
संयम साधें दीर्घायु पावें
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‘‘जीवो जीवस्य भोजनम्’’ इस उक्ति का अर्थ यह है कि जीव का जीवन सजीव आहार पर ही टिका रह सकता है। जीवन-तत्व से भरपूर भोजन ही हमें जीवनी-शक्ति देता है। जिस आहार का जीवन-तत्व नष्ट हो गया हो, वह कितना भी महंगा क्यों न हो, जीवनी-शक्ति की वृद्धि नहीं कर सकता।
मनुष्य के शारीरिक और मानसिक कष्टों में से आधे का कारण भोजन सम्बन्धी अज्ञान और असंयम है। अधिकांश लोगों ने भोजन का मुख्य सम्बन्ध स्वाद से जोड़ रखा है। फिर यह स्वाद-प्रियता भी स्वाभाविक नहीं रहने दी जाती। बाल्यावस्था से ही जीभ की सहज सामर्थ्य को निरन्तर विकृत किया जाता है। छोटा बच्चा तनिक-सी मिर्च का जिह्वा से स्पर्श होते ही तिलमिला उठता है, चीखने चिल्लाने लगता है, परन्तु धीरे-धीरे बड़ों के अनुकरण में वह भी इस पीड़ा को अपनी आवश्यकता बना बैठता है। यदि जीभ की प्रकृत शक्ति को विकृत न किया जाये, तो वह अपने उपयुक्त भोजन को पहचानने में समर्थ हो सकता है। पशुओं में यह शक्ति सुरक्षित रहती है और वे अखाद्य नहीं खाते। पालतू-पशुओं को तो मनुष्य ने अपनी ही तरह कृत्रिम बनाने की हर प्रकार की कोशिशें की हैं। किन्तु प्रकृति के अंचल में स्वतन्त्र विचरण करने वाले जीव बाहरी आघातों से ही आहत-पीड़ित होते हैं, खान-पान की किसी गड़बड़ी से वे कभी अस्वस्थ नहीं देखे जाते। इनका कारण उनकी स्वादेन्द्रिय की सहज शक्ति बनी रहना ही है।
एक बार जीभ स्वाद की गुलाम हो गई, तो उसकी शक्ति में ह्रास ही होता जाता है। तब लोग उसी स्वाद की आकांक्षा को तृप्त करने के लिए खाते हैं। जो पदार्थ घी, तेल, मिर्च, मसाले से भरपूर हों, जिनको देखते ही मुंह में लार भर-भर आयें, वही भोजन उत्तम मान लिया जाता है। इसके दूसरे सिरे पर ऐसे लोग होते हैं, जो मानते हैं कि भोजन का अर्थ पेट के खालीपन को भरना ही तो है। जब जो कुछ जैसा भी मिल जाये, पेट में डाल लो ताकि उसकी आग शान्त हो जाये।
दोनों ही दृष्टिकोण भ्रान्त एवं हानिकारक हैं। चटोरे लोग मिर्च-मसाले, शक्कर-गुड़, घी-तेल की भरमार से भोजन को भारी, दुष्पाच्य बना डालते और अपच की शिकायत करते घूमते हैं तो भोजन के प्रति उपेक्षा-भाव रखने वाले अपौष्टिक पदार्थों के प्रयोग से शक्ति व स्फूर्ति गंवाते जाते हैं।
मनुष्य को कोई भी क्रिया बिना समझे-बूझे नहीं करनी चाहिए। फिर भोजन तो एक महत्वपूर्ण क्रिया है। शरीर संचालन का वह आधार बनती है। वह अन्न-यज्ञ ही है। यज्ञाग्नि में अशुद्ध, अनुपयुक्त, निषिद्ध आहुति देने से हानि की ही सम्भावना रहती है। उसी प्रकार जठराग्नि में अखाद्य, अयुक्त आहार का हवि देने पर स्वास्थ्य और शक्ति को क्षति पहुंचेगी। अतः भोजन की क्रिया का महत्व समझकर भोज्य पदार्थों का चयन सतर्कता-पूर्वक करना चाहिए।
