारे के रस से भगन्दर, बवासीर, मधुमेह, गठिया, पीलियाज्वर, दमा, खाँसी, थैल्सीमिया, ल्यूकेमिया (रक्त का कैंसर), हृदय रोग, टायफाइड, पथरी, पेट के कीड़े, दाँत व मसूड़ों के रोग, खून की कमी, त्वचा रोग, अनिद्रा, हाथ- पैरों में कम्पन आदि सभी रोग ठीक होते हैं।

इस रस को बनाने की विधिः-
     उत्तम किस्म के गेहूँ के दानों को दस- बारह गमलों में एक- एक दिन के अन्तर से बोयें और छाया में रखें। यदाकदा थोड़ा- थोड़ा पानी देते रहें। आठ- दस दिन में पहले गमले के पौधे ७- ८ इंच तक बड़े हो जायेंगे। तब ४०- ५० पौधों को जड़ सहित उखाड़ लें। जड़ को काट दें, बचे हुए डंठल तथा पत्तियों को धोकर सिल पर अथवा मिक्सी में थोड़े से पानी के साथ पीस लें। अब उसे छानकर ताजे रस को तत्काल पी लें। इस प्रकार नियम से एक- एक गमले के पौधों के रस का इस्तेमाल करें। गेहूँ के पौधे ७- ८ इंच से ज्यादा बड़े न होने पाएँ। जैसे- जैसे गमले खाली होते जाएँ, उनमें गेहूँ बोते रहें। इस प्रकार गेहूँ के ज्वारे घर में बारहों मास उगाये जा सकते हैं।
लाभः- इस रस में ७०त्न तरल क्लोरोफिल, पोटैशियम, कैरोटीन, प्रोटीन, ९० से ज्यादा खनिज, लौह तत्व, कैल्शियम, एन्जाइम, अमीनोएसिड तथा बहुत से विटामिन ए, बी, बी१२, सी इत्यादि मौजूद होते हैं। कहते हैं कि यह रस मनुष्य के रक्त से ४०त्न मेल खाता है। इसीलिये इसे ‘ग्रीन ब्लड’ भी कहते हैं। यह रक्त में लाल रक्त कोशिकाओं को बढ़ाता है। पाचन क्रिया तेज करता है। खून साफ करता है। Toxin (जैव तत्व विष) को निष्प्रभावी करता है। स्वस्थ एवं रोगी दोनों के लिये अमृत समान है।
सेवन विधिः- इसे स्वस्थ, रोगी, बालक, युवा एवं वृद्ध सभी ले सकते हैं। प्रारंभ में दो बड़े चम्मच, फिर आधा कप, उसके बाद एक कप तक मात्रा बढ़ाई जा सकती है। यदि सेवन के उपरांत उल्टी, उबकाई या पेट भारी महसूस हो, सिर दर्द हो अथवा दस्त लग जाएँ या अन्य कोई परेशानी हो, तो घबराएँ नहीं। यह आपके शरीर की अशुद्धियों के बाहर निकलने के लक्षण हैं। ताजे रस का ही सेवन करना चाहिये। सुबह खाली पेट लेना फायदेमंद है। घंटे- दो घंटे तक रखने से उसकी शक्ति घट जाती है। इससे अधिक रखने पर तो यह बिल्कुल शक्तिहीन हो जाता है। ज्वारों को बारीक काटकर सलाद की तरह चबा- चबाकर खाना भी लाभदायक है। परंतु इसमें और कुछ नहीं मिलाना चाहिये। थोड़ा- थोड़ा करके दिन में दो- तीन बार भी ले सकते हैं। अधिक जानकारी के लिये देखें डॉ. गाला की पुस्तक ‘पृथ्वी की संजीवनी : गेहूँ के ज्वारे’ व कल्याण का ‘आरोग्य अंक’।


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