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Books - प्रज्ञा पुराण भाग-1

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॥अथ द्वितीयोऽध्याय॥ अध्यात्म दर्शन प्रकरण-3

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प्रत्यक्षं देवता नूनं जीवनं यत्तु दृश्यते ।  देवानुग्ररुपं च  ये तदाराधयन्ति तु। । २१ । ।  तेऽधिका: प्रापूवन्त्युच्चा उपलब्धी: शनै: शनै: ।  दुरूपयुञ्ज्ते ये ते नरा निघ्रन्ति स्वां गतिम् । । ३० । ।  आत्महन्तार इव च दुर्गर्ति प्राप्नुवन्ति ते ।  नहि तान् कक्ष्चिदन्योऽपि समुद्धर्तुं भवेत्प्रभु: । । ३१ । । 
टीका- जीवन प्रत्यक्ष देवता '' है वह ईश्वरीय अनुकम्पा का दृश्यमान स्वरूप है । जो उसकी आराधना करते हैं उपलब्धियों का सदुपयोग करते हैं, उन्हें अधिकाधिक मात्रा में उच्चस्तरीय उपलब्धियाँ धीरे- धीरे मिलती जाती है । दुरुपयोग करने वाले अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारते हैं और आत्महत्यारों की तरह दुर्गति का दुःख भोगते है उनका उद्धार कोई नहीं कर सकता है ।  ॥२१ ३१  ॥
व्याख्या- जीवन को महज उपहार मानकर चलने वाले उसके साथ खेलते ही हैं । यदि उसे देवता मान कर चलाते तो प्रभु की कृपा का ऐसा दुरुपयोग न होता और देवताओं की तो मनुष्य अभ्यर्थना- याचना अपनी कामना पूर्ति के लिए करते रहते हैं, पर कभी आत्मदेव पर ध्यान नहीं देते । जो सदुपयोग '' करना जानते हैं वे कभी उपलब्धियों से वंचित नहीं रहते परन्तु दूसरी ओर जो उसका दुरुपयोग करते हैं, वे उसका दण्ड भी भुगतते हैं । 
इसी तथ्य को इस प्रकार भी कहा है- '  मनुष्य जन्म अमोल है,होय न दूजी बार ।  पका फल जो गिर पड़ा, लगे न दूजी बार ।
 पर इस अनमोल मानुष काया का उपयोग कितने कर पाते हैं, यह विचारणीय है ।पारस लोहे से न छुला सके
 एक व्यक्ति को महात्मा जी के आशीर्वाद से ७ दिन के लिए पारस पत्थर तो मिल गया, पर अब  वह व्यक्ति सस्ते लोहे की तलाश में शहर- शहर भटकने लगा । एक जगह नहीं मिला तो दूसरी जगह दौड़ा । आत्मावलम्बनजन्य- विभूतियाँ उसे सन्तोष- परितृप्ति देती हैं, उनकी तुलना में उसे सारा वैभव अर्थ हीन नजर आता है । 
चन्दन कोयला बनाया
का एक राजा वन भ्रमण को गया । रास्ता भूल जाने पर भूख प्यास से पीड़ित वह एक वनवासी की  झोपिड़ी पर पहुँचा । समय पर मिले रूखे- सूखे आतिथ्य ने उसे इस कर दिया । चलते समय उसने उस वनवासी से कहा- ' हम इस राज्य के शासक हैं । तुम्हारी सज्जनता से प्रभावित होकर चन्दन का  एक बाग तुम्हें देते है।  तुम्हारा शेष जीवन आनन्द से बीतेगा । '' 

चन्दन का वन तो उसे मिल गया पर चन्दन का क्या महत्व है और उससे किस प्रकार लाभ उठाया जा सकता है- इसकी जानकारी न होने से वनवासी चन्दन के वृक्ष काटकर उनका कोयला बनाकर नगर में बेचने लगा । इस प्रकार किसी तरह उसके गुजारे की व्यवस्था बन गयी । 
