
आहार संयम—स्वास्थ्य की कुंजी
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शरीर के द्वारा जो निरन्तर शारीरिक और मानसिक श्रम होता रहता है, उसमें शक्ति भी खर्च होती है। इस खर्च होने वाली शक्ति के स्थान पर नयी शक्ति चाहिए और वह नयी शक्ति हमें आहार के माध्यम से मिलती है। आहार ही पच कर रस, रक्त, मांस मज्जा, अस्थि, मेद, वीर्य बनता हुआ शक्ति के रूप में परिणित होता है। यों भी कहा जा सकता है कि यह पाचन प्रणाली ही हमारे जीवन की आधारशिला है। जिस शरीर में यह प्रक्रिया ठीक प्रकार चलती रही है वह आरोग्य के मार्ग में आने वाली बाधाओं पर विजय प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत जिनका पाचन संस्थान बिगड़ गया उनके लिए अन्य सब सुविधायें रहते हुए भी उन्हें रोग बीमारियों का पहाड़ सामने खड़ा दिखाई देता है।
दुर्बल स्वास्थ्य और रुग्ण जीवन के लिए आहार सम्बन्धी, अनियमितता और ‘‘असंयम एक महत्वपूर्ण कारण है। इस सम्बन्ध में अमेरिका के एक प्रख्यात चिकित्सा शास्त्री डा. केनेथवांकर ने कहा है कि—
भोजन के सम्बन्ध में एक और आश्चर्यजनक बात एक प्रख्यात डॉक्टर केनेथवांकर ने कही है—‘‘लोग जो भोजन करते हैं उसमें से आधे भोजन से उनका पेट भरता है और आधे भोजन से डाक्टरों की जेबें भरती हैं अगर वे आधा भोजन ही करें तो वे बीमार ही नहीं पड़ेंगे और न ही कभी डाक्टरों के पास जाने की जरूरत पड़ेगी।’’ पढ़ने, सुनने में यह बात आश्चर्य भरी है परन्तु हैं बिल्कुल सच। निरीक्षणात्मक दृष्टिकोण से यदि हम अपने द्वारा ग्रहण किये जाने वाले आहार के सम्बन्ध में सोचें तो आसानी से यह पता चल जायेगा कि जो भोजन हम कर रहे हैं और जितनी मात्रा में कर रहे हैं तथा जिस प्रकार का कर रहे हैं—वह हमारे स्वास्थ्य के लिए हितकारी कम और हानिकारक ही ज्यादा सिद्ध होगा।
यद्यपि कुछ लोग भोजन न मिलने से मरते हैं तो उनसे अधिक संख्या ऐसे लोगों की है जो अतिभोजन के कारण मरते हैं। वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि कोई भी व्यक्ति बिना भोजन किये तीन माह तक आसानी से जीवन चला सकता है। भारतीय तपस्वियों और योगियों ने तो आत्म-प्रयोगों द्वारा इस क्षेत्र में मनुष्य शरीर की सामर्थ्य और क्षमता को और भी अधिक उच्च सिद्ध किया है, परन्तु एक साधारण व्यक्ति विज्ञान की दृष्टि से तीन माह तक बिना किसी बाधा के बिना भोजन किये स्वस्थ और नीरोग रह सकता है। लेकिन कोई व्यक्ति तीन माह तक नियमित रूप से अति भोजन करे तो किसी भी स्थिति में जीवित न बचेगा। सौभाग्य से यदि जिन्दा रह भी जाय तो मृत व्यक्ति की तरह।
