
सहज सरल प्राकृतिक जीवन
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डा. जार्ज गैलुष और डा. एविनहिल ने इस खोज में विशेष दिलचस्पी ली और उपरोक्त 29 हजार में से 95 वर्ष से अधिक आयु के 402 के साथ विशेष भेंट का प्रबन्ध किया और दीर्घ जीवन सम्बन्धी जानकारी के लिए कितने ही प्रश्न पूछे। उन 402 में 152 पुरुष और 250 महिलायें थीं। संख्या अनुपात के हिसाब से रखी गई, क्योंकि दीर्घ-जीवियों में पुरुषों की अपेक्षा महिलायें ही अधिक थीं।आशा यह की गई थी कि ऐसे उत्तर प्राप्त होंगे जिनसे दीर्घ-जीवन सम्बन्ध किन्हीं अविज्ञात रहस्यों पर से पर्दा उठेगा और कुछ ऐसे नये गुरु प्राप्त होंगे जिन्हें अपनाकर दीर्घ-जीवन के इच्छुक लोग लम्बी आयुष्य भोगने का मनोरथ पूरा कर सकें। तैयारी यह भी की गई थी कि जो उत्तर प्राप्त होंगे उन्हें अनुसन्धान का विषय बनाया जायगा और देखा जायगा कि उपलब्ध सिद्धान्तों को किस स्थिति में—किस व्यक्ति के लिए किस प्रकार प्रयोग कर सकना सम्भव है। किन्तु जब उत्तरों का संकलन—पूरा हो गया तो सभी पूर्व कल्पनायें और योजनायें निरस्त करनी पड़ीं। जैसी कि आशा थी—कोई अद्भुत रहस्य मिल नहीं सके। वरन् उलटे यह प्रतीत हुआ है—जो इस विषय में अधिक लापरवाह रहे हैं वही अधिक जिये हैं। हां इतना जरूर रहा है कि उनने सीधा और सरल जीवन क्रम अपनाया था। इन वृद्ध व्यक्तियों के आहार-विहार का अन्वेषण किया गया तो इतना पता जरूर लगा कि उनमें से तीन चौथाई सादा-जीवन जीते रहे हैं। उनका आहार-विहार सरल रहा है। और मानसिक दृष्टि से उन पर कोई अतिरिक्त तनाव या दबाव नहीं रहा। उनने निश्चिन्त और निर्द्वन्द मनःस्थिति में जिन्दगी के दिन बिताये हैं।
दीर्घ-जीवन के रहस्यों का पता लगाने के लिए शरीर शास्त्री विभिन्न प्रकार की खोजें करते रहे हैं और विभिन्न निष्कर्ष निकालते रहे हैं, पर यह निष्कर्ष सबसे अद्भुत है कि हलका-फुलका और सीधा सरल जीवनक्रम अपनाकर भी लम्बी आयुष्य प्राप्त की जा सकती है।
पूछताछ में दीर्घायुष्य प्राप्त नर-नारियों द्वारा जो उत्तर डा. गैलुप और डा. हिल को मिले वे आश्चर्यजनक भले ही न हों, पर कौतूहल वर्धक अवश्य हैं। वे ऐसे नये तथ्यों पर प्रकाश डालते हैं जिन पर इन नवीन आविष्कारों की खोज में आकुल-व्याकुल लोगों को सन्तोष हो सकना कठिन है। फिर उनसे मनोरंजन हर किसी का हो सकता है और सोचने के लिए एक नया आधार मिल सकता है कि क्या सभ्यता के इस युग में ‘दकियानूसी’ पन भी दीर्घ-जीवन का एक आधार हो सकता है?