वर्तमान युग में कब्ज एक सार्वजनिक रोग हो गया है। अनुमान है कि अन्य सभी रोगों की जितनी दवाइयां बिकती हैं, उससे आठ गुनी केवल कब्ज रोग की औषधियां बेची जाती हैं। इसका कारण यही है कि आंतों के स्नायु और उनसे लगी रक्तवाहनियां गरिष्ठ तथा भारी भोजन बार-बार किये जाने पर उस बोझ को नहीं सम्भाल पातीं और उनकी कार्य-शक्ति शिथिल होने लगती हैं। वे पाचन-क्रिया ठीक से नहीं सम्पन्न कर पातीं और कब्ज रहने लगता है। इसीलिए आवश्यकता अधिक और महंगा खाने, घी-तेल से भरपूर भोजन की नहीं अपितु ऐसा भोजन करने की है, जिसमें जीवन-तत्व विद्यमान हों। महंगा और भारी खाना जीवन-तत्व से वंचित भी हो सकता है। यदि सफाई के प्रदर्शन के फेर में अन्नों के अधिकांश जीवन-तत्व नष्ट किये जा चुके हों, शाक-भाजी को डटकर खौलाया-पकाया गया हो और मिर्च-मसालों की जोरदार छौक मारी गई हो, तो उस भोजन में समय, श्रम और पैसा लगाने के बावजूद जीवन-तत्व बहुत कम ही रह गये होंगे तथा उससे लाभ होने वाला नहीं उल्टे हानि ही होगी। अतः आवश्यक यह है कि भोजन को जीवित रखा जाय, उसे अर्द्धमृत, विकारग्रस्त, निष्क्रिय न बना डाला जाये।
जीवन-तत्व प्रकृति के सान्निध्य में, सूर्य की किरणों के सम्पर्क में पनपते-फैलते हैं। इसलिए आहार के प्राकृतिक स्वरूप को जितना सुरक्षित रखा जायगा, उसमें जीवन तत्व उतने ही सुरक्षित रहे आयेंगे। यह सही है कि पाक-क्रिया भी मानवीय भोजन का एक अनिवार्य अंग बन चुकी है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि पकाते समय भी इस तथ्य को ध्यान में रखा जाय कि आहार के प्राकृतिक स्वरूप को पूरी तरह नष्ट नहीं कर डालना है। साथ ही भोजन का एक अच्छा अंश कच्चे रूप में ही लेने की आदत डालनी चाहिए।
अन्न पाक-क्रिया के उपरान्त ही ग्रहण किया जाता है। किन्तु थोड़ा अन्न नियमित रूप से कच्चे रूप में लेना चाहिए। इसके दो उपाय हैं—पहला जो अन्न दूधिया, हरे, कच्चे रूप में भी लिये जा सकते हैं, उन्हें उस रूप में भी अवश्य लिया जाय। दूसरा, सूखे अन्न को भी हरा, जीवन्त बना डाला जाये।
हरे, कच्चे अन्न में जीवन-तत्त्व प्रचुरता से होता है। गांवों में लोग सदा गेहूं, जौ की बालें, मक्के-ज्वार के भुट्टे चने आदि हरे रहने पर ही कच्चे या भूनकर खाते हैं। उनका स्वाद भी इस रूप में अलग ही होता है। ग्रामीण लोगों का स्वास्थ्य शहर की तुलना में अच्छा होता है। जिन्हें अतिशय गरीबी में जीना पड़ रहा है तथा बेकारी के कारण मजदूरी भी नहीं मिलती, वे ग्रामीण दलित जन तो अपोषण और भुखमरी की स्थिति में जीने को विवश हैं। उनकी बात भिन्न है। किन्तु शहरी मध्यवर्ग के लोगों से ग्रामीण मध्यवर्गीय लोगों का स्वास्थ्य बहुत अच्छा होने का कारण आहार को प्राकृतिक रूप में ग्रहण करने का उनका यह अभ्यास ही है। इस हरे अन्न के साथ ही वे लोग भिगोया अन्न भी कच्चे रूप में नित्य ग्रहण करते हैं।
शहरों में भी फसल के समय गेहूं की बालें, मक्का-ज्वार के भुट्टे, हरे चने आदि बाजार में बिकने आते रहते हैं। उनका प्रयोग किया जाना चाहिए। सूखे अन्न को यदि एक-एक भिगोकर रख दिया जाय और दूसरे दिन एक पोटली में गीले कपड़े से बांधकर उस पर पानी के छींटे मारते रहा जाय ताकि वह सूखे नहीं, तो तीसरे या चौथे दिन वह अंकुरित हो जाता है। तब उसमें भी हरे अन्न का ही गुण आ जाता है। उबालकर खाये गये अन्न भी रोटी या अन्य व्यंजन रूप में खाये जाने की तुलना में अधिक लाभकारी होते हैं। चावल को धान की भूसी या खोल से अलग करने पर वह जिस रूप में उपलब्ध होता है, उसमें एक लाल परत रहती है। उस लाल परत समेत ही चावल खाना चाहिए उस परत को हटाकर फिर पालिश कर जो चमचमाता चावल बाजार में बिकता है, उसके अनेक पोषक-तत्व नष्ट हो चुके होते हैं।