अति भोजन के साथ-साथ एक और दोष है हमारी आहार पद्धति में। हम जो भोजन करते हैं शरीर की आवश्यकता को दृष्टिगत रख कर नहीं करते। थाली में सजे विभिन्न पकवान, तीखे, चरपरे, खट्टे, मीठे, तेज जले-भुने खाद्य पदार्थ शरीर को स्वस्थ रखने की अपेक्षा हमें रुग्ण और बीमार ही बनाते हैं। हमारी भोजन की थाली में आधे से अधिक पदार्थ जहरीले होते हैं। हम जानते भी हैं कि इन पदार्थों का उपयोग शरीर व्यवस्था में किसी भी प्रकार सहायक नहीं है फिर भी उनका प्रयोग करते चलते हैं—महज स्वाद के कारण। महज स्वाद के कारण किया गया भोजन, उसके गुण-दोष को बिना ध्यान में रख कर किया गया भोजन मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए किसी भी प्रकार हितकारक नहीं हो सकता, वह जहर का ही काम करेगा और जहर भी ऐसा जो व्यक्ति के शरीर में धीरे-धीरे रमता है और बहुत दिनों बाद अपना घातक कुप्रभाव बनाता है। बन्दूक की गोली या जहर की शीशी कुछ क्षणों में थोड़े से समय में ही जीवन का अन्त कर देती है। परन्तु स्वेच्छा से ग्रहण किया गया इस प्रकार का विष व्यक्ति की घुट-घुट कर हत्या करता है। उसे तड़पा-तड़पा कर मारता है। भोजन की यह दूषित प्रक्रिया मनुष्य शरीर को खोखला और कमजोर ही बनाती है। इस प्रक्रिया का एकदम विपरीत परिणाम होता है। भोजन जब कि स्वास्थ्य और शक्ति के लिए ही किया जाता है, रोग और बीमारी लाने लगे तो जीवन कैसे बच सकेगा, इसकी कोई सम्भावना ही नहीं है।
कैसे खायें और क्या खायें यह जानने के लिए कोई बहुत ज्यादा पढ़ने या अपने आपको अत्यंतिक नियमोपनियमों से बांधने की आवश्यकता नहीं है। इस तरह का जीवनोपयोगी ज्ञान प्रकृति ने सभी के लिए सुरक्षित रखा है। आरोग्यविद्या का जानना सभी के लिए नितांत आवश्यक समझकर ही प्रकृति ने यह कृपा की है कि कम पढ़े लिखे व्यक्तियों को तो क्या साधारण जीव जन्तुओं को भी उससे वंचित नहीं रखा। यदि हम अपनी प्रकृति का—किये जाने वाले आहार का शरीर पर क्या प्रभाव होता है इसका और शरीर का आहार प्रक्रिया का अध्ययन करें तो भली भांति समझा जा सकता है कि क्या कब और कैसे खाया जाना चाहिए?
पेट में कोई वस्तु मुख से होकर ही जाती है, मुख के दरवाजे पर दांत जीभ और कण्ठ यह तीन डॉक्टर इस योग्यता से सम्पन्न नियुक्त किये गये हैं कि कोई अनुपयुक्त ऐसी वस्तु भीतर न जाने दें जो हानिकर अहितकर हो। वे हर चीज को इतना पीसे कि कण्ठ के बहुत छोटे से छेद में बारीक पिसा हुआ एवं तरल बना हुआ आहार आसानी से नीचे उतर जाय। गले में बहुत छोटा छेद इसीलिए रखा गया है कि वह कई कम पिसी मोटी सूखी चीज भीतर न जाने दें। जीभ इसलिए है कि कौन आहार अपने उपयुक्त है कौन अनुपयुक्त इसकी परीक्षा बारीकी से किया करे और जो वस्तुएं अपनी शरीर के लिए हितकर हों उन्हीं को ग्रहण करने की स्वीकृति दें। कण्ठ दांत और जीभ इन तीनों की ही चाबी आमाशय के पास है। पहले खाया हुआ भोजन जब तक भली प्रकार हजम न हो जाय और नये भोजन की जब तक आवश्यकता न पड़े तब तक वह खाने की रुचि और चेतना ही उत्पन्न नहीं करता। उस स्थिति में खाई हुई कोई चीज स्वास्थ्यकर होते हुए भी केवल हानि ही कर सकती है।
पाचन क्रिया की खराबी को रोगों की जड़ बताया जाता है। यह खराबी तभी उत्पन्न होती है जब मुख में नियुक्त तीन डाक्टरों की और पेट में नियुक्त व्यवस्थापक की आज्ञाओं का उल्लंघन करके हम हर प्रकार धींगा-धींगी करने को उतारू हो जाते हैं। वे बेचारे पाचन-यन्त्र बहुत दुर्बल हैं। घड़ी के पुर्जे जितने नाजुक होते हैं उससे भी अधिक संवेदनशील हैं। घड़ी के साथ कोई धींगामस्ती करे तो उसे खराब रहना ही पड़ेगा। पाचन यन्त्र की दुर्गति भी इसी कारण होती है।