धीरे- धीरे सभी वृक्ष समाप्त हो गये । एक अन्तिम पेड़ बचा । वर्षा होने के कारण कोयला न बन सका तो उसने लकड़ी बेचने का निश्चय किया । लकड़ी का गट्ठा लेकर जब बाजार में पहुँचा तो सुगन्ध से प्रभावित लोगों ने कहा उसका भारी मूल्य चुकाया । आश्चर्यचकित वनवासी ने इसका कारण पूछा तो लोगों ने कहा- ' यह चन्दन काष्ठ है, बहुत मूल्यवान है । यदि तुम्हुारे पास ऐसी ही और लकड़ी हो तो उसका प्रचुर मूल्य प्राप्त कर सकते हो । '' 
वनवासी अपनी नासमझी पर पश्चात्ताप करने लगा कि उसने इतना बड़ा बहुमूल्य चन्दन  वन कोयले बनाकर कौड़ी मोल बेच दिया । पछताते हुए नासमझ को सान्त्वना देते हुए एक विचारशील व्यक्ति ने कहा- ' मित्र! पछताओ मत, यह सारी दुनियाँ तुम्हारी ही तरह नासमझ है । जीवन का एक- एक क्षण बहुमूल्य है पर लोग उसे वासना और तृष्णाओं के बदले कौड़ी मोल में गँवाते है । तुम्हारे पास जो एक वृक्ष बचा है, उसी का सदुपयोग कर लो तो कम नहीं । '' बहुत गँवाकर भी अन्त में यदि कोई मनुष्य सम्भल जाता है तो वह भी बुद्धिमान ही माना जाता है । 
अनुपात उनका ही अधिक होता है जो सब कुछ समाप्त होने पर होश में आते हैं । मनुष्य शरीर मिलने के बाद बिरले ही ऐसे होते हैं जो उसकी अभ्यर्थना- स्तवन देवता की तरह करते हैं । लेकिन जो करते हैं वे उस अक्षय आनन्द को भी प्राप्त करते हैं जो मानव की अमोल निधि है । 
जीवन वीणा  बजे तो ही सार्थक
 मान्यवर के जिस प्रकोष्ठ में भगवान् सुब्रह्मण्यम की मूर्ति थी, उसी के सामने वाले भाग में एक सुन्दर वीणा रखी हुई थी । मन्दिर में कई लोग तो वीणा के दर्शन कर लेते और चले जाते । कुछ उसे बजाने की इच्छा करते, पर वहाँ बैठा हुआ मन्दिर का रक्षक उनसे मना करता और वे वहाँ से चल देते है। । इस प्रकार सुन्दर स्वरों वाली यह वीणा जहाँ थी वहीं रखी रहती थी, उसका कभी कोई उपयोग न होता था । 
एक दिन एक व्यक्ति आया । उसने वीणा बजाने की इच्छा व्यक्त की, पर उस व्यक्ति ने उसे भी मना कर दिया । वह व्यक्ति वही चुपचाप खड़ा रहा । थोड़ी देर में सब लोग मन्दिर से निकल कर बाहर चेले गये तो उस व्यक्ति ने वीणा उठाली और उसका लयपूर्वक वादन करने लगा । वीणा का मधुर स्वर लोगों के कानों तक पहुँचा तो लोग पीछे 

लौटने लगे और उस मधुर संगीत का रसास्वादन करने लगे । वाद्य घण्टों चला और लोग मन्त्र मुग्ध सुनते रहे । जब वह बन्द हुआ तब भी लोग ईश्वरीय आनन्द की अनुभूति करते रहे । लोगों ने कहा- '' आज वीणा सार्थक हो गई । '' 
भावार्थ यह है कि भगवान् काया तो सबको देता है पर कुछ लोग अज्ञानवश व कुछ अभिमान वश इस वीणा रूपी यन्त्र का सदुपयोग नहीं कर पाते । यदि इन दो दोषों से दूर रहकर कोई शरीररूपी वीणा से मधुर लहरियाँ निकाले तो उस आनन्द से न केवल वह स्वयं वरन् सम्पर्क के सैकड़ों लोग उसमें ईश्वरीय आनन्द की झलक पाते है । ऐसी जीवन- वीणा सभी बजा सकें यही तत्ववेत्ताओं का निर्देश है, महामानवों का उपदेश है एवं प्रत्यक्ष अनुभत सत्य है । पर दूसरा पक्ष भी ऐसा हठी है कि उस पर काबू पाना, अन्त : की दुष्प्रवृत्तियों से संघर्ष कर जीवन रूपी मणि का उपयोग कर पाना हर किसी के लिए सम्भव नहीं हो पाता । 