मनुष्य के शारीरिक और मानसिक कष्टों में से आधे का कारण भोजन सम्बन्धी अज्ञान और असंयम है। अधिकांश लोगों ने भोजन का मुख्य सम्बन्ध स्वाद से जोड़ रखा है। फिर यह स्वाद-प्रियता भी स्वाभाविक नहीं रहने दी जाती। बाल्यावस्था से ही जीभ की सहज सामर्थ्य को निरन्तर विकृत किया जाता है। छोटा बच्चा तनिक-सी मिर्च का जिह्वा से स्पर्श होते ही तिलमिला उठता है, चीखने चिल्लाने लगता है, परन्तु धीरे-धीरे बड़ों के अनुकरण में वह भी इस पीड़ा को अपनी आवश्यकता बना बैठता है। यदि जीभ की प्रकृत शक्ति को विकृत न किया जाये, तो वह अपने उपयुक्त भोजन को पहचानने में समर्थ हो सकता है। पशुओं में यह शक्ति सुरक्षित रहती है और वे अखाद्य नहीं खाते। पालतू-पशुओं को तो मनुष्य ने अपनी ही तरह कृत्रिम बनाने की हर प्रकार की कोशिशें की हैं। किन्तु प्रकृति के अंचल में स्वतन्त्र विचरण करने वाले जीव बाहरी आघातों से ही आहत-पीड़ित होते हैं, खान-पान की किसी गड़बड़ी से वे कभी अस्वस्थ नहीं देखे जाते। इनका कारण उनकी स्वादेन्द्रिय की सहज शक्ति बनी रहना ही है।
एक बार जीभ स्वाद की गुलाम हो गई, तो उसकी शक्ति में ह्रास ही होता जाता है। तब लोग उसी स्वाद की आकांक्षा को तृप्त करने के लिए खाते हैं। जो पदार्थ घी, तेल, मिर्च, मसाले से भरपूर हों, जिनको देखते ही मुंह में लार भर-भर आयें, वही भोजन उत्तम मान लिया जाता है। इसके दूसरे सिरे पर ऐसे लोग होते हैं, जो मानते हैं कि भोजन का अर्थ पेट के खालीपन को भरना ही तो है। जब जो कुछ जैसा भी मिल जाये, पेट में डाल लो ताकि उसकी आग शान्त हो जाये।
दोनों ही दृष्टिकोण भ्रान्त एवं हानिकारक हैं। चटोरे लोग मिर्च-मसाले, शक्कर-गुड़, घी-तेल की भरमार से भोजन को भारी, दुष्पाच्य बना डालते और अपच की शिकायत करते घूमते हैं तो भोजन के प्रति उपेक्षा-भाव रखने वाले अपौष्टिक पदार्थों के प्रयोग से शक्ति व स्फूर्ति गंवाते जाते हैं।
मनुष्य को कोई भी क्रिया बिना समझे-बूझे नहीं करनी चाहिए। फिर भोजन तो एक महत्वपूर्ण क्रिया है। शरीर संचालन का वह आधार बनती है। वह अन्न-यज्ञ ही है। यज्ञाग्नि में अशुद्ध, अनुपयुक्त, निषिद्ध आहुति देने से हानि की ही सम्भावना रहती है। उसी प्रकार जठराग्नि में अखाद्य, अयुक्त आहार का हवि देने पर स्वास्थ्य और शक्ति को क्षति पहुंचेगी। अतः भोजन की क्रिया का महत्व समझकर भोज्य पदार्थों का चयन सतर्कता-पूर्वक करना चाहिए।
वर्तमान युग में कब्ज एक सार्वजनिक रोग हो गया है। अनुमान है कि अन्य सभी रोगों की जितनी दवाइयां बिकती हैं, उससे आठ गुनी केवल कब्ज रोग की औषधियां बेची जाती हैं। इसका कारण यही है कि आंतों के स्नायु और उनसे लगी रक्तवाहनियां गरिष्ठ तथा भारी भोजन बार-बार किये जाने पर उस बोझ को नहीं सम्भाल पातीं और उनकी कार्य-शक्ति शिथिल होने लगती हैं। वे पाचन-क्रिया ठीक से नहीं सम्पन्न कर पातीं और कब्ज रहने लगता है। इसीलिए आवश्यकता अधिक और महंगा खाने, घी-तेल से भरपूर भोजन की