सृष्टि का कोई भी प्राणी खाने की प्रक्रिया तभी आरम्भ करता है जब पेट में क्षुधा जागृत होती है। बिना भूख के खाना बुझी हुई अग्नि के ऊपर कढ़ाई पकाने के प्रयत्न के समान है। सिंह तभी शिकार पर आक्रमण करता है जब उसे भूख लगी हो। पेट भरा होने पर वह भोजन की चिन्ता छोड़कर आनन्द मनाता रहता है। कदाचित कोई शिकार पकड़ में भी आ जाय तो उसे मार कर कहीं छिपा देता है और खाता तभी है जब कड़ाके की भूख लगती है। कुत्ते का पेट भरा हो और कहीं से रोटी मिले तो मुंह में दबा कर ले जाता है और जरूरत के वक्त खाने के लिए पंजों से जमीन खोदकर गाड़ आता है। अन्य सभी जीव जन्तु भूख न होने पर आहर के लिए मुंह नहीं खोलते। प्रकृति ने उन्हें जो सामान्य ज्ञान दें रखा है उसके आधार पर वे जानते हैं कि बिना भूख खाना अपने लिए एक घातक विपत्ति को आमन्त्रण देना है। केवल बुद्धिमान कहलाने वाला एक मनुष्य ही ऐसा है जो अपने बौद्धिक अहंकार के कारण स्वादिष्ट भोजनों के लोभ में अथवा बुरी आदतों का आदी होकर बिना भूख खाता रहता है और बेचारे पेट की शक्तियों को निरन्तर कुचल-कुचल कर नष्ट करता रहता है।
रेलगाड़ी किसी स्टेशन से दूसरे स्टेशन को तब छूटती है जब आगे वाला स्टेशन यह स्वीकृति देदे कि लाइन साफ है और गाड़ी छोड़ी जा सकती है। इसके लिए सरकार ने ऐसा प्रबन्ध किया हुआ है कि लोहे का गोला प्रमाणपत्र के रूप में इंजन ड्राइवर को मिलता है, तब उस ‘टोकन’ या टेबिलेट कहे जाने वाले गोले को लेकर गाड़ी अगले स्टेशन के लिए रवाना होती है। यह गोला एक सुरक्षित ऐसी अलमारी में रखा रहता है जिसे खोलना अगले स्टेशन मास्टर के हाथ में होती है। यदि टोकन लिए बिना गाड़ी चल दें तो दुर्घटना होकर रहेगी। मनमानी करने वाला ड्राइवर चाहे जब ट्रेन दौड़ा दें, टोकन आदि की परवा न करे तो वह विपत्ति ही उत्पन्न करेगा ऐसी उद्दंडता करने वाले ड्राइवरों को कड़ी सजा भुगतनी पड़ सकती है। हमारे शरीर में आहार की रेल को चलाने का भी यही कायदा है। आहार एक रेल है। उसे मुख के स्टेशन से पेट के लिए तभी छूटना चाहिए जब पेट का स्टेशन मास्टर लाइन क्लीयर होने का आदेश दे दें। पिछला अन्न ठीक तरह पचे नहीं ऐसी दशा में नया बोझा आमाशय पर लाद देना उसके साथ सरासर अन्याय है। स्टेशन की लाइनें गाड़ियों से भरी हैं, वे गाड़ी हटें तभी तो नई गाड़ी वहां बुलाई जा सकती है। पहली खड़ी गाड़ियां पटरी से हटाये बिना उसी पर और गाड़ी बुलाली जाय तो गाड़ियां आपस में टकरा जावेंगी और भयंकर हानि होगी। बिना भूख खाना बिलकुल इसी तरह का है जैसे लाइन साफ हुए बिना एक रेल पर दूसरी रेल चढ़ा देना। पेट से तीव्र भूख रूपी टोकन पाये बिना यदि मुंह के स्टेशन में अन्धाधुंध आहार की गाड़ी छोड़ी जायगी तो दुर्घटना के अतिरिक्त और क्या आशा की जा सकती है?