सूर्यकान्त मणि का उपयोग 
महात्मा के पास '' सूर्यकान्त मणि '' थी । जब उनका अन्तकाल समीप आया तो बड़े प्रयत्न से अर्जित यह मणि उन्होने अपने पुत्र  सौमनस को दे दी और कहा- ' यह कामधेनु के समान मनोवाँछा प्रदान करने वाली है । इसको सम्भाल कर रखना । इससे तुम्हारी सब आवश्यकताएँ सहज में पूर्ण हो सकेगी और तुम्हें कभी किसी चीज का अभाव नहीं हो सकेगा । '' 
सौमनस ने मणि तो ले ली पर पिता के उपदेशों पर कुछ ध्यान नहीं दिया । रात्रि के समय दीपक के स्थान पर वह उसका उपयोग करने लगा । एक दिन उसकी प्रेयसी वेश्या ने उपहार में वह मणि माँगी और सौमनस ने उसे बिना किसी संकोच के दे डाली ।' 
वेश्या ने कुछ समय बाद एक जौहरी के हाथ उसे बेच दिया और उस धन से शृंगार की सामग्री खरीद ली । जौहरी ने मणि की परीक्षा ली और रासायनिक प्रयोगों द्वारा उसकी सहायता से बहुत- सा सोना बना लिया । इससे वह बड़ा वैभवशाली बन गया और अपना जीवन राजा- महाराजाओं की तरह व्यतीत करने लगा । अनेक दीन- दुखियों की भी उसने उस स्वर्ण राशि से बहुत सहायता की । 
आनन्द ने' अपने शिष्य बिद्रुथ को यह कथा सुनाते हुए कहा- ' वत्स । यह जीवन सूर्यकान्त मणि के समान है । इसका सदुपयोग करना कोई- कोई पारखी जौहरी ही जानते हैं, अन्यथा सौमनस और गणिका की तरह उसे कौड़ी मील गँवा देने वाले ही अधिक होते हैं । '' 
आत्मज्ञानं नरस्यास्ति गौरवं महदुन्मुख: ।  यो दिशां तां प्रति, प्रैतिगतिमन्तर्मुखीं स तु। । ३२ । ।  भूतं यक्ष भविष्यच्च विचार्य वर्तते पुमान् ।  आत्मावलम्बी सयाति द्वतं प्रगतिपद्धतौ । । ३३ । ।  नात्र काठिन्यमाप्रोति ये त्यजन्त्यवलम्बनम् ।  उपेक्षयात्महन्तारो सुखदारिद्र्यभागिन: । । ३४ । ।  पदे पदे तिरस्कारं सहन्ते यन्त्रणा भृशम् ।  नारक्य:प्रापूवन्त्येव व यान्ति परमां गतिम् । । ३५ । ।
टीका- आत्मज्ञान ही मनुष्य का सबसे बड़ा गौरव है । जो उस दिशा में उन्मुख होता अन्तर्मुखी बनता? अपने भूत और भविष्य को ध्यान में रखते हुए वर्तमान का निर्धारण करता है- वह आत्मावलम्बी मनुष्य प्रगति- पथ पर द्वतगति से बढ़ चलता है ।लोग दुःख- दारिद्रय के भागी बनते हैं । पद- पद पर तिरस्कार सहते और नारकीय यन्त्रणायें भुगतते हैं साथ ही सद्गति को प्राप्त नहीं कर पाते ? ।३३ ३५ ।

व्याख्या- मनुष्यों को औरों की अपेक्षा अधिक बुद्धि, विद्या, वैभव, बल, विवेक मिला है । यह बात तो समझ में आती है किन्तु इन शक्तियों का सम्पूर्ण उपयोग बाह्य जीवन तक ही सीमित रखने में उसनें  बुद्धिमत्ता से काम नहीं लिया । अर्जित कौशल एवं ज्ञान को उसने -मात्र शारीरिक सुखोपभोग तक सीमित  रखा है । सारे दुःखों का कारण भी यही है कि हम अपने शाश्वत स्वरूप, आत्मतत्व को जानने का कभी प्रयास भी नहीं करते । अपने शरीर को भी नहीं पहचान पाये तो इस शरीर का, बौद्धिक शक्तियों कां क्या सदुपयोग रहा? 