115 वर्षीय सिनेसिनोंटी ने नशेबाजी से परहेज रखा। 95 वर्षीय जान रावर्टस ने कहा उन्हें पकवान कभी नहीं रुचे। 99 वर्षीय दन्त चिकित्सक रहैटस् को सदा से मस्ती सूझती रही है वह गवैयों की पंक्ति का अभी भी जावेंवला है और अपने पुराने गीतों तथा भर्राये स्वर से लोगों का मनोरंजन नहीं कौतूहल अवश्य बढ़ाता है।
लुलु विलयमस ने बताया उनने सदा पेट की मांग से कम भोजन किया है और पेट में कभी कब्ज नहीं होने दिया। श्रीमती मौंगर 103 वर्ष की हैं वे कहती हैं आलू और रोटी ही उनका प्रिय आहार रहा है तरह-तरह के व्यंजन न तो उन्हें रुचे न पचे।
स्त्रियों में अधिकांश ने कहा अपनी घर गृहस्थी में वे इतनी गहराई से रमी रहीं कि उन्हें यह आभास तक नहीं हुआ कि इतनी लम्बी जिन्दगी ऐसे ही हंसते खेलते कट गई। उन्हें तो अपना बचपन कल परसों जैसी घटना लगता है।
106 वर्षीय हैफगुच नामक गड़रिये ने कहा उसने अपने को भेड़ों में से ही एक माना है और ढर्रे के जीवनक्रम पर सन्तोष किया है न बेकार की महत्वाकांक्षायें सिर पर ओढ़ी और न सिर खपाने वाले झंझट मोल लिये। केलोरडे का कथन है—एक दिन जवानी में उसने ज्यादा पीली और बीमार पड़ गया। तब से उसने निश्चय किया कि ऐसी चीजें न खाया पिया करेगा जो लाभ के स्थान पर उलटे हानि पहुंचाती हैं। मेर्नवोके ने जोर देकर कहा उसे भलीभांति मालूम है कि जो ज्यादा सोचते और ज्यादा खीजते हैं वे ही जल्दी मरते हैं। इसलिए उसने मस्तक को चिन्ता और बेचैनी से सदा बचाये रखा है, लड़कपन को उसने मजबूती से पकड़ा है और इस डूबती उम्र तक उसे हाथ से जाने नहीं दिया।
यह एक आश्चर्यजनक तथ्य सामने आया कि दीर्घ जीवी परिवार की सन्तानें भी दीर्घजीवी होती हैं। जिनके बाप दादा कम उम्र में चल बसते रहे हैं उनकी सन्तानें भी बहुत करके बिना किसी बड़े कारण के अल्पायु ही भोग सकी हैं। ऐसा क्यों होता है? इसके पीछे क्या रहस्य है यह निश्चित रूप से तो नहीं मालूम पर इतना कहा जा सकता है कि इस प्रकार के वातावरण में यह निश्चिन्तता रहती होगी कि पूर्वजों की तरह हम भी अधिक दिन जियेंगे। विश्वास भी तो जीवन का एक बहुत बड़ा आधार है।
नियमित व्यायाम करने वाले तो इन वृद्धों में से 10 प्रतिशत भी नहीं थे। शेष ने यही कहा हमारा दिन भर का काम ही ऐसा था जिसमें शरीर को थक कर चूर-चूर हो जाना पड़ता था, फिर हम क्यों बेकार व्यायाम के झंझट में पड़ते? वर्ग विभाजन के अनुसार आधे से अधिक लोग ऐसे निकले जो श्रम-जीवी थे। स्त्रियां मजदूर श्रमिक थीं। दिमागी काम करने पर भी दीर्घ-जीवन का आनन्द ले सकने वाले केवल 8 प्रतिशत ही निकले।
सैन फ्रांसिसको के 103 वर्षीय विलियम मेरी ने कहा युद्धों में उसे कई बार गोलियां लगीं और हर बार गहरे आपरेशनों के सिलसिले में अस्पतालों में रहना पड़ा, पर मरने की आशंका कभी उसे छू तक नहीं पाई। उन कष्ट कर दिनों में भी कभी आंसू नहीं बहाये वरन् यही सोचा इस स्कूल से जल्दी ही छुट्टी लेकर वह और भी शानदार दिन गुजारेगा। आशा की चमक उसकी आंखों में से एक दिन के लिए भी बुझी नहीं है।
सुगृहिणी मेरुचीर्ने का कथन है उसने परिवार—पड़ौस के बच्चों से अपना विशेष लगाव रखा है उन्हीं के साथ हिल-मिल कर रहने में खुद को इतना तन्मय रखा है कि अपना आपा भी, बचपन जैसी हर्षोल्लास भरी सरलता का आनन्द लेता रहे। शरीर से वृद्धा होते हुए भी मन से मैं अभी भी एक छोटी, लड़की ही हूं।