पेट की रचना ऐसी है कि उसे ठीक तरह काम करने देने के लिए हलका-फुलका रखा जाय। इतना वजन डाला जाय जिसे वह आसानी से सहन कर सके। पशु-पक्षी पचता-पचता खाते चलते हैं। पेट पर एक दम अनावश्यक भार वे नहीं डालते। यही आदत सृष्टि के अन्य प्राणियों की है। केवल कुछ ही भोंड़े-जन्तु इसके अपवाद हैं—शेर, सुअर, मगर आदि एक दम बहुत-सा भोजन पेट में भरते हैं इसका फल यह होता है कि वे स्फूर्ति गंवा कर बहुत समय तक निःचेष्ट, आलस्यग्रस्त, उनीदे पड़े रहते हैं। अन्य सभी प्राणी पेट को हलका रखते हैं और अपनी स्फूर्ति बनाये रखते हैं। पेट को भी पाचन में सुविधा इसी क्रम से रह सकती है।
थोड़ी-थोड़ी मात्रा में पचता भोजन करने का अभ्यास डाला जाय तो वह अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में और अधिक आसानी से पच जायगा। यदि उसमें असुविधा रहती हो तो वर्तमान स्थिति में दो बार भोजन करने से काम चल सकता है, पर उसकी मात्रा पेट की क्षमता के अनुरूप ही होनी चाहिए आजकल शत-प्रतिशत मनुष्य पाचन क्षमता से कहीं अधिक खाते हैं और उससे स्वास्थ्य एवं पैसे की दुहरी हानि उठाते हैं। यह भ्रम नितान्त असत्य है कि जितना अधिक खाया जायगा, उतना बल बढ़ेगा। सच यह है कि जो पचेगा वही हितकर सिद्ध होगा।
ईरान के बादशाह बहमन ने एक राज्य चिकित्सक लेत्सुम से पूछा—स्वस्थ मनुष्य को दिन-रात में कितना खाना चाहिए। लेत्सुम ने उत्तर दिया 39 तोला। इस पर बादशाह ने पूछा—भला इतने कम भोजन से क्या काम चलेगा? चिकित्सक ने उत्तर दिया। स्वस्थ रहने के लिए तो इतना ही पर्याप्त है। वजन ढोने के लिए कितना ही खाया जा सकता है।
दुर्बल स्वास्थ्य और रुग्ण जीवन के लिए आहार सम्बन्धी, अनियमितता और ‘‘असंयम एक महत्वपूर्ण कारण है। इस सम्बन्ध में अमेरिका के एक प्रख्यात चिकित्सा शास्त्री डा. केनेथवांकर ने कहा है कि—
भोजन के सम्बन्ध में एक और आश्चर्यजनक बात एक प्रख्यात डॉक्टर केनेथवांकर ने कही है—‘‘लोग जो भोजन करते हैं उसमें से आधे भोजन से उनका पेट भरता है और आधे भोजन से डाक्टरों की जेबें भरती हैं अगर वे आधा भोजन ही करें तो वे बीमार ही नहीं पड़ेंगे और न ही कभी डाक्टरों के पास जाने की जरूरत पड़ेगी।’’ पढ़ने, सुनने में यह बात आश्चर्य भरी है परन्तु हैं बिल्कुल सच। निरीक्षणात्मक दृष्टिकोण से यदि हम अपने द्वारा ग्रहण किये जाने वाले आहार के सम्बन्ध में सोचें तो आसानी से यह पता चल जायेगा कि जो भोजन हम कर रहे हैं और जितनी मात्रा में कर रहे हैं तथा जिस प्रकार का कर रहे हैं—वह हमारे स्वास्थ्य के लिए हितकारी कम और हानिकारक ही ज्यादा सिद्ध होगा।