जो भी व्यक्ति आत्म- तत्व का अवलम्बन लेने के लिए अपने अन्दर की गुफा में झाँकता है, उसे अपार वैभव- सम्पदा सामग्री बिखरी दिखाई पड़ती है । आत्मावलम्बन का ही चमत्कार है कि मनुष्य अपने विगत के घटनाक्रमों को दृष्टिगत रख भविष्य की योजना बनाता व वर्तमान का निर्धारण सफलतापूर्वक कर पाता है । 
अपनी सामर्थ्य पर प्रकाश 
एक सन्त ने अपने शिष्यों से इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुए कहा- ' शरीर का वजन अपने ही पैर उठाते है । यदि पैर असमर्थ हों तो खड़ा होना या चल फिर सकना भी कठिन है । भोजन पचाने का काम अपना ही पेट करता है। यदि  पाचन प्रणाली बिगड़ जाय तो दूसरों के पेट से अपना भोजन पचा लेने का काम सम्भव न हो सकेगा । विद्या प्राप्त करने के लिए स्वयं ही पढ़ना पड़ता है । अपने ही पुण्य- पाप से मनुष्य सुख- दुःख प्राप्त करता है । जिसे सुखद आनन्दमय संसार में रहना है, उसे यह निर्माण कार्य अपने ही भीतर से आरम्भ कर देना चाहिए । बाह्य निर्माण की जैसी कल्पना हो उसी के अनुरूप अपना निर्माण किया जाय । '' 
आत्मावलम्बन किस प्रकार सफलता का पथ- प्रशस्त करता है इस सम्बन्ध में एक बार रामकृष्ण परमहंस ने शिष्यगणों को एक कथा सुनाई- 
बढ़ता  चल'' एक लकड़हारा जंगल से लकड़ी काटकर किसी प्रकार दु :ख और कष्ट सहते हुए अपने दिन व्यतीत करता था।एक दिन वह जंगल से पतली-पतली लकड़ी सिर पर ला रहा था की अकस्मात् कोई मनुष्य उसी रास्ते सें जाते- जाते उसे पुकार कर बोला- ' बचा, आगे बढ़ जा । '' दूसरे दिन वह लकड़हारा उस मनुष्य की बात याद कर कुछ आगे बढ़ा तो मोटी- मोटी लकड़ियों का जंगल उसको दीख पड़ा । उस दिन उससे जहाँ तक बना लकड़ी काट लाया और बाजार में बेचकर उसने पहले दिन से अधिक पैसा कमाया । तीसरे दिन फिर मन में विचार करने लगा- ' उस महात्मा ने तो मुझे आगे बढ जाने 'को कहा था । भला आज और थोड़ा आगे बढ़कर तो 'देखूं । '' यह सोचकर वह आगे बढ़ गया और उसे एक चन्दन का वन दिखाई पड़ा । उस दिन उसने चन्दन की लकड़ी बेचकर बहुत रुपये कमाये । दूसरे दिन उसने फिर मन में विचार किया कि मुझे तो उन्होंने आगे ही जाने को कहा है, यह विचार कर और आगे जाकर उस दिन उसने तांबे की खान पाई '' ।वह यहाँ पर न रुककर प्रतिदिन आगे ही बढ़ता गया, और क्रमश : चांदी, सोने और हीरे की खान पाकर बड़ा धनवान् हो गया । धर्म मार्ग में भी इसी प्रकार होता है । '' 
'' आत्मिक क्षेत्र में आदमी को कभी भी रुकना नहीं चाहिए । उस साधु ने जो आगे बढ़ने की शिक्षा दी थी, उसका मर्म था- रुक मत, चलता जा, जब तक गन्तव्य तक न पहुँच जाय । अपने अन्दर झाँक व तब तक आत्मावलोकन, विश्रेषण, मनन कर जब तक प्रगति की राह न दिखाई पड़े । थोड़ी- बहुत ज्योति आदि का दर्शन कर यह मत समझो कि तुम्हें सिद्धि मिल गयी, मोक्ष प्राप्त हो गया । '' इस सम्बन्ध में सन्त कबीर का कथन सही है- 
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