दीर्घजीवियों में व्यवसाय के हिसाब से वर्गीकरण करने पर जाना गया कि नौकरी पेशा लोगों की अपेक्षा स्वतन्त्र व्यवसायी अधिक जीते हैं। उन्हें मालिकों की खुशामद नहीं करनी पड़ती है और न डांट-डपट सहनी पड़ती है। उससे शारीरिक काम भले ही अधिक करना पड़े, हीनता और खिन्नता का दबाव उन पर नहीं पड़ता। कई व्यक्ति नौकरी की अवधि तक अस्वस्थ रहते थे पर रिटायर होने के बाद नीरोग रहने लगे इसका कारण था, उनने निश्चित दिनचर्या और भावी योजना अपने ढंग से बनाई थी उस पर किसी दूसरे का दबाव नहीं था।
बहुत जीने के लिए अलमस्त प्रकृति का होना जरूरी है। इसके बिना गहरी नींद नहीं आ सकती और जो शान्ति पूर्ण निद्रा नहीं ले सकता उसे लम्बी जिन्दगी कैसे मिलेगी? इसी प्रकार खाने और पचाने की संगति जिन्होंने मिला ली उन्हीं को निरोग रहने का अवसर मिला है और वे ही अधिक दिन जीवित रहे हैं। एक बूढ़े ने हंसते हुए पेट के सही रहने की बात पर अधिक प्रकाश डाला और कहा—कब्ज से बचना नितान्त सरल है। भूख से कम खाया जाय तो न किसी को कब्ज रह सकता है और न इसके लिए चिकित्सक की शरण में जाना पड़ सकता है।
हेफकुक ने कहा—मैंने ईश्वर पर सच्चे मन से विश्वास किया है और माना है कि वह आड़े वक्त में जरूर सहायता करेगा। भावी जीवन के लिए निश्चिन्तता की स्थिति मुझे इसी आधार पर मिली है और शान्ति सन्तोष के दिन काटता हुआ लम्बी जिन्दगी की सड़क पर लुढ़कता पाया हूं। जेम्स हेनरी व्रेट का कथन है—वह एक धार्मिक व्यक्ति है। विश्वासों की दृष्टि से ही नहीं आचरण की दृष्टि से भी। धार्मिक मान्यताओं ने मुझे पाप पंक में गिरने का अवसर ही नहीं आने दिया। शायद सदुद्देश्य भरा क्रिया-कलाप ही दीर्घ जीवन का कारण हो।
पेट्रिस अपने भूतकाल की सुखद स्मृतियों को बड़े रस पूर्वक सुनाता था। साथ ही उस बात की उसे तनिक भी शिकायत नहीं थी कि अब वृद्धावस्था में वह सब क्यों तिरोहित हो गया। उसे इस बात का गर्व था कि उसका अतीत बहुत शानदार था वह कहता था—भला यह भी क्या कोई कम गर्व और कम सन्तोष की बात है? आज के अवसान की तुलना करके अतीत की सुखद कल्पनाओं को क्यों धूमिल किया जाय? हेन्स बेर्डे का कथन था उसने जिन्दगी भर आनन्द भोगा है। हर खटमिट्टी घटना से कुछ पाने और सीखने का प्रयत्न किया है। अनुकूलता का अपना आनन्द और प्रतिकूलता का दूसरा। मैंने दोनों प्रकार की स्थितियों का रस लेने को उत्साह रखा और आजीवन आनन्दी बन कर रहा।
दीर्घ-जीवियों में से अधिकांश वर्तमान स्थिति से सन्तुष्ट थे। वे मानते थे बुढ़ापा अनिवार्य है और मौत भी एक सुनिश्चित सचाई। फिर उनसे डरने का क्या प्रयोजन? जब समर्थता की स्थिति थी अब तो मन को स्थिति के अनुरूप ढाल कर संतोष के दिन क्यों न काटें।
इन में से सब लोग सदा निरोग रहे हों ऐसी बात नहीं, बीच-बीच में बीमारियां भी सताती रही हैं और दवादारू भी करनी पड़ी है, पर मानसिक बीमारियों ने उन्हें कभी त्रास नहीं दिया। लम्बी अवधि में उन्हें अपने स्त्री-बच्चों तक को दफनाना पड़ा, कितनों से तलाक ली और कितनों के बच्चे कृतघ्न थे, पर इन सब बातों का उन्होंने मन पर कोई गहरा प्रभाव पड़ने नहीं दिया और सोचते रहे जिंदगी में मिठास की तरह ही कडुआपन भी चलता है।
इन निष्कर्षों के आधार पर यही सिद्ध होता है कि हल्का-फुल्का—सीधा-सरल जीवनक्रम अपनाया जाय तो लम्बी आयुष्य सहज ही प्राप्त हो सकती है। प्रकृति नहीं चाहती कि मनुष्य बार-बार बीमार हो और जल्दी मर जाय। इसीलिए उसने मनुष्य शरीर को इतनी कुशलता से तैयार किया है कि वह छोटी-मोटी समस्याओं का स्वतः ही निराकरण कर ले। समस्या जटिल तब बनती है जबकि हम शरीर की उन स्वाभाविक विशेषताओं को नष्ट करने के लिए तुल जाते हैं।