यद्यपि कुछ लोग भोजन न मिलने से मरते हैं तो उनसे अधिक संख्या ऐसे लोगों की है जो अतिभोजन के कारण मरते हैं। वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि कोई भी व्यक्ति बिना भोजन किये तीन माह तक आसानी से जीवन चला सकता है। भारतीय तपस्वियों और योगियों ने तो आत्म-प्रयोगों द्वारा इस क्षेत्र में मनुष्य शरीर की सामर्थ्य और क्षमता को और भी अधिक उच्च सिद्ध किया है, परन्तु एक साधारण व्यक्ति विज्ञान की दृष्टि से तीन माह तक बिना किसी बाधा के बिना भोजन किये स्वस्थ और नीरोग रह सकता है। लेकिन कोई व्यक्ति तीन माह तक नियमित रूप से अति भोजन करे तो किसी भी स्थिति में जीवित न बचेगा। सौभाग्य से यदि जिन्दा रह भी जाय तो मृत व्यक्ति की तरह।
अति भोजन के साथ-साथ एक और दोष है हमारी आहार पद्धति में। हम जो भोजन करते हैं शरीर की आवश्यकता को दृष्टिगत रख कर नहीं करते। थाली में सजे विभिन्न पकवान, तीखे, चरपरे, खट्टे, मीठे, तेज जले-भुने खाद्य पदार्थ शरीर को स्वस्थ रखने की अपेक्षा हमें रुग्ण और बीमार ही बनाते हैं। हमारी भोजन की थाली में आधे से अधिक पदार्थ जहरीले होते हैं। हम जानते भी हैं कि इन पदार्थों का उपयोग शरीर व्यवस्था में किसी भी प्रकार सहायक नहीं है फिर भी उनका प्रयोग करते चलते हैं—महज स्वाद के कारण। महज स्वाद के कारण किया गया भोजन, उसके गुण-दोष को बिना ध्यान में रख कर किया गया भोजन मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए किसी भी प्रकार हितकारक नहीं हो सकता, वह जहर का ही काम करेगा और जहर भी ऐसा जो व्यक्ति के शरीर में धीरे-धीरे रमता है और बहुत दिनों बाद अपना घातक कुप्रभाव बनाता है। बन्दूक की गोली या जहर की शीशी कुछ क्षणों में थोड़े से समय में ही जीवन का अन्त कर देती है। परन्तु स्वेच्छा से ग्रहण किया गया इस प्रकार का विष व्यक्ति की घुट-घुट कर हत्या करता है। उसे तड़पा-तड़पा कर मारता है। भोजन की यह दूषित प्रक्रिया मनुष्य शरीर को खोखला और कमजोर ही बनाती है। इस प्रक्रिया का एकदम विपरीत परिणाम होता है। भोजन जब कि स्वास्थ्य और शक्ति के लिए ही किया जाता है, रोग और बीमारी लाने लगे तो जीवन कैसे बच सकेगा, इसकी कोई सम्भावना ही नहीं है।
कैसे खायें और क्या खायें यह जानने के लिए कोई बहुत ज्यादा पढ़ने या अपने आपको अत्यंतिक नियमोपनियमों से बांधने की आवश्यकता नहीं है। इस तरह का जीवनोपयोगी ज्ञान प्रकृति ने सभी के लिए सुरक्षित रखा है। आरोग्यविद्या का जानना सभी के लिए नितांत आवश्यक समझकर ही प्रकृति ने यह कृपा की है कि कम पढ़े लिखे व्यक्तियों को तो क्या साधारण जीव जन्तुओं को भी उससे वंचित नहीं रखा। यदि हम अपनी प्रकृति का—किये जाने वाले आहार का शरीर पर क्या प्रभाव होता है इसका और शरीर का आहार प्रक्रिया का अध्ययन करें तो भली भांति समझा जा सकता है कि क्या कब और कैसे खाया जाना चाहिए?