नहीं अपितु ऐसा भोजन करने की है, जिसमें जीवन-तत्व विद्यमान हों। महंगा और भारी खाना जीवन-तत्व से वंचित भी हो सकता है। यदि सफाई के प्रदर्शन के फेर में अन्नों के अधिकांश जीवन-तत्व नष्ट किये जा चुके हों, शाक-भाजी को डटकर खौलाया-पकाया गया हो और मिर्च-मसालों की जोरदार छौक मारी गई हो, तो उस भोजन में समय, श्रम और पैसा लगाने के बावजूद जीवन-तत्व बहुत कम ही रह गये होंगे तथा उससे लाभ होने वाला नहीं उल्टे हानि ही होगी। अतः आवश्यक यह है कि भोजन को जीवित रखा जाय, उसे अर्द्धमृत, विकारग्रस्त, निष्क्रिय न बना डाला जाये।
जीवन-तत्व प्रकृति के सान्निध्य में, सूर्य की किरणों के सम्पर्क में पनपते-फैलते हैं। इसलिए आहार के प्राकृतिक स्वरूप को जितना सुरक्षित रखा जायगा, उसमें जीवन तत्व उतने ही सुरक्षित रहे आयेंगे। यह सही है कि पाक-क्रिया भी मानवीय भोजन का एक अनिवार्य अंग बन चुकी है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि पकाते समय भी इस तथ्य को ध्यान में रखा जाय कि आहार के प्राकृतिक स्वरूप को पूरी तरह नष्ट नहीं कर डालना है। साथ ही भोजन का एक अच्छा अंश कच्चे रूप में ही लेने की आदत डालनी चाहिए।
अन्न पाक-क्रिया के उपरान्त ही ग्रहण किया जाता है। किन्तु थोड़ा अन्न नियमित रूप से कच्चे रूप में लेना चाहिए। इसके दो उपाय हैं—पहला जो अन्न दूधिया, हरे, कच्चे रूप में भी लिये जा सकते हैं, उन्हें उस रूप में भी अवश्य लिया जाय। दूसरा, सूखे अन्न को भी हरा, जीवन्त बना डाला जाये।
हरे, कच्चे अन्न में जीवन-तत्त्व प्रचुरता से होता है। गांवों में लोग सदा गेहूं, जौ की बालें, मक्के-ज्वार के भुट्टे चने आदि हरे रहने पर ही कच्चे या भूनकर खाते हैं। उनका स्वाद भी इस रूप में अलग ही होता है। ग्रामीण लोगों का स्वास्थ्य शहर की तुलना में अच्छा होता है। जिन्हें अतिशय गरीबी में जीना पड़ रहा है तथा बेकारी के कारण मजदूरी भी नहीं मिलती, वे ग्रामीण दलित जन तो अपोषण और भुखमरी की स्थिति में जीने को विवश हैं। उनकी बात भिन्न है। किन्तु शहरी मध्यवर्ग के लोगों से ग्रामीण मध्यवर्गीय लोगों का स्वास्थ्य बहुत अच्छा होने का कारण आहार को प्राकृतिक रूप में ग्रहण करने का उनका यह अभ्यास ही है। इस हरे अन्न के साथ ही वे लोग भिगोया अन्न भी कच्चे रूप में नित्य ग्रहण करते हैं।
शहरों में भी फसल के समय गेहूं की बालें, मक्का-ज्वार के भुट्टे, हरे चने आदि बाजार में बिकने आते रहते हैं। उनका प्रयोग किया जाना चाहिए। सूखे अन्न को यदि एक-एक भिगोकर रख दिया जाय और दूसरे दिन एक पोटली में गीले कपड़े से बांधकर उस पर पानी के छींटे मारते रहा जाय ताकि वह सूखे नहीं, तो तीसरे या चौथे दिन वह अंकुरित हो जाता है। तब उसमें भी हरे अन्न का ही गुण आ जाता है। उबालकर खाये गये अन्न भी रोटी या अन्य व्यंजन रूप में खाये जाने की तुलना में अधिक लाभकारी होते हैं। चावल को धान की भूसी या खोल से अलग करने पर वह जिस रूप में उपलब्ध होता है, उसमें एक लाल परत रहती है। उस लाल परत समेत ही चावल खाना चाहिए उस परत को हटाकर फिर पालिश कर जो चमचमाता चावल बाजार में बिकता है, उसके अनेक पोषक-तत्व नष्ट हो चुके होते हैं।