वैसे यह कोई नहीं चाहता कि हम बार-बार बीमार पड़ते रहें और आधी अधूरी उम्र में ही चल बसें। परन्तु रहन सहन और आहार-विहार में बरती जाने वाली अनियमितता—किया जाने वाला असंयम इस अनपेक्षित स्थिति में ला पटकता है। अपनी असावधानी और लापरवाही ही रोज दुर्बलता को निमन्त्रित करती है। भले ही उनका स्वरूप सामान्य-सा दिखाई पड़े पर ‘नाविक के तीर’ की तरह गम्भीर और गहरे घाव उत्पन्न हो जाते हैं। किसी बड़े कारखाने को—जिसे तैयार करने में काफी समय और काफी श्रम लगा हो—नष्ट करना हो तो थोड़ी-सी लापरवाही में ही नष्ट किया जा सकता है। थोड़ी सी आग लगा कर उसे आसानी से नष्ट किया जा सकता है अथवा लापरवाही के कारण अपने आप उनका विनाश हो सकता है।
उपेक्षा और लापरवाही स्वास्थ्य की बर्बादी का प्रधान कारण है। इस कारण को ठीक किये बिना कोई व्यक्ति न तो अपने बिगड़े हुए स्वास्थ्य को सुधार सकता है और न स्वस्थ शरीर को देर तक सुरक्षित रख सकता है। उपेक्षा के गर्त में पड़ी हुई हर वस्तु नष्ट होती है, जिस चीज की भी साज संभाल न की जायगी वही कुछ दिन में बिगड़ने लगेगी और संभाल कर रखने पर वह जितने दिन जीवित रहती उसकी अपेक्षा लापरवाही का तिरस्कार सहकर कहीं जल्दी टूट-फूट जायगी। लोग अपने धन दौलत की चौकसी रखते हैं, खेती बाड़ी की, कोठी गोदाम की रखवाली का समुचित ध्यान रखते हैं, पर आरोग्य जैसी अमूल्य सम्पत्ति की ओर सर्वथा उपेक्षा धारण किये रहते हैं। ऐसी दशा में शरीर यदि दिन-दिन क्षीण होता चले तो उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।
शरीर एक मोटर के समान है। जिसमें अनेकों सूक्ष्म यन्त्र लगे हुए हैं। ड्राइवर यदि उन यन्त्रों के सम्बन्ध में सावधानी बरते और उन्हें ठीक तरह काम में ले तो वही मोटर देर तक चलती है। अनाड़ी ड्राइवर, जिसे तेज दौड़ाने का शौक हो पर इस बात का ध्यान नहीं हो कि क्या-क्या सावधानी बरतना आवश्यक है, वह मोटर को थोड़े ही दिनों में बर्बाद कर देगा। इंजन के कीमती पुर्जे अपने चलाने वाले से इस बात की अपेक्षा करते हैं कि उनकी क्षमता से अधिक भार न पड़ने दिया जाय। अत्याचार से हर चीज नष्ट होती है फिर वे बेचारे पुर्जे भी अपवाद क्यों हों? अनाड़ी ड्राइवर जिस प्रकार असावधानी के कारण कीमती मोटर को भी कुछ दिन में कूड़ा बना देता है ‘उसी प्रकार शरीर के साथ लापरवाही बरतने वाले, अत्याचार करने वाले लोग भी कमजोरी और बीमारी के शिकार होकर अकाल मृत्यु के मुख में चले जाते हैं। चतुर लोग जिस प्रकार पुरानी मोटर से भी बहुत दिन काम ले लेते हैं उसकी प्रकार शरीर के प्रति सावधानी बरतने वाले दुर्बल मनुष्य भी अपनी सामान्य शारीरिक स्थिति से भी बहुत दिन तक काम चलाते रहते हैं।
यह भी एक आश्चर्य की बात है कि इतना सक्षम, इतनी विशेषताओं से सम्पन्न शरीर मिलने पर भी मनुष्य ही बीमार पड़ते हैं। मनुष्य के अतिरिक्त कोई और प्राणी न बीमार पड़ता है और न ही रोग बीमारी से कराहता है। बुढ़ापे से संत्रस्त दुर्बलता से ग्रसित और बीमारी के पाश में जकड़ा हुआ कभी कोई जीव-जन्तु नहीं देखा जाता। समय आने पर मरते तो सभी हैं, पर मनुष्य की तरह सड़ते और कराहते रहने का कष्ट किसी को नहीं भुगतना पड़ता। मनुष्य ने प्राकृतिक मर्यादाओं का उल्लंघन करते रहने की जो ठानी है उसी के फलस्वरूप उसे नाना प्रकार के रोगों में ग्रसित होना पड़ता है। अपनी बुरी आदतें उसने अपने बन्धन में बंधे हुए जिन पशु पक्षियों को भी सिखा दी हैं, जिनको प्रकृति के विपरीत अनुपयुक्त आहार-विहार करने को विवश किया है, वे भी बीमार पड़ने लगे। सभ्यताभिमानी मनुष्य ने अपना ही स्वास्थ्य नहीं गंवाया है वरन् अपने आश्रय में आये हुए अन्य जीवों को भी ऐसी ही दुर्दशा की है।