पेट में कोई वस्तु मुख से होकर ही जाती है, मुख के दरवाजे पर दांत जीभ और कण्ठ यह तीन डॉक्टर इस योग्यता से सम्पन्न नियुक्त किये गये हैं कि कोई अनुपयुक्त ऐसी वस्तु भीतर न जाने दें जो हानिकर अहितकर हो। वे हर चीज को इतना पीसे कि कण्ठ के बहुत छोटे से छेद में बारीक पिसा हुआ एवं तरल बना हुआ आहार आसानी से नीचे उतर जाय। गले में बहुत छोटा छेद इसीलिए रखा गया है कि वह कई कम पिसी मोटी सूखी चीज भीतर न जाने दें। जीभ इसलिए है कि कौन आहार अपने उपयुक्त है कौन अनुपयुक्त इसकी परीक्षा बारीकी से किया करे और जो वस्तुएं अपनी शरीर के लिए हितकर हों उन्हीं को ग्रहण करने की स्वीकृति दें। कण्ठ दांत और जीभ इन तीनों की ही चाबी आमाशय के पास है। पहले खाया हुआ भोजन जब तक भली प्रकार हजम न हो जाय और नये भोजन की जब तक आवश्यकता न पड़े तब तक वह खाने की रुचि और चेतना ही उत्पन्न नहीं करता। उस स्थिति में खाई हुई कोई चीज स्वास्थ्यकर होते हुए भी केवल हानि ही कर सकती है।
पाचन क्रिया की खराबी को रोगों की जड़ बताया जाता है। यह खराबी तभी उत्पन्न होती है जब मुख में नियुक्त तीन डाक्टरों की और पेट में नियुक्त व्यवस्थापक की आज्ञाओं का उल्लंघन करके हम हर प्रकार धींगा-धींगी करने को उतारू हो जाते हैं। वे बेचारे पाचन-यन्त्र बहुत दुर्बल हैं। घड़ी के पुर्जे जितने नाजुक होते हैं उससे भी अधिक संवेदनशील हैं। घड़ी के साथ कोई धींगामस्ती करे तो उसे खराब रहना ही पड़ेगा। पाचन यन्त्र की दुर्गति भी इसी कारण होती है।
सृष्टि का कोई भी प्राणी खाने की प्रक्रिया तभी आरम्भ करता है जब पेट में क्षुधा जागृत होती है। बिना भूख के खाना बुझी हुई अग्नि के ऊपर कढ़ाई पकाने के प्रयत्न के समान है। सिंह तभी शिकार पर आक्रमण करता है जब उसे भूख लगी हो। पेट भरा होने पर वह भोजन की चिन्ता छोड़कर आनन्द मनाता रहता है। कदाचित कोई शिकार पकड़ में भी आ जाय तो उसे मार कर कहीं छिपा देता है और खाता तभी है जब कड़ाके की भूख लगती है। कुत्ते का पेट भरा हो और कहीं से रोटी मिले तो मुंह में दबा कर ले जाता है और जरूरत के वक्त खाने के लिए पंजों से जमीन खोदकर गाड़ आता है। अन्य सभी जीव जन्तु भूख न होने पर आहर के लिए मुंह नहीं खोलते। प्रकृति ने उन्हें जो सामान्य ज्ञान दें रखा है उसके आधार पर वे जानते हैं कि बिना भूख खाना अपने लिए एक घातक विपत्ति को आमन्त्रण देना है। केवल बुद्धिमान कहलाने वाला एक मनुष्य ही ऐसा है जो अपने बौद्धिक अहंकार के कारण स्वादिष्ट भोजनों के लोभ में अथवा बुरी आदतों का आदी होकर बिना भूख खाता रहता है और बेचारे पेट की शक्तियों को निरन्तर कुचल-कुचल कर नष्ट करता रहता है।