प्रकृति के अनुकूल जब तक मनुष्य चलता रहा तब तक वह स्वस्थ और निरोग जीवन व्यतीत करता रहा। हमारे पूर्वज कई-कई सौ वर्षों तक जीवित रहते और इतने बलवान होते थे कि उनके शारीरिक पराक्रमों की गाथाएं सुनकर आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है। यह स्थिति दिन-दिन दुर्बल होती चली गई। इसका एक मात्र कारण यही रहा है कि सभ्यता की घुड़दौड़ में पड़कर कृत्रिमता को अपनाया गया और वह कृत्रिमता आहार-विहार में भी गहराई तक प्रवेश करती गई। शरीर के यन्त्र इसी ढंग से बने हुए हैं कि वे प्राकृतिक आहार-विहार के आधार पर ही ठीक प्रकार काम करते रह सकते हैं। उन पर बलात्कार किया जायगा तो फिर उन अंगों का असमर्थ और रुग्ण हो जाना स्वाभाविक है।
यह स्थिति प्रायः अनियमित और असंयत आहार-विहार, अव्यवस्थित दिन चर्या और विकृति मनःस्थिति के कारण ही उत्पन्न होती है। इन्हीं कारणों से स्वास्थ्य नष्ट होता है। स्वस्थ और सबल जीवन के लिए व्यक्ति को अपना आहार-विहार संयमित, सुव्यवस्थित तथा मनःस्थिति सुसंचालित रखना चाहिए।
दीर्घ-जीवन के रहस्यों का पता लगाने के लिए शरीर शास्त्री विभिन्न प्रकार की खोजें करते रहे हैं और विभिन्न निष्कर्ष निकालते रहे हैं, पर यह निष्कर्ष सबसे अद्भुत है कि हलका-फुलका और सीधा सरल जीवनक्रम अपनाकर भी लम्बी आयुष्य प्राप्त की जा सकती है।
पूछताछ में दीर्घायुष्य प्राप्त नर-नारियों द्वारा जो उत्तर डा. गैलुप और डा. हिल को मिले वे आश्चर्यजनक भले ही न हों, पर कौतूहल वर्धक अवश्य हैं। वे ऐसे नये तथ्यों पर प्रकाश डालते हैं जिन पर इन नवीन आविष्कारों की खोज में आकुल-व्याकुल लोगों को सन्तोष हो सकना कठिन है। फिर उनसे मनोरंजन हर किसी का हो सकता है और सोचने के लिए एक नया आधार मिल सकता है कि क्या सभ्यता के इस युग में ‘दकियानूसी’ पन भी दीर्घ-जीवन का एक आधार हो सकता है?
115 वर्षीय सिनेसिनोंटी ने नशेबाजी से परहेज रखा। 95 वर्षीय जान रावर्टस ने कहा उन्हें पकवान कभी नहीं रुचे। 99 वर्षीय दन्त चिकित्सक रहैटस् को सदा से मस्ती सूझती रही है वह गवैयों की पंक्ति का अभी भी जावेंवला है और अपने पुराने गीतों तथा भर्राये स्वर से लोगों का मनोरंजन नहीं कौतूहल अवश्य बढ़ाता है।
लुलु विलयमस ने बताया उनने सदा पेट की मांग से कम भोजन किया है और पेट में कभी कब्ज नहीं होने दिया। श्रीमती मौंगर 103 वर्ष की हैं वे कहती हैं आलू और रोटी ही उनका प्रिय आहार रहा है तरह-तरह के व्यंजन न तो उन्हें रुचे न पचे।
स्त्रियों में अधिकांश ने कहा अपनी घर गृहस्थी में वे इतनी गहराई से रमी रहीं कि उन्हें यह आभास तक नहीं हुआ कि इतनी लम्बी जिन्दगी ऐसे ही हंसते खेलते कट गई। उन्हें तो अपना बचपन कल परसों जैसी घटना लगता है।
106 वर्षीय हैफगुच नामक गड़रिये ने कहा उसने अपने को भेड़ों में से ही एक माना है और ढर्रे के जीवनक्रम पर सन्तोष किया है न बेकार की महत्वाकांक्षायें सिर पर ओढ़ी और न सिर खपाने वाले झंझट मोल लिये। केलोरडे का कथन है—एक दिन जवानी में उसने ज्यादा पीली और बीमार पड़ गया। तब से उसने निश्चय किया कि ऐसी चीजें न खाया पिया करेगा जो लाभ के स्थान पर उलटे हानि पहुंचाती हैं। मेर्नवोके ने जोर देकर कहा उसे भलीभांति मालूम है कि जो ज्यादा सोचते और ज्यादा खीजते हैं वे ही जल्दी मरते हैं। इसलिए उसने मस्तक को चिन्ता और बेचैनी से सदा बचाये रखा है, लड़कपन को उसने मजबूती से पकड़ा है और इस डूबती उम्र तक उसे हाथ से जाने नहीं दिया।
यह एक आश्चर्यजनक तथ्य सामने आया कि दीर्घ जीवी परिवार की सन्तानें भी दीर्घजीवी होती हैं। जिनके बाप दादा कम उम्र में चल बसते रहे हैं उनकी सन्तानें भी बहुत करके बिना किसी बड़े कारण के अल्पायु ही भोग सकी हैं। ऐसा क्यों होता है? इसके पीछे क्या रहस्य है यह निश्चित रूप से तो नहीं मालूम पर इतना कहा जा सकता है कि इस प्रकार के वातावरण में यह निश्चिन्तता रहती होगी कि पूर्वजों की तरह हम भी अधिक दिन जियेंगे। विश्वास भी तो जीवन का एक बहुत बड़ा आधार है।
नियमित व्यायाम करने वाले तो इन वृद्धों में से 10 प्रतिशत भी नहीं थे। शेष ने यही कहा हमारा दिन भर का काम ही ऐसा था जिसमें शरीर को थक कर चूर-चूर हो जाना पड़ता था, फिर हम क्यों बेकार व्यायाम के झंझट में पड़ते? वर्ग विभाजन के अनुसार आधे से अधिक लोग ऐसे निकले जो श्रम-जीवी थे। स्त्रियां मजदूर श्रमिक थीं। दिमागी काम करने पर भी दीर्घ-जीवन का आनन्द ले सकने वाले केवल 8 प्रतिशत ही निकले।
सैन फ्रांसिसको के 103 वर्षीय विलियम मेरी ने कहा युद्धों में उसे कई बार गोलियां लगीं और हर बार गहरे आपरेशनों के सिलसिले में अस्पतालों में रहना पड़ा, पर मरने की आशंका कभी उसे छू तक नहीं पाई। उन कष्ट कर दिनों में भी कभी आंसू नहीं बहाये वरन् यही सोचा इस स्कूल से जल्दी ही छुट्टी लेकर वह और भी शानदार दिन गुजारेगा। आशा की चमक उसकी आंखों में से एक दिन के लिए भी बुझी नहीं है।
सुगृहिणी मेरुचीर्ने का कथन है उसने परिवार—पड़ौस के बच्चों से अपना विशेष लगाव रखा है उन्हीं के साथ हिल-मिल कर रहने में खुद को इतना तन्मय रखा है कि अपना आपा भी, बचपन जैसी हर्षोल्लास भरी सरलता का आनन्द लेता रहे। शरीर से वृद्धा होते हुए भी मन से मैं अभी भी एक छोटी, लड़की ही हूं।
दीर्घजीवियों में व्यवसाय के हिसाब से वर्गीकरण करने पर जाना गया कि नौकरी पेशा लोगों की अपेक्षा स्वतन्त्र व्यवसायी अधिक जीते हैं। उन्हें मालिकों की खुशामद नहीं करनी पड़ती है और न डांट-डपट सहनी पड़ती है। उससे शारीरिक काम भले ही अधिक करना पड़े, हीनता और खिन्नता का दबाव उन पर नहीं पड़ता। कई व्यक्ति नौकरी की अवधि तक अस्वस्थ रहते थे पर रिटायर होने के बाद नीरोग रहने लगे इसका कारण था, उनने निश्चित दिनचर्या और भावी योजना अपने ढंग से बनाई थी उस पर किसी दूसरे का दबाव नहीं था।
बहुत जीने के लिए अलमस्त प्रकृति का होना जरूरी है। इसके बिना गहरी नींद नहीं आ सकती और जो शान्ति पूर्ण निद्रा नहीं ले सकता उसे लम्बी जिन्दगी कैसे मिलेगी? इसी प्रकार खाने और पचाने की संगति जिन्होंने मिला ली उन्हीं को निरोग रहने का अवसर मिला है और वे ही अधिक दिन जीवित रहे हैं। एक बूढ़े ने हंसते हुए पेट के सही रहने की बात पर अधिक प्रकाश डाला और कहा—कब्ज से बचना नितान्त सरल है। भूख से कम खाया जाय तो न किसी को कब्ज रह सकता है और न इसके लिए चिकित्सक की शरण में जाना पड़ सकता है।
हेफकुक ने कहा—मैंने ईश्वर पर सच्चे मन से विश्वास किया है और माना है कि वह आड़े वक्त में जरूर सहायता करेगा। भावी जीवन के लिए निश्चिन्तता की स्थिति मुझे इसी आधार पर मिली है और शान्ति सन्तोष के दिन काटता हुआ लम्बी जिन्दगी की सड़क पर लुढ़कता पाया हूं। जेम्स हेनरी व्रेट का कथन है—वह एक धार्मिक व्यक्ति है। विश्वासों की दृष्टि से ही नहीं आचरण की दृष्टि से भी। धार्मिक मान्यताओं ने मुझे पाप पंक में गिरने का अवसर ही नहीं आने दिया। शायद सदुद्देश्य भरा क्रिया-कलाप ही दीर्घ जीवन का कारण हो।