रेलगाड़ी किसी स्टेशन से दूसरे स्टेशन को तब छूटती है जब आगे वाला स्टेशन यह स्वीकृति देदे कि लाइन साफ है और गाड़ी छोड़ी जा सकती है। इसके लिए सरकार ने ऐसा प्रबन्ध किया हुआ है कि लोहे का गोला प्रमाणपत्र के रूप में इंजन ड्राइवर को मिलता है, तब उस ‘टोकन’ या टेबिलेट कहे जाने वाले गोले को लेकर गाड़ी अगले स्टेशन के लिए रवाना होती है। यह गोला एक सुरक्षित ऐसी अलमारी में रखा रहता है जिसे खोलना अगले स्टेशन मास्टर के हाथ में होती है। यदि टोकन लिए बिना गाड़ी चल दें तो दुर्घटना होकर रहेगी। मनमानी करने वाला ड्राइवर चाहे जब ट्रेन दौड़ा दें, टोकन आदि की परवा न करे तो वह विपत्ति ही उत्पन्न करेगा ऐसी उद्दंडता करने वाले ड्राइवरों को कड़ी सजा भुगतनी पड़ सकती है। हमारे शरीर में आहार की रेल को चलाने का भी यही कायदा है। आहार एक रेल है। उसे मुख के स्टेशन से पेट के लिए तभी छूटना चाहिए जब पेट का स्टेशन मास्टर लाइन क्लीयर होने का आदेश दे दें। पिछला अन्न ठीक तरह पचे नहीं ऐसी दशा में नया बोझा आमाशय पर लाद देना उसके साथ सरासर अन्याय है। स्टेशन की लाइनें गाड़ियों से भरी हैं, वे गाड़ी हटें तभी तो नई गाड़ी वहां बुलाई जा सकती है। पहली खड़ी गाड़ियां पटरी से हटाये बिना उसी पर और गाड़ी बुलाली जाय तो गाड़ियां आपस में टकरा जावेंगी और भयंकर हानि होगी। बिना भूख खाना बिलकुल इसी तरह का है जैसे लाइन साफ हुए बिना एक रेल पर दूसरी रेल चढ़ा देना। पेट से तीव्र भूख रूपी टोकन पाये बिना यदि मुंह के स्टेशन में अन्धाधुंध आहार की गाड़ी छोड़ी जायगी तो दुर्घटना के अतिरिक्त और क्या आशा की जा सकती है?
पेट की रचना ऐसी है कि उसे ठीक तरह काम करने देने के लिए हलका-फुलका रखा जाय। इतना वजन डाला जाय जिसे वह आसानी से सहन कर सके। पशु-पक्षी पचता-पचता खाते चलते हैं। पेट पर एक दम अनावश्यक भार वे नहीं डालते। यही आदत सृष्टि के अन्य प्राणियों की है। केवल कुछ ही भोंड़े-जन्तु इसके अपवाद हैं—शेर, सुअर, मगर आदि एक दम बहुत-सा भोजन पेट में भरते हैं इसका फल यह होता है कि वे स्फूर्ति गंवा कर बहुत समय तक निःचेष्ट, आलस्यग्रस्त, उनीदे पड़े रहते हैं। अन्य सभी प्राणी पेट को हलका रखते हैं और अपनी स्फूर्ति बनाये रखते हैं। पेट को भी पाचन में सुविधा इसी क्रम से रह सकती है।
थोड़ी-थोड़ी मात्रा में पचता भोजन करने का अभ्यास डाला जाय तो वह अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में और अधिक आसानी से पच जायगा। यदि उसमें असुविधा रहती हो तो वर्तमान स्थिति में दो बार भोजन करने से काम चल सकता है, पर उसकी मात्रा पेट की क्षमता के अनुरूप ही होनी चाहिए आजकल शत-प्रतिशत मनुष्य पाचन क्षमता से कहीं अधिक खाते हैं और उससे स्वास्थ्य एवं पैसे की दुहरी हानि उठाते हैं। यह भ्रम नितान्त असत्य है कि जितना अधिक खाया जायगा, उतना बल बढ़ेगा। सच यह है कि जो पचेगा वही हितकर सिद्ध होगा।
ईरान के बादशाह बहमन ने एक राज्य चिकित्सक लेत्सुम से पूछा—स्वस्थ मनुष्य को दिन-रात में कितना खाना चाहिए। लेत्सुम ने उत्तर दिया 39 तोला। इस पर बादशाह ने पूछा—भला इतने कम भोजन से क्या काम चलेगा? चिकित्सक ने उत्तर दिया। स्वस्थ रहने के लिए तो इतना ही पर्याप्त है। वजन ढोने के लिए कितना ही खाया जा सकता है।