पेट्रिस अपने भूतकाल की सुखद स्मृतियों को बड़े रस पूर्वक सुनाता था। साथ ही उस बात की उसे तनिक भी शिकायत नहीं थी कि अब वृद्धावस्था में वह सब क्यों तिरोहित हो गया। उसे इस बात का गर्व था कि उसका अतीत बहुत शानदार था वह कहता था—भला यह भी क्या कोई कम गर्व और कम सन्तोष की बात है? आज के अवसान की तुलना करके अतीत की सुखद कल्पनाओं को क्यों धूमिल किया जाय? हेन्स बेर्डे का कथन था उसने जिन्दगी भर आनन्द भोगा है। हर खटमिट्टी घटना से कुछ पाने और सीखने का प्रयत्न किया है। अनुकूलता का अपना आनन्द और प्रतिकूलता का दूसरा। मैंने दोनों प्रकार की स्थितियों का रस लेने को उत्साह रखा और आजीवन आनन्दी बन कर रहा।
दीर्घ-जीवियों में से अधिकांश वर्तमान स्थिति से सन्तुष्ट थे। वे मानते थे बुढ़ापा अनिवार्य है और मौत भी एक सुनिश्चित सचाई। फिर उनसे डरने का क्या प्रयोजन? जब समर्थता की स्थिति थी अब तो मन को स्थिति के अनुरूप ढाल कर संतोष के दिन क्यों न काटें।
इन में से सब लोग सदा निरोग रहे हों ऐसी बात नहीं, बीच-बीच में बीमारियां भी सताती रही हैं और दवादारू भी करनी पड़ी है, पर मानसिक बीमारियों ने उन्हें कभी त्रास नहीं दिया। लम्बी अवधि में उन्हें अपने स्त्री-बच्चों तक को दफनाना पड़ा, कितनों से तलाक ली और कितनों के बच्चे कृतघ्न थे, पर इन सब बातों का उन्होंने मन पर कोई गहरा प्रभाव पड़ने नहीं दिया और सोचते रहे जिंदगी में मिठास की तरह ही कडुआपन भी चलता है।
इन निष्कर्षों के आधार पर यही सिद्ध होता है कि हल्का-फुल्का—सीधा-सरल जीवनक्रम अपनाया जाय तो लम्बी आयुष्य सहज ही प्राप्त हो सकती है। प्रकृति नहीं चाहती कि मनुष्य बार-बार बीमार हो और जल्दी मर जाय। इसीलिए उसने मनुष्य शरीर को इतनी कुशलता से तैयार किया है कि वह छोटी-मोटी समस्याओं का स्वतः ही निराकरण कर ले। समस्या जटिल तब बनती है जबकि हम शरीर की उन स्वाभाविक विशेषताओं को नष्ट करने के लिए तुल जाते हैं।
वैसे यह कोई नहीं चाहता कि हम बार-बार बीमार पड़ते रहें और आधी अधूरी उम्र में ही चल बसें। परन्तु रहन सहन और आहार-विहार में बरती जाने वाली अनियमितता—किया जाने वाला असंयम इस अनपेक्षित स्थिति में ला पटकता है। अपनी असावधानी और लापरवाही ही रोज दुर्बलता को निमन्त्रित करती है। भले ही उनका स्वरूप सामान्य-सा दिखाई पड़े पर ‘नाविक के तीर’ की तरह गम्भीर और गहरे घाव उत्पन्न हो जाते हैं। किसी बड़े कारखाने को—जिसे तैयार करने में काफी समय और काफी श्रम लगा हो—नष्ट करना हो तो थोड़ी-सी लापरवाही में ही नष्ट किया जा सकता है। थोड़ी सी आग लगा कर उसे आसानी से नष्ट किया जा सकता है अथवा लापरवाही के कारण अपने आप उनका विनाश हो सकता है।
उपेक्षा और लापरवाही स्वास्थ्य की बर्बादी का प्रधान कारण है। इस कारण को ठीक किये बिना कोई व्यक्ति न तो अपने बिगड़े हुए स्वास्थ्य को सुधार सकता है और न स्वस्थ शरीर को देर तक सुरक्षित रख सकता है। उपेक्षा के गर्त में पड़ी हुई हर वस्तु नष्ट होती है, जिस चीज की भी साज संभाल न की जायगी वही कुछ दिन में बिगड़ने लगेगी और संभाल कर रखने पर वह जितने दिन जीवित रहती उसकी अपेक्षा लापरवाही का तिरस्कार सहकर कहीं जल्दी टूट-फूट जायगी। लोग अपने धन दौलत की चौकसी रखते हैं, खेती बाड़ी की, कोठी गोदाम की रखवाली का समुचित ध्यान रखते हैं, पर आरोग्य जैसी अमूल्य सम्पत्ति की ओर सर्वथा उपेक्षा धारण किये रहते हैं। ऐसी दशा में शरीर यदि दिन-दिन क्षीण होता चले तो उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।
शरीर एक मोटर के समान है। जिसमें अनेकों सूक्ष्म यन्त्र लगे हुए हैं। ड्राइवर यदि उन यन्त्रों के सम्बन्ध में सावधानी बरते और उन्हें ठीक तरह काम में ले तो वही मोटर देर तक चलती है। अनाड़ी ड्राइवर, जिसे तेज दौड़ाने का शौक हो पर इस बात का ध्यान नहीं हो कि क्या-क्या सावधानी बरतना आवश्यक है, वह मोटर को थोड़े ही दिनों में बर्बाद कर देगा। इंजन के कीमती पुर्जे अपने चलाने वाले से इस बात की अपेक्षा करते हैं कि उनकी क्षमता से अधिक भार न पड़ने दिया जाय। अत्याचार से हर चीज नष्ट होती है फिर वे बेचारे पुर्जे भी अपवाद क्यों हों? अनाड़ी ड्राइवर जिस प्रकार असावधानी के कारण कीमती मोटर को भी कुछ दिन में कूड़ा बना देता है ‘उसी प्रकार शरीर के साथ लापरवाही बरतने वाले, अत्याचार करने वाले लोग भी कमजोरी और बीमारी के शिकार होकर अकाल मृत्यु के मुख में चले जाते हैं। चतुर लोग जिस प्रकार पुरानी मोटर से भी बहुत दिन काम ले लेते हैं उसकी प्रकार शरीर के प्रति सावधानी बरतने वाले दुर्बल मनुष्य भी अपनी सामान्य शारीरिक स्थिति से भी बहुत दिन तक काम चलाते रहते हैं।
यह भी एक आश्चर्य की बात है कि इतना सक्षम, इतनी विशेषताओं से सम्पन्न शरीर मिलने पर भी मनुष्य ही बीमार पड़ते हैं। मनुष्य के अतिरिक्त कोई और प्राणी न बीमार पड़ता है और न ही रोग बीमारी से कराहता है। बुढ़ापे से संत्रस्त दुर्बलता से ग्रसित और बीमारी के पाश में जकड़ा हुआ कभी कोई जीव-जन्तु नहीं देखा जाता। समय आने पर मरते तो सभी हैं, पर मनुष्य की तरह सड़ते और कराहते रहने का कष्ट किसी को नहीं भुगतना पड़ता। मनुष्य ने प्राकृतिक मर्यादाओं का उल्लंघन करते रहने की जो ठानी है उसी के फलस्वरूप उसे नाना प्रकार के रोगों में ग्रसित होना पड़ता है। अपनी बुरी आदतें उसने अपने बन्धन में बंधे हुए जिन पशु पक्षियों को भी सिखा दी हैं, जिनको प्रकृति के विपरीत अनुपयुक्त आहार-विहार करने को विवश किया है, वे भी बीमार पड़ने लगे। सभ्यताभिमानी मनुष्य ने अपना ही स्वास्थ्य नहीं गंवाया है वरन् अपने आश्रय में आये हुए अन्य जीवों को भी ऐसी ही दुर्दशा की है।
प्रकृति के अनुकूल जब तक मनुष्य चलता रहा तब तक वह स्वस्थ और निरोग जीवन व्यतीत करता रहा। हमारे पूर्वज कई-कई सौ वर्षों तक जीवित रहते और इतने बलवान होते थे कि उनके शारीरिक पराक्रमों की गाथाएं सुनकर आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है। यह स्थिति दिन-दिन दुर्बल होती चली गई। इसका एक मात्र कारण यही रहा है कि सभ्यता की घुड़दौड़ में पड़कर कृत्रिमता को अपनाया गया और वह कृत्रिमता आहार-विहार में भी गहराई तक प्रवेश करती गई। शरीर के यन्त्र इसी ढंग से बने हुए हैं कि वे प्राकृतिक आहार-विहार के आधार पर ही ठीक प्रकार काम करते रह सकते हैं। उन पर बलात्कार किया जायगा तो फिर उन अंगों का असमर्थ और रुग्ण हो जाना स्वाभाविक है।
यह स्थिति प्रायः अनियमित और असंयत आहार-विहार, अव्यवस्थित दिन चर्या और विकृति मनःस्थिति के कारण ही उत्पन्न होती है। इन्हीं कारणों से स्वास्थ्य नष्ट होता है। स्वस्थ और सबल जीवन के लिए व्यक्ति को अपना आहार-विहार संयमित, सुव्यवस्थित तथा मनःस्थिति सुसंचालित रखना चाहिए।